B.Com 1st Year Business Environment Hindi Long Notes

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प्रश्न – विश्व व्यापार संगठन से भारत को प्राप्त होने वाले लाभों का वर्णन कीजिए तथा इसके दुष्परिणामों को भी स्पष्ट कीजिए।

Describe the benefits available to India from WTO. Also state the bad impacts of WTO. 

अथवा विश्व व्यापार संगठन एवं भारत पर एक विस्तृत लेख लिखिए।

Write a detailed note on WTO and India. 

उत्तर – विश्व व्यापार संगठन और भारत

(World Trade Organization and India

भारत 1947 में स्थापित गैट तथा 1995 में स्थापित विश्व व्यापार संगठन का संस्थापक सदस्य रहा है। विश्व व्यापार संगठन में भारत की भूमिका अत्यधिक सक्रिय एवं प्रभावी सदस्य राष्ट्र की रही है। विश्व व्यापार संगठन ने अपनी स्थापना के पश्चात् सर्वप्रथम भारत की व्यापार नीति का पुनर्निरीक्षण अप्रैल 1998 में करवाया, जिसमें भारत की अत्यधिक प्रशंसा की गई थी।

भारत को विश्व व्यापार संगठन से सम्भावित लाभ

(Advantages to India from WTO) 

1. विवादों का निपटारा (Settlement of Disputes) – विश्व व्यापार संगठन के सदस्य के नाते भारत वस्तुओं तथा सेवा के व्यापार तथा इनसे सम्बन्धित विवादों के निपटारे हेत संगठन में शिकायत दर्ज करवा सकता है और वहाँ अपना पक्ष प्रभावी ढंग से रखकर उनका उपयुक्त समाधान निकलवा सकता है।

2. निर्यातों में वृद्धि (Increase in Exports) – विश्व व्यापार संगठन के सदस्य होने के कारण भारत के निर्यातों में प्रतिवर्ष 150 से 200 करोड़ डॉलर के समकक्ष वृद्धि होने की आशा है। अमेरिका तथा यूरोपीय समुदाय के देशों में वस्त्रों तथा पोशाकों का निर्यात किए जाने से देश की निर्यात आय में तेजी से वृद्धि होगी।

3. विचार-विमर्श के लिए उपयुक्त मंच (Common Plateform for Consultancy)-वस्तुओं और सेवाओं के व्यापार से सम्बन्धित मुद्दों पर विचार-विमर्श कर उपयुक्त समाधान के लिए देश को एक अन्तर्राष्ट्रीय साझा मंच मिल सकता है, जहाँ वह अपना पक्ष प्रभावी ढंग से रख सकता है।

4. अच्छी बाजार पहुँच (Better Market Access)-विश्व व्यापार संगठन के कारण भारत को अपने माल को बेचने के लिए विकसित राष्ट्रों के बाजार भी मिल जाएंगे। इसके अलावा तटकरों में कमी, कृषि पदार्थों पर आर्थिक सहायता में कमी से भारत की प्रतिस्पर्धात्मक शक्ति में सुधार सम्भव हो सकेगा। इन सबके फलस्वरूप भारत की विश्व बाजार में पहुंच पहले से अधिक अच्छी और विस्तृत हो सकेगी।

5. सस्ती वस्तुओं की उपलब्धता (Availability of Cheaper Goods)उपभोक्ताओं को विदेशी सस्ती और अच्छी वस्तुओं के उपयोग का सुअवसर हाथ लगेगा, जिससे उनके जीवन-स्तर में सुधार होगा।

6. विदेशी पूँजी निवेशों में वृद्धि (Increase in Foreign Capital Investment)-विश्व व्यापार संगठन की सदस्यता के फलस्वरूप भारत में विदेशी पूंजी निवेश में भारी वृद्धि का मार्ग प्रशस्त होगा, जिससे अर्थव्यवस्था का त्वरित विकास हो सकेगा। संगठन की स्थापना के पश्चात् भारत में विदेशी पूँजी निवेश में लगातार वृद्धि की प्रवृत्ति परिलक्षित हुई।

7. उन्नत प्रौद्योगिकी का उपयोग सम्भव (Use of Better Technology Possible)-मुक्त व्यापार व्यवस्था और व्यापारिक प्रतिबन्धों में कमी के फलस्वरूप विदेशी पूँजी निवेश के साथ-साथ देश में उन्नत प्रौद्योगिकी भी आएगी, जिससे उसके उपयोग के कारण • देश के उत्पादन एवं उत्पादकता में सुधार होगा।

8. विदेशी विनिमय कोषों में वृद्धि (Increase in Foreign Exchange Reserves)-विश्व व्यापार संगठन के कारण देश में वस्तुओं और सेवाओं के निर्यात में वृद्धि होने के कारण निर्यात आय तथा विदेशी विनिमय कोषों में आशातीत वृद्धि हो सकेगी जिससे व्यापार असन्तुलन को कम अथवा समाप्त करने में मदद मिलेगी।

भारत को विश्व व्यापार संगठन से सम्भावित हानियाँ/खतरे 

(Possible Disadvantages/Dangers to India from WTO)

भारत को विश्व व्यापार संगठन की सदस्यता से अनेक लाभ प्राप्त होने की आशा है, लेकिन इससे देश को कुछ हानि होने की भी आशंका है। भारत को इस संगठन से निम्नलिखित हानियाँ हो सकती हैं

1. कड़ी प्रतिस्पर्द्धा का भय (Fear of Stiff Competition)-मुक्त व्यापार नीति तथा विदेशी वस्तुओं पर प्रतिबन्ध के अभाव में भारतीय औद्योगिक जगत को विकसित राष्ट्रों का बहराष्टीय कम्पनियों से कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ेगा। इससे भारतीय उद्योगों का या तो बाजार से हटना पड़ेगा अथवा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के साथ संविलयन करना होगा। इसस स्वदेशी उद्यम और तकनीक के विकास को भारी धक्का लगेगा।

2. स्वदेशी के विचार को धक्का (Set Back to the Concepto Swadeshi)-विश्व व्यापार संगठन की निर्बन्ध व्यापार नीति और तटकरों में कमी के कारण भारतीय बाजार अच्छी और सस्ती विदेशी वस्तुओं से पट जाएगा जिससे स्वदेशी उद्यम तकनीक के विकास को भारी धक्का लगेगा।

3. गैर-व्यापार सामाजिक मुद्दों के नाम पर शोषण (Exploitation in the Name of Non-Trade Social Issue)-मानवाधिकार, श्रम मानक, बाल-श्रम तथा मजदरी भूगतान जैसे सामाजिक मुद्दों की आड़ में भारत के निर्यातों को रोकने की विकसित देश निरन्तर साजिश करते रहते हैं। पर्यावरण के मुद्दों को आधार बनाकर ये राष्ट्र भारत को अपनी प्रौद्योगिकी ऊँचे दामों पर खरीदने के लिए विवश कर रहे हैं।

4. आयातों में भारी वृद्धि (Heavy Increase in Imports)-संगठन की सदस्यता के कारण भारतीय बाजार विदेशी वस्तुओं के लिए खुले रखने की विवशता होगी। ऐसी स्थिति में देश के आयातों में भारी वृद्धि होगी क्योंकि राष्ट्रों की वस्तुएँ भारतीय वस्तुओं से सस्ती और अच्छी होने के कारण अधिक आयात की जाने लगेगी। इस प्रकार देशी-विदेशी वस्तुओं के लिए डम्पिंग ग्राउन्ड (Dumping Ground) बन जाएगा, जिससे स्वदेशी उद्योगों का पतन होने लगेगा।

5. आन्तरिक आर्थिक नीतियों के निर्धारण में स्वतन्त्रता का अभाव (Lack of Freedom in Determining Internal Economic Policies)-विश्व व्यापार संगठन की सदस्यता के फलस्वरूप भारत को अपनी आर्थिक नीतियों को वैश्विक आर्थिक नीतियों के साथ एकीकरण करने की दृष्टि से समायोजित करना पड़ेगा, जिससे वह राष्ट्र-हितों के अनुरूप स्वतन्त्र आर्थिक नीतियों का निर्धारण और अनुपालन नहीं कर सकेगा। यह एक प्रकार से . अप्रत्यक्ष रूप से घरेलू नीतियों के निर्धारण में हस्तक्षेप ही माना जा सकता है।

6. आर्थिक सहायता में कमी करना (Reduction of Subsidies)-विश्व व्यापार संगठन के प्रावधानों के अनुसार भारत को कृषि एवं अन्य क्षेत्रों में सरकार द्वारा दी जाने वाली आर्थिक सहायता में कटौती करनी होगी जिससे एक तरफ देश में आन्तरिक मूल्य-स्तर बढ़ेगा और दूसरी तरफ देश की व्यापारिक प्रतिस्पर्धात्मक शक्ति में कमी भी होगी। इससे भुगतान असन्तुलन और विदेशी विनिमय का संकट बढ़ सकता है।

7. रॉयल्टी भुगतान का भार (Burden of Royalty Payment)-व्यापार सम्बन्धी बौद्धिक सम्पदा अधिकारों (TRIPs) की योजना के क्रियान्वयन के कारण भारत को कॉपीराइट, ट्रेडमार्क, पेटेन्ट राइट आदि के उपयोग के लिए भारी रॉयल्टी का भुगतान करना पड़ेगा जिससे विदेशी विनिमय कोषों का बहिर्गमन होगा।

8. खाद्यान्नों के आयात की अनिवार्यता (Compulsion of Food Grains Import)-विश्व व्यापार संगठन समझौते के अनुरूप भारत को भी खाद्यान्नों में आत्मनिर्भरता के बावजूद इनका अनिवार्य रूप से आयात करना पड़ेगा, जिससे भारत में अनेक मूल्यों में गिरावट आएगी और कृषि विकास के प्रयलों को धक्का लगेगा।

9.विदेशी कम्पनियों के आधिपत्य का भय (Fear of Dominance of Foreign Companies)-विश्व व्यापार संगठन की व्यवस्थाओं के कारण भारत को सेवा क्षेत्र में विदेशी कम्पनियों को प्रवेश की अनुमति देनी होगी, जिससे बैंकिंग, बीमा, संचार, परामर्श सेवा, पर्यटन आदि क्षेत्रों में इन कम्पनियों का वर्चस्व कायम हो जाएगा।

प्रश्न  सामाजिक अन्याय से आप क्या समझते हैं

सामाजिक अन्याय से जडी समस्याओं पर प्रकाश डालिए तथा इन्हें दूर करने के उपाय भी बताइए।

What do you mean by Social Injustice ? 

Elucidate the problems associated with social injustice and also explain the measures to remove them. 

उत्तर – सामाजिक अन्याय से आशय

(Meaning of Social Injustice) 

सामाजिक अन्याय से आशय समाज के विभिन्न वर्गों के साथ किए जाने वाले अन्याय से है। सामाजिक अन्याय अल्पकालीन या दीर्घकालीन दोनों ही प्रकार का हो सकता है। दीर्घकालीन सामाजिक अन्याय काफी घातक होता है जिसका प्रभाव कई सदियों तक बना रहता है।

किसी राष्ट्र के आर्थिक विकास में सबसे बड़ी बाधा ‘सामाजिक अन्याय’ है। अब यह समस्या अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की हो चुकी है। शायद ही कोई ऐसा राष्ट्र होगा जिसमें कुछ-न-कुछ मात्रा में सामाजिक अन्याय न होता हो। विभिन्न अध्ययन यह बताते हैं कि विकसित देशों की तुलना में विकासशील देशों में सामाजिक अन्याय की समस्या अधिक गम्भीर है। अशिक्षा, रूढ़िवादिता, अन्धविश्वास, आर्थिक साधनों की कमी व ऐसे ही अनेक कारण विकासशील देशों में सामाजिक अन्याय को दूर करने में बाधक हैं। यदि कोई राष्ट्र अपने नागरिकों को सामाजिक न्याय दिलाने में असमर्थ होता है तो उस राष्ट्र के आर्थिक विकास के सभी आयाम अधूरे ही रहेंगे।

सामाजिक न्याय से जुड़ी समस्याएँ 

(Problems associated with Social Injustice) 

सामाजिक अन्याय के अन्तर्गत निम्नलिखित समस्याओं को शामिल किया जाता है-

(1) अनूसूचित जातियों की समस्या तथा अस्पृश्यता; 

(2) अनुसूचित जनजातियों के साथ सामाजिक अन्याय; 

(3) जाति प्रथा तथा सामाजिक अन्याय;

(4) कमजोर वर्गों पर होने वाला अत्याचार; 

(5) स्त्रियों के साथ अत्याचार।

1. अनुसूचित जातियों की समस्या तथा अस्पृश्यता (Problem of Scheduled Castes and Untouchability)-यद्यपि अनुसूचित जातियों के उत्थान के लिए सरकारा नौकरियों तथा शिक्षा में आरक्षण दिया गया है, तथापि ये जातियाँ अभी भी काफी पिछड़ा हुई हैं तथा देश की मुख्य धारा से जुड़ने के लिए प्रयासरत हैं। वर्ष 1987-88 में इन जातिया का लगभग 44.7% भाग गरीबी रेखा से नीचे था, जबकि कुल जनसंख्या में निर्धनों का भाग केवल 33.4% था। इन जातियों के अधिकतर लोगों पर कोई भू-स्वामित्व नहीं है। इन जातिका के लोगों में जहाँ एक ओर काफी आई०ए०एस० अधिकारी तथा अध्यापक आदि हैं तो दूसरी

ओर भमिहीन मजदूर एवं असंगठित श्रमिक भी हैं। साक्षरता में इनकी संख्या काफी कम है। ग्रामीण क्षेत्रों में ये अस्पृश्यता के शिकार हैं। अस्पृश्यता किसी भी सभ्य समाज के लिए कलंक-रूप में होती है। यह मानव अधिकारों का हनन है। यह अस्पृश्यता की भावना पूरे भारतवर्ष में फैली हुई है।

2. अनुसूचित जनजातियों के साथ सामाजिक अन्याय (Social Injustice with Schedule Tribes)-अनुसूचित जनजातियों के लोग मुख्य रूप से आदिवासी इलाकों, पहाड़ों, जंगलों में निवास करते हैं। उनके सामाजिक रीति-रिवाज भी सामान्य जातियों के रीति-रिवाजों से काफी अलग हैं। ये खेती, पशुपालन तथा आखेट करने में संलग्न रहते हैं। देश की कुल जनसंख्या में इनका हिस्सा लगभग 8% है। सबसे पहले इनका शोषण इनसे इनकी खेती की भूमि औने-पौने दामों में लेकर किया गया। जब इन लोगों के हाथों से भूमि निकल गई तो विवश होकर इन्हें मजदूरी करने के लिए बाध्य होना पड़ा। अत: भूस्वामी होने के बावजूद ज्यादातर अनुसूचित जनजाति के लोग भूमिहीन श्रमिक हो गए। इन जातियों में शिक्षा का भी काफी अभाव है। 1991 ई० में इनकी साक्षरता दर 29.69% थी जबकि उस समय शेष जनेता, की साक्षरता दर 52.21% रही। इस प्रकार अनुसूचित जनजातियों एवं सामान्य जातियों में साक्षरता के आधार पर करीब 23% का अन्तर था। वर्ष 1987-88 में जनजातियों के लगभग 52-6% लोग निर्धन थे, जबकि कुल जनसंख्या में निर्धनों की संख्या 33.4% थी। निर्धनता, अज्ञानता, बेरोजगारी के कारण इनको बँधुआ मजदूर के रूप में भी रखा जाता है। वे लोग, जो इन्हें बँधुआ मजदूरों के रूप में रखते हैं, इनको बहुत प्रताड़ित करते हैं। इनकी महिलाओं से बर्तन-झाड़ का काम लिया जाता है तथा उनको मानसिक रूप से प्रताड़ित करने के साथ-साथ इनका शारीरिक शोषण भी किया जाता है। असंगठित होने की वजह से युगों से इनका इसी प्रकार शोषण होता आ रहा है।

3. जाति प्रथा तथा सामाजिक अन्याय (Caste System and Social Injustice)-भारतवर्ष में हिन्दू धर्म के अन्तर्गत अनेक जातियाँ हैं। जाति से आशय एक ऐसे समूह से है जिसकी सदस्यता का निर्धारण जन्म से होता है। आज जाति प्रथा सामाजिक अन्याय का एक कारण बन गई है क्योंकि इसने समाज की एकरूपता या समरूपता को भंग कर दिया है। एक जाति के लोगों का खान-पान, शादी-विवाह, आना-जाना, मेल-मिलाप आदि सभी कार्य अपनी ही जाति के लोगों के साथ होते हैं। आज प्रत्येक जाति एक द्वीप बन गई है, जिसका दूसरी जाति के साथ अधिक सम्बन्ध नहीं बन पाता है। शहरों की तुलना में गाँवों में जाति प्रथा की कठोरता ज्यादा भयंकर है।

जाति प्रथा से संलग्न सामाजिक अन्याय तब अधिक उभरकर सामने आता है जब ‘ऊँची जाति के लोगों के सामने अथवा साथ में ‘छोटी जाति के लोगों को उठने-बैठने भी नहीं दिया जाता तथा न ही उन्हें उच्च जाति में शादी-विवाह करने की इजाजत समाज द्वारा दी जाती है। शिक्षा प्राप्ति में भी उनके साथ भेदभाव किया जाता है। निम्न जातियों को उच्च

जातियों द्वारा हीन दृष्टि से देखा जाता है। उन्हें उच्च जातियों के कुएँ से पानी भरने की इजाजत न देना या मन्दिर में पूजा करने की इजाजत न देना भी सामाजिक अन्याय के ही प्रमाण हैं। परिणामस्वरूप सामाजिक गतिशीलता कम हो जाती है तथा देश के आर्थिक विकास में भी बाधा आती है।

जाति प्रथा द्वारा सामाजिक अन्याय का एक जीता-जागता उदाहरण यहाँ की कुछ जातियों; खासकर ‘दलितों व ‘हरिजनों को घृणा की दृष्टि से देखा जाना है। यद्यपि आज हमें स्वतन्त्रता प्राप्त हुए लगभग 69 वर्ष हो गए, लेकिन इस ‘अस्पृश्यता’ रूपी दानव का खात्मा नहीं हो पाया है। अभी भी लोगों की मानसिकता में बदलाव आना बाकी है। यद्यपि अब अस्पृश्यता-प्रतिशत में काफी कमी आयी है तथा लोगों की मानसिकता में धीरे-धीरे परिवर्तन आ. रहा है।

4. कमजोर वर्गों पर होने वाला अत्याचार (Atrocity on Weaker Sections)-कमजोर वर्ग से आशय ऐसे वर्गों से है जिनमें लोग दाय-वंचित (Disinherited) हैं। इस वर्ग में अनुसूचित जनजाति के कृषि श्रमिक, बँधुआ मजदूर, वनवासी, मछुआरे, असंगठित मजदूर, सफाई कर्मचारी तथा इन्हीं वर्गों की महिलाओं, बच्चों इत्यादि को शामिल किया गया है।

इन वर्गों पर तरह-तरह के अत्याचार किए जाते रहे हैं। इन वर्गों को सामाजिक असमानता तथा अन्याय का सामना करना पड़ता है। इन्हें राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की मुख्य धारा से पीछे धकेल दिया जाता है। इतना ही नहीं, इन्हें राजनीतिक, शैक्षणिक एवं आर्थिक रूप से भी पीछे धकेला जाता रहा है। ये समाज के सबसे अधिक तिरस्कृत वर्ग माने जाते हैं। इस वर्ग में आने वाले व्यक्तियों का बहुत प्रताड़न एवं शोषण किया गया है।

5. स्त्रियों के साथ अत्याचार (Atrocity on Women)-यद्यपि अब पुरानी धारणाएँ बदल रही हैं तथा लोगों की मानसिकता में काफी परिवर्तन देखे जा सकते हैं, तथापि शहरों एवं गाँवों में लोगों के द्वारा महिलाओं पर फब्तियाँ कसना, बलात्कार की घटनाएँ, कामकाजी व घरेलू महिलाओं का यौन शोषण, नववधुओं की दहेज न मिलने के कारण हत्या प्रतिबिम्बित करती हैं।

सदियों से स्त्रियों को भोग-विलास की वस्तु के रूप में देखा गया है। आज भी विज्ञापनों में महिलाओं को उत्तेजक व अश्लील ढंग से प्रस्तुत करके वास्तव में उनका दैहिक शोषण हा किया जा रहा है।

लड़की का जब जन्म होता है तो दादा-दादी का चेहरा उदास हो जाता है। वे लड़का का एक भार के रूप में समझते हैं। कुछ दशा में जैसे–अल्टा साउण्ड विधि से यह ज्ञात हात पर कि गर्भ में लड़की है तो उसकी भ्रूणावस्था में ही हत्या कर दी जाती है। इसका परिवारों में लड़कियों के पोषण पर भी कम ध्यान दिया जाता है। स्त्रियों को घर में शा-पा तरह सजाकर तथा पर्दे में रखा जाता है। रोजगार के क्षेत्र में भी स्त्रियों के प्रति भेदभाव का अपनायी जाती है।

सामाजिक अन्याय को समाप्त करने हेतु उपाय

(Measures to eradicate Social Injustice) 

देश से सामाजिक अन्याय की समाप्ति हेतु अपनाए गए प्रमुख उपाय इस प्रकार हैं-

(अ) सरकारी तथा कानूनी उपाय

(Governmental and Legal Measures)

1. अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों का उत्थान – इनके उत्थान एवं विकास के लिए सरकार ने अक्टूबर 1999 ई० में एक पृथक जनजातीय कार्य मन्त्रालय’ का गठन किया है। देश में अब 194 समन्वित जनजातीय विकास परियोजनाएं चलाई जा रही हैं। 14 राज्यों में अनुसूचित जनजातियों की महिलाओं के 10 प्रतिशत से कम साक्षरता वाले 134 जिलों में यह कार्यक्रम चलाया जा रहा है। इसके अन्तर्गत पाँचवीं कक्षा तक की लड़कियों के लिए आवासीय विद्यालयों की स्थापना की गई है।

जनजातियों के लोगों को व्यापारियों के शोषण से बचाने तथा उन्हें छिटपुट वन-उत्पादों और अपनी जरूरत से अधिक कृषि उपज के लाभप्रद मूल्य दिलाने के लिए सरकार द्वारा 1987 ई० में ‘भारतीय जनजातीय सहकारी विपणन विकास परिसंघ’ (ट्राइफेड) का गठन किया गया है।

वर्ष 2002-03 में आदिवासी महिला सशक्तिकरण योजना शुरू की गई थी। इसमें अनुसूचित जनजाति की अत्यन्त गरीब महिलाओं को कोई काम-धन्धा शुरू कराने के लिए 4% प्रतिवर्ष ब्याज की दर से ₹ 50,000 तक का ऋण दिया गया ताकि लाभ पाने वाली महिलाएं अपनी आय बढ़ा सकें। इस योजना से बड़ी मात्रा में गरीबी की रेखा से नीचे आने वाले अनुसूचित जनजाति के परिवारों को लाभ हुआ।

भारत सरकार द्वारा इन जातियों को सामाजिक न्याय प्रदान करने के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य पेयजल एवं साफ-सफाई की सुविधाओं को उपलब्ध कराने तथा इनका विकास करने पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है।

राज्यों के जनजातीय विकास के प्रयासों को बढ़ावा देने के लिए विशेष केन्द्रीय सहायता दी जाती है। यह सहायता मुख्यतया परिवार आधारित आमदनी योजनाओं के लिए और कषि बागवानी, लघु सिंचाई, मृदा संरक्षण, पशुपालन, वानिकी, शिक्षा, सहकारी संगठन, मत्स्य-पालन, ग्रामीण वानिकी, कुटीर तथा लघु उद्योग जैसे क्षेत्रों में और न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम के लिए दी जाती है।

2. पिछड़े वर्ग के उत्थान के लिए योजनाएँ – पिछड़े वर्ग के उत्थान के लिए कई कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं; जैसे-

(i) विभिन्न प्रतियोगी/प्रवेश परीक्षा में सफल होने के लिए परीक्षा-पूर्व कोचिंग एवं सरकारी नौकरी में आरक्षण,

(ii) पिछड़े वर्ग के लड़कों तथा लड़कियों के लिए छात्रावास की सुविधा, 

(iii) शिक्षा के लिए छात्रवृत्ति की सुविधा,

(iv) सरकारी नौकरी में आरक्षण की सुविधा,

(v) ‘राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग और विकास वित्त‘ की स्थापना तथा गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाले पिछड़े वर्गों के लोगों के सामाजिक व आर्थिक विकास के लिए रियायती दरों पर वित्तीय सहायता की व्यवस्था। 

3. अल्पसंख्यक वर्ग के लिए योजनाएँ – मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध, पारसी आदि अल्पसंख्यकों को इस वर्ग में रखा गया है। नवीं पंचवर्षीय योजना (1997-98 से 2001-02) के दौरान अल्पसंख्यक समुदाय के कमजोर वर्गों के उम्मीदवारों को प्रशिक्षण देने के लिए। ₹11. 25 करोड़ की राशि जारी की गई।

सरकार ने पाँच अरब रुपये के निवेश से ‘राष्ट्रीय अल्पसंख्यक विकास एवं विता निगम’ की स्थापना की है। यह निगम अल्पसंख्यक समुदाय के पिछड़े वर्गों के कल्याण के लिए आर्थिक और विकास सम्बन्धी गतिविधियों को बढ़ावा देता है। ___

4. वृद्धों के कल्याण के लिए योजनाएँ – वृद्धों के कल्याण के लिए ‘वृद्ध व्यक्तियों के लिए समन्वित कार्यक्रम’ शुरू किया गया है। इस योजना के तहत वृद्धाश्रमों में दिन में देखभाल करने वाले केन्द्रों, सचल अस्पतालों की स्थापना व रख-रखाव तथा वृद्ध लोगों को गैर-संस्थागत सेवाएँ उपलब्ध कराने के लिए गैर-सरकारी संगठनों को वित्तीय सहायता दी जाती है। वृद्ध व्यक्तियों के लिए जनवरी 1999 ई० में राष्ट्रीय नीति’ की घोषणा की गई है।

5.दिव्यांगों के कल्याण हेतु योजनाएँ – दिव्यांग व्यक्तियों के स्वयंसेवी कार्य-कलापों को बढ़ावा देने के लिए सरकार के द्वारा प्रयास किए जा रहे हैं। 24 जनवरी, 1997 ई० को ‘राष्ट्रीय दिव्यांग वित्त निगम’ की स्थापना की गई है। इसका उद्देश्य दिव्यांग व्यक्तियों को स्वरोजगार के लिए धन उपलब्ध कराकर उन्हें आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रोत्साहित करना है।

प्रश्न – व्यवसाय के आन्तरिक और बाहरी वातावरण से आपका क्या तात्पर्य है। 

What do you mean by internal and external environment of के business?

उत्तर –  व्यावसायिक पर्यावरण का वर्गीकरण

(Classification of Business Environment) 

निम्नलिखित शीर्षकों के आधार पर व्यावसायिक वातावरण का वर्गीकरण का सकते हैं-

(अ) आन्तरिक पर्यावरण (Internal Environment),

(ब) बाहरी पर्यावरण (External Environment)। 

(अ) आन्तरिक पर्यावरण 

(Internal Environment)

प्रत्येक व्यावसायिक संस्था का अपना एक संगठन (Organization) हाता माध्यम से वह अपना व्यावसायिक कार्य सम्पन्न करती है। यह संगठन ही उसका आन्तरिक

वातावरण होता है। यह आन्तरिक वातावरण अथवा पर्यावरण दो प्रकार-औपचारिक (Formal) तथा अनौपचारिक (Informal) का होता है। व्यावसायिक आन्तरिक वातावरण नियंत्रणीय होता है, जिसे व्यवसायी द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है। इसके महत्त्वपूर्ण अंग निम्नलिखित हैं-

व्यवसाय के प्रमुख लक्ष्य एवं उद्देश्य, (1) व्यवसाय की विचारधारा, दर्शन व दृष्टिकोण, (iii) व्यावहारिक आचार संहिता तथा नैतिक मानदण्ड, (iv) कारखाने का वातावरण, (v) व्यावसायिक एवं प्रबन्धकीय नीतियाँ, vi) उत्पादन की तकनीकें एवं कार्य-विधियाँ, k (vii) श्रम-प्रबन्ध सम्बन्ध, (vin) प्रबन्ध का सूचना-तन्त्र और व्यवस्था kix) संगठन की संरचना व डिजाइन, (x) संसाधनों की उपलब्धता, कार्यशीलता तथा उपयोगिता।

उपर्युक्त सभी घटकों का सम्बन्ध व्यवसाय के आन्तरिक वातावरण से है, अर्थात् ऐसा वातावरण जो व्यवसायी अथवा फर्म के नियंत्रण में है। फर्म चाहे तो इन घटकों को अपने पक्ष में करके सफलता हासिल कर सकती है। इसमें समय-समय पर परिवर्तन भी होते रहते हैं, लेकिन जो भी परिवर्तन होते हैं उन पर संस्था का पूर्ण नियन्त्रण होता है। 

(ब) बाहरी पर्यावरण

(External Environment)

बाहरी वातावरण या पर्यावरण से आशय संस्था के सम्पर्क में आने वाले सम्पूर्ण बाह्य व्यावसायिक संसार से है। बाह्य पर्यावरण को दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है

(1) व्यवसाय का व्यष्टि परिवेश (Micro Environment),

(2) व्यवसाय का समष्टि परिवेश (Macro Environment)]

1. व्यष्टि परिवेश (Micro Environment)-व्यष्टि परिवेश से सम्बन्धी घटक घनिष्ठता से कम्पनी के साथ जुड़े रहते हैं। सूक्ष्म शक्तियाँ आवश्यक रूप से किसी उद्योग की सभी फर्मों पर प्रभाव नहीं डालती हैं। ये किसी फर्म-विशेष पर ही प्रभाव डालती है। इस प्रकार के परिवेश में व्यवसाय के निकट वातावरण के निम्नलिखित कारकों को सम्मिलित किया जाता है जो ग्राहकों की सेवा करने में इसकी योग्यता को प्रभावित कर सकते हैं

सा ग्राहक, (ii) प्रतिस्पर्धा, (iii) पूर्तिकर्ता, (iv) जनता, (v) मार्केटिंग चैनल; जैसे-विज्ञापन, रेडियो, टी०वी०, पत्रिकाएँ एवं सलाहकार इत्यादि।

2. समष्टि परिवेश (Macro Environment)-समष्टि परिवेश के अन्तर्गत उन घटकों को शामिल किया जाता है जो एक व्यवसायी के नियंत्रण में नहीं होते हैं। ये घटक दो प्रकार के होते हैं

(क) आर्थिक घटक (Economic Factors), 

(ख) अनार्थिक घटक (Non-economic Factors)|

आर्थिक घटक के अन्तर्गत निम्नलिखित कारकों को शामिल किया जाता है-

(i) जनसंख्या सम्बन्धित परिवेश, (ii) आर्थिक परिवेश, (iii) तकनीकी परिवेश, | (iv) अन्तर्राष्ट्रीय परिवेश इत्यादि।

अनार्थिक घटक के अन्तर्गत निम्नलिखित कारकों को शामिल किया जाता है

(i) सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश, (ii) राजनीतिक परिवेश, (iii) भौतिक परिवेश (a) प्राकृतिक संसाधन-भूमि, खनिज, जल इत्यादि, (b) जलवायु, वर्षा, ठण्डक, नमी आदि (c) प्राकृतिक संरचना-विद्युत, सड़क मार्ग, रेल मार्ग, अन्य यातायात इत्यादि, (iv) शैक्षिक

वातावरण।

प्रश्न भारत के व्यावसायिक पर्यावरण पर एक लेख लिखिए।

Write an essay on Business Environment of India. 

अथवा व्यावसायिक पर्यावरण का क्या अर्थ है? व्यावसायिक पर्यावरण के विभिन्न घटकों को भारत के विशेष सन्दर्भ में स्पष्ट कीजिए।

What is meant by Business Environment ? Explain the various components of business environment with special reference to India.

उत्तर – व्यावसायिक पर्यावरण का अर्थ एवं परिभाषा

(Meaning and Definitions of Business Environment) 

किसी व्यवसाय का जीवन तथा अस्तित्व इस बात पर निर्भर करता है कि व्यवसाय अपने क भौतिक साधनों, वित्तीय साधनों तथा अन्य क्षमताओं का उद्यम के अनुरूप किस प्रकार प्र समायोजन करता है। किसी व्यावसायिक संस्था को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में प्रभावित करने वाले वातावरण को व्यावसायिक पर्यावरण के रूप में जाना जाता है। व्यावसायिक पर्यावरण का संस्था की कार्यकुशलता आदि पर प्रभाव पड़ता है। इस पर्यावरण को दो रूपों में प्रकट किया जा सकता है

(i) बाह्य पर्यावरण, (ii) आन्तरिक पर्यावरण।

आन्तरिक पर्यावरण को सम्यक् कारकों द्वारा नियन्त्रित किया जा सकता है, किन्तु बाह्य सिस पर्यावरण को परिवर्तित करना सम्भव नहीं होता है, अत: इसके प्रभाव क्षेत्र के अन्तर्गत रहते हुए ही व्यावसायिक कार्यों का निष्पादन करना होता है।

व्यावसायिक पर्यावरण को प्रमुख विद्वानों ने निम्नलिखित रूप में परिभाषित किया है

डेविस के अनुसार, “व्यवसाय वस्तुओं तथा सेवाओं के उत्पादन करने, बाजार में उनक बिक्री करने तथा इस प्रयास से लाभ प्राप्त करने वाले व्यक्तियों का संगठित प्रयास ह।

उरविक तथा हण्ट के अनुसार, “व्यवसाय एक उद्यम है, जो किसी वस्तु या सवा निर्माण करता है, वितरण करता है या समाज के उन अन्य सदस्यों को प्रदान करता है। उसकी आवश्यकता है तथा जो इसकी कीमत के भुगतान के लिए सक्षम तथा इच्छुक

विलियम ग्लूक व जॉक के शब्दों में, “पर्यावरण में फर्म के बाहर के घटक होते हैं जो फर्म के लिए अवसर एवं खतरे उत्पन्न करते हैं।”

व्हीलर के शब्दों में, “व्यावसायिक पर्यावरण व्यावसायिक फर्मों तथा उद्योगा। की उन सभी बातों का योग है जो उनके संगठन एवं संचालन को प्रभावित करती हैं।

उपर्यक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि जिन विशिष्ट दशाओं में रहते हए व्यावसायिक संस्था को अपने क्रिया-कलापों को क्रियान्वित करना होता है, वे समस्त दशाएं व्यावसायिक पर्यावरण के अन्तर्गत आ जाती हैं।

व्यावसायिक पर्यावरण का व्यवसाय पर आंशिक अथवा विस्तृत रूप में प्रभाव पड़ता है। बाह्य कारकों को अपने अनुकूल करना सम्भव नहीं होता है, अत: उन कारकों के अनुगामी होकर हमें अपने कार्यों को दिशा देनी पड़ती है और उनके अनुकूल समायोजन करना पड़ता है। ऐसा न कर पाने की दशा में व्यवसाय में हास का होना अवश्यम्भावी हो जाता है।

व्यावसायिक पर्यावरण के विभिन्न घटक 

(Various Components of Business Environment) 

व्यावसायिक पर्यावरण कई घटकों का योग है। इसकी मूल विशेषता यह है कि इसमें प्रतिपल परिवर्तन होता है। व्यावसायिक पर्यावरण के निम्नलिखित प्रमुख घटक हैं

1. राजनीतिक एवं प्रशासकीय घटक (Political and Administrative Components)-व्यावसायिक पर्यावरण पर विभिन्न प्रकार की राजनीतिक विचारधाराओं का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है, इसीलिए इन्हें एक घटक के रूप में देखा जाता है। प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में शासन तन्त्र सार्वजनिक कल्याण के हित में कार्य करता है। इस परिवेश में लोग स्वेच्छा से आर्थिक विकास के कार्यों में भाग लेते हैं। इसके विपरीत, साम्यवादी एवं तानाशाही देशों में लोगों पर दबाव डाला जाता है, उन्हें बाध्य किया जाता है। बाध्यता की स्थिति में इन देशों में श्रम करने के प्रति वह रुचि नहीं रहती, जो प्रजातान्त्रिक देशों में रहती है। जब लोगों को यह जानकारी रहती है कि प्रशासन उनके हित में ही काम करेगा, तब ऐसे प्रशासन को लोगों का स्वमेव सहयोग मिलने लगता है। ऐसी क्रियाओं का उद्योग व व्यवसाय के क्षेत्र में सकारात्मक प्रभाव पड़ता है तथा उद्योग क्षेत्र उन्नति की ओर अग्रसर होता है। इसके विपरीत, स्थिति होने पर व्यावसायिक क्रियाएँ कुण्ठित हो जाती हैं, अत: यह एक महत्त्वपूर्ण घटक है।

2. आर्थिक घटक (Economic Components)-व्यावसायिक पर्यावरण पर विभिन्न घटकों का प्रभाव पड़ता है जिनमें आर्थिक घटक अति महत्त्वपूर्ण है। इसके अन्तर्गत विभिन्न आर्थिक घटनाएँ तथा तत्सम्बन्धी क्रियाएँ आती हैं। इसमें आर्थिक नीतियाँ, विनियोग, औद्योगिक प्रवृत्तियाँ, आर्थिक दबाव, आयात-निर्यात, मौद्रिक नीति आदि सम्मिलित होते हैं।

3. अन्तर्राष्ट्रीय परिवेश (International Components)-उद्योग में उदार व खुली नीति का प्रभाव होने के कारण अन्तर्राष्ट्रीय परिवेश का कारक अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हो गया है। एक देश के दूसरे देश के साथ व्यापारिक, वाणिज्यिक एवं तकनीकी सम्बन्ध होते हैं। यदि अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति अनुकूल रहती है तो देश की घरेलू आर्थिक स्थिति के लिए व्यावसायिक वातावरण सहयोगपूर्ण होगा। आज पूरा विश्व एक वृहत्तर व्यापारिक मण्डी में बदल चुका है। भूमण्डलीकरण के दौर में निश्चय ही इस घटक का महत्त्व बढ़ गया है।

4. सामाजिक एवं सांस्कृतिक घटक (Social and Cultural Components)-व्यावसायिक पर्यावरण में विभिन्न सामाजिक एवं सांस्कृतिक घटकों का भी प्रभाव

परिलक्षित होता है। सामाजिक घटक के प्रभाव को उदाहरणस्वरूप यूरोप के प्रोटेस्टैण्ट धर्म में देखा जा सकता है, जिसने यूरोपीय महाद्वीप में उन्नति के द्वार खोल दिए थे। इसी सांस्कृतिक घटक के कारण इंग्लैण्ड ने चतुर्दिक उन्नति की थी।

समाज के सांस्कृतिक मूल्यों का प्रभाव देश के व्यावसायिक पर्यावरण पर पड़ता है। ऐसे मूल्यों का प्रभाव श्रमिकों के श्रम करने की इच्छा तथा क्षमता पर भी पड़ता है, जिससे अन्तत: व्यावसायिक पर्यावरण प्रभावित होता है। संस्कृति का क्षेत्र काफी विशाल है। इसके अन्तर्गत कला, साहित्य, जीवन-शैली, मानवीय आकांक्षा, ज्ञान, विश्वास, परम्परा, रीति-रिवाज, आदर्श, सामाजिक प्राथमिकताएँ आदि शामिल हैं।

5. भौगोलिकघटक (Geographical Components)-इसके अन्तर्गत प्राकृतिक संसाधनों जैसे खनिज, पर्यावरण, जलवायु, भूमि की संरचना, जंगल, पहाड़ आदि की विवेचना की जाती है।

6. वैधानिक घटक (Legal Components)-इस वर्ग के अन्तर्गत वैधानिक प्रवृत्ति के घटकों को शामिल किया जाता है। सम्पूर्ण वैधानिक प्रक्रिया, सम्पत्ति अधिकार कानून, विभिन्न श्रम कानून, फैक्ट्री कानून आदि इसमें समाहित हैं।

यदि उपर्युक्त समस्त कारक व्यवसाय के अनुगामी होते हैं तो व्यवसाय के लिए विकासकारी होते हैं।

निम्नलिखित घटक भी व्यावसायिक पर्यावरण को प्रभावित करते हैं

I. अनार्थिक पर्यावरण, II. आर्थिक पर्यावरण। I. 

अनार्थिक पर्यावरण 

(Non-economic Environment)

अनार्थिक कारक एक ऐसा तत्त्व है जिसका व्यावसायिक पर्यावरण के बाह्य पक्ष पर विशिष्ट प्रभाव पड़ता है। अनार्थिक पर्यावरण की विवेचना में निम्नलिखित तथ्य सम्मिलित होते हैं

1. सामाजिक पर्यावरण (Social Environment)-व्यवसाय एक सामाजिक संस्था है, अत: इस पर सामाजिक पर्यावरण जैसे जनसंख्या, परिवार, जनता का दायित्व बोध कार्य के प्रति धारणा, प्रबन्धकीय दृष्टिकोण, समाज के लोगों की परम्परा के प्रति धारणा सामाजिक मूल्यों आदि का प्रभाव पड़ता है।

2. वैधानिक पर्यावरण (Legal Environment)-देश में व्यावसायिक के विकास के लिए वैधानिक पर्यावरण का स्वच्छ होना अति आवश्यक है। व्यवसाय सम्बन्धित व्यक्तियों को सम्पत्ति अर्जित करने तथा रखने का वैधानिक अधिकार होना चा इसी तरह श्रमिकों के अधिकार की रक्षा के लिए भी कानन होना चाहिए। निजी सम्पात वैधानिक अधिकार होना आवश्यक है। विवाद के निपटारे के लिए निष्पक्ष एवं स्वतन्त्र व्यवस्था भी आवश्यक है।

3. राजनीतिक पर्यावरण (Political Environment)-इसके अन्तर्गत सरकार की राजनीतिक धारणा, राजनीतिक स्थिरता, विदेश नीति, शासन-व्यवस्था आदि की विवेचना जैसे कारकों का समावेश होता है।

4. भौतिक पर्यावरण (Physical Environment)-यह व्यवस्था के संचालन का प्रमुख आधार है। वस्तुत: व्यवसाय और प्रकृति के मध्य गहरा सम्बन्ध है। इसमें निम्नलिखित तत्त्व सम्मिलित हैं

(i) प्राकृतिक संरचना; जैसे—विद्युत, सड़क मार्ग, रेल मार्ग, अन्य यातायात आदि। (ii) प्राकृतिक साधन; जैसे-भूमि, खनिज, जल आदि। (iii) जलवायु अर्थात् तापमाने, वर्षा, ठण्डक, नमी आदि।

5. अन्य (Others)-अनार्थिक पर्यावरण का रूप इस प्रकार का होना चाहिए कि वह आर्थिक पर्यावरण का परिपोषक हो सके। इसके लिए तकनीकी विकास इस प्रकार हो जो प्रौद्योगिक पर्यावरण को गति प्रदान कर सके। इसके अन्तर्गत उचित शैक्षिक वातावरण तथा वैज्ञानिक मानसिकता के सृजन की आवश्यकता है। इनके लिए आवश्यक है कि सामाजिक, सांस्कृतिक तथा नैतिक मूल्य, व्यवसाय की प्रगति के अनुकूल हों। 

II. आर्थिक पर्यावरण (Economic Environment)

आर्थिक पर्यावरण में बैंकिंग तथा वित्तीय संस्थाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। उत्पादन के निमित्त खेत, कारखाने, प्राकृतिक उपादान खनन क्षेत्र आदि का होना आवश्यक है। इसी प्रकार इनके विनिमय हेतु सेल्समैन, वितरक, दुकानें, भण्डारगृह आदि होते हैं। अन्य अनेक संस्थाएँ (यथा-काश्तकार, श्रमिक, पूँजीपति, उपभोक्ता तथा विभिन्न कार्मिक) भी सहयोगी होती हैं। इन सबको समवेत रूप से आर्थिक संस्थाएँ कहा गया है, इनका सम्मिलित स्वरूप ही ‘आर्थिक पर्यावरण’ कहलाता है।

आर्थिक पर्यावरण को प्रभावित करने वाले अनेक घटक हैं, जिनमें से प्रमुख तीन घटक निम्नलिखित हैं-

1. आर्थिक विकास की अवस्था (State of Economic Development)इसके द्वारा ही घरेलू बाजार के आकार का स्वरूप निर्धारित होता है। आर्थिक विकास की यह अवस्था व्यवसाय को निश्चित रूप से प्रभावित करती है। यह व्यवसाय के विस्तार तथा उसकी प्रकृति को भी प्रभावित करती है।

2. आर्थिक नीतियाँ (Economic Policies)-इसके द्वारा राष्ट्र की सम्पूर्ण व्यावसायिक गतिविधियों का नियन्त्रण व नियमन किया जाता है। आर्थिक नीति का निर्धारण प्राय: सरकार की मशीनरी द्वारा किया जाता है। आर्थिक नीति एक विस्तृत शब्दावली है जिसके अन्तर्गत अनेक क्षेत्र समाविष्ट हैं; यथा-व्यापारिक, मौद्रिक, राजकोषीय, साख, कीमत, श्रम आदि क्षेत्रा

3. आर्थिक प्रणाली (Economic System)-व्यावसायिक क्षेत्र पर आर्थिक प्रणाली का विशिष्ट प्रभाव पड़ता है। इसके प्राय: तीन स्वरूप दृष्टिगोचर होते हैं—पूँजीवादी अर्थव्यवस्था, समाजवादी अर्थव्यवस्था तथा मिश्रित अर्थव्यवस्था। भारत में प्रारम्भ में मिश्रित

अर्थव्यवस्था को अंगीकार किया गया तथा जो अब धीरे-धीरे पूँजीवादी मिश्रित अर्थव्यवस्था ओर गतिशील है। आर्थिक प्रणाली भी व्यवसाय के स्वरूप पर प्रभाव डालकर प्रायः प्रगति स्वरूप निर्धारित करने में सक्षम होती है।

प्रश्न – निजीकरण से आप क्या समझते हैं? इसके क्या उद्देश्य हैं? भारत। निजीकरण को प्रेरित करने वाले तत्त्वों की विवेचना कीजिए।

What do you understand by Privatization ? What are its objects ? Explain the factors which affect privatization in India. 

उत्तर – निजीकरण से आशय

(Meaning of Privatization) 

संकुचित अर्थ में निजीकरण का आशय उस नीति से है जिसके अन्तर्गत सार्वजनिक उपक्रमों का निजी क्षेत्र को हस्तान्तरण कर दिया जाता है। इस प्रक्रिया को विराष्ट्रीयकरण (Denationalization) भी कहा जाता है।

व्यापक अर्थ में निजीकरण की प्रक्रिया में केवल सार्वजनिक उपक्रमों के स्वामित्व को निजी क्षेत्र में ही नहीं हस्तांतरित किया जा रहा है बल्कि सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित क्रियाओं को भी निजी क्षेत्र को सौंपा जा रहा है तथा निजी क्षेत्र के कार्यकलापों के कार्यों को फैलाया अर्थात् विस्तृत किया जा रहा है। इसके अलावा नीतिगत परिवर्तन करके निजी क्षेत्र को सरकारी नियन्त्रण से मुक्त किया जा रहा है। अब निजी क्षेत्र को विभिन्न प्रकार के उद्योग खोलने की छूट दी गयी है।

1. अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के अर्थशास्त्री सुसान के जोन्स के शब्दों में, “निजीकरण शब्द से तात्पर्य किसी भी कार्य-कलाप को सार्वजनिक क्षेत्र से निजी क्षेत्र को हस्तांतरित करना है। इसमें सार्वजनिक क्षेत्र के कार्य-कलापों में केवल पूँजी अथवा प्रबन्ध विशेषज्ञों का प्रवेश भी हो सकता है किन्तु अधिकांश मामलों में, इसमें सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का निजी क्षेत्र में हस्तांतरण होता है।”

2. जिबान के० मुखोपाध्याय के अनुसार, “निजीकरण वह प्रक्रिया है जिसमें किसी राष्ट्र के आर्थिक कार्य-कलापों में सरकारी प्रभुत्व को कम करना है।”

संक्षेप में, ‘निजीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत सार्वजनिक उपक्रमों के स्वामित्व तथा प्रबन्ध में निजी क्षेत्र को सहभागिता प्रदान की जाती है अथवा स्वामित्व एवं प्रबन्ध को निजी क्षेत्र को हस्तांतरित किया जाता है तथा आर्थिक क्रिया-कलापों पर सरकारी नियन्त्रण को घटाकर देश में आर्थिक प्रजातन्त्र स्थापित किया जाता है।”

निजीकरण की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

(1) यह एक नई विचारधारा है तथा नई व्यूह रचना (Strategy) है। 

(2) यह विचारधारा विश्व-स्तर पर लागू की जा रही है।

(3) यह व्यापक विचारधारा है। इसका उद्देश्य सरकारी प्रभत्व को कम करका को बढ़ावा देना है।

(4) यह आथिक प्रजातन्त्र (Economic Democracy) की स्थापना करता हैं।

(5) सामाजिक-आधिक परिवर्तन (Social-Economic Changes) का उपकरण अथवा अस्त्र (tool) हैं।

(6) इसका विस्तृत क्षेत्र (Wide scope) है। इसमें विराष्ट्रीयकरण (Denationali sation), बिनियन्त्रण (Decontrol), विनियमन (Deregulation), आर्थिक उदारीकरण Domotheralization) आदि क्रियाएँ शामिल की जाती है।

(7) निजी क्षेत्र सार्वजनिक क्षेत्र की तुलना में प्रबन्ध एवं नियन्त्रण की दृष्टि से अधिक कुशल होता है।

(8) यह एक प्रक्रिया (Process) है। यह प्रक्रिया क्रमबद्ध तरीके से धीरे-धीरे निश्चित स्वरूप गृहण करती है।

निजीकरण के उद्देश्य

(Objectives of Privatization) 

निजीकरण के अनेक सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक उद्देश्य होते हैं, उनमें से कुछ मुड हेस्य निम्नलिखित है-

(1) उद्योगों में प्रतियोगी क्षमता विकसित करने के लिए।

(2) देश के उद्योगों का अन्तर्राष्ट्रीयकरण करने के लिए।

(3) देश में विदेशी पूंजी को आमन्त्रित करने के लिए।

(4) उद्योगों को निष्पादन क्षमता में सुधार लाने के लिए। 

(5) देश में निर्यातों को बढ़ावा देने तथा विदेशी मुन्न अर्जित करने के लिए।

(6) औद्योगिक शान्ति को बनाए रखने के लिए। 

(7) सार्वजनिक उपक्रमों के घाटे को दूर करने के लिए। 

(8) देश में तीन औद्योगिक विकास का वातावरण तैयार करने के लिए।

(9) सरकारी बजट के घाटे को दूर करने के लिए। 

(10) देश के संसाधनों को पूर्ण कुशलता के साथ विदोहन करने के लिए।

भारत में निजीकरण 

(Privatization in India)

अथवा भारत में निजीकरण को प्रेरित करने वाले तत्त्व

(Factors affecting Privatization in India) 

भारत में आजादी के पश्चात् मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाया गया जिसमें निजी तथा सावजनिक क्षेत्रों की भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण रही, किन्तु सन् 1975 ई० तक राष्ट्रीयकरण का दार रहा लेकिन सन् 1980 ई० में यह रुक गया। सन् 1985 ई० के बाद से ही उदारीकरण की नात प्रारम्भ हो गई। सन 1985 ई० से सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित सार्वजनिक उपक्रमों का शनैः शनैः निजी क्षेत्र के लिए खोला जाने लगा। जो प्रतिबन्ध आजादी के पश्चात् चार दशकों

में लगाए गए थे उन्हें अब धीरे-धीरे हटाया जा रहा है। सन् 1991 ई० की उदार औद्योगिक नीति ने इस प्रक्रिया को और अधिक तेज कर दिया। भारत में निम्नलिखित कदम निजीकरण की दिशा में उठाए गए हैं-

1. पूँजी बाजार का विकास (Extention of Capital Market)-देश में निजीकरण की प्रक्रिया को गति प्रदान करने के लिए सरकार ने पूंजी बाजार में भी परिवर्तन किए। इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए SEBI (Security Exchange Board of India) की स्थापना की गई। इस संस्था की स्थापना का उद्देश्य स्कन्ध विनिमय केद्रों का नियमन तथा नियन्त्रण, प्रविवरणों की जाँच करना, मर्चेण्ट बैंकर, ब्रोकर, सब-ब्रोकर, लीड मैनेजर इत्यादि का पंजीयन करने, उनको नियन्त्रित करने एवं उनके कार्यों की समीक्षा करना है। यह संस्था स्थापना के तुरन्त बाद से काफी प्रभावी हो गई है तथा पूँजी बाजार के निजीकरण के वातावरण को ध्यान में, रखकर व्यवस्थित विकास कर रही है।

2. निजी क्षेत्रों में बैंकों की स्थापना की अनुमति मिलना (Permission of Opening Banks in Private Sectors)-अब देश की सरकार निजीकरण में गति प्रदान करने लिए देश के उद्योगपतियों को निजी क्षेत्र में बैंक खोलने के लिए प्रोत्साहन दे रही है। इसके अलावा सरकार ने राष्ट्रीयकृत बैंकों की 70% पूँजी को निजी क्षेत्र में देने की योजना तैयार की है। इससे भी निजीकरण को और अधिक प्रोत्साहन मिलेगा।

3. अंश पूँजी का विनिवेश (Disinvestment of Share Capital)-यह भी निजीकरण की दिशा में एक प्रयास है। सबसे पहले वर्ष 1991-92 में 30 सार्वजनिक उपक्रमों का विनिवेश किया गया, जिससे लगभग ₹ 8,721 करोड़ प्राप्त किए गए। उसके बाद सन् 2001-02 ई० में विनिवेशों से ₹ 12,000 करोड़ की प्राप्ति का लक्ष्य रखा गया। दसवीं योजना के लिए विनिवेश के लिए यह लक्ष्य लगभग ₹ 80,000 करोड़ की प्राप्ति का रखा गया

था। ग्यारहवीं योजना (2007-12) में भी विनिवेश हेतु एक बड़ा लक्ष्य रखा गया। 

4. सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित उद्योग वर्गों की संख्या में कमी (Lesser Share of Reserve Public Sector) – सन् 1956 ई० में 17 उद्योगों को सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित (Reserved) किया था किन्तु बाद में सन् 1991 ई० में उस संख्या को घटाकर 8 कर दिया गया। सन् 1993 में पुन: घटाकर इस संख्या को 6 कर दिया गया। किन्तु अब यह संख्या मात्र 2 रह गई है।

यह आँकड़े दर्शा रहे हैं कि सरकार तेजी से निजीकरण की तरफ बढ़ रही है।

5 विदेशी वित्तीय संस्थाओं का रजिस्ट्रेशन (Registration of Foreign Finance Companies)-देश में अंशो, ऋणपत्रों तथा अन्य प्रकार की प्रतिभूतियों म विनियोग करने वाली विदेशी वित्तीय संस्थाओं का रजिस्ट्रेशन किया जाने लगा है। इसका प्रमुख उद्देश्य देश में पूँजी की उपलब्धता बनाए रखना तथा इसमें सुधार किया जाना है। इससे भी देश में निजी क्षेत्रों को विकसित होने में सहायता प्राप्त हो रही है।

6. लाइसेन्सिंग राज की समाप्ति की ओर प्रयास (Trying to Finish Licencing Rai)-लाइसेन्स की अनिवार्यता को सरकार शनैः शनैः समाप्त कर रही है। सन 1991 ई० की औद्योगिक नीति में 18 वर्ग ऐसे थे जिनमें उद्योग लगाने से पूर्व लाइसेन्स लेना आवश्यक होता था किन्तु इनकी संख्या घटाकर मात्र 3 कर दी गयी है। वर्तमान में केवल आण्विक ऊर्जा तथा सामाजिक सुरक्षा से सम्बन्धित उद्योगों की स्थापना के लिए ही लाइसेन्स प्राप्त करना अनिवार्य है।

7. निजी सहयोग निधियों की स्थापना (Establishing Mutual Funds in Private Sector)-पहले सार्वजनिक क्षेत्र में यूनिट ट्रस्ट ऑफ इण्डिया ही एक मात्र सस्था थी जो Mutual Fund का कार्य करती थी। लेकिन अब भारत राष्ट्र में अनेकों संस्थाओं को निजी क्षेत्र में सहयोग निधियों की स्थापना के लिए खोला गया है। इनमें Morgan Stanley, Twentieth Century, Appex, टॉरस, एस०बी०आई० म्यूचुअल फण्ड, आई०सी०आई०सी०आई० इसमें SBI सरकारी क्षेत्र में है बाकी निजी क्षेत्र में हैं। ये कोष देश के निजी क्षेत्र के उद्योगों के लिए पूँजी जुटाने का कार्य कर रहे हैं।

8. अंश पूँजी का ऋणपत्रों में परिवर्तन नहीं (No Conversion of Share Capital in Debentures)-पहले यह प्रावधान था कि यदि सार्वजनिक वित्तीय संस्था चाहेगी तो वह किसी कम्पनी को दिए गए ऋणों की राशि को उसकी अंश पूँजी में परिवर्तित कर सकेगी। किन्तु अब यह प्रावधान समाप्त कर दिया है। इससे भी निजीकरण को बढ़ावा मिल रहा है।

9.विदेशों में प्रतिभूतियों को जारी करने की अनुमति (Permission of Issuing Securities in Foreign)-देश की सरकार ने निजी क्षेत्र की कम्पनियों को अधिक एवं सस्ते वित्तीय साधन उपलब्ध कराने के उद्देश्य से उन्हें विदेशी बाजारों में अपनी प्रतिभूतियाँ जारी करने की अनुमति भी प्रदान कर दी है। कम्पनियाँ अब स्वयं अपनी प्रतिभूतियाँ बेचकर विदेशी मुद्रा अर्जित कर रही हैं। इससे भी निजीकरण को और अधिक गति मिल रही है।

10. विदेशी व्यक्तियों की प्रबन्धन में नियुक्ति (Appointing Foreign Individuals in Management)-अब विदेशी व्यक्तियों की प्रबन्धकीय पद पर नियुक्ति के प्रतिबन्ध को समाप्त कर दिया है। इसके लिए नियम यह है कि विदेशी व्यक्ति यदि भारत से प्राप्त आय को विदेशी मुद्रा में विदेशों में ले जाना चाहते हैं, तभी उनकी नियुक्ति के लिए RBI से अनुमति लेनी होगी, अन्यथा नहीं। विदेशी व्यक्तियों जिन्हें भारत में उद्योग में प्रबन्धक बनाया गया है उन्हें विशेष अनुलाभों को भी दिया जा सकता है। इससे भी निजीकरण को काफी बल मिल रहा है।

11. कुछ क्षेत्रों में 100% विदेशी पूँजी निवेश की छूट (Permission of 100% Foreign Share in certain Sector)-सरकार कुछ विशेष क्षेत्रों में शत-प्रतिशत विदेशी-पूँजी निवेश की अनुमति दे चुकी है।

12. विदेशी कम्पनियों के पूँजीनिवेश की सीमा में वृद्धि करना (Inreasing the Share of Foreign Investments)-सरकार ने देश की कम्पनियों के विदेशी सहयोगियों का पूंजी निवेश की सीमा बढ़ा दी है। पहले यह काफी कम थी।

13. पूँजी निवेश के आधार पर नियन्त्रण हटाया जाना (Removing Control on the basis of Investment)-अब उद्योगों का नियन्त्रण पूंजी निवेश की मात्रा के आधार

पर नहीं किया जाता है। पहले MRTP Act तथा Industrial Developme (Regulation) Act के अन्तर्गत पूँजी निवेश के आधार पर उद्योगों पर बहुत अधिक नियन्त्र लगाए गए थे। यह कदम भी निजीकरण को और अधिक बढ़ावा देता है। ____

14. अन्य कदम (Other Steps)- स्पीड पोस्ट तथा संचार सेवा के क्षेत्र करियर सेवा तथा पी०सी०ओ० एस०टी०डी० सेवाओं को निजी क्षेत्र में प्रवेश दिया जा

(ii) देश की निजी क्षेत्र की कम्पनियों को बिजली तथा टेलीकम्यूनीकेशन के क्षेत्र में भी काफी छूटे तथा सुविधाएँ प्रदान की गई हैं।

(iii) बीमा क्षेत्र में निजी कम्पनियों को व्यवसाय की अनुमति दे दी गई है।

(iv) देश की प्रमुख संस्थाओं की पूँजी जनता को निर्गमित किया जाना (जैसे-IFCI, IDBI etc.)

(v) देश की वायु परिवहन सेवाओं में भी निजी कम्पनियों को शामिल किया गया है। 

(vi) बारहवीं पंचवर्षीय योजना में विकास दर 9.2% रखी गयी है।

प्रश्न – भारत में बेरोजगारी के विभिन्न प्रकारों का वर्णन कीजिए। भारत में बेरोजगारी की समस्या के समाधान हेतु सुझाव दीजिए।

Explain the different types of unemployment in India. Give your suggestions to solve unemployment problem in India. 

अथवा बेरोजगारी पर एक लेख लिखिए।

Write a detailed note on Unemployment. 

उत्तर – बेरोजगारी सम्बन्धी विभिन्न अवधारणाएँ

(Various Concepts Regarding Unemployment) 

किसी अर्थव्यवस्था में बेरोजगारी क्यों उत्पन्न होती है, इस प्रश्न पर समय-समय पर अनेक विचारकों ने अपना मत प्रकट किया है। इस सम्बन्ध में तीन दृष्टिकोण प्रमुख हैं

1. प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों का विचार (View of Classical Economists)प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों की यह अवधारणा थी कि स्वतन्त्र प्रतिस्पर्धात्मक अर्थव्यवस्था में बाजार के नियम की क्रियाशीलता (मूल्य तन्त्र) के कारण साम्य की दशा में सदैव ही पूर्ण रोजगार की स्थिति तथा उस बेरोजगारूप बेरोजगारी र कारणों से यतिम सदैव ही पूर्ण रोजगार की स्थति पायी जाती है। राज्य के हस्तक्षेप या अन्य कारणों से यदि कभी असन्तुलन की दशा उत्पन्न हो जाती है और फलस्वरूप बेरोजगारी उत्पन्न हो जाती है तो वह अल्पकालीन और अस्थायी होगा। तथा उस बेरोजगारी से पारिश्रमिक में कमी करके सरलता से निपटा जा सकता है।

2. क्रान्तिकारी विचारक कार्ल मार्क्स तथा समाजवादी विचारकों का विश्वास था। कि बेरोजगारी पूँजीपरक क्रियाओं (Capitalistic-type Activities) के कारण जन्म लेती है।

3. कीन्स ने बेरोजगारी के सम्बन्ध में एक नया दष्टिकोण प्रस्तत किया और कहा”प्रभावपूर्ण माँग की अपर्याप्तता ही रोजगार की मात्रा में होने वाली वद्धि को पूर्ण रोजगार के स्तर तक पहुँचने से पहले रोक देती है। इस प्रकार बेरोजगारी के लिए उपभोग प्रवृत्ति का निम्न

बेरोजगारी के प्रभाव

(Effects of Unemployment) 

बेरोजगारी के परिणाम सदैव ही बड़े घातक होते हैं। बेरोजगारी से ग्रस्त देशों में सामाजिक, का आर्थिक तथा राजनीतिक सभी क्षेत्रों में संकट उत्पन्न हो जाता है। संक्षेप में, बेरोजगारी के विभिन्न प्रभावों का अध्ययन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है

1. आर्थिक प्रभाव (Economic Effects)-बेकारी का लोगों के जीवन-स्तर, कार्य-क्षमता तथा स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। क्रय शक्ति का अभाव रहने से उनके उपभोग में गुणात्मक तथा परिमाणात्मक (Qualitative and Quantitative) दाना हा रूपों में कमी आ जाती है। इससे न केवल उनकी कार्य-क्षमता में कमी होती है, अपित जीवन-स्तर भी दयनीय दशा में पहुँच जाता है। कार्य-क्षमता में ह्रास होने से राष्ट्रीय आय अ (National Income) तथा रोजगार के स्तर (Level of Employment) में और कमी होती है, जिससे आय की विषमता बढ़ जाती है और सामाजिक न्याय मात्र एक स्वप्न बनकर रह जाता है। क्रय-शक्ति के अभाव में वस्तुओं तथा सेवाओं के मूल्य गिर जाते हैं, जिससे अर्थव्यवस्था में अवसाद की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

2. सामाजिक प्रभाव (Social Effects)-बेकारी सामाजिक मूल्यों के प्रति – अविश्वास उत्पन्न करती है जिससे सामाजिक नियन्त्रण कमजोर हो जाते हैं और सामाजिक विघटन को प्रोत्साहन मिलता है। बेरोजगारी के कारण लोगों की आसक्ति अनैतिक तथा असामाजिक कार्यों के प्रति हो जाती है, जिससे समाज में चोरी, डकैती, कालाबाजारी, तस्करी, शराबखोरी तथा जुए को प्रोत्साहन मिलता है। अन्ततः बेरोजगारी भखमरी, दरिद्रता और ऋणग्रस्तता को जन्म देकर समाज में निराशा और मानसिक वेदना के बीज बो देती है।

3. राजनीतिक प्रभाव (Political Effects)-राजनीतिक दृष्टिकोण से बेरोजगारी के प्रभावों की तुलना ज्वालामुखी से की जा सकती है। जिस प्रकार ज्वालामुखी सक्रिय होने स प्रयो पर्व अन्दर-ही-अन्दर धधकता रहता है और सक्रिय होकर सम्पर्ण व्यवस्था को नष्ट कर वक देता है, ठीक उसी प्रकार बेरोजगार व्यक्ति निर्माणात्मक कार्यों के स्थान पर विध्वंसात्मक अना कार्यों में रुचि लेते हैं और उनका दैनिक कार्य सरकार की आलोचना करना, श्रमिका का उत्तेजित करना तथा तोड़-फोड़ करना हो जाता है।

4. अन्य प्रभाव (Other Effects)-बेरोजगारी के अन्य प्रभावों में हम इस नैतिक तथा मनोवैज्ञानिक प्रभावों की चर्चा कर सकते हैं। बेकारी के कारण व्यक्ति का ना स्तर पतन की चरम सीमा पर पहुँच जाता है। वह नैतिक अपराध स्वाभाविक क्रिया भाँति करने लगता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से एक बेरोजगार व्यक्ति का मनोबल इतना जाता है कि उसे स्वयं पर भी विश्वास नहीं रहता।

बेरोजगारी के प्रकार

(Types of Unemployment) 

भारत में बेरोजगारी की समस्या जनसंख्या में वृद्धि की वजह से बढ़ रही है क्योंकि श्रम शक्ति बढ़ती जा रही है। इसके अलावा भारत में रोजगार संसाधनों जैसे भूमि, पूँजी, उद्यम, कनीकी ज्ञान आदि की कमी तथा ऐसे कई और भी कारण हैं जिनकी वजह से भी बराजगारा की समस्या बढ़ती ही जा रही है। हमारे राष्ट्र में बेरोजगारी मुख्यतः संरचनात्मक है। देश में व्याप्त बेरोजगारी के विभिन्न स्वरूप निम्नलिखित हैं

1. खुली बेरोजगारी (Open Unemployment)-जब बेरोजगारों को काम ढूँढने के बावजूद भी काम नहीं मिल पाता तो इसे ‘खुली बेरोजगारी’ कहा जाता है। इसे हम ‘दृश्य बेरोजगारी’ (Visible Unemployment) भी कहते हैं।

अल्पविकसित देशों में खुली बेरोजगारी कम मात्रा में पायी जाती है क्योंकि वहाँ श्रमिकों का उपयोग विस्तृत पैमाने पर होता है। प्रायः सभी विकासशील देशों में मानवीय संसाधनों का अल्प उपयोग होता है, अर्थात् जो लोग काम करना चाहते हैं उन्हें उतना काम नहीं मिलता जितना कि वे करना चाहते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसा स्वरूप अल्प रोजगार का होता है। इसे ‘मौसमी अल्प रोजगार’ भी कहा जाता है।

खुली बेरोजगारी को निम्नलिखित बिन्दुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है-

(i) एक कार्य को स्वीकार न करना तथा दूसरे अच्छे कार्य की प्रतीक्षा करना। 

(ii) श्रम की मात्रा तथा पूर्ति के सम्बन्ध पर; जैसे-माँग की तुलना में पूर्ति अधिक होने पर। 

(iii) तीव्र गति से जनसंख्या वृद्धि के कारण भारत में खुली बेरोजगारी बढ़ती जा रही है। 

(iv) गाँवों से भी रोजगार की तलाश में लोग शहरों में आते हैं। इससे भी खुली बेरोजगारी बढ़ जाती है। 

(v) खुली बेरोजगारी असफलताओं का परिणाम भी हो सकती है। 

(vi) खुली बेरोजगारी गलत आकांक्षाओं की वजह से भी हो सकती है।

2. घर्षणात्मक बेरोजगारी (Frictional Unemployment)-नये-नये यन्त्रों के प्रयोग में लाए जाने के फलस्वरूप नित्य नए साधनों की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार विकासशील देशों में जब यान्त्रिक शक्ति से उत्पादन किया जाने लगता है, तब अकुशल एवं अप्रशिक्षित व्यक्तियों के स्थान पर कुशल एवं प्रशिक्षित व्यक्तियों की आवश्यकता होती है और अप्रशिक्षित व्यक्तियों को जब तक प्रशिक्षण न दिया जाए, उन्हें रोजगार नहीं दिया जा सकता है। इस प्रकार की बेरोजगारी को कभी-कभी तकनीकी या प्राविधिक (Technological) बराजगारी भी कहा जाता है। यह सदैव अल्पकालीन होती है। प्रो० लिप्से घर्षणात्मक बरोजगारी का आर्थिक विकास से प्रत्यक्ष सम्बन्ध मानते हैं। वे इसे ‘नियमित बेरोजगारी’ ‘ermanent Unemployment) कहते हैं। उनका कथन है कि जैसे-जैसे आर्थिक विकास का गति बढ़ती है, घर्षणात्मक बेरोजगारी भी बढ़ती जाती है।

3. मौसमी बेरोजगारी (Seasonal Unemployment)-मौसमी बेरोजगारी व्याख्या करते हुए प्रो० लिप्से ने लिखा है कि कुछ काम-धन्धे मौसमी होते हैं जो वर्ष के महीने तक ही चलते है, अत: इन धन्धों में लगे व्यक्ति कुछ समय तक नियमित रूपबेरोज बेरोजगार रहते हैं। इसे ही ‘मौसमी बेरोजगारी’ कहा जाता है। स्पष्ट है कि मौसमी बेरोजगार का प्रमुख कारण उद्योग की विशिष्ट प्रकृति का होना है। जैसे—भारत में चीनी उद्योग तथरोज कृषि उद्योग।

4. संरचनात्मक बेरोजगारी (Structural Unemployment)-अर्थव्यवस्था की औद्योगिक संरचना में परिवर्तन आते रहते हैं। इन परिवर्तनों के फलस्वरूप कभी-कभी असाय की स्थिति उत्पन्न हो जाती है और पर्याप्त संख्या में लोगों को दीर्घकाल तक बेरोजगार रहना पड़ता है। ऐसी बेरोजगारी को ‘संरचनात्मक बेरोजगारी’ कहा जाता है। इसे ‘दीर्घकालीन बेरोजगारी’ तथा ‘माक्सियन बेरोजगारी’ के नाम से भी पुकारा जाता है। मार्क्स (Marx का विश्वास था कि इस प्रकार की बेरोजगारी पूँजीवादी देशों में ही मुख्य रूप से पाय एव जाती है। यह उल्लेखनीय है कि संरचनात्मक बेरोजगारी मौसमी बेरोजगारी की भाँति आकस्मिक तथा अल्पकालीन नहीं होती, वरन् यह एक गम्भीर स्थिति की परिचायक है। राजग इससे मुक्ति पाना केवल पर्याप्त आर्थिक विकास के द्वारा ही सम्भव है।

5. चक्रीय बेरोजगारी (Circular Unemployment)-इस प्रकार की बेरोजगारी उत्पाद मुख्यत: पूँजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में पायी जाती है क्योंकि वहाँ व्यापार चक्र क्रियाशील (Lar रहते हैं। अभिवृद्धि काल में पूँजी विनियोग के कारण उत्पादन सम्बन्धी गतिविधियों में वृद्धि नात होती है, फलतः श्रम की माँग एवं कीमत बढ़ जाती है। परन्तु अवसाद की स्थिति में श्रम की काब मांग बहुत कम रह जाती है क्योंकि इस समय विनियोग और उत्पादन दोनों में कमी आ जाती है, जिससे बेरोजगारी तीव्रता से फैलती है। आर्थिक मन्दी के कारण इस बेरोजगारी को सुधार केन्सियन बेरोजगारी (Keynesian Unemployment) भी कहा जाता है। वर्तमान समय में इस प्रकार की बेरोजगारी केवल ऐतिहासिक घटना-मात्र बनकर रह गई है।

6. अदृश्य बेरोजगारी (Disguised Unemployment)-जब श्रमिक की सीमान्त उत्पादकता शून्य (0) अथवा ऋणात्मक (-ve) होती है तो ऐसी दशा अदृश्य बेरोजगारी की। दशा कहलाती है; जैसे-यदि किसी कार्य को 10 व्यक्ति सफलतापूर्वक कर सकते हो परन्तु वहाँ 15 व्यक्ति काम में संलग्न हों तो स्पष्ट है कि वहाँ 5 व्यक्ति किसी प्रकार का योगदान नहीं दे रहे हैं। यदि इन्हें हटा भी दिया जाए तो कुल उत्पादन में कमी नहीं आएगी। अन्य शब्दों में, इन 5 व्यक्तियों की सीमान्त उत्पादकता शून्य है। यही अदृश्य प्रच्छन्न बेरोजगारी है। इस प्रकार का अनुमान लगाना बहुत कठिन कार्य है। भारत का कृति उद्योग इसी अदृश्य बेरोजगारी से पीड़ित है।

7. दृश्य बेरोजगारी (Visible Unemployment)-इस प्रकार की बेरोजगार प्राय: विकसित देशों में पायी जाती है। जब अर्थव्यवस्था में प्रभावपूर्ण माँग के कम हो जाने श्रम की पूर्ति में वृद्धि हो जाने अथवा आर्थिक उच्चावचनों (Fluctuations) के कारण ला को वृत्तिहीन (बेकार) रहना पड़ता है, तो वह दृश्य बेरोजगारी कहलाती है।

8. शिक्षित बेरोजगारी (Educated Unemployment) – शिक्षा के प्रसार के -साथ विगत कुछ वर्षों से इस प्रकार की बेरोजगारी का प्रसार होने लगा है। इस प्रकार की बेरोजगारी मुख्यत: नगरों में पायी जाती है।

9. तकनीकी बेराजगारी (Technological Unemployment) – इस प्रकार का बेरोजगारी का प्रमुख कारण ऐसी उत्पादन विधियों का प्रचलित होना है जिनमें अपेक्षाकृत कम जनशक्ति की आवश्यकता होती है। 

बेरोजगारी की समस्या के समाधान हेतु कुछ उपाय एवं सुझाव 

(Practical Measures and Suggestions to solve the Problem of Unemployment) 

किसी भी देश में व्याप्त बेरोजगारी की समस्या के समाधान के लिए निम्नलिखित उपाय एवं सुझाव उपयोगी हो सकते हैं

1. पूंजी विनियोग को प्रोत्साहन (Promotion to Capital Investment)रोजगार में वृद्धि करने का सबसे प्रभावशाली उपाय यह है कि पूँजी के विनियोग को यथासम्भव प्रोत्साहित किया जाए। निजी क्षेत्र के अतिरिक्त स्वयं सरकार सार्वजनिक क्षेत्र में कारखाने तथा उत्पादन इकाइयों का विकास एवं विस्तार करे। श्रम-बहुल देशों में सरकार द्वारा श्रमप्रधान उद्योगों FLabour Intensive Industries) के विकास पर विशेष बल दिया जाता है। कीन्स ने इस नीति का प्रवल समर्थन किया है। उनके शब्दों में, “लोक विनियोग देश की राष्ट्रीय आय तथा रोजगार को बढ़ाने में लाभदायक होते हैं।” पूँजी के विनियोग में वृद्धि करने के लिए सरकार कई दिशाओं में कदम उठा सकती है; जैसे-देश की मौद्रिक, राजकोषीय, औद्योगिक तथा अन्य नीतियों में वांछनीय सुधार करना आदि। इन उपायों का संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है

(i) मौद्रिक नीति (Monetary Policy)-रोजगार के अधिक अवसर प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि देश की मौद्रिक नीति में इस प्रकार परिवर्तन किए जाएँ कि आर्थिक तथा सामाजिक दृष्टि से वांछनीय क्षेत्रों को आवश्यक धनराशि यथेष्ट मात्रा में प्राप्त हो संके, और यह तभी सम्भव है जबकि देश में बैंकिंग सुविधाओं का तीव्र गति से विस्तार हो तथा ब्याज की ऊँची दरों पर उदार साख सुविधाएं उपलब्ध हों।

(ii) राजकोषीय नीति (Fiscal Policy)-पूँजी के विनियोग पर देश की राजकोषीय नीति का भी व्यापक प्रभाव पड़ता है। अत: देश की समस्त राजकोषीय क्रियाओं अर्थात् करारोपण, सार्वजनिक ऋण तथा सार्वजनिक व्यय आदि का मुख्य उद्देश्य बचत तथा विनियोग को प्रोत्साहन देना होना चाहिए।

(iii) औद्योगिक नीति (Industrial Policy)-जहाँ तक औद्योगिक नीति का ल है इसका देश की औद्योगिक संरचना पर निर्णायक प्रभाव पड़ता है। औद्योगिक नीति का तम ध्यय एक ऐसी औद्योगिक संरचना का निर्माण होना चाहिए जिसमें वृहत्, मध्यम, लघु तथा कुटार सभी प्रकार के उद्योगों का समचित विकास हो सके और अधिक-से-अधिक लोगों चलाभदायक रोजगार की सुविधाएं मिल सका

2. श्रम-शक्ति पर नियन्त्रण (Control Over Labour Power) – श्रम-शक्ति है। निरन्तर अभिवृद्धि को रोकने के लिए यह आवश्यक है कि जनसंख्या की वृद्धि पर प्रभावपारी नियन्त्रण रखा जाए। इस ध्येय की पूर्ति परिवार नियोजन (Family Planning) कार्यक्रम के माध्यम से हो सकती है।

3. जनशक्ति नियोजन (Planning for Man-Power) – नियोजन के इस युग में जनशक्ति के सर्वोत्तम उपयोग की दृष्टि से इसका नियोजन करना एक अनिवार्यता है।

4. कृषि का विकास (Development of Agriculture) – भारतीय अर्थव्यवस्था की आधारशिला आज भी कृषि ही है, अत: हरित क्रान्ति (Green Revolution) को और अधिक सफल बनाने के प्रयास किए जाने चाहिए।

5. उद्योगों का विकास (Development of Industries) – वस्तुत: प्रत्येक औद्योगिक योजना का प्रधान लक्ष्य रोजगार के अवसरों में वृद्धि करना होना चाहिए। अन्य शब्दों में, एक ऐसी रोजगारप्रधान योजना बनानी चाहिए, जिसमें आधारभूत उद्योगों के साथ-साथ लघु तथा कुटीर उद्योगों को भी उचित स्थान प्राप्त हो। ग्रामों में लघु तथा कुटीर उद्योग ही सम्भावित रोजगार के केन्द्र-बिन्दु हैं। इनसे ही गाँवों का औद्योगीकरण सम्भव है।

6. उत्पादन शक्ति का पूर्ण उपयोग (Complete Utilization of Production Capacity) – उद्योगों की पूर्ण उत्पादन क्षमता के अनुसार उत्पादन करना चाहिए, तभी उत्पादन लागत में कमी हो सकेगी तथा अतिरिक्त रोजगार के अवसर भी उपलब्ध होंगे। यह भी का पूर्ण उपयोग नहीं किया जा रहा है। स्मरणीय है कि इस समय भारत में भी अनेक उत्पादन इकाइयाँ ऐसी हैं जिनकी उत्पादन क्षमता

7. शिक्षा प्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन (Fundamental Changes in Education System) -19वीं शताब्दी की कालातीत (outdated) शिक्षा प्रणाली को तुरन्त बदल देना चाहिए क्योंकि यह केवल नौकरशाही वर्ग (Bureaucratic Class) को जन्म देती है।

8. प्रशिक्षण तथा मार्गदर्शन योजनाएँ (Training and Guidance Schemes) – विकासशील देशों की सबसे बड़ी दुर्बलता यह है कि यहाँ श्रम-शक्ति तो बहुलता में प्राप्त होती है, परन्तु कुशल श्रम-शक्ति का प्रायः अभाव पाया जाता है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि इन देशों में प्रशिक्षण तथा मार्गदर्शन सुविधाओं का विस्तार किया जाए ताकि जनशक्ति की कुशलता में वृद्धि हो सके।

9. सामाजिक सुधारों का विस्तार (Extension of Social Reforms) – आर्थिक विकास का सामाजिक पहलू अत्यन्त सबल है, अत: आवश्यकता इस बात की है कि असामाजिक प्रवृत्तियों को नियन्त्रित किया जाए तथा सामाजिक सुविधाओं को बढ़ाया जाए जिससे आर्थिक विकास के लिए एक उपयुक्त वातावरण तैयार हो सके।

10. रोजगार कार्यालयों का विस्तार (Expansion of Employment Exchanges) – श्रम की मॉग और पूर्ति में सम्पर्क स्थापित करने की दृष्टि से सेवायोजन कार्यालयों का विस्तार किया जाना चाहिए।

प्रश्नभारत में वर्तमान मन्दी के कारण बताइए तथा इसके लिए सुधार सुझाव दीजिए।

Explain the causes of Industrial slow down in India and suyu its remedial measures. 

अनौद्योगिक रुग्णता की परिभाषा दीजिए तथा इसके कारणों की व्याख्या

Define industrial sickness and critically examine the causes industrial sickness, 

अथवा वर्तमान औद्योगिक मन्दीपर एक निबन्ध लिखिए।

Write an essay on “Present Industrial Recension,

उत्तर – बीमार औद्योगिक कम्पनी (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1986’ के अन्तर्गत बीमार औद्योगिक इकाई को निम्न प्रकार परिभाषित किया गया है

“बीमार औद्योगिक कम्पनी उसे कहा जाएगा जो कम-से-कम सात वर्षों से रजिस्टर्ड ही तथा जिसमें किसी वित्तीय वर्ष के अन्त में उसकी कुल स्वामी-पूँजी (net worth) के बराबर या उससे अधिक घाटा संचित है और उसे ऐसे वित्तीय वर्ष तथा उसके ठीक पहले के वित्तीय वर्ष में भी नकद घाटा (cash loss) सहन करना पड़ा है।”

औद्योगिक मन्दी के कारण

(Causes of Industrial Recession) 

पिछले एक दशक से विश्व के अनेक राष्ट्र औद्योगिक मन्दी के दौर से गजर रहे हैं यद्यपि अब इस अवस्था में काफी सुधार आता जा रहा है। मन्दी के इस दौर का कट अनुभव भारतीय उपभोक्ता समाज पर भी स्पष्ट रूप से देखा गया है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में औद्योगिक मन्दी के चक्रीय एवं ढाँचागत कारण निम्नलिखित हैं

(अ) चक्रीय कारण (Cyclical Causes)

औद्योगिक मन्दी के चक्रीय कारण निम्नलिखित हैं__

1. सामयिक विनियोग चक्र (Timely Investment, Cycles) सामायक विनियोग चक्र को एक उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है। जैसे-सन 2004 ई० तक तटक में पूर्वी एशियाई देशों के स्तर तक कमी करने का सरकारी निर्णय। इस निर्णय का प्रभाव या हुआ कि इससे देश में होने वाले विनियोग निर्णय स्थगित हो गए।

2. टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुओं की माँग में स्थायित्व की कमी (Lack of Stability in Long Consumable Stores) टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुओं की माँग में स्थायित्व का होना भी औद्योगिक मन्दी लाने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

3. ई-व्यवसाय तथा ई-वाणिज्य का श्रीगणेश (Beginning of e-Busineth and e-Commerce) ई-व्यवसाय (e-Business) तथा ई-वाणिज्य (e-Commerce)

की वजह से मांग व पूर्ति के प्रबन्ध में सुधार तथा लागतों में कमी करके स्कन्ध में माल को अति न्यूनतम स्तर पर लाने के लिए भी व्यापार चक्रों द्वारा काफी दबाव बनाया जाता है।

4.कुछ उद्योगों की वस्तुओं की माँग का कम होना (Lesser Demand of Some Industrial Products)-कुछ उद्योगों की वस्तुओं की माँग का कम होना भी औद्योगिक मन्दी का कारण बन जाता है। ये उद्योग विशेषतः सीमेण्ट उद्योग, इस्पात उद्योग, ऑटोमोबाइल उद्योग आदि हैं। 

(ब) ढाँचागत कारण (Structural Causes)

औद्योगिक मन्दी के प्रमुख ढाँचागत कारण निम्नलिखित हैं-

1. आधारभूत ढाँचे का अभाव (Lack of Infrastructure)-आज भी हमारे देश में आधारभूत ढाँचे का अभाव बना हुआ है। सेवाओं के क्षेत्र में भी विशेषत: यातायात, शक्ति आदि की अपर्याप्त एवं अविश्वसनीय पूर्ति है।

2. बढ़ती हुई प्रतियोगिता (Increasing Competitions)-भारत में तेजी से बढ़ती हुई प्रतियोगिता के कारण औद्योगिक समायोजन प्रक्रिया (अर्थात् समामेलन एवं विलय) में विलम्ब लगना भी औद्योगिक मन्दी का एक कारण है।

3. उत्पादकता का निम्न स्तर (Low Standard of Productivity)-भारत में औद्योगिक क्षेत्र की उत्पादकता के निम्न स्तर के लिए आर्थिक मन्दी ही उत्तरदायी है। पुरानी तकनीकी तथा श्रम कानूनों में सुधार न होने की वजह से उत्पादकता का स्तर निम्न है। उत्पादकता का स्तर निम्न होने की वजह से बड़े पैमाने की बचतों का लाभ भी नहीं मिल पा रहा है।

4. ऑटोमोबाइल तथा वास्तविक सम्पत्ति की कम माँग (Less Demand of Automobile and Real Estate)-मन्दी का दौर इसलिए भी आया कि ऑटोमोबाइल तथा वास्तविक सम्पत्ति जैसे क्षेत्रों की माँग में कमी आ गई। इस कमी का परिणाम यह हुआ कि सम्पत्ति मूल्यों में कमी, करों में कमी तथा शुल्कों में कमी की आशा के कारण औद्योगिक मन्दी आयी है।

औद्योगिक मन्दी को समाप्त करने के उपाय

(Steps to remove Industrial Recession) 

किसी बीमार औद्योगिक इकाई का उपचार उतना ही कठिन होता है जितनी कि किसी कठिन व्याधि से ग्रसित किसी रोगी का उपचार होता है। यदि यह कहा जाए कि यह उपचार उससे भी कठिन होता है तो इसमें कोई अतिशयोक्ति न होगी क्योंकि किसी रोगी व्यक्ति की स्वयं की इच्छा-शक्ति तथा जीवन के प्रति उसकी आशा ही उसके नीरोग होने में सहायता करती है, जबकि एक बीमार व्यावसायिक उपक्रम मात्र एक कृत्रिम संगठन होता है, जिसमें अनेक व्यक्तियों तथा व्यक्ति-समहों के हित जड़े होते हैं, अत: उपचारकर्ता को तो उन सब से सहयोग की अपेक्षा करनी होती है। तथापि औद्योगिक रुग्णता को समाप्त करने के अनेक उपाय होते हैं जो कि अग्र प्रकार हैं-

1. रियायती वित्त (Concessional Finance)-रुग्ण इकाई को वित्तीय संस्था द्वारा रियायती वित्तीय सुविधा प्रदान करनी चाहिए। यदि इकाई पुरानी मशीनों के कारण रुग्णा तो दीर्घकालीन ऋण उपलब्ध कराकर उनका आधुनिकीकरण किया जा सकता है। हता प्रकार, यदि इकाई की रुग्णता का कारण कार्यशील पूँजी का अभाव अथवा दोषपूर्ण पंज संरचना है तो कम ब्याज दर पर कार्यशील पूँजी की व्यवस्था, पुराने बिलों की अदायगी की तिथियों में परिवर्तन और इन ऋणों की ब्याज दरों में कमी आदि उपायों द्वारा उसे इस संकट से उबरने का अवसर प्रदान किया जा सकता है।

2. ब्याज दरों में और कटौती (Lesser Interest Rates)-यद्यपि आज पहले की तुलना में ब्याज की दरों में काफी कमी आ गई है तथापि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर को देखते हुए अभी भी ब्याज दरों में कमी लाने की काफी गुंजाइश है।

3. तटकरों में कमी (Lesser Custom Duties)-सरकार ने हाल ही में इस ओर कदम उठाए हैं। तटकरों को, जो पहले 20% थे, कम करके अब 10% कर दिया गया है यह कमी कुछ दशाओं में घटाकर 5% तक कर दी गई है तथा उन पर जो 10% सरचार्ज लगाया जाता था उसे भी हटा दिया गया है।

4. केन्द्रीय आबकारी अधिनियम का सरलीकरण (Simplification of Central Excise Duty Act)-औद्योगिक मन्दी को कम करने की दिशा में सरकार ने इस अधिनियम को सरलीकृत किया है तथा इसके प्रावधानों में भी काफी कमी की गई है। इसके अलावा, सेनवैट (CENVAT) की 16% की एकल दर से आबकारी करों (Excise Duties) को विवेकसम्मत किया गया है।

5. गैर – बैंकिंग कम्पनियों के लिए छूट (Rebate on Non-banking, Companies)-गैर-बैंकिंग वित्तीय कम्पनियों (NBFCs) के लिए सरकार ने 100% विदेशी अंशधारिता की छूट दे दी है।

6. रक्षा उद्योग को निजी क्षेत्र के लिए खोलना (Opening of Defence Industry in Private Sector)-रक्षा उद्योगों को निजी क्षेत्र के लिए खोल दिया गया है। इनमें 26% तक के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) की अनुमति दी जा चुकी है, जिससे इन उद्योगा के लिए पूँजी की कमी न रहे।

7. अन्य शत-प्रतिशत विदेशी निवेश के लिए छूट पाने वाले क्षेत्र – सरकार द्वारा औद्योगिक मन्दी को दूर करने के लिए जिन क्षेत्रों को शत-प्रतिशत विदेशी निवेश की अनुमति दी गई है वे निम्नवत् हैं

बी-से, बी-वाणिज्य, दूरसंचार क्षेत्र की गतिविधियाँ, हवाई अड्डा, कोरियर सेवाए आवास-विकास, औषधि एवं भेषज, होटल तथा पर्यटन क्षेत्र, विशिष्ट आर्थिक क्षेत्रों में उत्पाद गतिविधियाँ (कुछ अपवादों को छोड़कर) इत्यादि।

प्रश्न राष्ट्रीय आय की विभिन्न अवधारणाओं को स्पष्ट कीजिए।

Explain the different concepts of National Income. 

अथवा राष्ट्रीय आय पर एक विस्तृत लेख लिखिए।

Write a detailed note on National Income. 

उत्तर – राष्ट्रीय आय-अर्थ व परिभाषा

National Income : Meaning and Definition) 

सामान्यतया व्यक्तियों, कम्पनियों और सरकार को आय प्राप्त होती है व इनकी आय के स्रोत पृथक्-पृथक् होते हैं। व्यक्तियों को मजदूरी, वेतन, शुल्क, लगान, ब्याज, लाभांश आदि मिलता है। कम्पनियों और सरकारी उद्यमों को लाभ, लगान, ब्याज, लाभांश आदि प्राप्त होता है। सरकार भी कुछ मात्रा में लाभ, लगान, ब्याज आदि प्राप्त करती है। किन्तु इन सभी आयों के कुल योग को राष्ट्रीय आय नहीं कहा जा सकता क्योंकि सभी प्रकार के धन के स्थानान्तरण, आय के स्रोत नहीं होते।

राष्ट्रीय आय में प्रमुख रूप से निम्नलिखित तीन बातें सम्मिलित की जाती हैं

(1) किसी समय-विशेष में उत्पादन के साधनों से नकद या वस्तु के रूप में मिलने वाली समस्त आय का कुल योग।

(2) राष्ट्रीय उत्पादन के कुल उद्यमों में होने वाले विशुद्ध उत्पादनों का कुल योग।

(3) उपभोक्ताओं के खर्चे, माल और सेवाओं पर सरकारी व्यय तथा पूँजीगत माल पर विशुद्ध व्यय का कुल योग।

प्रो० मार्शल ने देश के समस्त उत्पादन से प्राप्त होने वाली आय को, चाहे उत्पादन भौतिक वस्तुओं के रूप में हो अथवा अभौतिक वस्तुओं के रूप में, राष्ट्रीय आय में सम्मिलित किया है।

राष्ट्रीय आय की विभिन्न अवधारणाएँ

(Various Concepts of National Income) 

राष्ट्रीय आय के सम्बन्ध में निम्नलिखित धारणाएँ प्रचलित हैं

1. कल राष्ट्रीय उत्पाद-किसी अर्थव्यवस्था में जो भी अन्तिम वस्तुएँ और सेवाएँ एक वर्ष की अवधि में उत्पादित की जाती हैं, उन सभी के बाजार मूल्य के योग को ‘कल राष्ट्रीय उत्पाद’ कहते हैं। इसमें हम केवल उन्हीं वस्तुओं और सेवाओं को लेते हैं, जो कि बाजार में आती हैं।

कुल राष्ट्रीय उत्पाद के सम्बन्ध में निम्नलिखित बातें ध्यान में रखना आवश्यक है

(i) कुल राष्ट्रीय उत्पाद को चालू वर्ष में ही उत्पादित वस्तुओं के मौद्रिक मूल्य में सम्मिलित किया जाता है।

(ii) कुल राष्ट्रीय उत्पाद को सही-सही आँकने के लिए किसी भी एक वर्ष में उत्पादित पस्तुआ और सेवाओं को केवल एक ही बार गिना जाना चाहिए, एक से अधिक बार नहीं।

(iii) इसमें केवल अन्तिम वस्तुएँ ही सम्मिलित की जाती हैं।

राष्ट्रीय आय के द्वारा न मापी जाने वाली प्रक्रियाएँ 

(Activities which are not measured by National Income)

एक दिए गए वर्ष में राष्ट्रीय आय संगठित बाजार में आर्थिक क्रियाओं के प्रवाह को मापने का कार्य करती है, किन्तु उन आर्थिक क्रियाओं को, जो बाजार के बाहर घटित होती हैं, राष्ट्रीर आय नहीं मापती है, हालाँकि इनके द्वारा वास्तविक साधनों का उपयोग किया जाता है तथा रे मनुष्य की आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करती हैं। राष्ट्रीय आय द्वारा न मापी जाने वाली ऐस प्रमुख क्रियाएँ अग्र प्रकार हैं-

1. काला धन इकट्ठा करने सम्बन्धी क्रियाएँ (Black Money Collecti Activities)-ऐसी आय, जो आयकर के अन्तर्गत नहीं दर्शायी जाती, काले धन के अन्तर आती है।

2. गैर-बाजार सम्बन्धी क्रियाएँ (Non-market related Activities)-इनके अन्तर्गत निम्नलिखित क्रियाओं को शामिल किया जाता है

स्वेच्छा से बिना पारिश्रमिक किया हुआ कार्य, गृहिणी द्वारा किया गया गृह-कार्य इत्यादि।

3. अवैधानिक आर्थिक क्रियाएँ (allegal Economic Activities)-जैसे नशीली दवाओं का व्यापार, चोरी की वस्तुओं का व्यापार, जुआ खेलना, वेश्यावृत्ति इत्यादि।

भारत में राष्ट्रीय आय की धीमी वृद्धि के कारण 

(Causes of Slow Growth of National Income in India)

भारत में राष्ट्रीय आय एवं प्रति व्यक्ति आय के कम होने के पीछे बहुत-से कारण हैं। इनमें से प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं

1. औद्योगीकरण का पिछड़ना (Backwarding of Industrialization)भारत में राष्ट्रीय आय में कम वृद्धि होने के पीछे औद्योगीकरण का पिछड़ना भी एक कारण है। भारत में अभी भी आधुनिक ढंग के आधारभूत बड़े उद्योगों का अभाव है। यही नहीं, उपभोक्ता उद्योगों का भी अभी यहाँ पूरी तरह से विकास नहीं हो पाया है। किन्तु पिछले कुछ वर्षों से वैश्वीकरण तथा उदारीकरण के कारण इस दिशा में काफी तेजी से परिवर्तन देखने में आ रहे हैं तथा अनुमान है कि इससे देश की राष्ट्रीय आय तथा प्रति व्यक्ति आय बढ़ने की पूर्ण

सम्भावनाएं हैं।

2. कृषि पर अधिक निर्भरता (More Dependence on Agriculture)-भारत की राष्ट्रीय आय कम होने का प्रमुख कारण यहाँ के लोगों का बहुतायत में कृषि पर आश्रित होना है। यहाँ प्रत्येक 10 व्यक्तियों में से लगभग 7 व्यक्ति केवल कृषि पर आश्रित हैं। इसकी वजह से कृषि पर अधिक भार पड़ता है, जिसके परिणामस्वरूप देश में पट्टे, उपविभाजन, अनार्थिक जोत, भमिहीन ग्रामीणों तथा अपखण्डन इत्यादि की समस्याएँ बहुत अधिक हैं, जिनका प्रभाव कृषि उत्पादन पर काफी प्रतिकूल पड़ता है तथा भारतीय राष्ट्रीय आय भी कम रहती है।

3.पूँजी निर्माण की कमी का होना (Lack of Capital Formation)-भारत का आज भी Poor Capital Economy कहा जाता है, जिसका प्रमुख कारण है-बचत का कम होना तथा उद्योगों के लिए पर्याप्त पूँजी का न मिल पाना। इसके अलावा यहाँ पर परम्परागत विधियाँ तथा उपकरण प्रयुक्त होते हैं और व्यक्तियों के द्वारा पैतृक धन्धों में लगना, उत्पादन का छोटा होना, कम मशीनों का प्रयोग करना इत्यादि भी कम पूँजी निर्माण के महत्त्वपूर्ण कारण ही वास्तव में पूँजी निर्माण की दृष्टि से भारत न प्रकार की समस्याएँ पायी जाती हैं

(i) कम राष्ट्रीय आय का होना 

(ii) कम बचत का होना । 

(iii) जनसंख्या का बाहुल्य होना।

उक्त तीनों के संयुक्त परिणाम की वजह से यहाँ पूँजी के निर्माण की दर कम है।

4. योग्य साहसियों का अभाव (Lack of Efficient Entrepreneurs) यह निश्चित है कि आर्थिक विकास के क्षेत्र में साहसी वर्ग का होना अत्यन्त आवश्यक है। साहसी वर्ग ही निर्जीव साधनों को सक्रिय साधनों में बदल देता है और औद्योगिक अवसरों का पता लगाकर उनमें पदार्पण करता है तथा जोखिम उठाकर लाभ कमाने की चेष्टा करता है। उदारीकरण से पूर्व भारत का सामाजिक, आर्थिक वातावरण इस तरह का बना रहा जिससे साहसियों की कमी बनी रही। नतीजा यह हुआ कि यहाँ की राष्ट्रीय आय भी कम रही।

5.आर्थिक संरचना में कमी (Shortage in Economic Infrastructure)- देश में आर्थिक विकास के लिए जिस आर्थिक संरचना की आवश्यकता थी, उसकी पर्याप्त मात्रा नहीं थी। ये आधारभूत संरचना हैं रेलवे, सड़क, बिजली, पुल इत्यादि। इनकी कमी की वजह से देश का आर्थिक विकास तीव्र गति से नहीं हो सका, जिसके कारण यहाँ की राष्ट्रीय आय कम रही।

6.निम्न उत्पादकता (Low Productivity)-हमारे देश की प्रति श्रमिक उत्पादकता अन्य विकसित देशों की तुलना में काफी कम है जिसकी वजह से भी प्रति व्यक्ति आय एवं राष्ट्रीय आय में कम वृद्धि होती है।

7.बेरोजगारी की समस्या (Problem of Unemployment)-देश में बेरोजगारी तथा अर्द्ध-बेरोजगारी की समस्या काफी विस्तृत है, जिसका प्रमुख कारण यहाँ जनसंख्या का बाहुल्य है। यहाँ श्रमिकों की बहुलता तथा पूँजीगत साधनों का अभाव है, अत: समस्त कार्यकारी जनमानस को लाभकारी रोजगार देना सभी सरकारों के लिए लोहे के चने चबाने जैसा हो गया है जिसकी वजह से राष्ट्रीय आय तथा प्रति व्यक्ति आय काफी कम है।

8. राष्ट्रीय आय का असमान वितरण (Unequal Distribution of National Income)-भारत में राष्ट्रीय आय का वितरण बहुत ही असमान है, जिसका मुख्य कारण यहाँ की कर नीति है। वर्तमान समय में यहाँ का गरीब व्यक्ति अधिक गरीब होता जा रहा है तथा अमीर व्यक्ति और अधिक अमीर होता जा रहा है।

9. जाति तथा धर्म के बन्धन (Boundations of Caste and Religion)-भारत में जाति तथा धर्म के बन्धन इतने कठोर हैं कि नवीन परिस्थितियों में भी ये टूटने का नाम नहीं ले रहे। इनके कारण यहाँ की अधिकांश जनता में गतिशीलता का अभाव है, जिसके कारण उद्योग पिछड़ी हुई स्थिति में हैं।

10. बच्चों का शीघ्र विवाह (Early Marriage of Children)-भारत में जहाँ भी अशिक्षा की स्थिति व्याप्त है, वहाँ के परिवारों में आज भी लड़के, लड़कियों को बाल्यावस्था में ही विवाह के बन्धन में बाँध दिया जाता है, जिससे बच्चों का पूर्ण विकास नहीं हो पाता तथा वे अल्पायु में ही सामाजिक बन्धन में बँध जाते हैं और केवल जनसंख्या बढ़ाने में ही अपना योगदान दे पाते हैं।

11. अशिक्षा व अज्ञानता (Illiteracy and Ignorance)-हमारे देश की जनसंख्या का काफी बड़ा भाग आज भी अशिक्षित एवं अज्ञानी है, जिसके कारण देश आर्थिक एवं सामाजिक दृष्टिकोण से पिछड़ा हुआ है।

देश की राष्ट्रीय आय बढ़ाने हेतु सुझाव 

(Suggestions for Raising The National Income of the Country)

देश की राष्ट्रीय आय बढ़ाने हेतु कतिपय सुझाव निम्नलिखित हैं-

(1) ग्रामों का समन्वित विकास होना चाहिए, 

(2) कृषि का समुचित विकास किया जाए, 

(3) सामाजिक पूँजी का विकास किया जाए, 

(4) औद्योगिक विकास की दर को और अधिक बढ़ाया जाए, 

(5) वित्तीय स्थिरता लायी जाए, 

(6) पूँजी तथा उत्पादन अनुपात में कमी लायी जानी चाहिए, 

(7) बचत तथा विनियोग की दर को बढ़ाया जाना चाहिए। 

(8) मानवीय पूँजी का विकास अत्यधिक मात्रा में किया जाए: 

(9) वैज्ञानिक तथा तकनीकी विकास तेजी से होना चाहिए,

(10) जनसंख्या को नियन्त्रित करने की आवश्यकता है। ‘One Child Normal अपनाना चाहिए।

प्रश्न – लघु औद्योगिक इकाइयों की रुग्णता के लिए कौन-से घटक उत्तरदायी हैं? लघु औद्योगिक इकाइयों की इस रुग्णता को दूर करने हेतु उपाय बताइए।

What factors are responsible for the sickness of Small Scale Industries ? Suggest the measures to remove this sickness of Small Scale Industries. 

उत्तर – लघु औद्योगिक इकाइयों की रुग्णता के लिए उत्तरदायी प्रमुख घटक 

(Main factors Responsible for the Sickness of Small Scale Industries) 

31 मार्च, 2002 ई० तक देश में रुग्ण इकाइयों की संख्या ढाई लाख से भी ऊपर १७ चकी थी, जो एक चिन्ता का विषय है। भारत में लघ औद्योगिक इकाइयों (SSD को रुग्णाकिए गए विभिन्न अध्ययनों के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि इन इकाइयों का के लिए प्रमुखत: निम्नांकित घटक उत्तरदायी होते हैं

1. प्रबन्धकीय सिद्धान्तों की अवहेलना – लघ औद्योगिक इकाइयों के माल कम स्वामित्व पूँजी से अपना कारोबार शरू करते हैं तथा वे अच्छी परिस्थितिय आन्तरिक वित्तीय संसाधनों के निर्माण हेतु कोई प्रयास नहीं करते। इन इकाइयों में प्रार एवं बिक्री की तुलना में स्कन्ध के निर्माण हेत मात्रा बहुत अधिक रखी जाता कार्यशील पूंजी की कमी हो जाती है तथा उत्पादन लागत में भी वद्धि हात औद्योगिक इकाइयाँ अल्पकालीन उधार को मध्यमकालीन अवधि में निवेश के लि लेती हैं जिससे वित्तीय प्रबन्धन में कठिनाई उत्पन्न होती है। दसरे शब्दों में, लघु औद्योगिक

इकाइयाँ अक्सर प्रबन्धकीय सिद्धान्तों का पालन नहीं करती हैं, जिससे इनके प्रबन्धन में बाधा आती है तथा कालान्तर में ये इकाइयाँ रुग्ण हो जाती हैं।

2.क्षमता का अपूर्ण उपयोग – कई बार कार्यशील पूंजी के अभाव, माँग में कमी एवं कच्चे माल की कमी के कारण लघु औद्योगिक इकाइयों की उत्पादन क्षमता का पूरा उपयोग नहीं हो पाता है। इससे ये इकाइयाँ धीरे-धीरे रुग्णावस्था में पहँच जाती हैं।

3.सरकार का भारी उद्योगों की ओर झुकाव – सरकारी नीतियाँ भी लघु औद्योगिक इकाइयों की सफलता एवं साध्यता को प्रभावित करती हैं। कई बार सरकारी नीतियों में परिवर्तन का लघु औद्योगिक इकाइयों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, परिणामस्वरूप ये इकाइयाँ रुग्ण हो जाती हैं। उदाहरणार्थ-भारत में लघु औद्योगिक इकाइयों के लिए आरक्षित उत्पादों की सूची में कटौती के कारण ये इकाइयाँ प्रतियोगिता में नहीं ठहर पा रही हैं तथा अधिकांश इकाइयाँ घाटे में चल रही हैं। इसके साथ ही सरकार का झुकाव भी भारी उद्योगों के विकास की ओर अधिक रहा है। भूमण्डलीकरण की नीति के कारण लघु औद्योगिक इकाइयों को वृहत् उद्योगों तथा बहुराष्ट्रीय निगमों (MNCs) से प्रतियोगिता करनी पड़ती है और लघु औद्योगिक इकाइयाँ इस प्रतियोगिता में नहीं ठहर पातीं, फलस्वरूप ये या तो घाटे में चल रही हैं अथवा रुग्ण हो चुकी हैं। 

4. प्रबन्ध कार्य में अकुशलता – लघु स्तरीय औद्योगिक इकाइयों की स्थापना करने वाले अधिकांश साहसी प्रबन्ध का विशिष्ट ज्ञान नहीं रखते हैं। प्रबन्धकीय कुशलता के अभाव में इन इकाइयों की उपरिव्यय लागतें बहुत ऊँची होती हैं। इन इकाइयों की स्थापना में लगी पूँजी पर ब्याज की दरें प्राय: ऊँची होती हैं तथा शुरुआत में साहसियों द्वारा मितव्ययिता भी नहीं अपनायी जाती। अत: प्रबन्धकीय अनुभव की कमी के कारण अनेक लघु औद्योगिक इकाइयाँ रुग्ण हो जाती हैं।

लघु स्तरीय उद्योगों की रुग्णता को दूर करने हेतु उपाय 

(Measures to remove the Sickness of Small Scale Industries)

भारी उद्योगों तथा लघु उद्योगों को एक ही पैमाने से नहीं मापा जाना चाहिए। लघु इकाइयों की समस्याएँ भारी उद्योगों से सर्वथा भिन्न हैं। लघु उद्योगों की रुग्णता को रोकने हेतु ठोस उपाय किए जाने की आवश्यकता है। लघु स्तर की इकाइयों की रुग्णता को रोकने के लिए कुछ उपाय निम्नलिखित हैं-

(1) लघु स्तरीय इकाइयों में स्कन्ध की मात्रा को अनुकूलतम स्तर पर रहना चाहिए ताकि लागतों में कमी की जा सके तथा उत्पादन एवं बिक्री पर भी विपरीत प्रभाव न पड़े।

(2) अल्पकालीन वित्तीय स्रोतों से प्राप्त पूँजी को मध्यमकालीन/दीर्घकालीन निवेश हेतु प्रयुक्त किया जाए।

(3) लघु औद्योगिक इकाइयों के साहसियों को प्रशिक्षण देकर उनमें प्रबन्धकीय कुशलता का विकास करना चाहिए।

(4) लघु औद्योगिक इकाइयों को वित्तीय संसाधनों (आन्तरिक वित्तीय संस सृजन पर विशेष ध्यान देना चाहिए। जिस वर्ष इकाई को अधिक लाभ हो, उस व पुनर्विनियोग अधिक किया जाना चाहिए।

(5) लघु औद्योगिक इकाइयों में उपरिव्ययों में कटौती के प्रयास किए जाएँ, पँजी लागत में कमी लायी जाए तथा कोषों का अन्यत्र उपयोग न किया जाए।

प्रश्न – व्यावसायिक वातावरण की प्रकृति पर एक टिप्पणी लिखिए।

Write a note on the Nature of Business Environment. 

अथवा व्यवसाय तथा वातावरण के बीच एक विशिष्ट सम्बन्ध पाया जाता है। दोनों के बीच पारस्परिक सम्बन्धों की प्रकृति को स्पष्ट कीजिए।

A specific relation is found between Business and Environment, Explain the nature of mutual relationship between the two. 

उत्तर – व्यावसायिक वातावरण की प्रकृति

(Nature of Business Environment)

व्यवसाय की सफलता एवं विकास के लिए स्वच्छ व कुशल पर्यावरण अत्यन्त आवश्यक है। प्रशासनिक व्यवस्था के सुचारु व सुदृढ़ होने पर व्यावसायिक नीतियों का निर्धारण व उनका निष्पादन सरलता के साथ सम्भव हो जाता है। प्रशासनिक सेवाओं के अकुशल तथा भ्रष्ट होने से लाभ की अपेक्षा हानि की अधिक सम्भावना रहती है। यह सर्वविदित है कि व्यवसाय तथा वातावरण के बीच एक विशिष्ट सम्बन्ध पाया जाता है। निम्नलिखित बिन्दुओं के माध्यम से यह सम्बन्ध स्पष्ट किया जा सकता है

1. वातावरण अथवा पर्यावरण से निरन्तर सम्पर्क (Continuous relationship with Environment)-प्रत्येक व्यावसायिक संस्था को लगातार वातावरण से सम्पर्क बनाकर रखना आवश्यक होता है। इसके लिए प्रत्येक संस्था को द्विमार्गीय संचार की आवश्यकता होती है। इससे संस्था को वातावरण में हो रहे परिवर्तनों की तरन्त जानकारा मिलती रहती है तथा संस्था भी अपने नवीन उत्पादों एवं सेवाओं की जानकारी वातावरण का उपलब्ध कराने में सफल हो जाती है। यदि ये सम्पर्क सार्थक होते हैं तो संस्था का भविष्य उज्ज्वल होता है।

2. पर्यावरण की आवश्यकता की पूर्ति संस्था द्वारा किया जाना (Fulfilments Needs of Environment by Organization)-पर्यावरण की आवश्यकताआ का के लिए संस्था द्वारा हर सम्भव प्रयास किया जाना आवश्यक होता है। यदि संस्था एस कर पाती है तो वह धीरे-धीरे स्वत: ही समाप्त हो जाती है।

3. अनेक गतिशील तत्त्वों का निहित होना (Presence of Different me Elements)-व्यावसायिक संस्था के वातावरण में अनेक गतिशील तत्त्व निहित र तत्त्व हमेशा परिवर्तित होते रहते हैं।

4.वातावरण ही विस्तृत बाजार (Environment. being Extended, Market)-संस्था का वातावरण ही उसका विस्तृत बाजार होता है। प्रत्येक व्यावसायिक फर्म द्वारा उत्पादित वस्तुओं को अपने बाह्य वातावरण को उपलब्ध कराना होता है। जब वातावरण उन वस्तुओं अथवा सेवाओं को स्वीकार कर लेता है तो संस्था को विस्तृत बाजार उपलब्ध हो जाता है एवं संस्था की साख भी काफी बढ़ जाती है।

5. बाधाएँ एवं अनिश्चितताएँ (Barriers and Uncertainties)-प्रत्येक व्यावसायिक संस्था को व्यावसायिक वातावरण में कार्य करने में तथा वातावरण की अपेक्षाओं को सन्तुष्ट करने में अनेक अनिश्चितताओं व बाधाओं का सामना करना पड़ता है। जो संस्था इन अनिश्चितताओं एवं बाधाओं को पार कर लेती है और उपयुक्त अवसरों की खोज कर लेती है, वह सफल हो जाती है, किन्तु इसके विपरीत, यदि वह ऐसा करने में असमर्थ रहती है तो उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है।

6.संस्था को आन्तरिक एवं बाह्य वातावरण द्वारा प्रभावित करना (Affecting the Organization by Internal and External Environment)-प्रत्यक प्रकार का संस्था को आन्तरिक तथा बाहरी दोनों प्रकार का वातावरण प्रभावित करता है। संस्था अपने आन्तरिक वातावरण को भी नियन्त्रित कर सकती है, किन्तु बाह्य वातावरण अथवा परिदृश्य पर संस्था का कोई नियन्त्रण नहीं होता, अत: किसी भी संस्था को अपने निर्णय बाहा वातावरण को ध्यान में रखकर ही लेने होते हैं।

7. तत्त्वों में आपसी निर्भरता (Interdependency of Elements)-गतिशील पर्यावरण के तत्वों की एक प्रमुख विशेषता यह भी होती है कि ये समस्त तत्त्व आत्मनिर्भर नहीं होते एवं ये एक-दूसरे पर आधारित होते हैं। उदाहरणार्थ-आर्थिक घटक तथा सामाजिक घटक, राजनीतिक घटक तथा तकनीकी घटक एवं धार्मिक घटक तथा सामाजिक घटक आपस में एक-दूसरे को प्रभावित करते रहते हैं तथा ये परस्पर एक-दूसरे पर निर्भर रहते हैं।

8.संसाधनों का विनिमय करना (Exchanging Resources)-सभी व्यावसायिक प्रतिष्ठान संसाधनों को बाह्य वातावरण से प्राप्त करते हैं तथा इन संसाधनों का उपयोग करके वे वस्तुओं एवं सेवाओं का उत्पादन करते हैं। बिना इन संसाधनों को प्राप्त किए कोई भी संस्था अपने कार्यों को पूरा नहीं कर सकती। कुछ परिस्थितियों में तो इन संसाधनों को प्राप्त करने में संस्थाओं को काफी कठिनाई उठानी पड़ती है तथा प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता है।

9.सभी वर्गों के प्रति उत्तरदायित्व (Responsible towards All Classes)एक व्यापारिक प्रतिष्ठान वातावरण के सभी घटकों/वर्गों के प्रति उत्तरदायी होता है। ये वर्ग, जिनके प्रति एक व्यापारिक प्रतिष्ठान उत्तरदायी होता है, इस प्रकार है-उपभोक्ता, कर्मचारी, आम नागरिक, सरकारी तन्त्र, राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था, विनियोजक, प्रतिस्पर्धी प्रतिष्ठान इत्यादि। अत: प्रत्येक व्यापारिक प्रतिष्ठान को कोई भी निर्णय लेते समय इन सभी वर्गों का ध्यान, रखना चाहिए।

10. रूपान्तरण से उपयोगिता को सृजित करना (To Improve Utility by _Transformation)-व्यवसाय अपने वातावरण से जो कुछ साधन प्राप्त करता है, वह

उन्हें पुन: वातावरण को वापस करता है। इस प्रक्रिया में वह विभिन्न साधनों का करता है तथा उपयोगिता का सृजन भी करता है।

11. आकस्मिक परिवर्तनों के खतरे को सहना (To Face Casual Chanos व्यावसायिक जगत को पर्यावरण में होने वाले आकस्मिक परिवर्तनों के खतरे को भीर पड़ता है, चाहे वे व्यवसायी की क्षमता के अनुकूल हों या प्रतिकूल। ये आकस्मिक परिवर्तन प्रकार के हो सकते हैं; जैसे—बिजली की समस्या, मन्दीकाल, ब्याज की दरों में वृद्धि हो जा कच्चे माल का यकायक भाव बढ़ जाना, बाजार में अत्याधुनिक माल का आ जाना इत्यादि।

12. समाज में परिवर्तन का माध्यम (Media of Change in Society)-ऐसा नहीं है कि केवल वातावरण ही संस्थाओं को प्रभावित करता है, बल्कि यह देखा गया है कुछ संस्थाएँ भी वातावरण में परिवर्तन करने में अग्रणी रही हैं। अत: यह कहना उचित है”व्यवसाय वातावरण की उपज होने के साथ-साथ इसका सृष्टिकर्ता भी है।” व्यवसाय के द्वारा समय-समय पर समाज में शिक्षा, आचरण, जीवन-शैली तथा भौतिक एवं नैतिक स्तर में परिवर्तन लाए गए हैं और आगे भविष्य में भी परिवर्तन किए जाते रहेंगे।

13. परिवर्तनों के साथ-साथ परिवर्तित होना आवश्यक (To Change according to Changes)-प्रत्येक व्यावसायिक संस्था को अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए वातावरण के अनुसार अपने आप को परिवर्तित करना होता है। ग्राहकों की रुचियों, जीवन-शैली, फैशन, उत्पादन तथा वितरण तकनीक, प्रतिस्पर्धा, सरकारी नियमन एवं नीतियों तथा व्यापार चक्रों में लगातार परिवर्तन होते रहते हैं। अत: समस्त संस्थाओं को इन परिवर्तनों के अनुसार ही अपने आप को बदलना अनिवार्य है।

14. सूचनाओं का आदान-प्रदान (Exchange of Informations)-प्रत्येक व्यावसायिक संस्था अपने बाहरी पर्यावरण में अनेकानेक सूचनाओं का आदान-प्रदान भी करती है। सामान्यत: प्रत्येक संस्था बाह्य वातावरण का अध्ययन करती है तथा सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक एवं तकनीकी वातावरण के सम्बन्ध में सूचनाओं को प्राप्त करती है। इन सूचनाओं के आधार पर ही विभिन्न घटकों का अध्ययन किया जाता है तथा अनुमान भी लगाया जाता है। इन सूचनाओं के माध्यम से ही व्यवसायी उत्पादन, वित्त, क्रय-विक्रय आदि के सम्बन्ध में योजना बनाता है तथा निर्णयन एवं नियन्त्रण करता है। साथ ही वातावरण की जटिलताओं को समझकर वह समस्या का समाधान भी खोज निकालता है।

व्यवसायी द्वारा स्वयं भी बाह्य वातावरण को सूचनाएं प्रदान की जाती हैं। ये सूचनाए कभी-कभी अदालत के आदेशानुसार या सरकारी विभागों के द्वारा भी माँगी जा सकती हैं। साथ ही समय-समय पर वह अपने निवेशकों, कर्मचारियों एवं श्रम संघों को भी सूचनाएं उपल कराता है। कभी-कभी संस्थाएँ स्वेच्छा से भी बाह्य वातावरण को सूचनाएँ उपलब्ध कराता सूचनाएँ प्रेस विज्ञप्तियों अथवा विज्ञापनों इत्यादि के द्वारा ही दी जा सकती हैं।

15. अति विशिष्ट परिवर्तनों को जानना व्यवसाय का उत्तरदायित्व है (1t1s Responsibility of Organization to know Extraordinary Changes) कि विदित है, व्यावसायिक पर्यावरण निरन्तर गतिशील रहता है। साथ ही व्यवसाय सपा की जाती है कि जो पर्यावरण में अति विशिष्ट परिवर्तन हों, उन सभी की जानकारी व्यवसायी को अवश्य होनी चाहिए। इसके लिए व्यवसायी को कोई बताएगा नहीं अपितु इन परिवर्तनों की जानकारी उसे स्वयं रखनी होगी। इन्हीं परिवर्तनों की यदि पहले से जानकारी रखी जाए तो व्यवसाय को काफी लाभ होने की सम्भावना होती है।

16. कुछ घटकों का असीमित प्रभाव (Abnormal Effect of Some Components)-कुछ घटक ऐसे भी होते हैं, जिनका असीमित प्रभाव होता है। वे घटक हैं-नए वैधानिक प्रावधान, नए कानून, नई सरकारी नीतियाँ, वैज्ञानिक शोध, सामाजिक दशाएँ, राजनीतिक व सत्ता परिवर्तन, विदेशी दबाव, तकनीकी परिवर्तन इत्यादि। ये ऐसे घटक हैं जिन पर पर्यावरण द्वारा नियन्त्रण स्थापित कर पाना सामान्यतः सम्भव नहीं होता है।

अत: यह कहा जा सकता है कि व्यवसाय तथा वातावरण के मध्य काफी गहरा सम्बन्ध होता है।

प्रश्न – क्षेत्रीय असन्तुलन क्या है? भारत में क्षेत्रीय असन्तुलन को दर्शाइए तथा बताइए कि इसे ठीक करने हेतु सरकार ने क्या कदम उठाये हैं?

What are Regional Imbalances ? Discuss the regional imbalances in India. What measures are adopted by the Government to overcome this problem ?

अथवा सन्तुलित क्षेत्रीय विकास के उद्देश्य को पूरा करने के सम्बन्ध में सरकारी नीति पर एक टिप्पणी लिखिए।

Write a note of government policy for the fulfilment of the objects of regional imbalance.

उत्तर – भारत में क्षेत्रीय असन्तुलन

(Regional Imbalance in India) 

भारत के कुछ क्षेत्र-विशेष के राज्यों का त्वरित गति से विकास हुआ है। इसके विपरीत, कुछ राज्य विकास में अत्यधिक पिछड़े हुए हैं। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पाँच दशक बीत जाने के बाद भी क्षेत्रीय असन्तुलन बना हुआ है। यदि किसी देश में तुलनात्मक रूप से अधिक विकसित राज्यों/प्रदेशों एवं आर्थिक दृष्टि से बहुत पिछड़े हुए राज्यों/प्रदेशों की तुलना की जाए तो इस स्थिति को क्षेत्रीय असन्तुलन की संज्ञा दी जाती है। जब सरकार कुछ क्षेत्रों के विकास पर अधिक ध्यान देती है एवं अन्य क्षेत्रों की उपेक्षा करती है, तो इससे भी क्षेत्रीय असन्तुलन उत्पन्न हो जाता है।

भारत में सन्तुलित क्षेत्रीय विकास 

(Balanced Regional Development in India) 

भारत एक विशाल देश है। यहाँ पर सभी क्षेत्रों में प्राकृतिक संसाधन पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हैं। कुछ स्थानों पर ये समुचित मात्रा में पाए जाते हैं तथा कुछ स्थानों पर इनका अभाव होता है। इसी के साथ-साथ कुछ स्थानों पर तो ये संसाधन नगण्य ही हैं। अत: यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि सभी क्षेत्रों में आर्थिक विकास समान रूप में नहीं पाया जाता है।

उन क्षेत्रों में कृषि का विकास सम्भव हो पाता है जहां अनुकूल जलवाय जलापूर्ति, भूमि/मृदा की उच्च उर्वरता तथा उसके अनुकूल अन्य दशाएं विद्यमान हो कृष्णा तथा गोदावरी के डेल्टाई क्षेत्र कृषि की दृष्टि से अधिक सक्षम व समृद्ध हैं। वे जहाँ प्रतिकूल जलवायु व उर्वरा शक्ति कम पायी जाती हैं, कृषि के दृष्टिकोण से मिल हुए हैं। ये सभी कारक व प्राकतिक अन्तर वास्तव में आर्थिक रूप से क्षेत्रीय असन्तल प्रोत्साहित करते हैं।

हमारे देश के विभिन्न क्षेत्रों में औद्योगीकरण के स्तर में विभिन्नता भी असन्तुलन को प्रोत्साहित करती है। जूट उद्योग के लिए पश्चिम बंगाल विश्वविख्यात बिहार राज्य को लोहा व इस्पात उद्योग के कारण जाना जाता है तथा सूत्री वस्त्र उद्योग के लिए महाराष्ट्र का नाम लिया जाता है। विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न उद्योगों के विकास के लिए जल-शक्ति, परिवहन की सुविधाएँ तथा कच्चे माल की प्राप्ति आदि का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। वे क्षेत्र, जहाँ पर इन सुविधाओं का अभाव पाया जाता है, पिछड़ी हुई दशा में होते हैं। इसका कारण केवल क्षेत्रीय विभिन्नताओं का पाया जाना और भौतिक सुविधाओं की उपलब्धि ही नहीं अपितु इन सुविधाओं का समुचित रूप से प्रयोग न होना भी है। कुछ क्षेत्रों में व्यक्तियों के अन्दर साहस, संगठन/प्रबन्ध की योग्यता तथा तकनीकी ज्ञान का अभाव भी पाया जाता है, अत: वे पिछड़ी हुई दशा में ही रह जाते हैं।

आर्थिक तौर पर पिछड़े हुए क्षेत्रों में रोजगार, आय तथा उपभोग का स्तर अपेक्षाकृत निम्न पाया जाता है। इन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों का जीवन-स्तर भी निम्न पाया जाता है। वे मानसिक रूप से पिछड़े हुए रह जाते हैं, जिसके फलस्वरूप वे विकास के लिए प्रयत्न करने में भी सक्षम नहीं रहते।

क्षेत्रीय विभिन्नताएँ वांछनीय (Desirable) नहीं होतीं। हमारे देश में भी अनेक क्षेत्रीय आन्दोलन समय-समय पर सिर उठाते रहते हैं। तेलंगाना आन्दोलन, असम आन्दोलन आदि क्षेत्रीय आन्दोलन, केवल क्षेत्रीय विभिन्नताओं, अल्प रोजगार, विषम आय तथा निम्न जीवनस्तर आदि के शिकंजे का ही परिणाम हैं। इस सम्बन्ध में सरकार का यह दायित्व हो जाता है कि कहीं राजनीतिक अशान्ति किसी राजनीतिक आन्दोलन का कारण न बन जाए, अत: सरकार इस सम्बन्ध में प्रयासरत रहती है कि सन्तुलित क्षेत्रीय विकास के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए क्षेत्रीय असमानताओं को किस प्रकार दूर किया जाए।

क्षेत्रीय असन्तुलन के कारण तथा प्रभाव 

(Causes and Effects of Regional Imbalance) 

भारत की अर्थव्यवस्था में क्षेत्रीय असन्तुलन के प्रमुख कारण एव निम्नलिखित हैं –

1. भौगोलिक परिस्थितियाँ (Geographical Conditions)-भारत के क के पिछड़े होने का कारण वहाँ की भौगोलिक परिस्थितियाँ भी हैं। जैसे-जम्मू हिमाचल प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश तथा उत्तराखण्ड प्रदेश पहाडी क्षेत्र होने के कारण रहे हैं। पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण यहाँ यातायात की परेशानी रहती है, जिससे इन प्रदेशों में

आवागमन काफी कठिन होता है। जलवायु भी क्षेत्रीय असन्तुलन को जन्म देती है। गंगा-यम कमैदानी भाग जितना उपजाऊ है, उतना उपजाऊ अन्य कोई क्षेत्र नहीं है। इसी वजह से ये क्षेत्र पानी की कमी न होने के कारण विकसित हो गए किन्तु शेष क्षेत्र, जहाँ पानी की कमी थी, पिछड़ गए।

2. ब्रिटिश शासन (British Rule)-आजादी के पूर्व का इतिहास यदि उठाकर देखें तो यह विदित होता है कि क्षेत्रीय असन्तुलन के लिए ब्रिटिश शासन काफी हद तक जिम्मेदार रहा। उन्होंने भारत को एक व्यापारिक केन्द्र के रूप में ही प्रयोग किया। अंग्रेजों ने यहाँ का कच्चा माल विदेशों में भेजा तथा वहाँ से आया हुआ पक्का माल यहाँ बेचा। परिणाम यह हुआ कि यहाँ व्यापार तथा उद्योग पिछड़ गए। उन्होंने केवल उन्हीं क्षेत्रों का विकास किया जिनसे उन्हें लाभ प्राप्त होता था। उन्होंने पश्चिम बंगाल तथा महाराष्ट्र का ही विकास किया। इसी तरह जमींदारी प्रथा ने कृषि को विकसित नहीं होने दिया। आय के बड़े हिस्से पर साहूकारों तथा जमींदारों का कब्जा होता था। ब्रिटिश शासन के दौरान जिन स्थानों से नहरें निकाली गईं वे ही क्षेत्र विकसित हो पाए।

3. नए विनियोग (New Investments)-नए विनियोगों का जहाँ तक प्रश्न है, विशेषकर निजी क्षेत्र में, पहले से विकसित क्षेत्रों में ज्यादा नया विनियोग किया गया है, जिसका उद्देश्य ज्यादा लाभ कमाना भी होता है। दूसरे, विकसित क्षेत्रों में पानी, बिजली, सड़क, बैंक, बीमा कम्पनियाँ, श्रमिकों का आसानी से मिलना, बाजार का नजदीक होना इत्यादि का लाभ भी । प्राप्त हो जाता है। इस वजह से भी क्षेत्रीय असन्तुलन हो जाता है।

4. कृषि में नवीन तकनीकी (New Technology in Agriculture)-स्वतन्त्रता के पश्चात् कृषि की दशा सुधारने के लिए नए-नए यन्त्रों का भारत में निर्माण किया जाने लगा, किन्तु उन्नत यन्त्रों का प्रयोग केवल बड़े किसानों द्वारा ही किया गया। साथ ही जो विकसित क्षेत्र थे, उन्हीं क्षेत्रों में इनका अधिक प्रयोग किया गया। परिणाम यह हुआ जो विकसित क्षेत्र थे वे और ज्यादा विकसित हो गए तथा जो पिछड़े क्षेत्र थे वे और ज्यादा पिछड़ गए।

5. संसाधनों का असमान वितरण (Unequal Distribution of Resources)-विभिन्न राज्यों के अन्तर्गत यह देखने में आता है कि प्राकृतिक संसाधनों के वितरण में काफी असमानता है जैसे कहीं पेट्रोलियम उत्पाद ज्यादा मात्रा में हैं तो कहीं पत्थर की खानें, कहीं वन अधिक हैं तो कहीं बलुआ भूमि है तथा कहीं रेगिस्तान। इस प्रकार प्राकृतिक संसाधनों के असमान वितरण के कारण भी क्षेत्रीय विषमताएँ अधिक प्रतीत होती हैं।

6. आर्थिक संरचना का असमान वितरण (Unequal Distribution of Economic Infrastructure)-बहुत-से राज्यों में औद्योगिक प्रगति के लिए जिस आर्थिक संरचना की आवश्यकता होती है, उसका वितरण सही प्रकार से नहीं हो सका है; जैसे-विद्युत शक्ति, विपणन तथा साख सुविधाएँ, सन्देशवाहन के साधन, परिवहन हेतु सड़कें इत्यादि। इन सुविधाओं का पर्याप्त विकास न होने के कारण वे क्षेत्र आज भी पिछड़े हुए हैं। अत: क्षेत्रीय असन्तुलन का यह भी काफी महत्त्वपूर्ण कारण है।

7. सामाजिक व्यवस्था (Social System)-जन प्रदशा म सामाजिक एसा होती है कि वहाँ के लोग नई सोच, नए परिवर्तन को स्वीकार नहीं करते. वे कि दौड़ में पिछड़ जाते हैं। दसरी ओर जिन प्रदेशों के लोग नई सोच, नया जोश तथा रखते हैं, वे प्रदेश विकास के रास्ते तय करके अग्रणी बन जाते हैं। इस प्रकार सामाजि व्यवस्था की वजह से भी क्षेत्रीय असन्तुलन हो जाता है।

8. राजनीतिक प्रभाव (Political Influence)-जिन क्षेत्रों में नागरिक शिक्षित एव उनमें राजनीतिक रूप से जागरूकता थी. उन्होंने राजनीतिक लोगों की मदद लेकर और क्षेत्र का विकास करा लिया. किन्त जिन क्षेत्रों के नागरिकों ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया. उन और में विकास नहीं हो पाया। इस प्रकार भी क्षेत्रीय असन्तुलन हो जाता है।

9. निर्धनता (Poverty)-भारत में कई प्रदेश गरीबी के कारण भी विकास में पिछड़ गए हैं। गरीबी के कारण वे राज्य गरीबी के दुष्चक्र में फंसकर रह जाते हैं तथा उससे बाहर निकलने का प्रयास करते हुए भी बाहर नहीं निकल पाते। किन्तु जो क्षेत्र गरीब नहीं हैं, वे क्षेत्र अपना विकास शीघ्रता से कर लेते हैं।

10. विदेशी सहायता तथा प्राविधिक ज्ञान (Foreign Assistance and Technical Knowledge)-जो राज्य विदेशी सहायता, प्राविधिक ज्ञान तथा पूँजी प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं, वे अपना विकास कर लेते हैं। इसके विपरीत, वे राज्य, जो इस प्रकार की सहायता प्राप्त करने में असफल रहते हैं, विकास में पिछड़ जाते हैं। इससे भी क्षेत्रीय असन्तुलन हो जाता है।

क्षेत्रीय सन्तुलित विकास के लिए किए गए विभिन्न उपाय 

(Various Measures adopted for Regional Balanced Development)

पिछड़े क्षेत्रों का विकास करने तथा क्षेत्रीय असन्तुलन को दूर करने के लिए किए गए प्रयासों को निम्नलिखित तीन भागों में रखा जा सकता है-

I. भारत सरकार द्वारा किए गए प्रयास, 

II. राज्य सरकारों द्वारा किए गए प्रयास,

III. वित्तीय संस्थाओं द्वारा किए गए प्रयास। 

1. भारत सरकार द्वारा किए गए प्रयास 

(Efforts made by Government of India) 

भारत सरकार द्वारा क्षेत्रीय असन्तुलन को दूर करने की दिशा में निम्नलिखित प्रया किए गए हैं-

1. सार्वजनिक उपक्रमों की स्थापना (Establishment of Public Se Undertakings)-क्षेत्रीय असन्तुलन को दूर करने के लिए सरकार ने पिछड़ सार्वजनिक उपक्रमों की स्थापना की है। सार्वजनिक उपक्रम की स्थापना होने से वहा उद्योगों की छोटी-छोटी इकाइयाँ विकसित हो जाती हैं।

2. लाइसेन्सिंग प्रणाली को शुरू करना (Introducing the Licencing System)-औद्योगिक विकास एवं नियमन अधिनियम (industrial 

Development and Regulation Act), 1951 ई० में पारित किया गया था। इस क को बनाए जाने का प्रमुख उद्देश्य औद्योगिक केन्द्रीकरण वाले क्षेत्रों में नए लाइसेन्स प्रदान करने तथा नई औद्योगिक इकाइयों की स्थापना पर रोक लगाना था। इससे भी कुछ हद तक उन क्षेत्रों में नए संस्थानों के खुलने पर रोक लगी।

3. औद्योगिक बस्तियों की स्थापना (Establishment of Industrial Estates)-उद्योगों का विस्तार करने के लिए भारत सरकार ने देश के सभी राज्यों में तथा पिछड़े इलाकों में औद्योगिक बस्तियों की स्थापना की है। इन औद्योगिक बस्तियों में साहसियों (Entrepreneures) को विकसित भूमि, भवन, विद्युत तथा आवश्यक चीजों एवं सेवाओं को कम दर पर उपलब्ध कराया जाता है। इन बस्तियों को पिछड़े हुए क्षेत्रों में बसाया जाता है जिससे कि उन क्षेत्रों का विकास हो सके।

4. आयात सुविधाएँ (Import Facilities)-देश के 102 पिछड़े जिलों में औद्योगिक इकाइयाँ खोलने पर अनेक सुविधाएँ सरकार प्रदान कर रही है; जैसे-आयात के लिए प्राथमिकता के आधार पर आयात लाइसेन्स, विदेशी विनिमय की सुविधा, आवश्यक कच्चे माल, संयन्त्रों एवं कल-पुर्जी को सस्ते दर पर उपलब्ध कराना इत्यादि।

5. केन्द्रीय विनियोग उपदान योजना (Central Investment Subsidy Plan)-यह उपदान योजना सन् 1970 ई० से लागू की गई है। इस योजना का उद्देश्य पिछड़े क्षेत्रों को विकास की पटरी पर लाना है। ये उपदान सम्बन्धी नियम निम्नलिखित हैं

(i) यह उपदान निजी, सार्वजनिक, संयुक्त एवं सहकारी सभी क्षेत्रों के प्रतिष्ठानों को दिया जाता है।

(ii) इस योजना के अन्तर्गत प्राप्त अनुदान आयकर से मुक्त होता है।

(iii) यह उपदान देश के 102 विशेष पिछड़े क्षेत्रों में स्थापित किए गए उद्योगों को दिया जाता है। यह पूँजी विनियोग का 15% अथवा ₹ 15 लाख (जो दोनों में कम हो) के बराबर उपदान के रूप में दिया जाता है। यह उपदान केन्द्रीय सरकार द्वारा दिया जाता है।

(iv) यह उपदान पहले तो अविकसित राज्य के एक अविकसित जिले को ही उपलब्ध था, किन्तु अब साहसी को स्थान का निर्धारण करने में स्वतन्त्रता प्रदान कर दी गई है तथा यह उपदान प्रत्येक अविकसित राज्य में 2 से 6 जिलों तक तथा प्रत्येक विकसित राज्य में 1 से 3 जिलों तक बढ़ा दिया गया है।

6. आयकर में छूट (Income Tax Exemption)-‘आयकर अधिनियम, 1961’ के अन्तर्गत 31 मार्च, 1973 ई० के बाद पिछड़े क्षेत्रों में स्थापित की गई औद्योगिक इकाई अथवा होटल के लाभों का 20%, आयकर से मुक्त कर दिया गया है। यह छूट पिछड़े क्षेत्रों में लगाई गई इकाई की स्थापना के 10 कर निर्धारण वर्षों तक दी जाएगी। यह छूट तभी दी जाएगी जब इन इकाइयों द्वारा विद्युत शक्ति का प्रयोग न करने पर कम-से-कम 20 व्यक्ति इनमें कार्यरत हों। दूसरे, नई इकाई की स्थापना किसी ऐसी मशीन एवं प्लाण्ट के हस्तान्तरण से न की गई हो, जो पहले किसी भी उद्देश्य से किसी पिछड़े इलाके में प्रयोग में लायी गई है।

राज्य सरकारों द्वारा किए गए प्रयास 

(Efforts made by State Governments)

राज्य सरकारों द्वारा भी क्षेत्रीय असन्तुलन को दूर करने के लिए समय-समय किए जाते रहे हैं, जिनमें से प्रमुख प्रयास निम्नलिखित हैं-

1.विक्रय कर में छूट (Exemption from Sales Tax)-ज्यादातर राज्य सरकार द्वारा पिछड़े क्षेत्रों का औद्योगिक विकास करने के लिए औद्योगिक कारखानों को विक्रय छूट तथा रियायतें दी जाती हैं। उदाहरणार्थ-राजस्थान में पाँच वर्ष तक ऐसी औद्योगिक इकाइयों को विक्रय कर में छूट दी जाती है।

2. सस्ती दर पर भूमि तथा भवन का आवंटन (Allotment of Landon Building at Concessional Rate)-ज्यादातर राज्य सरकारों द्वारा विभिन्न जिलों में साहसियों को सस्ती दर पर भूमि तथा भवन का आवंटन किया जाता है जिससे कि पिछडे क्षेत्रों में औद्योगिक विकास हो सके। ऐसे कई राज्य हैं जहाँ राज्य सरकारों द्वारा जमीन के मूल्य का 25% से 50% तक उपदान के रूप में दिया जाता है तथा शेष राशि का भुगतान किस्तों में लिए जाने की भी व्यवस्था है।

3. ब्याज उपदान (Interest Subsidy)-कुछ राज्य सरकारों द्वारा छोटे उद्योगों को अविकसित क्षेत्रों में स्थापित करने पर एवं इस हेतु बैंकों अथवा वित्तीय संस्थानों से ऋण लेने पर ब्याज की दर में 2% तक उपदान दिया जाता है। इस प्रकार के उपदान मध्य प्रदेश, बिहार, ओडिशा इत्यादि राज्य सरकारों द्वारा प्रदान किए जाते हैं।

4.विद्युत के लिए छूट (Rebate for Electricity)-कुछ राज्य सरकारों के द्वारा पिछड़े क्षेत्रों के औद्योगिक विकास के लिए औद्योगिक यूनिटों को सस्ती दर पर बिजली उपलब्ध कराई जाती है। उदाहरणार्थ-उत्तर प्रदेश में पिछड़े क्षेत्रों में ₹ 85 लाख से अधिक

पूँजी निवेश वाली इकाइयों को 5 वर्ष तक विद्युत कर (Electric Duty) की छूट दी जाती है।

5.पूँजी विनियोग उपदान (Capital Investment Subsidy)-यह योजना सभी राज्यों द्वारा उन क्षेत्रों में चलायी जाती है जहाँ ‘केन्द्रीय विनियोग उपदान योजना लागू नहीं है। इस योजना के तहत पूँजी विनियोग का 15% अथवा 15 लाख (जो दोनों में कम हो) तक का उपदान उपकर्मियों को दिया जाता है, किन्तु आदिवासी क्षेत्रों में यह उपदान 20% है। 

III. वित्तीय संस्थाओं द्वारा किए गए प्रयास 

(Efforts made by Financial Institutions)

क्षेत्रीय विषमताओं को दूर करने के लिए विभिन्न वित्तीय संस्थाओं द्वारा भी काफी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया जाता है। इन संस्थाओं द्वारा निम्नलिखित प्रयास किए जा रहे हैं

1. ऋणों को सस्ती ब्याज दर पर उपलब्ध कराना (To Provide Loans ou Cheap Rate of Interest)-कई भारतीय वित्तीय संस्थान: जैसे-IFCI, IDDI ICICI तथा IRCI, पिछड़े क्षेत्रों/जिलों में औद्योगिक इकाई खोलने के लिए सस्ता दा दाधकालान ऋण एवं कार्यशील पूंजी के लिए ऋण उपलब्ध कराते हैं। इन ऋणों का ब्याज पिछड़े क्षेत्रों में सामान्यत: 1 से 2-% तक कम होती है। लघ एवं कटीर उद्योगों तथा अनुसूचित जातियों या जनजातियों द्वारा प्रारम्भ किए गए उद्योगों की दशा में ये दरें और भी कम होती हैं।

2. पोजेक्ट रिपोर्ट तैयार करने में सहायता देना (Help in Preparing the Prict Report)-यदि साहसियों द्वारा इन संस्थाओं से परियोजना की रिपोर्ट बनाने में मदद ली जाती है तो ये संस्थाएँ इसमें काफी मदद करती हैं। इनके द्वारा व्यवहार्यता रिपोर्ट AFeasibility Report) भी तैयार की जाती है जिससे कि औद्योगिक इकाई का निर्माण होने से पहले साहसियों को इस सन्दर्भ में पूर्ण जानकारी हो जाए।

3. लघु तथा मध्यम उद्योगों को मशीनों की सुविधा (To provide Facility of Machines to Small and Medium Industries)-‘राष्ट्रीय लघु उद्योग निगम’ (National Small Industries Corporation) अविकसित अथवा पिछड़े क्षेत्रों में स्थापित होने वाली इकाइयों को किराया-क्रय पद्धति पर मशीन उपलब्ध करवाता है। इसके अन्तर्गत अग्रिम भुगतान लगभग 10% लिया जाता है। शेष राशि आसान किस्तों पर ली जाती है। ऐसी राशि पर पिछड़े क्षेत्रों की इकाइयों से लगभग 21% कम ब्याज वसूल किया जाता है।

4. तकनीकी आर्थिक सर्वेक्षण (Techno-Economic Survey)-आर्थिक विकास के लिए नियोजन करते समय पिछड़े हुए क्षेत्रों का आर्थिक-तकनीकी सर्वेक्षण उन क्षेत्रों की क्षमता का ज्ञान प्राप्त करने के लिए अवश्य करना चाहिए। अध्ययन तथा जाँच के पश्चात् उन क्षेत्रों के विकास के लिए आवश्यक कार्यवाही की जाए। यदि शिक्षा, परिवहन तथा संचार के लिए योजनाएँ लागू की जाती हैं तो ये क्षेत्र आसानी से विकासकारी शक्तियाँ ग्रहण कर लेंगे तथा वहाँ पर विकास की सम्भावनाएँ भी विकसित हो जाएंगी।

प्रश्न – भारत सरकार की वर्तमान औद्योगिक नीति की प्रमुख विशेषताएँ बताइए। देश के तीव्र औद्योगिक विकास में यह कहाँ तक सहायक रहेगी?

Explain the main features of the present industrial policy of India. How far it will be helpful in the rapid industrial growth of the country? 

अथवा औद्योगिक नीति से क्या आशय है? स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् भारत में कितनी औद्योगिक नीतियाँ बन चुकी हैं? सन् 1991 ई० की वर्तमान औद्योगिक नीति के क्या उद्देश्य हैं तथा इसकी मुख्य बातें या विशेषताएँ क्या हैं?

What is meant by Industrial Policy ? How many industrial policies have been made in India after independence ? What are the objectives of present industrial policy of 1991 and what are its main features? 

उत्तर – औद्योगिकति का आशय

(Meaning of Industrial Policy) 

भारत की नई आर्थिक नीति की मुख्य विशेषता अर्थव्यवस्था का उदारीकरण, निजीकरण तथा वैश्वीकरण करना रहा है। किसी भी देश का तीव्र गति से आर्थिक विकास करने के लिए उसका औद्योगीकरण आवश्यक है। औद्योगीकरण केवल उद्योग-धन्धों के विकास में ही

सहायक नहीं होता है बल्कि उससे कपि, व्यापार, यातायात, राजगार, राष्ट्रीय आय इत्यालिन विकास को भी प्रोत्साहन मिलता है। औद्योगिक नीति देश के औद्योगिक विकास का नाँचा कर, देश को स्वावलम्बी एवं समद्ध बनाने में सहायक होती है। इसलिए सरकार की औद्योग नीति सुपरिभाषित, स्पष्ट एवं प्रगतिशील होनी चाहिए तथा उसका निष्ठापूर्वक पालन किया जा चाहिए। साधारण अर्थ में औद्योगिक नीति का आशय देश की सरकार द्वारा औद्योगिक विकाm के लिए बनाए गए दिशा-निर्देशों की औपचारिक घोषणाओं से है।

औद्योगिक नीति में सामान्यतया दो बातों का समावेश होता है-(1) सरकार की प्राथमिकता के आधार पर औद्योगिक स्वरूप को तय किया जाना तथा उसी के अनुसार दिशा-निर्देश तैयार करना तथा (2) दिशा-निर्देशों के अनुसार औद्योगिक नीति को लागू करना तथा समय-समय पर औद्योगिक ढाँचे की स्थापना करने के सम्बन्ध में मार्गदर्शन करना।

स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात भारत की औद्योगिक नीतियाँ

(Industrial Policies of India after Independence) 

भारत की आजादी के पश्चात् यहाँ का औद्योगिक ढाँचा बहुत ही कमजोर था, जिसके प्रमुख कारण पूँजी की कमी, औद्योगिक अशान्ति, कच्चे माल की कमी, तकनीकी की कमी, मशीनों का अभाव, कुशल कारीगरों का अभाव, सामान्य सुविधाओं का अभाव इत्यादि थे। इस स्थिति से निपटने के लिए दिसम्बर 1947 ई० में औद्योगिक वातावरण की स्थापना करने हेतु सरकार ने एक औद्योगिक सम्मेलन बुलाया। इस सम्मेलन में देश में मिश्रित अर्थव्यवस्था की स्थापना का संकल्प लिया गया। भारत में स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त अब तक 6 औद्योगिक नीतियाँ बन चुकी हैं-(1) औद्योगिक नीति, 1948, (2) औद्योगिक नीति, 1966, (3) औद्योगिक नीति, 1977, (4) औद्योगिक नीति, 1980, (5) औद्योगिक नीति, 1990 तथा (6) औद्योगिक नीति, 19911

सभी पूर्व औद्योगिक नीतियाँ देश के औद्योगिक विकास को गति नहीं दे सकी। अत: उद्योगों पर लाइसेंसिंग व्यवस्था के अनावश्यक प्रतिबन्धों को समाप्त करने तथा उद्योगों की कुशलता, विकास और तकनीकी स्तर को ऊँचा करने और विश्व बाजार में उन्हें प्रतियोगी बनाने की दृष्टि से 24 जुलाई, 1991 को तत्कालीन उद्योग राज्य मंत्री पी० जे० करियन द्वारा लोकसभा में औद्योगिक नीति, 1991 की घोषणा की गई।

औद्योगिक नीति, 1991 के उद्देश्य

(Objectives of Industrial Policy,1991) 

औद्योगिक नीति, 1991 की घोषणा में सरकार ने निम्नलिखित उद्देश्यों पर बल दिया।

(1) आत्मनिर्भरता प्राप्त करना तथा तकनीकी एवं निर्माणी क्षेत्र में घरेलू क्षमता विकास एवं प्रयोग करना।

(2) औद्योगिक विकास के लिए सदृढ़ नीतियों के समह को अपनाना, ताकि साहसा का विकास हो सके, शोध एवं विकास में विनियोग से घरेल तकनीक विकसित हो सक, व्यवस्था को हटाया जा सके, पूंजी बाजार का विकास हो सके तथा अर्थव्यवस्था प्रतिस्पर्धात्मक शक्ति को बढ़ाया जा सके।

लघु उद्योग के विकास पर बल देना, ताकि यह क्षेत्र अधिक कुशलता एवं तकनीकी मधार के वातावरण में विकसित होता रहे।

(4) तकनीक का उच्च स्तर प्राप्त करने, निर्यातों में वृद्धि करने तथा उत्पादन आधार को विस्तृत करने के लिए विदेशी विनियोग एवं तकनीकी सहकार्य को बढ़ावा देना।

(5) सुरक्षात्मक एवं सैन्य मामलों को छोड़कर व्यक्तिगत उपक्रम की एकाधिकारी स्थिति को समाप्त करना।

(6) यह प्रयास करना कि सार्वजनिक क्षेत्र देश के सामाजिक, आर्थिक क्षेत्र को विकसित करने में अपनी उचित भूमिका का निर्वाह करे, व्यावसायिक आधार पर कार्य करे तथा राष्ट्रीय महत्त्व के क्षेत्रों में नेतृत्वपूर्ण भूमिका निभाए।

(7) श्रमिकों के हितों की रक्षा करना, औद्योगिक समृद्धि में उन्हें समान भागीदार बनाना तथा श्रम सहकारिताओं को प्रोत्साहन देना।

औद्योगिक नीति, 1991 की विशेषताएँ 

(Characteristics of Industrial Policy, 1991) 

औद्योगिक नीति, 1991 की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

1. नीतिगत विशेषताएँ (Policy Features)

1. उदार औद्योगिक लाइसेंसिंग नीति-1991 की औद्योगिक नीति का लक्ष्य औद्योगिक विकास में सुविधाएँ प्रदान करना था न कि परमिटों और नियन्त्रणों के जरिए उस पर अंकुश लगाना। ज्यादातर वस्तुओं के लिए औद्योगिक लाइसेंस लेने की अनिवार्यता समाप्त कर दी गई। वर्तमान में सुरक्षा, सामरिक और पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील निम्नलिखित पाँच उद्योग अनिवार्य लाइसेंस के तहत आते हैं

(i) इलेक्ट्रॉनिक, एरोस्पेस और सभी प्रकार के रक्षा उपकरण।

(ii) डिटोनेटिंग फ्यूज, सुरक्षा फ्यूज, बारूद, नाइट्रोसेलुलोस और दियासलाई सहित औद्योगिक विस्फोटक।।

(iii) खास तरह के खतरनाक रसायन जैसे-(1) हाइड्रोसायनिक ऐसिड और इसके व्युत्पन्न, (2) फॉस्जीन एवं इसके व्युत्पन्न, (3) हाइड्रोकार्बन के आइसोसायनेट्स एवं डिसोसायनेट्स (उदाहरण-मिथाइल आइसोसायनेट)।

(iv) तम्बाकू वाले सिगार, सिगरेट तथा विनिर्मित तम्बाकू उत्पाद। (v) ऐल्कोहॉल युक्त पेय पदार्थों का आसवन मद्यकरण।

2014 के दौरान रक्षा उपकरणों की एक सूची अधिसूचित की गई, जिसमें यह शर्त थी कि इस सूची में विशिष्ट रूप से शामिल की गई कोई भी ऐसी वस्तु जिसका इस्तेमाल असैनिक और सैन्य दोनों प्रयोजनों के लिए किया जा रहा हो, उसे लाइसेंस मुक्त समझा जाएगा। इसके अलावा वाणिज्यिक उत्पादन प्रारम्भ करने के लिए दी गई समय सीमा हेतु सभी औद्योगिक लाइसेंसों की वैधता दो वर्ष से बढ़ाकर तीन वर्ष कर दी गई।

2. विदेशी विनियोग को प्रोत्साहन – अधिकाधिक पूँजी विनियोग और उच्चस्तरीय कनाक की आवश्यकता वाले उच्च प्राथमिकता प्राप्त उद्योगों में विदेशी पूँजी विनियोग को

प्रोत्साहित करने पर बल दिया गया है। ऐसे 34 उद्योगों में बिना किसी रोक-टोक लालफीताशाही के 51% तक विदेशी पूँजी के विनियोग की अनुमति दी जाएगी।

3. विदेशी तकनीक – कुछ निश्चित सीमाओं के अन्तर्गत उच्च प्राथमिकता वाले तकनीकी समझौतों को स्वतः स्वीकृति प्रदान की जाएगी। यह व्यवस्था घरेलू बिक्री पर दिए वाले 5% कमीशन और निर्यात पर दिए जाने वाले 8% कमीशन पर भी लागू होगी।

4. सार्वजनिक क्षेत्र की भमिका – इस सम्बन्ध में प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित है

(i) ऐसे सार्वजनिक उपक्रमों को अधिक सहायता प्रदान की जाएगी, जो औटो अथव्यवस्था के संचालन के लिए आवश्यक हैं। इन उपक्रमों को अधिकाधिक विकासो और तकनीकी दृष्टि से गतिशील बनाया जाएगा। 

(ii) लोक उपक्रमों के विकास की दृष्टि से प्राथमिकता वाले क्षेत्र निम्नलिखित होंगे.

(a) आवश्यक आधारभूत संरचना से सम्बन्धित वस्तुएँ एवं सेवाएँ। 

(b) तेल एवं खनिज संसाधनों का निष्कर्षण। 

(c) दीर्घकालीन दृष्टि से महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में तकनीकी विकास एवं निर्माणी क्षमता का निर्माण। 

(d) सुरक्षा उपकरणों का निर्माण। 

(iii) सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित उद्योगों की संख्या घटाकर 8 कर दी गई। वर्तमान समय में यह संख्या 3 है।

(iv) चयनित सार्वजनिक उपक्रमों में समता पूँजी में सरकारी विनियोग के कुछ अंश का गैर-विनियोग किया जाएगा।

(5) एकाधिकारी एवं प्रतिबन्धात्मक व्यापार अधिनियम (MRTP Act) में संशोधन किया गया है। इसके अन्तर्गत बड़ी कम्पनियों और औद्योगिक घरानों पर पूँजी सीमा समाप्त कर दी जाएगी। 

II. प्रक्रियात्मक विशेषताएँ (Functional Features)

1. विद्यमान पंजीकरण योजनाओं की समाप्ति – औद्योगिक इकाइयों के पंजीयन के सम्बन्ध में विद्यमान सभी योजनाएँ समाप्त कर दी गई हैं।

2. स्थानीकरण नीति – ऐसे उद्योगों को छोड़कर, जिनके लिए लाइसेंस लेना अनिवार नहीं है, 10 लाख से कम जनसंख्या वाले नगरों में किसी भी उद्योग के लिए औद्योगिक अनुमान की आवश्यकता नहीं है। दस लाख से अधिक जनसंख्या वाले नगरों के मामले में इलेक्ट्रानिका और किसी तरह के अन्य गैर-प्रदूषणकारी उद्योगों को छोड़कर सभी इकाइयाँ नगर की सामा 25 किमी के बाहर लगेंगी।

3. विदेशों से पूँजीगत वस्तुओं का आयात – विदेशी पूँजी के विनियोग वाला ३ पर पुर्जे, कच्चे माल तथा तकनीकी ज्ञान के आयात के मामले में सामान्य नियम ला किन्तु रिजर्व बैंक विदेशों में भेजे गए लाभांश पर दृष्टि रखेगा।

4.व्यापारिक कम्पनियों में विदेशी अंश पूँजी – अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में भार की प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता को बढ़ाने की दृष्टि से निर्यातक व्यापारिक कम्पनियो म भार विदेशी पूँजी के विनियोग की अनुमति दी जाएगी।

5. सार्वजनिक उपक्रमों का कार्यकरण – निरन्तर वित्तीय संकट में रहने वाले मार्बजनिक उपक्रमों की जाँच औद्योगिक एवं वित्तीय पुनर्निर्माण बोर्ड’ (BIFR) करेगा। छंटनी किए गए कर्मचारियों के पुनर्वास के लिए सामाजिक सुरक्षा योजना बनाई जाएगी।

6. विद्यमान इकाइयों का विस्तार एवं विविधीकरण – विद्यमान औद्योगिक इकाइयों को नई विस्तृत पट्टी की सुविधा दी गई है। विद्यमान इकाइयों का विस्तार भी पंजीयन से मुक्त रहेगा।

7.’परिवर्तन वाक्यांश की समाप्ति – नवीन परियोजनाओं के लिए वित्तीय संस्थाओं से ऋण लेने की शर्तों में ऋण को पूँजी में परिवर्तित करने की शर्त की व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया है। 

अन्य विशेषताएँ (Other Characteristics)

(1) 26 मार्च, 1993 से उन 13 खनिजों को जो पहले सरकारी क्षेत्र के लिए आरक्षित थे, निजी क्षेत्र के लिए खोल दिया गया है।

(2) आरम्भ में ही कम्पनियों में रुग्णता का पता लगाने और उपचारात्मक उपायों को तेजी से लागू करने के लिए दिसम्बर 1993 में रुग्ण औद्योगिक कम्पनी (विशेष उपबन्ध) अधिनियम, 1985 में संशोधन किया गया।

औद्योगिक नीति, 1991 का आलोचनात्मक मूल्यांकन

(Critical Evaluation of Industrial Policy, 1991) 

सन् 1991 ई० में घोषित औद्योगिक नीति ‘खुली औद्योगिक नीति’ है, जिसमें अनेक क्रान्तिकारी पक्षों को शामिल किया गया है। पूर्व नीतियों की अपेक्षा इसमें अनेक आधारभूत परिवर्तनों की घोषणा की गई है; जैसे-पंजीकरण व्यवस्था की समाप्ति, एकाधिकारी अधिनियम में संशोधन, विदेशी पूँजी का व्यापक स्वागत, सार्वजनिक उपक्रमों की भूमिका का पुनर्निर्धारण आदि। फिर भी आलोचकों ने इस नीति की विभिन्न दृष्टिकोणों से आलोचना की है। वामपंथी राजनीतिक दलों ने इसे ‘बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के समक्ष समर्पण’, श्रम संघों ने ‘छंटनी द्वारा श्रमिकों के अस्तित्व पर कुठाराघात’ तथा अन्य आलोचकों ने ‘घरेलू उद्योगों पर इसके प्रतिकूल प्रभाव पर जोर दिया है।

प्रश्न – ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजनापर एक विस्तृत लेख लिखिए। 

Write a detailed note on ‘Eleventh Five Year Plan’.

उत्तर – भारत की ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना (2007-12) में 9% वार्षिक विकास दर प्राप्त करने का लक्ष्य रखा गया। इससे पूर्व दसवीं योजना (2002-07) में औसतन 7.6% व नौवीं पंचवर्षीय योजना में 5.52% वार्षिक विकास दर प्राप्त की गई थी। ग्यारहवीं योजना में 9% वार्षिक विकास के लिए सन् 2007-12 ई० के दौरान कृषि में 4% तथा उद्योगों व सेवाओं में 9 से 11% प्रतिवर्ष की दर से वृद्धि का लक्ष्य निर्धारित किया गया। दसवीं पंचवर्षीय योजना में कृषि क्षेत्र में औसतन 2.13% की दर से ही वार्षिक वृद्धि की जा सकी थी, जबकि उद्योगों में 8. 74% व सेवाओं में 9.28% की वार्षिक वृद्धि रही थी।

ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के वित्तीयन हेत सन 2007-12 ई० की अवधि में बचत की सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के 34.8% तथा निवेश की दर 36.7% बनाए रखने का

लक्ष्य योजना दस्तावेज में निर्धारित किया गया। इससे पूर्व दसवीं पंचवर्षीय योजना घरेलू बचत की दर 30.8% रही थी। निर्धनता अनुपात में 10% बिन्दु का कमी करना. क 7 करोड नए अवसर सजित करना.प्राइमरी में ड्रॉप आउट दर 20% सनाचे लाना. 85% तक पहुंचाना, सन 2009 तक सभी को स्वच्छ पेयजल को आपति

अन्त तक सभी गांवों का विद्यतीकरण योजना के अन्य लक्ष्यों में शामिल किया गया स्तर पर 27 व राज्यों के लिए 13 लक्ष्य इस योजना में निर्धारित किए गए हैं। इन का निगरानी केन्द्र एवं राज्य सरकारों द्वारा की गई।

ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के मसौदे को योजना आयोग की पूर्ण बैठक में इन 2007 को तथा केन्द्रीय मंत्रिमण्डल की बैठक में 30 नवम्बर, 2007 को मंजूरी प्रदान की गई। राष्ट्रीय विकास परिषद् (NDC) ने बाद में 19 दिसम्बर, 2007 की बैठक में योजना अनुमोदन कर दिया। सन् 2007-12 ई० की अवधि वाली इस योजना में कुल परिव्यय ₹ 36,44,718 करोड़ प्रस्तावित किए गए, जो पूर्ववर्ती 10वीं पंचवर्षीय योजना के परिव्यय दोगुने से भी अधिक है। प्रस्तावित परिव्यय में केन्द्र की भागीदारी ₹ 21,56,571 करोड़ की जबकि शेष ₹ 14,88,147 करोड़ की भागीदारी राज्यों की रखी गई। आधारिक संरचना के विकास हेतु निजी क्षेत्र की भागीदारी, जो इसके अलावा होगी, पर विशेष बल इस योजना में दिया गया। योजना के परिव्यय हेतु सकल बजटीय समर्थन (GBS) ₹ 14,21,711 करोड़ निर्धारित किया गया। दसवीं पंचवर्षीय योजना हेतु यह ₹ 8,10,400 करोड़ था। सकल बजटीय समर्थन का 74.67% भाग प्राथमिकता वाले क्षेत्रों (Priority Sectors) के लिए व शेष 25. 33% भाग गैर-प्राथमिकता वाले क्षेत्रों (Non-priority Sectors) के लिए रखा गया। दसवीं योजना में यह आवंटन क्रमशः 55.20 व 44.80% थे। शिक्षा के क्षेत्र में सकल बजटीय समर्थन में वृद्धि सर्वाधिक थी। दसवीं पंचवर्षीय योजना में शिक्षा के लिए सकल बजटीय समर्थन 7.68% था, जिसे बढ़ाकर 11वीं योजना में 19.36% किया गया। निरपेक्ष रूप में शिक्षा हेतु ₹ 2,75,000 करोड़ का व्यय 11वीं योजना में प्रस्तावित किया गया, जो 10वीं योजना में ₹ 62,238 करोड़ था।

बैंकिंग, बीमा, सिंगल ब्रांड रिटेलिंग एवं प्रसारण (Broadcasting) जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (FDI) की सीमाओं को बढ़ाने के लिए योजना-दस्तावेज म मजबूती से कहा गया। बीमा क्षेत्र में यह सीमा 26%, जबकि सिंगल ब्रांड रिटेलिंग के क्षेत्रम यह 51% तथा एफएम रेडियो प्रसारण के क्षेत्र में 20% ही रखी गई। रक्षा उत्पादन तथा प्रिट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के क्षेत्रों में अधिकतम 26-26% विदेशी प्रत्यक्ष निवेश को अनुमति गई। वायु परिवहन, एसेट रिकन्सट्रक्शन फर्मों तथा केबल नेटवर्क के क्षेत्रों में 49-49 परमाणु खनिजों, निजी क्षेत्र बैंकिंग, दूर-संचार, उपग्रहों की स्थापना व संचालन में 74% सीमा तक विदेशी प्रत्यक्ष निवेश की अनुमति दी गई है। ग्यारहवीं योजना के दौरान इन सा में वृद्धि की सम्भावनाएँ व्यक्त की गईं।

सामाजिक-आर्थिक विकास में महिलाओं, अल्पसंख्यकों, अनुसूचित जात जनजातियों की भागीदारी हेतु इन वर्गों के विकास हेत कई नई योजनाएं शुरू करने का योजना में किया गया। शिक्षा, स्वास्थ्य, गरीबी उन्मूलन व आधारिक संरचना का विकास इस

योजना की प्राथमिकताओं में शामिल था। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना (2007-12) के दौरान देश मे आठ नए भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आई०आई०टी०) व सात नए भारतीय प्रबन्धकीय संस्थानों में से एक मेघालय (शिलांग) में) में सन् 2008-09 में ही प्रवेश दिए गए। शेष संस्थानों (IIMs) की स्थापना झारखण्ड, छत्तीसगढ़, उत्तराखण्ड, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर व तमिलनाडु में किए जाने का प्रावधान था।

नए खोले जाने वाले आठ भारतीय प्रौद्योगिकीय संस्थान (IITs) बिहार, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश व आन्ध्र प्रदेश, ओडिशा, मध्य प्रदेश, गुजरात व पंजाब में स्थापित किए जा रहे हैं। इनके अतिरिक्त बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (BHU) के प्रौद्योगिकी संस्थान को भी आई०आई०टी० में रूपांतरित करने का प्रस्ताव रखा गया। नए आई०आई०टी० व आई०आई०एम० की स्थापना के लिए ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में क्रमश: रू. 2000 करोड़ व रू. 660 करोड़ का प्रावधान सरकार ने किया था।

2011-12 ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना का अन्तिम वर्ष था। जैसा ऊपर बताया गया है, इस योजना को शुरू से ही वैश्विक वित्तीय संकट, फिर वैश्विक आर्थिक संकट एवं आर्थिक मन्दी की पृष्ठभूमि का सामना करना पड़ा। अत: यह सम्भव नहीं था कि 9% की औसत वार्षिक वृद्धि के जिस लक्ष्य को निर्धारित किया गया, वह पूरा हो सकेगा। 2008 में केन्द्र सरकार ने कई राजकोषीय प्रेरणाओं की घोषणा की थी समग्र माँग में वृद्धि करने के लिए तथा औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि करने के लिए। स्थिति में सुधार होने के कारण राजकोषीय प्रेरणाओं में से कुछ को सन् 2010-11 ई० के बजट में वापस ले लिया गया था। गैर-पेट्रोलियम पदार्थों पर लगे केन्द्रीय उत्पाद शुल्क को 2008 में 8% कर दिया गया था, इसे सन् 2010-11 ई० में बढ़ाकर 10% कर दिया गया था। सन् 2011-12 ई० के केन्द्रीय बजट में इसे और बढ़ाने पर चर्चा चल रही थी। इसी बीच यह तथ्य सामने आया कि औद्योगिक उत्पादन का सूचकांक नवम्बर 2010 में केवल 2.7% बढ़ा तथा दिसम्बर में वृद्धि दर के और घटने की सम्भावना व्यक्त की गई। भारत सरकार को इसके साथ-साथ मुद्रास्फीति की वृद्धि दर से भी परेशानी थी। ऐसी स्थिति में राजकोषीय प्रेरणाओं को वापस लेने की स्थिति नहीं बनती।

प्रश्न – भारत की राजकोषीय नीति संक्षेप में बताइए और इस राजकोषीय नीति के मुख्य उद्देश्यों की चर्चा कीजिए।

Describe in brief the India’s fiscal policy and Discus the main objectives of It’s fiscal policy ? 

उत्तर – भारत की राजकोषीय नीति

(Fiscal Policy of India) 

स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत में लोक-कल्याणकारी राज्य की स्थापना हुई। 1951 ई० से देश में आर्थिक नियोजन अपनाया गया। तीव्र आर्थिक विकास, जन-कल्याण, समाजवादी समाज की रचना, न्याय, समानता आदि आर्थिक नियोजन के उद्देश्य रखे गए। इन उद्दश्यों की पूर्ति के लिए राजकोषीय नीति का सहारा लिया गया। भारत की राजकोषीय नीति, विकास योजनाओं के उद्देश्यों के अनुरूप बनाई गई है।

भारत की राजकोषीय नीति को सफल बनाने के लिए कर नीति को प्रभावी रूप किया गया है। भारत की कर नीति के दो उद्देश्य रहे हैं—प्रथम, आय प्राप्त करना तशा आर्थिक विषमता को दर करना। इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए देश में अनेक कर लगाए गा जस-आय कर, विक्रय कर, उत्पादन कर आदि। कुछ कर प्रगतिशील दरों से लगा अथात् प्रारम्भ में एक सीमा तक करों में छट दी जाती है किन्तु बाद में करों की टार जाती है। प्रगतिशील दर से कर लगाने के कारण धनिकों पर कर-भार अधिक पड़ता। जबकि गरीबों पर कम।

राजकोषीय नीति के उद्देश्य

(Objectives of Fiscal Policy) 

भारत के परिप्रेक्ष्य में एक विकासशील अर्थव्यवस्था में राजकोषीय नीति के निम्नलिखित उद्देश्य हो सकते हैं-

1. रोजगार के अवसर बढ़ाना – राजकोषीय नीति का एक प्रमुख उद्देश्य रोजगार के अवसर बढ़ाना तथा बेकारी व अर्द्ध-बेरोजगारी को कम करना होता है। इसके लिए राज्य को सामाजिक व आर्थिक सुविधाएँ बढ़ानी चाहिए। ग्रामीण जनसंख्या वाले क्षेत्रों में सामुदायिक विकास कार्यक्रम को अपनाना चाहिए।

2. आर्थिक स्थिरता को बढ़ावा – राजकोषीय नीति का उद्देश्य अन्तर्राष्ट्रीय चक्रीय उतार-चढ़ाव के विपरीत प्रभावों को कम कर देश में आर्थिक स्थिरता प्रदान करना है। राजकोषीय नीति बाहरी एवं आन्तरिक शक्तियों को नियन्त्रित कर आर्थिक स्थिरता प्रदान करती है। तेजी काल में उतार-चढ़ाव को कम करने के लिए आयात-निर्यात पर कर लगाए जाते हैं जबकि मन्दी काल में सार्वजनिक निर्माण कार्यों को बढ़ावा देकर उसके दुष्प्रभावों को कम किया जाता है।

3. निवेश की दर में वृद्धि – राजकोषीय नीति का उद्देश्य निजी व सार्वजनिक क्षेत्र में निवेश की दर को बढ़ाना है। निवेश की दर बढ़ाने के लिए सरकार को सार्वजनिक क्षेत्र में योजनाबद्ध निवेश की नीति प्रारम्भ करनी चाहिए। इससे निजी क्षेत्र में निवेश की मात्रा बढ़ती है। निर्धन देशों में प्रति व्यक्ति आय कम होने व रोजगार की कमी के कारण पँजी निर्माण की दर कम होती है। यहाँ निर्धनता का कुचक्र प्रमुख समस्या होती है। अत: यहाँ राजकोषीय नीति का के द्वारा उपभोग को कम करती है तथा बचत को प्रोत्साहित करने का प्रयत्ल करती है। विकास देशों में अवांछित उपभोग को कम करने में करारोपण की नीति को काम में लाया जाता है।

4. पूँजी निर्माण – राजकोषीय नीति का उद्देश्य देश में पँजी निर्माण को बढ़ावा भी है। राष्ट्रीय आय कम होने से देश में बचत व विनियोग कम होते हैं, फलस्वरूप पूजा। भी कम होता है। इस कमी को दूर करने के लिए राजकोषीय नीति का सहारा लिया। राजकोषीय नीति में कर नीति के माध्यम से उपभोग को कम करके बचत को प्रोत्साहि जाता है। इससे देश में पूँजी निर्माण में वृद्धि होती है।

5. तीव्र आर्थिक विकास – तीव्र आर्थिक विकास में सरकार का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। सरकार अपनी आय राजकोषीय नीति के माध्यम से उन कार्यों पर व्यय कर सकती है जो देश के तीव्र आर्थिक विकास में सहयोग दे सकें। आधारभूत उद्योग, सिंचाई, विद्युत आदि पर व्यय करके सरकार तीव्र आर्थिक विकास का मार्ग खोलती है।

6.साधनों का उचित आवंटन – साधनों का उचित आवंटन भी राजकोषीय नीति का एक प्रभावी उद्देश्य है। प्रायः सभी प्राकृतिक व मानवीय संसाधन अपनी आवश्यकता की तुलना में सीमित हैं, अत: उनका दुरुपयोग नहीं किया जाना चाहिए तथा इन साधनों के प्रयोग को उन कार्यों में प्राथमिकता दी जानी चाहिए जो अधिक आवश्यक हैं। देश की सम्पदा का दुरुपयोग रोकने व उसका न्यायोचित वितरण करने तथा रोजगार के अवसर बढ़ाने के लिए प्रयोग होने से ही साधनों का अनुकूलतम वितरण हो सकता है। राजकोषीय नीति के माध्यम से साधनों का हस्तान्तरण विलासितापूर्ण कार्यों से आवश्यक कार्यों की ओर हो सकता है।

7. मूल्य स्थायित्व – मूल्यों में उतार-चढ़ाव का सभी पहलुओं से समाज के विभिन्न अंगों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। मूल्यों में वृद्धि से जहाँ जनसामान्य पर बुरा असर पड़ता है तथा अनुचित लाभ कमाने के अवसर बढ़ जाते हैं, वहीं मूल्यों में कमी से रोजगार व उत्पादन पर बुरा असर पड़ता है। राजकोषीय नीति इन दोनों दोषों को दूर कर मूल्यों में स्थायित्व लाने का प्रयास करती है। करों में कमी करके अथवा आर्थिक सहायता प्रदान कर मूल्य कम किए जाते हैं। इस प्रकार मूल्यों में गिरावट होने पर सरकार अधिक मूल्य पर वस्तु खरीद कर अथवा वस्तुएँ खरीदने के लिए आर्थिक सहायता प्रदान कर मूल्यों में होने वाली गिरावट को रोकती है।

8. मुद्रास्फीति पर नियन्त्रण – सार्वजनिक आय की तुलना में सार्वजनिक व्यय अधिक होने के कारण वर्तमान समय में घाटे की वित्त व्यवस्था का सहारा लिया गया है। घाटे की वित्त व्यवस्था अपनाने से देश में मुद्रा स्फीति की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। मुद्रा स्फीति का देश की अर्थव्यवस्था पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ता है। अत: इस पर तुरन्त रोक लगाना आवश्यक हो जाता है। राजकोषीय नीति का एक उद्देश्य देश में मुद्रा स्फीति पर नियन्त्रण भी हो सकता है। राजकोषीय नीति द्वारा बचत को प्रोत्साहन दिया जाता है जिससे बाजार में मुद्रा की मात्रा कम हो जाती है, परिणामस्वरूप मुद्रा स्फीति कम हो जाती है। राजकोषीय नीति द्वारा ‘कर’ बढ़ाकर जनता की क्रय शक्ति को सीमित किया जाता है। इससे मुद्रा स्फीति एवं मूल्य वृद्धि पर नियन्त्रण लगता है।

9. पर्याप्त आय प्राप्त करना – राजकोषीय नीति का सबसे प्रभावी उद्देश्य पर्याप्त सार्वजनिक आय प्राप्त करना है। वर्तमान समय में सरकार के उत्तरदायित्वों का क्षेत्र बहुत बढ़ गया है, अत: अपने उत्तरदायित्वों को पूरा करने के लिए सरकार को पर्याप्त मात्रा में आय की आवश्यकता होती है। यद्यपि धन के अभाव में राज्य अपने उत्तरदायित्वों को पूरा करने में असमर्थ होते हैं, किन्तु आय वृद्धि के लिए अन्धाधुन्ध ‘कर’ नहीं लगाए जा सकते हैं। ‘कर’ देश के निवासियों की करदान क्षमता पर आधारित होने चाहिए तथा सामाजिक दृष्टि से सभी पर बराबर कर-भार होना चाहिए। साथ ही करारोपण का देश में बचत व विनियोग पर प्रतिकूल अभाव नहीं पड़ना चाहिए। इस प्रकार राजकोषीय नीति का मुख्य उद्देश्य उचित करारोपण अवस्था द्वारा सरकार की आय में वृद्धि करना है।

प्रश्न – काले धन की समस्या से क्या आशय है? इस समस्या को समास हेतु सरकारी प्रयासों को बताइए।

What is the meaning of the problem of black money ? Explain + government efforts to check increasing black money. 

उत्तर – काले धन की समस्या से आशय 

(Meaning of the Problem of Black Money)

अथवा समानान्तर अर्थव्यवस्था से आशय

(Meaning of Parallel Economy) 

काला धन अथवा समानान्तर अर्थव्यवस्था से आशय ऐसी अर्थव्यवस्था से है जिसमें अस्वीकृत क्षेत्र (Unsanctioned Sector) कार्य करता है, जिसके उद्देश्य स्वीकृत सामाजिक उद्देश्यों से अन्तर्विरोध रखते हैं। इस अर्थव्यवस्था के उद्देश्य स्वीकृत सामाजिक उद्देश्यों के प्रतिकल होते हैं। समानान्तर अर्थव्यवस्था को निम्नलिखित अन्य नामों से भी जाना जाता है

काली अर्थव्यवस्था (Black Economy), बिना लेखे की अर्थव्यवस्था (Unaccounted Economy), अस्वीकृत अर्थव्यवस्था (Unsanctioned Economy), अवैधानिक अर्थव्यवस्था (Illegal Economy), काले अमीरों की अर्थव्यवस्था (Economy of Black Rich) तथा भूमिगत अर्थव्यवस्था (Subterranean Economy)|

नियमित (Regular) तथा समानान्तर (Parallel) अर्थव्यवस्थाएँ दो समानान्तर रेखाओं (Parallel lines) की तरह तथा एक-दूसरे के विपरीत उद्देश्यों से प्रेरित होती हैं। जहाँ नियमित अर्थव्यवस्था सामाजिक कल्याण से प्रेरित होकर कार्य करती है, वहीं समानान्तर अर्थव्यवस्था निजी स्वार्थ से प्रेरित होकर कार्य करती है। नियमित अर्थव्यवस्था की क्रियाओं का लेखा-जोखा राष्ट्रीय आय की गणना में शामिल होता है, जबकि समानान्तर अर्थव्यवस्था की क्रियाओं का कोई लेखा-जोखा राष्ट्रीय आय की गणना में शामिल नहीं किया जाता।

पेण्डसे के अनुसार, “आज देश के सामने अनेक समस्याएँ हैं, लेकिन काली मुद्रा (Black Money) की समस्या की प्रकृति अलग है। जब हम निर्धनता या बेरोजगारी का समस्या की बात करते हैं तो निर्धन या बेरोजगार लोगों पर विचार किया जाता है।….जिन व्यक्तियों के पास काली मुद्रा रहती है उन्हें स्वयं किसी विशेष समस्या का सामना नहीं कर पड़ता, वे तो सरकार तथा ईमानदार व्यक्तियों के सामने समस्या अवश्य खड़ी करते हैं। मुद्रा पर आधारित अर्थव्यवस्था को अक्सर समानान्तर अर्थव्यवस्था कहा जाता है।”

रंगनेकर के शब्दों में, “कुछ वर्ष पूर्व काला बाजार, भूमिगत अर्थव्यवस्था कहलात धीरे-धीरे जो अर्थव्यवस्था भूमिगत थी वह ऊपर आ गई तथा समानान्तर अर्थव्यवस्था ब आज के युग में यही अर्थव्यवस्था सार्वभौम अर्थव्यवस्था (Sovereign Economy गई है। इसने बाजार तन्त्र को अपने पूर्ण नियन्त्रण में ले लिया है तथा यथार्थ में आप लेन-देन (Official transactions) या नियमित आर्थिक क्रियाओं (Regular econ activities) को डुबो दिया है।”

बढ़ते काले धन को रोकने के सरकारी प्रयास 

(Government Efforts to check Increasing Black Money)

समय-समय पर सरकार ने काले धन को बाहर निकालने तथा इसकी वृद्धि को रोकने के लिए विभिन्न उपाय किए हैं। सन् 1997 ई० में ‘स्वैच्छिक आय घोषणा’ इसी नीति का एक रूप था, जिसके कारण काफी संख्या में लोगों ने काले धन को बाहर निकाला। सरकार द्वारा इस दिशा में उपाय के रूप में उठाए गए कुछ पग इस प्रकार हैं-

1. सरकारी नियन्त्रण व कर ढाँचे में सुधार (Government Control and Improvement in Tax-Structure)-देश में कर प्रणाली समझने योग्य व सरल होनी चाहिए, जिससे आम जनता उसे समझ सके। समाजवाद के नाम पर लगाए गए नियन्त्रणों का भी हटाया जाना चाहिए। पिछले दशक में सरकार ने ऐसे नियन्त्रणों को लगभग समाप्त कर दिया है तथा कर ढाँचे में सुधार किया गया है।

2. प्रवासी भारतीयों के लिए विनियोग योजना (Investment Plan for Indian Migrants)–यह योजना भारत से बाहर निवास कर रहे भारतीयों को देश में विनियोग करने के लिए आकर्षित करने में सहायक सिद्ध हुई है।

3.विशिष्ट वाहक बॉण्ड (Specific Bearer Bonds)-सरकार द्वारा काले धन को सामने लाने के लिए विशिष्ट वाहक बॉण्ड योजनाएँ चलाई जाती हैं; जैसे-इन्दिरा विकास पत्र तथा इसके समकक्ष अन्य योजनाएँ। इन योजनाओं में धन जमा कराने वाले से उसकी आय का स्रोत नहीं पूछा जाता। इस कारण काले धन को यहाँ प्रकट करने में किसी प्रकार का जोखिम नहीं रहता है और अवधि समाप्ति के बाद काला धन श्वेत धन में बदल जाता है।

4. विमुद्रीकरण (Demonetization)-काले धन को समाप्त करने के लिए सरकार ने सन् 1946 ई० एवं सन् 1978 ई० में नोटों को रद्द करने की योजना बनाई थी, जो विमुद्रीकरण कहलाती है। इसके अन्तर्गत सरकार ने ₹ 1,000, ₹ 5,000 एवं ₹ 10,000 के बड़े नोटों का प्रचलन बन्द कर दिया था। इसके परिणामस्वरूप बहुत-सारा काला धन, जो बड़े नोटों के रूप में संचित करके रखा गया था, समाप्त हो गया। लेकिन अब पुनः सरकार के द्वारा 8 नवम्बर, 2016 को ₹ 500 व ₹ 1,000 के नोट चलन से बाहर कर दिए गए जिनके स्थान पर ₹2,000 तथा ₹ 500 के नये नोट जारी किए। साथ ही बैंकों से धन निकासी की सीमा भी निर्धारित की है।

5. स्वैच्छिक आय घोषणा योजना (Voluntary Income Disclosure Scheme)-सन् 1990-91 में काला धन ₹ 30 अरब के लगभग था, जो सन् 1996-97 में बढ़कर ₹ 90 खरब के लगभग पहुँच गया। सरकार ने इस काले धन की समस्या के समाधान के लिए 1997 ई० में ‘स्वैच्छिक आय घोषणा योजना’ (VDIS) शुरू की, जिससे सरकार को ₹ 10,500 करोड़ का राजस्व प्राप्त हुआ। इस योजना के फलस्वरूप लगभग ₹ 33,000 करोड़ का काला धन, श्वेत धन में परिवर्तित हुआ है। वर्तमान मोदी सरकार ने 1 जून, 2016 से 30 सितम्बर 2016 तक स्वैच्छिक आय घोषणा की योजना लागू की थी। जिस पर दण्ड का भुगतान 30 नवम्बर 2016 तक अवश्य कर देना था। 30 सितम्बर, 2016 तक इस योजना के तहत ₹ 65,250 करोड़ के कालेधन की घोषणा की गई। इससे कर और जुर्माने के रूप में सरकार को 45% राशि प्राप्त होगी।

प्रश्न – विश्व व्यापार संगठन पर एक लेख लिखिए।

Write a note on World Trade Organisation ? 

अथवा विश्व व्यापार संगठन से आप क्या समझते हैं? इसका निर्माण किस उद्देश्य भारत के लिए इसकी सदस्यता को आप कैसे उचित ठहराएंगे?

What is meant by World Trade Organization ? Why was established ? How will you justify its membership for India ? 

उत्तर – विश्व व्यापार संगठन का आशय

(Meaning of World Trade Organization-WTO) WTO 

गैट का उत्तराधिकारी है। गैट के सदस्य देश समय-समय पर इकटे होकर निक व्यापार की समस्याओं पर वार्ता करके उन्हें सुलझाते थे, परन्तु WTO अब एक व्यवस्थित और स्थायी विश्व व्यापार संस्था बन गयी है। इस संस्था की एक कानूनी स्थिति है और यह विश्व बैंक तथा अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा-कोष के समकक्ष ही स्थान रखता है। यह एक नयी विश्व व्यापार प्रणाली है।

संक्षेप में WTO सरकार के विभिन्न देशों के बीच अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को प्रोत्साहित करने तथा सीमा शुल्क के बन्धनों को कम करने के लिए किया गया आवश्यक सिद्धान्तों तथा नियमों से सम्बन्धित बहुपक्षीय समझौता और बन्धन मुक्त (Loose) संगठन है। यह एक बहुपक्षीय सन्धि है जो अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के नियमों का निर्धारण करती है।

विश्व व्यापार संगठन के उद्देश्य

(Objectives of WTO) 

WTO के महत्त्वपूर्ण उद्देश्य निम्नवत् हैं-

(1) WTO का प्रथम उद्देश्य समझौते में दृष्टिगत नयी विश्व व्यापार प्रणाली को लागू करना है।

(2) विश्व व्यापार को इस अवधि से बढ़ावा देना, ताकि प्रत्येक देश उससे लाभान्वित हो सके।

(3) विस्तृत वास्तविक आय और प्रभावी माँग में लगातार वृद्धि के द्वारा रहन-सहन के स्तर में सुधार करना।

(4) वस्तुओं, सेवाओं के उत्पादन तथा व्यापार का प्रसार करना।

(5) उपभोक्ताओं को लाभान्वित करने तथा विश्व समन्वय की सहायता के लिए सभ व्यापारिक भागीदारों में प्रतियोगिता को बढ़ावा देना।

(6) प्रशुल्क और व्यापार की रुकावटें तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार सम्बन्धी पक्षपातकारी व्यवहार को हटाना।

(7 विश्व में रोजगार के स्तर को बढ़ाने के विचार से उत्पादन के स्तर उत्पादकता को बढ़ाना।

(8) बहुपक्षीय संगठित व्यापार प्रणाली को विकसित करना। 

(9) संसार के संसाधनों का अधिकतम विस्तार करना तथा उनका उपयोग

(10) व्यापारिक एवं पर्यावरण सम्बन्धी नीतियों तथा सततीय विकास स स्थापित करना।

(11) पर्यावरण रक्षा के साधनों का विस्तार आर्थिक विकास के विभिन्न स्तरों की अवश्यकताओं और समस्याओं के अनुरूप करना।

WTO के ये उद्देश्य गैट के उद्देश्यों से काफी हद तक मिलते-जुलते हैं। फिर भी WTO के ये उद्देश्य, निर्यात प्रतिस्पर्द्धा की नीति, बाजार पहँच और स्वतन्त्र व्यापार को अधिक सख्ती से लागू करके प्राप्त करने का प्रयास किया जाएगा।

भारत के लिए इसकी सदस्यता

(Its Membership for India) 

भारत व्यापार और शल्क पर सामान्य करार (जी०ए०टी०टी०, 1947) और इसक उत्तराधिकारी संगठन-विश्व व्यापार संगठन दोनों का संस्थापक सदस्य है जो 1.1.1995 से लागू हुआ विश्व व्यापार संगठन की सदस्यता के कारण भारत को अपने निर्यातकों के लिए विश्व व्यापार संगठन के सभी सदस्यों से अत्यन्त अनुकूल राष्ट्र होने का गौरव प्राप्त है और इस बढ़ती हुई नियम आधारित प्रणाली में इसकी प्रतिभागिता का उद्देश्य अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के संचालन में अधिक स्थायित्व और भविष्य का ध्यान सुनिश्चित करने के लिए है। भारत की वचनबद्धता WTO के सम्बन्ध में निम्नलिखित है

(1)  विश्व व्यापार संगठन का सदस्य होने के नाते भारत ने अपने शुल्कों की श्रृंखला को लगभग 67% तक अनिवार्य कर दिया है, जबकि उरुग्वे दौर से पहले केवल 6 प्रतिशत शुल्क भृखला अनिवार्य थी।

(2) वर्तमान में आयातों पर मात्रात्मक प्रतिबन्ध आठ अंक के स्तर पर लगभग 2,300 शुल्क श्रृंखलाओं के भुगतान सन्तुलन के आधार पर रखे जा रहे हैं। भुगतान सन्तुलन में सुधार के दृष्टिकोण से भुगतान सन्तुलन प्रतिबन्ध समिति ने भारत से इन मात्रात्मक प्रतिबन्धों को चरणबद्ध योजना के तहत हटाने के लिए कहा है।

(3) सेवाओं में, व्यापार पर सामान्य समझौते में एक सकारात्मक सूची’ है जिसने विश्व व्यापार संगठन के सदस्यों को अपने पसन्द के क्षेत्र में बाध्यताओं को मापने की अनुमति दी है। विकासशील देशों के लिए औसतन 23 क्रियाकलापों की तुलना में भारत ने 33 क्रियाकलापों के लिए वचनबद्धता दी है। सेवा समझोते में हमारा लक्ष्य विदेशी सेवा उपलब्धकर्ताओं को प्रवेश की अनुमति देना है जिसमें प्रवेश पूँजी अन्तर्ग्रवाह, प्रौद्योगिकी और रोजगार के सम्बन्ध में हमारे लिए अत्यन्त लाभप्रद माना गया था।

(4) बौद्धिक सम्पदा अधिकारों से सम्बन्धित व्यापार समझौता, बौद्धिक सम्पदा अधिकारों की उपलब्धता, उपयोगिता, प्रयोग और इन्हें लागू करने से सम्बन्धित कतिपय न्यूनतम स्तरों की संस्थापना करता है और इन क्षेत्रों में भेदभाव रहित पारदर्शिता के मूल सिद्धान्त का विस्तार करता है। राष्ट्रीय बर्ताव और अनुकूल राष्ट्र से सम्बन्धित प्रावधानों के मामलों को छोड़कर इन बाध्यताओं को पूरा करने के लिए 1.1.2000 तक का समय उपलब्ध था।

(5) सीमा शुल्क के मूल्यांकन पर भारत का विधान, सीमा शुल्क मूल्यांकन नियमावली, 1998 को व्यापार और शल्क के सामान्य करार के अनुच्छेद VII और सीमा तुल्क मूल्यांकन करार के क्रियान्वयन पर विश्व व्यापार संगठन के प्रावधानों के अनुरूप लाने के लिए संशोधित किया गया है।

भारत को WTO की सदस्यता से सम्भावित लाभ 

(Probable Advantages to India by the Membership of WTO)

संक्षेप में, भारत को WTO का सदस्य बनने से मिलने वाले सम्भावित लाभ निम्नलिखित है-

निर्यात व्यापार में वृद्धि (Increase in Export Trade)-(i) WTO का सदस्य बन रहने से भारत के 124 देशों के साथ बहपक्षीय समझोते 

1. सम्भव हो जाता देशों के साथ द्विपक्षीय समझौते नहीं करने पड़ेंगे, (ii) इसके अलावा सीमा शुल्क की दरों में कमा आर मण्डियाँ खुलने से व्यापार में वृद्धि होती है। अनुमान के अनुसार WTO समर के फलस्वरूप विश्व व्यापार में 2,000 से 3,000 करोड़ डॉलर का वृद्धि होगी। इसके फलस्वरूप भारत अपने व्यापार में 150 से 200 करोड़ डॉलर की वृद्धि कर सकता है।

WTO समझौते के फलस्वरूप कृषिगत पदार्थों के निर्यात के बढ़ने के भी नए अवसा उत्पन्न हुए हैं क्योंकि विदेशों में कृषि पर सब्सिडी कम होगी, साथ ही कृषिगत निर्यातों पर भी सब्सिडी घटेगी जिससे भारतीय माल के बिकने की सम्भावनाएँ बढ़ेगी।

2. वस्त्र एवं सिले-सिलाए कपड़े के निर्यात में वृद्धि (Increase in Export of Readymade Garments)-वस्त्रों एवं सिले-सिलाए कपड़ों के बहुतन्त्रीय समझौते के अन्तर्गत सन् 1974 से कपड़ों के व्यापार पर जो कोटा सम्बन्धी प्रतिबन्ध लागू थे, वे. सन् 2005 तक समाप्त कर दिए जाएंगे। कोटा निर्धारण प्रक्रिया समाप्त हो जाने से भारत को अपने वस्त्रों एवं सिले-सिलाए कपड़ों के निर्यात में वृद्धि करने में मदद मिलेगी। 

3.सेवा क्षेत्र को लाभ (Advantage for Service Sector)-WTO प्रस्ताव के अन्तर्गत सेवा क्षेत्र को व्यापार में शामिल कर लेने से भारत जैसे विकासशील देशों को लाभ प्राप्त होगा। इस प्रस्ताव के अनुसार, विकसित देश विकासशील राष्ट्रों में अनेक व्यापारिक एवं सेवा के प्रतिष्ठानों, जैसे—बैंक, यातायात, होटल आदि खोलेंगे। इसके बदले में विकसित राष्ट्र भारत को अपनी वस्तुएँ बेचने के लिए व्यापक बाजार उपलब्ध कराएँगे।

प्रश्न – विश्व बैंक के क्या कार्य हैं? भारत के आर्थिक विकास में विश्व बैंक का योगदान बतलाइए।

What are the functions of World bank ?

Discuss the role of world bank in the economic development of India. 

उत्तर – विश्व बैंक के कार्य

(Functions of World Bank) 

विश्व बैंक विभिन्न राष्ट्रों की आर्थिक सहायता करता है। यह आर्थिक सहायता मुख्यतः सदस्य देशों को ऋण देकर की जाती है। भारत की सभी बडी विकास योजनाएँ विश्व बक ऋण सहायता के द्वारा ही घोषित हो रही हैं। विश्व बैंक के प्रमुख कार्यों को निम्नलिखित रूप प्रकट किया जा सकता है

1. सदस्य राष्ट्रों की ऋण द्वारा सहायता – विश्व बैंक समय-समय पर अपने स राष्ट्रों को ऋण आवंटित करता रहता है। यह आवश्यक है कि राष्ट्र जिस कार्य के लिए धन का आवंटन कराता है, उसी मद में ऋण की राशि को खर्च किया जाना चाहिए।

2. सदस्य राष्ट्र के व्यक्तिगत विनिमयकर्ता को ऋण का आवंटन – व्यक्तिगत विनिमयकर्ताओं को भी यह बैंक उनके ऋण की राशि की गारण्टी देकर उधार दिलाने की व्यवस्था करता है।

3. देशों के लाभार्थ सहायता क्लब – विकासशील देशों की विकास याजनाए सफलतापूर्वक चल सकें इसके लिए विश्व बैंक ने सहायता क्लबों की स्थापना भी का ही इस कार्य के अनुगामी भारत सहायता क्लब’ की भी स्थापना की जा चुकी है। इस सहायता क्लब द्वारा भारतीय पंचवर्षीय योजनाओं को सफल बनाने हेतु बड़ी संख्या में ऋण राशि दी जाती है।

4.अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं का उदय – अधिक पिछड़े तथा अविकसित राष्ट्रा क ढाँचे के विकास के निमित्त विश्व बैंक अनेक वित्तीय संस्थाओं को विकसित करने में सहायक बनता है। इसी कार्य की पूर्ति के लिए 1996 ई० में विश्व बैंक के प्रयासों के अधीन ‘अन्तर्राष्ट्रीय वित्त निगम’ की स्थापना की गई है। इस निगम के द्वारा पिछड़े राष्ट्रों को ऋण दिया जाएगा तथा वहाँ के औद्योगिक परिदृश्य को बदलने का प्रयास किया जाएगा।

5. अनुसन्धान परियोजनाएँ चलाना – विश्व बैंक के द्वारा आर्थिक अनुसन्धान की परियोजनाएं शुरू की गई हैं। विश्व बैंक द्वारा 1971 ई० से ही इस क्षेत्र में अनुसन्धान तथा अध्ययन से सम्बन्धित सेमिनार आयोजित किए जा रहे हैं।

6. गारण्टी देना – पहले विश्व बैंक स्वयं गारण्टी पर ऋण दिलवाता था, परन्तु अब “उसने यह कार्य बन्द कर दिया है। 1965 ई० के बाद विश्व बैंक ने किसी भी ऋण की गारण्टी नहीं दी है। गारण्टी कार्य मुख्य रूप से इसलिए बन्द किया गया है क्योंकि विकासशील देशों को ‘अन्तर्राष्ट्रीय विकास संघ’ (IDA) तथा अन्तर्राष्ट्रीय वित्त निगम’ (IFC) से पर्याप्त मात्रा में ऋण प्राप्त हो रहे हैं। ये दोनों विश्व बैंक की ही सहयोगी संस्थाएँ हैं। साथ ही, विकसित देशों की सरकारें भी विकासशील देशों को ऋण दे रही हैं।

7. तकनीकी सहायता — विश्व बैंक सदस्य देशों को तकनीकी सहायता देकर उनके पुनर्निर्माण व आर्थिक विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है। तकनीकी सहायता का स्तर उस राष्ट्र की भौगोलिक तथा प्राकृतिक अवस्था को ध्यान में रखकर तय किया जाता है।

8.सहायता कार्यक्रमों में समन्वय – विश्व के भौतिक उत्थान के लिए अनेक संस्थाएँ विश्व-स्तर पर कार्यरत हैं। उन सब के मध्य सन्तुलन स्थापित करना तथा समन्वयक की भूमिका निभाना विश्व बैंक का प्रमुख कार्य है।

9. प्रशिक्षण सुविधाएँ – आर्थिक क्षेत्रों से सम्बन्धित विभिन्न मामलों में विश्व बैंक द्वारा सदस्य राष्ट्रों के अधिकारियों को अर्थ सम्बन्धी कार्यों में प्रशिक्षण दिलाने की व्यवस्था की जाती है। इस प्रकार का प्रशिक्षण कार्यक्रम प्रथम बार विश्व बैंक द्वारा अपनी स्थापना के दो वर्ष बाद, 1949 ई० में आयोजित किया गया था। 1950 ई० से कनिष्ठ अधिकारियों के लिए भी लोक-वित्त सम्बन्धी प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए जाने लगे हैं।

10. अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान – अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं को निपटाने में भी कभी-कभी यह बैंक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। यह भूमिका एक प्रकार से मध्यस्थ के रूप में ही होती है। 

उदाहरणार्थ – भारत-पाक के मध्य ‘नहरी पानी विवाद’ तथा ‘स्वेज नहर विवाद’ विश्व बैंक की मध्यस्थता से ही सुलझाए जा सके थे।

विश्व बैंक अपनी स्थापना से लेकर 2001 ई० तक 34 करोड़ डॉलर के ऋण ट्रा कालए स्वीकृत कर चुका है। विश्व के अधिकांश राष्ट्र अत्यन्त गरीब हैं, तथापि विना ने विपरीत परिस्थितियों में भी आर्थिक सहायता देकर इन राष्ट्रों को विकास-पथ पर आगे में महत्त्वपूर्ण सहयोग प्रदान किया है।

भारत के आर्थिक विकास में विश्व बैंक का योगदान 

(Contribution of World Bank in India’s Economic Development)

भारत विश्व बैंक के प्रारम्भिक सदस्यों में से एक है। पूँजी निवेश की दृष्टि से बैंक के सदस्या में भारत का तेरहवाँ स्थान है। भारत की समस्त वृहत् विकास योजनाएँ तथा उद्यम, विश्व बैंक की ऋण सहायता के द्वारा ही संचालित हए हैं। भारत को विश्व बैंक दान प्राप्त सहायता का वर्णन निम्नलिखित बिन्दुओं में किया जा सकता है

1. विदेशी विनिमय संकट का मोचक – विदेशी विनिमय संकट के समय भारत की सहायता विश्व बैंक द्वारा एक संकटमोचक के रूप में की गई है। 1958 ई० तथा 1965 ई० की। विनिमय की विपरीत अवस्था में विश्व बैंक ने अत्यधिक ऋण स्वीकृत कर भारत को आर्थिक पतन की अवस्था से बाहर निकाल लिया था।

2. वित्तीय सहायता – भारत की विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं को विश्व बैंक की आर्थिक एवं तकनीकी सहायता से ही सफलता प्राप्त हुई है। विश्व बैंक ने भारत की प्राय: सभी विकास योजनाओं में विशेष रुचि ली है। भारत विश्व बैंक से सर्वाधिक ऋण प्राप्त करने वाले प्रारम्भिक देशों में से है। विश्व बैंक से ऋण प्राप्त करने वाले देशों में ब्राजील तथा मैक्सिको के बाद भारत को सबसे अधिक ऋण प्राप्त हुए हैं। भारत की अधिकांश बहुउद्देशीय परियोजनाओं को पूरा करने में विश्व बैंक की सहायता अत्यन्त कारगर सिद्ध हुई है।

3. पाकिस्तान के साथ विवाद में मध्यस्थता – विश्व बैंक ने भारत और पाकिस्तान के बीच पुराने नहरी पानी विवाद को सुलझाने में मध्यस्थता की। इस विवाद को समाप्त करने के लिए स्वयं बैंक को 80 मिलियन डॉलर का ऋण देना पड़ा। इसके अतिरिक्त विश्व बैंक ने ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, इंग्लैण्ड, न्यूजीलैण्ड, कनाडा तथा जर्मनी आदि देशों से भारत को सिन्धु घाटी विकास कोष’ की स्थापना करने के लिए 680 मिलियन डॉलर की सहायता दिलवाई।

4. तकनीकी सहायता – समय-समय पर विश्व बैंक ने भारत को तकनीकी ज्ञान तथा तकनीकी मानव संसाधन सुलभ कराए हैं। इस तकनीकी ज्ञान के आधार पर भारत ने आर्थिक व भौतिक क्षेत्र में काफी उत्नति की है।

5. सर्वेक्षण दल योजना – विश्व बैंक ने हमारी योजनाओं के कशल संचालन तथा मूल्यांकन के लिए कम-से-कम 15 विशेषज्ञ दल समय-समय पर भारत भेजे हैं। व 1957-58 से बैंक का स्थायी प्रतिनिधि भारत में ही रहा है, जो योजनाओं और आर्थिक नाक के सम्बन्ध में सलाह देता है। 1960 ई० में बैंक ने विश्व के तीन विशेषज्ञ बैंक अधिकारिया भारत भेजा था। वे भारतीय योजनाओं की वित्त व्यवस्था का अध्ययन करने के उद्देश्य स थे। विश्व बैंक ने परिवहन विकास के लिए भी भारत को अन्तर्राष्ट्रीय विकास संघ से ऋण दिला

6.अन्तर्राष्ट्रीय विकास संघ – विश्व बैंक द्वारा स्थापित अन्तर्राष्ट्रीय विकास संघ भारत की आर्थिक विकास परियोजनाओं के लिए 30 जून, 1992 ई० तक (186 परिया में) कल 1,891.5 करोड़ डॉलर के ऋण स्वीकृत किए हैं। (186 परियोजनाओं

7. भारत सहायता क्लब-1958 ई० में विश्व बैंक ने 10 विकसित देशों का एक संघ भारत के नियोजन में आर्थिक सहायता देने हेतु स्थापित किया, जिसे ‘भारत सहायता क्लब’ कहते हैं। वर्ष 1995-96 व 1996-97 में इस क्लब से भारत को क्रमश: 89 अरब डॉलर तथा 92.7 अरब डॉलर की सहायता प्राप्त हुई।

8. सामान्य ऋण सुविधा-बैक द्वारा दिए गए ऋण को भारत अपनी इच्छानुसार विभिन्न योजनाओं पर खर्च कर सके. इस हेत भी बैंक स्वीकति प्रदान करता रहा है। विश्व बक का स्थापना से 30 जून, 1997 ई० तक विश्व बैंक एवं उनके सहयोगी बैंकों द्वारा भारत का परियोजनाओं के लिए कल 3.879.3 करोड डॉलर के ऋण मिले हैं जिसमें विश्व बैंक से 164 परियोजनाओं के लिए मिले 2,436 करोड़ डॉलर के ऋण सम्मिलित हैं। 

आलोचना

भारत को विश्व बैंक द्वारा मिलने वाले ऋण के सम्बन्ध में समय-समय पर विभिन्न क्षेत्रों में आलोचनाएँ भी होती रही हैं। ये आलोचनाएँ निम्नलिखित बिन्दुओं तक सीमित हैं

1. बैंक द्वारा निश्चित उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही ऋण दिए गए हैं – भारत को विश्व बैंक द्वारा ऑस्ट्रेलिया की भाँति सामान्य ऋण न मिलकर निश्चित उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही ऋण प्राप्त होते हैं, जिनका अधिक लाभ नहीं उठाया जा सकता।

2. ऋणों की स्वीकृति ऊँची ब्याज दर पर (Sanction of Loans at Higher Rate of Interest)-विश्व बैंक से प्राप्त ऋणों पर भारत को अनेक बार 10 – 6% से 11.6% तक ब्याज देना पड़ा है। भारत जैसे अर्द्धविकसित एवं निर्धन देश के लिए इतनी ऊँची ब्याज दर अनुचित है।

3. प्राप्त ऋण राशि का अल्प मात्रा में होना (Inadequate Amount of Loan)-कुछ आलोचकों का मत है कि विश्व बैंक के माध्यम से भारत को मिली आर्थिक सहायता इस देश की विशालता एवं आर्थिक आवश्यकताओं को देखते हुए अपर्याप्त है।

निष्कर्ष – विश्व बैंक निजी क्षेत्र के विकास पर अधिक जोर देता है, जिसका भारत की समाजवादी व्यवस्था से सामंजस्य नहीं बैठ पाता है। साथ ही, अनेक बार विश्व बैंक की इच्छानुसार भारतीय रुपये का अवमूल्यन भी किया जा चुका है।

प्रश्न – नवीन पंचवर्षीय विदेश व्यापार नीति पर टिप्पणी लिखिए।

Write a note on New Five Yearly Foreign Trade Policy (2015-2020). 

उत्तर – नवीन पंचवर्षीय विदेश व्यापार नीति (2015-20)

[New Five Yearly Policy (2015-20)] 

केन्द्र सरकार ने 1 अप्रैल, 2015 को विदेश व्यापार नीति (2015-20) की घोषणा की। नई विदेश व्यापार नीति में निर्यातकों को मिलने वाले इन्सेंटिव में कई परिवर्तन किए गए हैं। वहीं ‘मेक इन इण्डिया’ कार्यक्रम को प्रोत्साहित करने के लिए एक्सपोर्ट प्रमोशन कैपिटल गुड्स स्काम (ईपीसीजी) के अन्तर्गत शल्क में छूट पाने के लिए निर्यातकों को निर्यात की शर्त में राहत दी गई है। ई-कॉमर्स के माध्यम से ₹ 25,000 तक के मूल्य वाले हैंडलूम उत्पाद, लेदर

फुटावयर, खिलौना व फैशन गारमेन्ट का निर्यात करने वाले निर्यातकों को अन्य निर्यात तरह विभिन्न प्रकार के लाभ मिलेंगे। नई नीति के अन्तर्गत कालीकट एयरपोर्ट जराकानम के कन्टेनर डिपो से आयात-निर्यात किया जा सकेगा। विशाखापट्टनम व भी को टाउन ऑफ एक्सपोर्ट एक्सलेंस घोषित किया गया है। नई नीति के अन्तर्गत किए गए उप की सहायता से सरकार ने वर्ष 2020 तक देश के निर्यात को 900 अरब डॉलर वार्षिक तक पहुचाने का लक्ष्य रखा है। इस नीति में निर्यातकों और विशेष निर्यात जोन (एसईजेड) के कई प्रोत्साहनों की घोषणा की गई है। प्रावधानों की निरन्तरता बनाए रखने और निर्यातकों व आयातकों को लम्बी अवधि की रणनीति बनाने में सहायता करने के लिए नीति की अवधि पाँच वर्ष तय की गई है।

नई नीति में निर्यात प्रोत्साहन के लिए पहले से चल रही पाँच विभिन्न प्रकार की योजनाओं-फोकस प्रोडक्ट योजना, मार्केट लिंक्ड फोकस प्रोडक्ट योजना, फोकस मार्केट योजना, एग्री इंफ्रास्ट्रक्चर इन्सेंटिव स्क्रिप्स व वीकेजीयूवाई के स्थान पर अब मर्चेडाइज/एक्सपोर्ट फ्रॉम इण्डिया योजना (एमईआईएस) की शुरुआत की गई। सेवा निर्यात के लिए सर्विस एक्सपोर्ट फ्रॉम इण्डिया स्कीम (एसईआईएस) लायी गई है। इन दोनों योजनाओं के अन्तर्गत निर्यातकों को वस्तु और बाजार के आधार पर स्क्रिप्स के रूप में इन्सेंटिव दिए जाएंगे। वस्तुओं के निर्यातकों को 2 से 5 प्रतिशत तक इन्सेंटिव दिए जाएँगे तो सेवा निर्यातकों को 3 से 5 प्रतिशत तक इन्सेंटिव मिलेंगे। इन्सेंटिव की दर निर्यात की जाने वाली वस्तु व बाजार के आधार पर तय होगी। रोजगारपरक क्षेत्र की वस्तु, कृषि व ग्रामीण उद्योग, पर्यावरण अनुकूलन के साथ अधिक मूल्य वाली वस्तुओं के निर्यात पर सबसे अधिक इन्सेंटिव दिए जाएंगे। ऐसे में कई ऐसी भी वस्तुएँ होंगी जिनके निर्यात पर कोई इन्सेंटिव नहीं मिलेगा। इन्सेंटिव के रूप में प्राप्त करने वाले स्क्रिप्स से निर्यातक किसी भी प्रकार के कर जैसे उत्पाद कर, सीमा शुल्क व सेवा कर को चुका सकते हैं। स्क्रिप्स को ट्रांसफर भी किया जा सकेगा।

बाजारों का वर्गीकरण (Classification of Markets)-निर्यात बाजार को भी तीन श्रेणी में बाँटा गया है—ए श्रेणी में अमेरिका, यूरोपीय संघ के देश व कनाडा को मिलाकर 30 देश हैं। बी श्रेणी में अफ्रीका, लैटिन अमेरिका, सीआईएस देश, आसियान देशों को मिलाकर 139 देशों को शामिल किया गया है। अन्य 70 देशों को सी श्रेणी के देश माना गया है जहाँ निर्यात काफी कम है।

विदेश व्यापार (Foreign Trade)-कृषि उत्पादों के निर्यात पर जोर देते हुए इन उत्पादों को ज्यादा छूट देने का प्रावधान किया है। साथ ही सरकार ने नीति को ‘मेक इन इण्डिया’ और ‘डिजीटल इण्डिया’ से जोड़ने का प्रयास किया है। देश से होने वाला वस्तु व सेवाओं का निर्यात अगले पाँच वर्ष में बढ़ाकर 900 अरब डॉलर तक पहुँच जाएगा। इसस विदेश व्यापार में भारत की हिस्सेदारी वर्तमान दो से बढ़कर 3.5 प्रतिशत हो जाएगी।

एसईजेड को प्रोत्साहन (Promotion for Special Economic Zone SEA सरकार ने विशेष आर्थिक क्षेत्रों अर्थात् एसईजेड की भूमिका और बढ़ाने के लिए ना एमईआईएस और एसईआईएस के अन्तर्गत निर्यात दायित्व में 25 प्रतिशत की कमी कर दा ऐसा होने के बाद निवेशकों की दृष्टि से एसईजेड और आकर्षक बनेंगे। साथ ही इससे घर पूँजीगत समान उद्योग को भी प्रोत्साहन मिलेगा। इसके अतिरिक्त एसईजेड की इकाइयों को भी अब विदेश व्यापार नीति के चैप्टर तीन के अन्तर्गत मिलने वाली छट भी मिलेगी। वर्ष 2012 में सईजेड पर न्यूनतम वैकल्पिक कर (मैट) लागू होने के बाद से निवेशक इससे दूर हो रहे थे।

राज्यों के साथ सहयोग (Cooperation with States) केन्द्र नियातका पोत्साहित करने के लिए राज्यों का भी सक्रिय सहयोग लेगा। इसके लिए नाति भएक अंगठनात्मक ढाँचे का प्रस्ताव भी किया गया है। राज्य सरकारों की भागीदारी के लिए एक एक्सपोर्ट प्रमोशन मिशन के गठन का प्रस्ताव किया गया है।

सरकार के अभियानों को सहायता (Helpful for Government Plans मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र और रोजगार सृजन में छोटे व मझौले उद्यमों को महत्त्व दिया गया। सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यमों (एमएसएमई) के 108 समूहों की पहचान की गई है। इसी तरह स्कल इण्डिया’ के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए ‘निर्यात बन्धु’ योजना को मजबूत बनाया जा रहा है।

नई विदेशी व्यापार नीति (एफटीपी) ई-कॉमर्स को भी बढ़ावा देगी। विशेष रूप से उन क्षेत्रों को नीति में ज्यादा प्रोत्साहन देने की व्यवस्था की गई है, जो ज्यादा रोजगार के अवसर पैदा करते हैं। एफटीपी के अन्तर्गत ऐसी ई-कॉमर्स कम्पनियों को प्रोत्साहन मिलेगा, जो एस क्षेत्रों के उत्पाद निर्यात करेंगी जिन पर सरकार रोजगार सृजन के लिए ध्यान दे रही है। इनमें चमड़ा और हस्तशिल्प क्षेत्र प्रमुख हैं।

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