B.Com 2nd Year Indian Public Finance Long Notes In Hindi
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प्रश्न 16 – एडम स्मिथ तथा अन्य द्वारा किए गए विभिन्न करारोपण सिद्धान्ता का वर्णन कीजिए।
Discuss various canons of taxation given by Adam Smit and others.
अथवा करारोपण के विभिन्न सिद्धान्तों का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।
Explain critically the various canons of taxation.
करारोपण के सिद्धान्त
(Canons of Taxation)
विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने कर के अनेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। ये सिद्धान्त की प्रकृति तथा उद्देश्यों की व्याख्या करने में अत्यन्त सहायक अत्यन्त सहायक सिद्ध हुए हैं। अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से हम करारोपण के सिद्धान्तों को स्पष्टत: दो उपविभागों में विभक्त कर सकते हैं-
(क) प्रो० एडम स्मिथ द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त।
(ख) अन्य अर्थशास्त्रियों द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त।
(क) प्रो० एडम स्मिथ द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त
(Canons Propounded by Prof. Adam Smith)
अर्थशास्त्र के जनक प्रो० एडम स्मिथ ने करों की प्रकृति तथा उद्देश्यों का विधिवत् अध्ययन करके अपनी विश्वप्रसिद्ध कृति ‘Wealth of Nations’ में कुछ आधारभूत सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया था। वही सिद्धान्त ‘एडम स्मिथ के करारोपण के सिद्धान्त’ के नाम से विश्वविख्यात है। इन सिद्धान्तों को आज भी मान्यता प्राप्त है। इन सिद्धान्तों का महत्त्व प्रो० फिण्डले शिराज के शब्दों में स्वयं अभिव्यक्त हो जाता है— “एडम स्मिथ के पश्चात् कोई भी विद्वान् करों के नियमों को इतने सरल और स्पष्ट रूप में नहीं रख सका है।”
ये सिद्धान्त निम्नलिखित हैं
(1) समानता का सिद्धान्त (Canon of Equity)-इस सिद्धान्त का मूल तत्त्व यह है कि करारोपण इस प्रकार किया जाना चाहिए कि सभी लोगों पर कर का यथासम्भव समान भार पड़े। प्रो० एडम स्मिथ के शब्दों में—“प्रत्येक राष्ट्र की प्रजा को सरकार की सहायता के लिए यथासम्भव अपना अंशदान अपनी-अपनी योग्यताओं के अनुपात में देना चाहिए, अत: उन्हें उस आय के अनुपात में, जो वे क्रमश: सरकार की सुरक्षा से प्राप्त करते हैं, धन देना चाहिए।” इस सिद्धान्त का पालन करने से करारोपण की समानता प्राप्त की जा सकती है और इसकी उपेक्षा करने से करारोपण की असमानता। यह न्यायसंगत भी है।
प्रो० एडम स्मिथ के इस सिद्धान्त के सन्दर्भ में विभिन्न अर्थशास्त्री इस बात पर एकमत नहीं हैं कि प्रो० स्मिथ का समानता से क्या अभिप्राय था। प्रो० जे० एस० मिल के अनुसार समानता (Equity) का अभिप्राय आनुपातिक करारोपण (Proportional Taxation) से है। इसके विपरीत प्रो० चैपमैन, सेलिगमैन तथा कोहन जैसे अर्थशास्त्रियों ने ‘समानता’ का अर्थ प्रगतिशील करारोपण (Progressive Taxation) से लिया है। प्रो० फिण्डले शिराज के अनुसार प्रो० एडम स्मिथ का समानता से अभिप्राय करदान क्षमता से था, अर्थात् प्रत्येक नागरिक द्वारा अपनी शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार राज्य को अंशदान देना चाहिए। स्वयं प्रो० एडम स्मिथ के कथन से भी इसी कथन की पुष्टि होती है-“धनाढ्य व्यक्तियों को अपनी आय के अनुपात में नहीं, वरन् इस अनुपात से अधिक कर देना अनुचित न होगा।” इस प्रकार स्पष्ट है कि अर्थशास्त्र के जनक प्रगतिशील करारोपण के पक्ष में थे। प्रो० फिण्डले शिराज ने भी इस सिद्धान्त की पुष्टि की है-“करारोपण का भार अधिक से अधिक लोगों पर उनकी क्षमता के अनुसार बाँटा जाना चाहिए।”
(2) निश्चितता का सिद्धान्त (Canon of Certainty)-प्रो० एडम स्मिथ ने निश्चितता को करारोपण का दूसरा महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त माना है। उनकी दृष्टि में एक श्रेष्ठ कर प्रणाली के अन्तर्गत यह आवश्यक है कि कर की राशि, भुगतान विधि, समय तथा स्थान सुनिश्चित हो, ताकि करदाता और कर-अधिकारी दोनों अपनी-अपनी आय और व्यय का सही-सही समायोजन कर सकें। इससे सरकार को कर संग्रह पर अधिक समय तक साधनों का अपव्यय नहीं करना पड़ेगा और करदाता भी कर-अधिकारी के शोषण से मुक्त रहेगा।
प्रो० एडम स्मिथ के शब्दों में -“हर व्यक्ति को जो कर देना है वह निश्चित ही चाहिए, मनमाना नहीं। भुगतान का समय, भुगतान का तरीका, भुगतान की राशि, करदाता कार प्रत्येक अन्य व्यक्ति को स्पष्ट ज्ञात होनी चाहिए।”
निश्चितता के सिद्धान्त को प्रो० एडम स्मिथ कितना महत्त्वपूर्ण समझते थे यह उनके निम्न कथन से स्वतः स्पष्ट है-“कर के मामले में किसी व्यक्ति को जो रकम अदा करनी के उसकी निश्चितता इतने महत्त्व की है कि समस्त देशों के अनुभव के आधार पर मेरा विचार के कि काफी बड़ी मात्रा की असमानता भी इतनी भयानक नहीं होती जितनी कि बड़ी थोड़ी मात्रा में अनिश्चितता।” _
करारोपण में निश्चितता के इस सिद्धान्त को प्रो० हैडले ने भी स्वीकार किया। उन्होंने लिखा है कि “निश्चितता मौलिक रूप से महत्त्वपूर्ण है क्योंकि उसके बिना समानता के लिए किए गए सभी प्रयास बेकार हैं।”
(3) सुविधा का सिद्धान्त (Canon of Convenience)-प्रो० एडम स्मिथ ने ‘सुविधा’ को अच्छी कर प्रणाली का तीसरा आधार बताया है। प्रो० स्मिथ के ही शब्दों में”हर एक कर ऐसे समय पर इस ढंग से लगाया जाना चाहिए कि करदाता को भुगतान करना अत्यधिक सुविधाजनक हो।”
इसका अभिप्राय यह है कि भुगतान की पद्धति सरल तथा लालफीताशाही के दोषों से सर्वथा मुक्त होनी चाहिए; यथा-किसानों से लगान का भुगतान उस समय लेना चाहिए जब वे अपनी फसल बाजार में बेच दें। इसी प्रकार आय का भुगतान वेतन प्राप्ति के समय सरल किस्तों में किया जाना चाहिए। संक्षेप में, करदाता को उसके भुगतान का समय, विधि तथा स्थान का पता
(4) मितव्ययिता का सिद्धान्त (Canon of Economy)-अर्थशास्त्र के जनक प्रो० एडम स्मिथ ने अपने कर सिद्धान्तों में मितव्ययिता का भी समावेश किया है। उनका मत था कि कर संग्रह की लागत न्यूनतम होनी चाहिए क्योंकि करारोपण एक प्रकार का उत्पादक कार्य है। इसमें जितनी अधिक मितव्ययिता होगी सरकार और करदाता उतने ही अधिक सुखी रहेंगे। इस सिद्धान्त की व्याख्या इन शब्दों में की गई है-“प्रत्येक कर इस प्रकार लगाना और वसूल किया जाना चाहिए कि उसके द्वारा राज्य कोष में जितना द्रव्य आए उससे बहुत अधिक मात्रा में जनता का जब से द्रव्य न निकाला जाए अथवा जनता द्वारा दिए जाने वाले कर का सरकारी कोष में आने वाली रकम से आधिक्य न्यूनतम हो।”
आधुनिक अर्थशास्त्री मितव्ययिता का व्यापक अर्थ लेते हैं। उनकी दष्टि में मितव्ययिता का अर्थ अपव्यय को रोकना है। प्रो० डाल्टन के शब्दों में, “कर की सर्वोत्तम प्रणाली वह है जिसम कर वसूल करने का लागत प्राप्त आय के अनुपात में कम-से-कम हो।”
वस्तुत: प्रो० एडम स्मिथ के मितव्ययिता सम्बन्धी सिद्धान्त को व्यापक मान्यता प्राप्त हा प्रो० वैगनर, रॉबर्ट जोन्स, विक्स्टैड तथा हॉब्सन जैसे सभी अर्थशास्त्री इस सिद्धान्त एकमत से स्वीकार करते हैं। प्रो० जे० के० मेहता ने भी इस सिद्धान्त का समर्थन किया ह “करारोपण एक उत्पादन क्रिया है और इस उत्पादन किया यथासम्भव मितव्ययिता बरता जानी चाहिए।”
इस दृष्टि से कर लगाते व संग्रह करते समय निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए
(i) कर संग्रह करने की प्रशासनिक लागत कम-से-कम आए।
(ii) करारोपण का उद्योग व व्यापार पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े।
(iii) कर इतने भारी न हों कि करवंचन को प्रोत्साहन मिले।
(iv) कर पद्धति सरल होनी चाहिए।
एडम स्मिथ के करारोपण के सिद्धान्तों की समीक्षा – एडम स्मिथ द्वारा प्रतिपादित उपर्युक्त सिद्धान्तों की आलोचना करते हुए श्रीमती उर्सला हिक्स ने लिखा है-“अपने सार्वजनिक आय के अध्याय में एडम स्मिथ ने करारोपण के चार सिद्धान्त बताए जिनको वह प्रसिद्धि मिली जिसके वह योग्य नहीं थे क्योंकि उनमें उस समय के विचारों का प्रतिबिम्ब मात्र ही था।” इसके बावजूद यह अब निर्विवाद है कि एडम स्मिथ के सिद्धान्तों में सच्चाई का बड़ा अंश है तथा अर्थशास्त्रियों ने इन सिद्धान्तों को मान्यता दी है।
फिण्डले शिराज ने इन सिद्धान्तों की प्रशंसा करते हुए लिखा है-“कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति सिद्धान्तों को इतने स्पष्ट तथा सादे नियमों के रूप में संक्षेप में वर्णन करने में सफल नहीं हुआ जितना कि एडम स्मिथ………। उसके पश्चात् आने वाले व्यक्तियों ने इन सिद्धान्तों में कोई ठोस सुधार नहीं किया और न ही वे इन सिद्धान्तों को वित्त विज्ञान में मिले उनके स्थान से हटा सके ……..आज भी एडम स्मिथ के सिद्धान्त सार्वजनिक वित्त के अध्ययन के आवश्यक भाग समझे जाते हैं।”
(ख) अन्य अर्थशास्त्रियों द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त
(Canons Propounded by Other Economists)
प्रो० एडम स्मिथ द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों का सूक्ष्म विश्लेषण तथा अध्ययन करने से विदित होता है कि उनका प्रथम सिद्धान्त समानता का सिद्धान्त (Canon of Equity) “कर नीति का नैतिक तथा आर्थिक आधार स्तम्भ है” जबकि अन्य सिद्धान्त व्यावहारिक नियम मात्र हैं। वे कर नीति का आधार निश्चित नहीं करते, वरन् कर अधिकारियों को निर्देश देते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि प्रो० एडम स्मिथ द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त प्रत्येक दृष्टि से उत्तम हैं, परन्तु पर्याप्त नहीं। अत: प्रो० स्मिथ के बाद कुछ नए सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है, जिनमें से कुछ प्रमुख सिद्धान्त इस प्रकार हैं
(1) सरलता का सिद्धान्त (Canon of Simplicity)-करारोपण के इस सिद्धान्त का प्रतिपादन प्रो० आर्मिटेज स्मिथ ने किया है। इस सिद्धान्त का अभिप्राय यह है कि कर प्रणाली इतनी सरल होनी चाहिए कि सामान्य व्यक्ति उसे सरलता से समझ ले। वर्तमान समय में तो करारोपण को अधिक समान तथा न्यायपूर्ण बनाने के प्रयास में कर पद्धतियाँ अत्यधिक जटिल तथा उलझनपूर्ण होती जा रही हैं और स्वयं कर-विशेषज्ञों को भी उन्हें समझना कठिन हो गया है। ऐसी परिस्थितियों में सरलता के सिद्धान्त की वांछनीयता और भी अधिक बढ़ जाती है।
(2) लोच का सिद्धान्त (Canon of Elasticity)-प्रो० बैस्टेबिल ने करारोपण में लोच के तत्त्व को विशेष महत्त्व दिया है। लोच का अभिप्राय यह है कि कर प्रणाली ऐसी होनी
चाहिए कि आवश्यकतानसार प्रत्येक कर से प्राप्त होने वाली आय में कमी अथवा वृद्धि हो सके ताकि प्रशासन के दायित्वों को सरलता से निभाया जा सके।
(3) उत्पादकता का सिद्धान्त (Canon of Productivity)-प्रो० बैस्टेबिल शब्दों में, “राजस्व का मुख्य उद्देश्य राज्य के व्यय के लिए आय प्राप्त करना है। अत: अच्छे का एक महत्त्वपूर्ण गुण उसकी उत्पादकता होनी चाहिए, अर्थात् कर ऐसा होना चाहिए जो राजकोष के लिए पर्याप्त आय प्रदान कर सके।” उत्पादकता का विस्तृत दृष्टि में अर्थ यह है कि कर का भार करदाताओं की उत्पादन शक्ति को नष्ट न करे। अन्य शब्दों में नागरिकों की आय उनकी उपभोग तथा बचत क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। कर की उत्पादकता दो प्रकार से प्राप्त की जा सकती हैं।
(i) कर ऐसा होना बताए जो सरकार के संचालन के लिए यथेष्ठ मात्रा में धन दे सके।
(ii) कर ऐसा होना बताए जो अल्पकालीन तथा दीर्घकालीन, दोनों ही दृष्टिकोणों से न तो उत्पादन को हतोत्साहित करे और न उसमें बाधा डाले।
प्रो० मेहता ने इस सिद्धान्त को मितव्ययिता के सिद्धान्त का ही एक रूप बताया है। व्यावहारिक दृष्टिकोण से यह सिद्धान्त अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
(4) विविधता का सिद्धान्त (Canon of Diversity)-इस सिद्धान्त के अनुसार कर प्रणाली में विभिन्न प्रकार के करों का समावेश होना चाहिए ताकि समाज का प्रत्येक वर्ग राज्य को अपना अंशदान दे सके। विविधता का अर्थ यह नहीं है कि करों की संख्या में निरन्तर वृद्धि होती रहनी चाहिए क्योंकि उस दशा में कर व्यवस्था, मितव्ययिता और उत्पादकता के गुणों से वंचित रह जाएगी। अतः इस सिद्धान्त की क्रियाशीलता निश्चित सीमाओं में ही होनी चाहिए। इस सिद्धान्त को अपनाने पर कर प्रणाली लोचपूर्ण हो जाती है, सरकार को पर्याप्त आय प्राप्त हो जाती है और अतिरिक्त कर भार वितरण की समस्या भी हल हो जाती है। .
(5) समन्वय का सिद्धान्त (Canon of Co-ordination)-इस सिद्धान्त का अभिप्राय यह है कि कर प्रणाली में समन्वय का तत्त्व होना चाहिए, अर्थात् करों का इस प्रकार से संगठन होना बताए कि यथासम्भव एक वस्तु अथवा सेवा पर अनेक स्थानों पर अथवा अनेक बार कर न देना पड़े। विभिन्न कर अधिकारियों के क्षेत्र भी पूर्णत: परिभाषित होने चाहिए ताकि एक कर अधिकारी दूसरे के क्षेत्र में प्रवेश न करे। करों के मध्य समन्वय इस दृष्टि से भी वांछनीय है कि समन्वय द्वारा विरोधी करों के दोषों को भी दूर किया जा सकता है। संघीय शासन प्रणाली के अन्तर्गत प्रशासन के विभिन्न स्तरों पर कुशलता तथा कार्यक्षमता की दृष्टि से भी ऐसा होना आवश्यक है।
(6) कोमलता तथा पर्याप्तता का सिद्धान्त (Canon of Adequacy) प्रो० फिण्डले शिराज के अनुसार कर प्रणाली में कोमलता से उनका आशय है कि बिना किसा अस्त-व्यस्तता के करों में परिवर्तन करना सम्भव होना चाहिए । इस प्रकार कोमलता और लाच में कोई विशेष अन्तर नहीं है। प्रो० शिराज ने पर्याप्तता से यह अर्थ लिया है कि करों से राज्य का पर्याप्त (Sufficient) आय होनी चाहिए। परन्तु प्रथम तो पर्याप्तता शब्द एक अत्यन्त अस्पष्ट शब्द है। द्वितीय, यह एक निरपेक्ष शब्द न होकर सापेक्ष शब्द है। अत: परिस्थितियों का सन्दर्भ दिए बिना इसका कोई अर्थ नहीं लगाया जा सकता।
(7) एकरूपता का सिद्धान्त (Canon of Uniformity)-निट्टी तथा कोनार्ड ने एकरूपता को करों का महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त माना है। उनका विचार है कि कर प्रणाली में जितने भी करों का समावेश किया जाए, वे समरूप हों। अन्य शब्दों में, एकरूपता का अभिप्राय यह है कि सभी करों को लगाने की विधि और उनके निर्धारण में उद्देश्यों की समानता हो जिससे कर प्रणाली की जटिलताएँ स्वत: समाप्त हो जाएँ।
(8) वांछनीयता का सिद्धान्त (Canon of Desirability)-इस सिद्धान्त का आशय यह है कि प्रत्येक कर पर्याप्त विचार-विमर्श के बाद लगाया जाना चाहिए ताकि उसके औचित्य पर जनता का विश्वास हो जाए। यदि करदाता का विश्वास जाग्रत हो जाता है तो करों के भुगतान में निःसन्देह सुविधा रहेगी। आज के जनजागरण के युग में व्यावहारिक दृष्टिकोण से इस सिद्धान्त की बहुत उपयोगिता है क्योंकि प्रत्येक अवांछनीय कर का जनता भरपूर विरोध करती है।
समस्त सिद्धान्तों का समन्वित प्रयोग आवश्यक होना
(Co-ordination among all Canons)
करों के निर्देशक सिद्धान्तों का अध्ययन करने के उपरान्त हम सार रूप में यह कह सकते हैं कि एक उत्तम कर प्रणाली पूर्ववर्णित सभी सिद्धान्तों से निर्देशित होनी चाहिए, परन्तु व्यवहार में ऐसा होना प्राय: असम्भव हो जाता है और विभिन्न सिद्धान्तों के मध्य संघर्ष पाया जाता है। ऐसी दशा में हमारे लिए यह आवश्यक हो जाता है कि हम कम महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों के स्थान पर अधिक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों को प्राथमिकता दें। वस्तुत: जैसा कि लुट्ज (Lutz) ने कहा है, “सत्य यह है कि न कोई कर पूर्णत: अच्छा है और न कोई कर पूर्णत: खराब है।” अत: किसी कर पद्धति के सम्बन्ध में कोई निर्णय देने के पूर्व सम्पूर्ण कर प्रणाली की समीक्षा की जानी चाहिए। श्रीमती हिक्स तथा डॉ० डाल्टन जैसे अर्थशास्त्रियों का भी ऐसा ही मत है। श्रीमती हिक्स के शब्दों में, “हर एक कर पृथक्-पृथक् न देखकर सम्पूर्ण कर पद्धति को ध्यान में रखना चाहिए तथा वांछित व्यवस्था की स्थापना एक ऐसी क्षतिपूरक कर संरचना (Compensatory Tax Structure) द्वारा की जानी चाहिए कि एक कर के दोष दूसरे करों से दूर हो जाएँ। केवल उन्हीं करों को चुनने का प्रयत्न करना, जिनसे कर सम्बन्धी सभी सिद्धान्तों का परिपालन हो सके, व्यर्थ है क्योंकि ऐसे कर यथार्थ में हैं ही नहीं।”
प्रश्न 17 – “करदान क्षमता एक धुंधली एवं भ्रमपूर्ण धारणा है।” इस कथन की व्याख्या कीजिए।
“Taxable capacity is a dim and confused conception.” Explain this statement.
अथवा करदान क्षमता पर एक लेख लिखिए।
Write a note on Taxable Capacity.
अथवा ‘करदान क्षमता‘ से आपका क्या आशय है? करदान क्षमता के निर्धारित तत्त्व कौन-कौन से हैं?
What do you understand by the term ‘Taxable Capacity’? What are the determining factors of taxable capacity?
उत्तर – करदान क्षमता से आशय
करदान क्षमता (Taxable Capacity) यद्यपि एक बहुचर्चित सामान्य वाक्यांश तथापि अत्यन्त अस्पष्ट है। ‘करदान क्षमता’ का शाब्दिक अर्थ है-कर देने की क्षमता अथवा शक्ति। सैद्धान्तिक रूप से यह धारणा जितनी सरल प्रतीत होती है, व्यावहारिक दृष्टि से यह उतनी ही उलझनपूर्ण, कठिन तथा समस्यामूलक है। विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने करदान क्षमता को विभिन्न रूपों में परिभाषित किया है।
करदान क्षमता सम्बन्धी परिभाषाएँ
(Definitions of Taxable Capacity)
करदान क्षमता सम्बन्धी प्रमुख परिभाषाएँ निम्नवत् हैं
(1) प्रो० फिण्डले शिराज-“करदान क्षमता से अभिप्राय धन की उस अधिकतम मात्रा से है जो असहनीय कष्ट का अनुभव किए बिना, किसी देश के नागरिक, सार्वजनिक व्यय के लिए दे सकते हैं। करदान क्षमता उत्पत्ति का न्यूनतम उपभोग पर कुल अतिरेक है जो उत्पादन को करने के लिए आवश्यक होता है, यदि लोगों के
जीवन-स्तर में कोई परिवर्तन न हो।’
(2) सरोसिया स्टाम्प-“करदान क्षमता कुल उत्पादन का कुल उपभोग के ऊपर आधिक्य है। यह वह अधिकतम धनराशि है, जो कि एक देश के नागरिक, राजकीय पदाधिकारियों के व्यय धन और अपने अंशदान के रूप में, बिना आनन्दरहित तथा पद-दलित जीवन बिताए और बिना आर्थिक संगठन को उथल-पुथल किए दे सकते हैं।”
(3) सर ड्रमण्ड फ्रेजर-“जब करदाताओं को कर देने के लिए बैंकों से उधार लेने पर बाध्य होना पड़े तो करदान क्षमता की सीमा आ जाती है।”
(4) मैसन-“कर देय क्षमता की सीमा तब प्राप्त होती है, जबकि करों का उत्पादन पर अवांछनीय प्रभाव पड़ने लगता है।”
(5) प्रो० एलिंगर-“जब करदाताओं से इतना कर वसूल किया जाता है कि उनके उत्पादन का उत्साह क्षीण हो जाता है और आवश्यक पँजी का प्रबन्ध करने के लिए, जो कि ह्रास द्वारा समाप्त हो चुकी है या बढ़ती हुई जनसंख्या के नए कार्यकर्ताओं के लिए आवश्यक है, प्राप्त नहीं हो सकती तो हमें समझना चाहिए कि करारोपण
उच्चतम सीमा तक पहुँच चुका है।”
उपर्युक्त सभी परिभाषाएँ एक-दूसरे से भिन्न हैं और करदान क्षमता का अर्थ स्पष्ट नहीं कर पातीं। इसीलिए प्रो० अदारकर ने कहा है कि “अधिकांश अर्थशास्त्री करदान क्षमता का अर्थ बताने में असमर्थ रहे हैं।” इसके अतिरिक्त सभी परिभाषाएँ एकपक्षीय हैं क्योंकि इनम ‘लोक व्यय के प्रभावों को ध्यान में नहीं रखा गया है, जबकि लोक व्यय से करदान क्षमता म वृद्धि होती है। डॉ० डाल्टन के शब्दों में, “ऐसी कोई निश्चित राशि स्थिर करना असम्भव हे जा कि किसी विशेष समय पर समाज की करदान क्षमता की सुचक हो।”
आलोचनात्मक विश्लेषण (Critical Evaluation)-यद्यपि उपर्युक्त सभी परिभाषाओं में करदान क्षमता के अर्थ को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है फिर भी कोई परिभाषा ऐसी नहीं है जो सर्वमान्य हो। इस तथ्य को स्वीकार करते हुए प्रो० अदारकर ने कहा है कि “अधिकांश अर्थशास्त्री करदान क्षमता का स्पष्ट अर्थ बताने में असफल रहे हैं।” इसी अस्पष्टता के कारण डॉ० डाल्टन ने तो यहाँ तक विचार व्यक्त किया है कि “विचारों की स्पष्टता को बनाए रखने के लिए करदान क्षमता के वाक्यांश को लोक वित्त की गम्भीर व्याख्या से बाहर निकाल देना चाहिए।”
विभिन्न परिभाषाओं में कुछ ऐसे वाक्यांशों का प्रयोग किया गया है; जैसे-‘आनन्द रहित ……… दलित जीवन’, ‘न्यूनतम उपभोग’, ‘अनावश्यक रूप से प्रभावित’ तथा ‘असहनीय कष्ट’ जिनका कोई स्पष्ट तथा निश्चित अर्थ नहीं है। व्यक्तिगत परिभाषाओं में प्रो० शिराज की परिभाषा को भावपूर्ण तथा प्रभावशाली होने के साथ-साथ अस्पष्ट बताया जाता है। कुछ अर्थशास्त्री इसे अव्यावहारिक भी बताते हैं। सर जोसिया स्टाम्प की परिभाषा को अनिश्चित, भ्रामक तथा अव्यावहारिक बताया जाता है। फ्रेजर की व्याख्या में भी अस्पष्टता का दोष है। एलिंगर के इस कथन से विद्वान् सहमत नहीं हैं कि अधिक करारोपण सदैव ही उत्पादन को कम करता है।
व्यावहारिक दृष्टि से करारोपण जाँच आयोग (Taxation Enquiry Committee) द्वारा प्रस्तुत परिभाषा एक श्रेष्ठ परिभाषा है-“कर देय क्षमता न्याय के सिद्धान्त की भाँति एक सापेक्ष विचार है। आर्थिक महत्त्व की दृष्टि से समाज के विभिन्न वर्गों की कर देय क्षमता का अभिप्राय करारोपण के उस अंश से होता है जिसके बाद साधारणतया समस्त उत्पादन क्रिया और कार्यकुशलता के प्रयत्न क्षीण होने लगते हैं तथा आर्थिक सीमाएँ राजनीतिक सीमाओं से प्रभावित होती हैं, जो बहुत पहले ही प्राप्त हो जाती हैं—प्रधानतः प्रजातन्त्र में जहाँ अधिकतम व्यक्तियों को मताधिकार प्राप्त है। कभी-कभी ये दोनों सीमाएँ, इसे लागू करने में प्रशासनिक व्यवस्थाओं के कारण सीमित और संकुचित हो जाती हैं।”
करदान क्षमता को प्रभावित करने वाले तत्त्व
(Factors Affecting Taxable Capacity)
सामान्य रूप से करदान क्षमता का अध्ययन दो दृष्टियों से किया जाता है
(क) व्यक्ति की करदान क्षमता तथा (ख) देश की करदान क्षमता।
(क) व्यक्ति की करदान क्षमता (Taxable Capacity of an Individual)व्यक्ति की करदान क्षमता की गणना प्राय: दो आधारों पर की जाती है-प्रथम, आय के आधार पर, द्वितीय, व्यय के आधार पर।
सामान्य दृष्टि से हम यही मानते हैं कि अधिक आय वाले व्यक्ति की करदान क्षमता अधिक होगी, परन्तु यह सत्य नहीं है। वस्तुत: शुद्ध मौद्रिक आय को करदान क्षमता का सही मापक नहीं माना जा सकता क्योंकि मुद्रा स्फीति के कारण मुद्रा की क्रय-शक्ति में ह्रास हो सकता है। इसके अतिरिक्त मौद्रिक आय में प्राप्त सुविधाओं की गणना नहीं की जाती। अत: यह एक सन्तोषप्रद आधार नहीं है। दूसरी ओर केवल व्यय को भी करदान क्षमता का एकमात्र निर्धारक नहीं माना जा सकता क्योंकि व्यय की मात्रा व्यक्ति के दायित्व से भी प्रभावित हो सकती है।
(ख) देश की करदान क्षमता (Taxable Capacity of a Nation)-करदान क्षमता एक प्रावैगिक सीमा है जिसमें परिस्थिति के अनुसार अत्यन्त तीव्र गति से परिवर्तन आते रहते हैं। किसी देश अथवा समुदाय की कार्यक्षमता किसी एक नहीं, अपितु अनेक तत्त्वों से प्रभावित होती है। अर्थशास्त्रियों का विचार है कि सामान्य रूप से करदान क्षमता निम्नलिखित तत्त्वों से प्रभावित होती है
(1) राष्ट्रीय आय की मात्रा (The Size of National Income)-देश-विदेश की राष्ट्रीय आय कर देय क्षमता को सर्वाधिक प्रभावित करती है। यदि देश आर्थिक दृष्टि से विकसित नहीं है तो देश में रोजगार, बचत तथा विनियोग का स्तर निम्न होगा परिणामत: कर देय क्षमता भी निम्न होगी। कर देय क्षमता के उच्च होने के लिए केवल आय का उच्च होना ही पर्याप्त नहीं है, वरन् साथ में उसमें पर्याप्त स्थिरता भी होनी आवश्यक है।
(2) जनसंख्या का आकार तथा उसकी वृद्धि की दर (Size and Rate of Growth of Population)-जनसंख्या कर देय क्षमता को अत्यधिक प्रभावित करती है। प्रो० मेहता के शब्दों में- “जनसंख्या के आकार का देश की कर देय क्षमता पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है।” साधारणतया यह समझा जाता है कि जनसंख्या में होने वाली वृद्धि करदान क्षमता में वृद्धि करती है क्योंकि जनसंख्या वृद्धि से उत्पादन एवं रोजगार में वृद्धि होती है, परन्तु यह सदैव सत्य नहीं है। यदि देश की सम्पदा का भली-भाँति शोषण नहीं हुआ है तो जनसंख्या के तीव्र गति से बढ़ने पर भी करदान क्षमता कम ही होगी। इस प्रकार करदान क्षमता मुख्यत: इस बात पर निर्भर करती है कि जनसंख्या तथा राष्ट्रीय आय के मध्य क्या अनुपात है।
(3) (Distribution of Income and Wealth) – आय और धन के वितरण का करदान क्षमता से प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है। प्रायः समझा जाता है कि आय का वितरण जितना असमान होगा समाज की करदेय क्षमता उतनी ही अधिक होगी, परन्तु इस आधार पर धन के असमान वितरण का समर्थन नहीं किया जा सकता है।
(4) करारोपण की पद्धति (Taxation System)-कर देय क्षमता कर प्रणाली के रूप और प्रकृति से भी प्रभावित होती है क्योंकि करदाता पर उसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है। जो कर सामाजिक, धार्मिक तथा राजनैतिक हितों के विरुद्ध होता है, प्राय: उसकी वसूली कठिन होती है। यदि कर निश्चित, सरल तथा प्रगतिशील होते हैं तो वे पर्याप्त आय प्रदान करते हैं। इसके अतिरिक्त, कर प्रणाली में प्रत्यक्ष तथा परोक्ष करों का उचित समन्वय होना चाहिए। साथ ही कर-व्यवस्था लोचपूर्ण, मितव्ययी तथा न्यायपूर्ण होनी चाहिए और उसमें करवंचन (Tax Evasion) की कोई सम्भावना नहीं होनी चाहिए।
(5) आर्थिक विकास (Economic Development)-आर्थिक दृष्टि से विकास देश की कर देय क्षमता उच्च तथा आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हए देशों की कर देय क्षमता निम्न होती है।
(6) मौद्रिक दशाएँ (Monetary Conditions)-मुद्रा-स्फीति के समय मूल्य-स्तर में अत्यधिक वृद्धि होने से लोगों की करदान क्षमता कम हो जाती है, जबकि आर्थिक जीवन में कछ स्थिरता आ जाती है तो उससे करदान क्षमता में भी स्वभावत: वृद्धि होती है। किन्तु आथिक मन्दी के समय कर भार अधिक लगने लगता है।
(7) करदाताओं की मनोवृत्ति (Psychology of । सरकार के प्रति जनता का जितना अधिक विश्वास होता है जनता प्राय भार वहन करने को तत्पर हो जाती है। सरकार को जनता से मिलने वाला सा क्षमता में वृद्धि करता है। यही कारण है कि संकटकाल में राष्ट्र का कर देय क्षमता में वटियो जाती है। डॉ० के० के० शर्मा के शब्दों में, “संकट की स्थिति में (जैसे—यद स्वतन्त्रता, जीवन व सम्पत्ति की रक्षा के लिए जनता को अधिक कर देने के लिए बाध्य किया जा सकता है। उसी प्रकार शान्तिकाल की तुलना में युद्धकाल में कर देय क्षमता अधिक होती है।” प्रो० शिराज ने भी लिखा है कि “प्राय: लोग भाषात्मक अथवा राष्ट्रीयता के आधार पर करों का अधिक भार सहन करने के लिए राजी हो जाते हैं।”
(8) राजकीय व्यय की प्रकृति, मात्रा तथा उद्देश्य (Nature, Quantity and Objectives of Govt. Expenditure)-कर देय क्षमता पर लोक व्यय की प्रकृति, मात्रा तथा उद्देश्यों का भी व्यापक प्रभाव पड़ता है।
(i) यदि लोक व्यय का अधिकांश भाग उत्पादक कार्यों पर व्यय किया जाता है तो उससे समाज की कर देय क्षमता में तीव्र गति से वृद्धि होती है। इसके विपरीत, अनुत्पादक व्यय से कर देय क्षमता में कमी आती है। –
(ii) यदि विदेशी पूँजी पर बड़ी मात्रा में लाभांश अथवा ब्याज चुकाया जाता है तो उससे
कर देय क्षमता में ह्रास होता है।
(iii) जब लोक व्यय कल्याण में वृद्धि करने वाला होता है उस समय भी कर देय क्षमता में वृद्धि हो जाती है। इस प्रकार स्पष्ट है कि लोक व्यय कर देय क्षमता को अत्यधिक प्रभावित करता है।
(9) प्रशासन व्यवस्था (Administrative System)-जिन देशों में प्रशासन व्यवस्था सुदृढ़, दक्ष एवं ईमानदार होती है, वहाँ कर देय क्षमता भी उच्च पायी जाती है। इसके विपरीत, भ्रष्ट, अदक्ष तथा शिथिल प्रशासन का लोगों की करदान क्षमता पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
(10) नागरिकों का जीवन-स्तर (Living Standard of the Citizens)-प्रायः उन देशों में करदान क्षमता उच्च पायी जाती है जहाँ लोगों का जीवन-स्तर उच्च होता है। इसके विपरीत, निम्न जीवन-स्तर वाले देशों की कर देय क्षमता भी निम्न होती है।
(11) राजनीतिक दशाएँ (Political Conditions)-स्थिर राजनीतिक दशाएँ तथा सफल योजनाबद्ध आर्थिक विकास से करदाताओं के मन में विश्वास जाग्रत होता है। वे यह समझने लगते हैं कि कर के रूप में उनके द्वारा किया गया त्याग सामाजिक कल्याण के लिए प्रयुक्त हो रहा है। इससे करदाताओं को अपना कर दायित्व निभाने के लिए प्रोत्साहन मिलता है। इसके विपरीत, राजनीतिक उथल-पुथल करदाताओं में अविश्वास जगाती है और उनकी करदान क्षमता कम हो जाती है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि करदान क्षमता अनेक कारणों, तत्त्वों तथा परिस्थितियों से प्रभावित होती है इसलिए वर्तमान सरकारें तथा अर्थ-विशेषज्ञ राष्ट्रीय आय, मूल्य-स्तर, आर्थिक विकास आदि के आँकड़ों तथा जनसंख्या में होने वाले परिवर्तनों आदि के अतिरिक्त आर्थिक सर्वेक्षणों तथा शोधों (Researches) के माध्यम से कर देय क्षमता का मापन किया करते हैं। लेकिन फिर भी हमें कुछ अनुमान ही प्राप्त हो पाते हैं, निश्चित तथा विश्वसनीय तथ्य नहीं।
करदान क्षमता का मापन
(Measurement of Taxable Capacity)
कुछ अर्थशास्त्रियों ने विभिन्न राष्ट्रों की करदान क्षमता को मापने का प्रयास किया है, जैसे wellare and Taxation’ पुस्तक में प्रो० क्लार्क ने करदान क्षमता की अधिकतम सी राष्ट्रीय व्यय का 25% राशि निर्धारित की है। परन्तु वास्तव में, किसी ऐसी सीमा का निर्धारण करना व्यावहारिक तथा उपयोगी नहीं है क्योंकि कर देय क्षमता तो एक प्रावैगिक सीमा है। प्रो० डाल्टन के शब्दों में-“एक ऐसी राशि को निश्चित करना असम्भव है जो एक दिए हरा समय में राष्ट्र की कर देय क्षमता का प्रतिनिधित्व करे।”
मापन की कठिनाई के कारण ही कुछ आधुनिक अर्थशास्त्री (जैसे-प्रो० मसग्रेव) कर देय क्षमता के विचार को स्वीकार नहीं करते।
कर देय क्षमता का महत्त्व
(Importance of Taxable Capacity)
इसमें सन्देह नहीं कि कर देय क्षमता के मापन में जो व्यावहारिक कठिनाइयाँ आती हैं वे अजेय हैं, तथापि कर देय क्षमता की धारणा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। संक्षेप में
(1) कर प्रणाली को सुदृढ़ बनाना (To Strengthen Tax System)-जब कर प्रणाली कर देय क्षमता के अनुकूल कर लेंगे तो समाज के अधिकांश लोग सन्तुष्ट रहेंगे और उनके सामाजिक, नैतिक तथा मनोवैज्ञानिक स्तर में कोई हास नहीं होगा।
(2) जनता की आर्थिक स्थिति का सही अनुमान (Proper knowledge about Economic Condition of the Public)-कर देय क्षमता को यदि आर्थिक स्थिति का दर्पण कहा जाए तो अनुचित न होगा। यदि देश की कर देय क्षमता कम होगी तो इसका अभिप्राय यह होगा कि राष्ट्रीय आय ही निम्न है, ऐसी दशा में सरकार राष्ट्रीय आय में वृद्धि के लिए कुछ निश्चित कदम उठा सकेगी।
(3) संकटकाल में अधिक आय की प्राप्ति (More Revenue during Crisis)-कर देय क्षमता का ज्ञान होने पर संकट की स्थिति में (जैसे-युद्ध, अकाल, भूकम्प आदि) सरकार वांछनीय करों द्वारा अपनी आय में वृद्धि कर सकती है।
(4) आर्थिक नियोजन के लिए धन जुटाना (Raising Money for Economic . Planning)-आर्थिक नियोजन के इस युग में किसी देश को अपनी आर्थिक योजनाओं को चलाने के लिए धन जुटाना पड़ता है, इसलिए यह जानना महत्त्वपूर्ण होगा कि करों की सीमा कहाँ है।
(5) संघीय वित्त-व्यवस्था में (Under Federal Finance)-संघ में शामिल विभिन्न राज्या के बीच वित्तीय सम्बन्धों को अच्छा रखने के लिए विभिन्न राज्यों की सापेक्षिक करदान क्षमता का ज्ञान आवश्यक है।
संक्षेप में, यद्यपि करदान क्षमता की धारणा अस्पष्ट है और इसके नापने म अर कठिनाइयाँ आती है, तथापि इस धारणा का व्यावहारिक महत्त्व बहत अधिक है। फिण्डल शिराज का यह कथन सत्य है, “महत्त्वपूर्ण केन्द्र को जाने वाली सड़क पर बहुधा अनेक
चौराहे, संकेत खम्भे तथा खतरे के संकेत होते हैं, परन्तु ये सब वस्तुएँ एक सतर्क यात्री के लिए सड़क का महत्त्व कम नहीं करतीं।”
प्रश्न 18 सार्वजनिक ऋण से आप क्या समझते हैं? निजी ऋण एवं सार्वजनिक ऋण में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
What do you mean by Public Debt ? Distinguish between Private Debt and Public Debt.
उत्तर – सार्वजनिक ऋण से आशय एवं परिभाषा
(Meaning and Definition of Public Debt)
सार्वजनिक ऋण से आशय सरकार द्वारा लिए जाने वाले ऋण से है। इस प्रकार का ऋण या तो आन्तरिक हो सकता है या विदेशी सरकारों अथवा अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं से लिया जा सकता है। वर्तमान समय में सरकारें ऋण के बिना अपना कार्य सुचारु रूप से नहीं चला सकती क्योंकि राज्य का कार्यक्षेत्र बहुत व्यापक हो गया है। सार्वजनिक ऋण को राज्य के लिए असाधारण वित्त कहा जाता है, क्योंकि सरकार द्वारा ऋण असाधारण आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु ही लिए जाते हैं। वर्तमान समय में मुद्रा बाजार के विकास एवं अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में वृद्धि होने के कारण सार्वजनिक ऋण की प्रक्रिया काफी सुविधाजनक हो गई है। सार्वजनिक ऋण को लोक ऋण भी कहा जाता है। सार्वजनिक ऋण के सम्बन्ध में बैस्टेबिल ने उचित ही लिखा है कि “जिस प्रकार एक व्यक्ति ऋण की सहायता लिए बिना कार्य नहीं चला सकता, उसी प्रकार सरकार भी बिना ऋण लिए अपना कार्य नहीं चला सकती है।”
सार्वजनिक ऋण असाधारण परिस्थितियों में या असाधारण आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किए जाते हैं। यही कारण है कि सार्वजनिक ऋण को असाधारण वित्त कहा जाता है। सार्वजनिक ऋण के विकास की चर्चा करते हुए प्रो० जे० के० मेहता ने लिखा है, “लोक ऋण अपेक्षाकृत एक आधुनिक घटना है और विश्व में लोकतान्त्रिक सरकारों के विकास के साथ अस्तित्व में आया है।”
विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने सार्वजनिक ऋण को निम्नलिखित शब्दों में परिभाषित किया है-
(1) के० के० गुप्ता के अनुसार, “जब आय के विभिन्न साधनों द्वारा सरकार अपने बढ़ते हुए व्ययों को पूरा करने में असमर्थ रहती है तो वह आन्तरिक एवं बाह्य साधनों से ऋण लेती है, जिसे लोक ऋण कहते हैं।”
(2) फिण्डले शिराज के अनुसार, “लोक ऋण वह ऋण है जिसे एक राज्य अपने नागरिक से या दूसरे देश के नागरिकों से प्राप्त करता है।”
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि “सार्वजनिक ऋण वह ऋण है जो सरकार द्वारा देश के नागरिकों या विदेशी सरकारों से लिया जाता है। सरकार में केन्द्रीय, प्रान्तीय एवं स्थानीय सरकारें आती हैं। सामान्यतया सार्वजनिक ऋण को एक निश्चित अवधि के पश्चात् ब्याजसहित ऋणदाताओं को वापस कर दिया जाता है।”
प्रश्न – 20 करापात की परिभाषा दीजिए। करापात और कराघात में क्या अन्तर है? स्पष्ट कीजिए।
Define Incidence of tax. What is the difference between incidence and impact of tax ? Explain.
उत्तर – कर भार का अर्थ
(Meaning of Incidence of Tax)
कर भार अथवा करापात उस व्यक्ति पर पड़ता है जो अन्तिम रूप से उस कर चुकाता है अथवा जो उसका आर्थिक दायित्व वहन करता है। यह कर का अन्तिम भार होता हैं।
प्रो० जे० के० मेहता के शब्दों में-“कर का भार द्राव्यिक भार है। यह भार प्रत्यक्ष हा है तथा यह उस व्यक्ति द्वारा सहन किया जाता है जिससे कराधिकारी कर की राशि वसूल करता
है या जो वस्तुओं का क्रय-विक्रय करता है।” इस प्रकार कर भार से अभिप्राय कर के प्रत्यक्ष द्राव्यिक भार (Direct Money Burden of Tax) से है।
फिण्डले शिराज के शब्दों में-“करापात (कर भार) कर विवर्तन का अन्तिम परिणाम है। यह प्रत्यक्ष मौद्रिक भार है। इस प्रकार करापात की समस्या यह निश्चित करने के लिए विश्लेषण है कि कर कौन अदा करता है अर्थात् कर का मौद्रिक भार किस पर पड़ता है।’
टेलर के शब्दों में “……..यह कर के प्रत्यक्ष भार का स्थान (Locus) है। यदि व्यक्ति कर का भार दूसरे पर टाल नहीं पाता है तो करापात उस पर है। यदि वह अंशत: टाल पाता है तो करापात उस पर भी है और अन्य पर भी। यदि वह पूर्णत: टाल देता है तो वह पूर्णत: उसके भार से बच जाता है।”
कर भार (करापात) तथा कराघात में अन्तर
(Difference between Incidence and Impact of Tax)
कर भार की समस्या को ठीक प्रकार से समझने के लिए करापात तथा कराघात में अन्तर . को स्पष्टतः समझ लेना चाहिए। कराघात का अर्थ है कर का प्रथम भार (First Burden of the Tax) जबकि करापात का अर्थ है कर का अन्तिम भार (Last Burden of the Tax)। इस प्रकार कराघात उस व्यक्ति पर पड़ता है जो कर का सर्वप्रथम भुगतान करता है, जबकि करापात उस व्यक्ति पर पड़ता है जिस पर कर का अन्तिम भार पड़ता है अर्थात् जो उसे (कर को) अन्ततः देता है।
इस बात को हम एक सरल उदाहरण द्वारा स्पष्ट कर सकते हैं। माना कि सरकार ने एक दुकानदार पर ₹ 70 कर लगाया। प्रारम्भ में दुकानदार इस कर का सरकार को भुगतान करता है; अत: कराघात दुकानदार पर पड़ा। अब यदि दुकानदार अपनी वस्तुओं की कीमतों में वद्धि करके इस राशि को अपने ग्राहकों से वसूल कर लेता है तो इस दशा में कर भार (Incidence of Tax) ग्राहकों पर पड़ेगा। लीकन यदि दुकानदार इस राशि को अपने ग्राहकों से वसल करने में असफल रहता है तो उस दशा में कराघात (Impact of Tax) तथा करापात (Incidence of Tax) दोनों ही दुकानदार पर पड़ेंगे।
सामान्यः प्रत्यक्ष करों के सम्बन्ध में कर का दबाव कराघात (Impact) तथा कर का व्यक्ति पर पड़ता है, परन्तु परोक्ष करों में कर का दबाव तो उस भार (Incidence) एक हा व्यक्ति पर पड़ता है, परन्तु परोक्ष करों में कर का दबाव तो उस व्यक्ति पर पड़ता है जिस पर उसे टाल दिया जाता है।
संक्षेप में, कराघात और करापात में निम्नांकित अन्तर हैं
(1) कराघात उस व्यक्ति पर पड़ता ह जा कर का राशि का भुगतान करता है, जबकि करापात उस व्यक्ति पर पडता है जो अन्तिम रूप से उस भार को वहन करता है।
(2) कराघात से आशय सरकार को किए गए कर राशि के मौद्रिक भुगतान से है, जबकि कर भार से आशय कर के प्रत्यक्ष मौद्रिक भार से है।
(3) जिस व्यक्ति पर कर लगाया जाता है, कराघात सदैव उस व्यक्ति पर ही पड़ता है लेकिन करापात उस पर न पड़े, इसके लिए कर का विवर्तन होना आवश्यक है।
(4) कराघात कर का प्रारम्भिक भार है, जबकि करापात उसका अन्तिम भार है।
(5) कराघात से बचना कानूनी अपराध है, जबकि करापात से बचने का प्रयास वैधानिक है।
सीमाएँ (Limitations)-(i) कर विवर्तन के कारण करापात का पता चलना कठिन हो जाता है।
(ii) व्यवहार में करापात और कर के प्रभाव में भेद करना कठिन है।
(iii) करापात किसी विशेष व्यक्ति पर पड़ता है, यह तथ्य हमेशा इस बात का सूचक नहीं ‘ है कि वह व्यक्ति अन्य व्यक्तियों के मुकाबले अधिक कर दे रहा है।
प्रश्न 21 – “विमुद्रीकरण एक वरदान है, अथवा अभिशाप-एक लेख लिखिए।
Write a note on ‘Demonetisation-to Deify or Demonize’.
उत्तर- विमुद्रीकरण : वरदान या अभिशाप
(Demonetisation – to Deify or Demonize)
8 नवम्बर, 2016 का विमुद्रीकरण भारत में विमुद्रीकरण की पहली घटना नहीं थी। इससे पूर्व 1946 व 1978 में भी विमुद्रीकरण भारत में किया गया था। आर्थिक समीक्षा में विमुद्रीकरण को युगान्तरकारी व अभूतपूर्व कदम बताया गया है, जिसकी अल्पावधि में कीमत यद्यपि चुकानी होगी, लेकिन दीर्घावधि में इसके लाभ अधिक होंगे। इन पहलुओं के गहन विश्लेषण से विमुद्रीकरण से सम्बन्धित अनेक भ्रान्तियों को दूर करने का प्रयास किया गया है।
यह अनुमान लगाया गया है कि 8 नवम्बर, 2016 के विमुद्रीकरण से उस समय परिचालन में रही मुद्रा का 86 प्रतिशत अवैध हो गया था। सरकार द्वारा अचानक ही की गई इस कार्यवाही के चार उद्देश्य समीक्षा में बताए गए हैं-(i) भ्रष्टाचार पर अंकुश, (ii) जाली करेंसी पर अंकुश, (iii) आतंकी गतिविधियों के लिए उच्च मूल्य वर्ग के नोटों के प्रयोग पर अंकुश तथा (iv) काले धन पर अंकुश। इन अवैध गतिविधियों को रोकने के लिए, जा कदम सरकार ने विमुद्रीकरण से पूर्व समय-समय पर उठाए थे, उनमें (i) विशेष जाच (Special Investigative Team-SIT) की 2014 में स्थापना, (ii) काला धन वक STRETTOUT STUFF (Black Money and Tax Imposition of Tax) 2010 (ii) बेनामी संव्यवहार अधिनियम (Benami Transaction Act) (iv) स्विट्जरलण्ड के साथ सूचना आदान-प्रदान समझौता, (v) मॉरीशस, साइप्रस व सिगापुर के साथ कर संधियों में बदलाव तथा (vi) आय घोषणा योजना (Income Disclosum Scheme), 2016 आदि शामिल हैं। ऐसे में विमुद्रीकरण का उद्देश्य ऐसे व्यवस्थागत परिवर्तन
की शुरुआत करना था, जिसमें अवैध गतिविधियों व उससे जुड़ी सम्पदा को दण्डित करने की सरकार की प्रतिबद्धता थी।
भारत मावमुद्रीकरण अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक इतिहास में इस अर्थ में एक महत्त्वपूर्ण घटना बाकि यह सामान्य आर्थिक व राजनीतिक परिस्थितियों में गोपनीयता एवं शीघ्रता से उठाया गया। विश्व में पहले ऐसे आकस्मिक विमुद्रीकरण अतिमद्रास्फीति, युद्ध, राजनातिक उथल-पुथल या अन्य प्रचण्ड परिस्थितियों में ही किए गए थे। इस विमुद्रीकरण को वैश्विक तार-तरीको से इस मायने में अलग समीक्षा में बताया गया है कि विकसित अर्थव्यवस्थाओं ने विकास को प्रेरित करने के लिए मौद्रिक नीति के अन्तर्गत ऋणात्मक ब्याज दर व धन के ‘हेलीकॉप्टर ड्रॉप’ जैसे तरीकों का इस्तेमाल जहाँ किया है, वहीं भारत में इसके लिए इस्तेमाल किए विमुद्रीकरण को हेलीकॉप्टर हूवर (Helicopter Hoover) समीक्षा में बताया गया है।
विभिन्न राष्ट्रों के साथ तुलना के आधार पर यह अनुमान लगाया गया है कि विकास के साथ-साथ नकदी के इस्तेमाल में यद्यपि कमी आती है, परन्तु भारत के मामले में विपरीत स्थिति सामने आई है। इससे यह संकेत मिलता है कि नकदी का कुछ स्टॉक वैध लेन-देन के लिए उपयोग में नहीं लाया जा रहा था, बल्कि यह अन्य उद्देश्यों के लिए ही इस्तेमाल हो रहा था। भ्रष्टाचार व आपराधिक गतिविधियाँ भी इनमें सम्भावित हैं। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट के अनुसार बताया गया है कि विभिन्न राष्ट्रों में प्रचलन में नकदी जितनी अधिक है, वहाँ भ्रष्टाचार का स्तर उतना ही अधिक पाया गया है। (ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल बर्लिन स्थित एक संस्था है जो विभिन्न देशों में भ्रष्टाचार के स्तर की निगरानी करती है)। भारत में बड़े मूल्य के नोटों का नीचा ‘सॉइल रेट’ भी यह दर्शाता है कि देश में इन नोटों का प्रचालन लेन-देन’ (Transaction) उद्देश्य के स्थान पर संचय (Store) के लिए अधिक किया जा रहा था। आर० बी० आई० के आँकड़ों से पता चलता है कि छोटे मूल्य के करेंसी नोटों में ‘सॉइल रेट’ जहाँ 33 प्रतिशत था, वहीं ₹ 500 व ₹ 1000 के नोटों के मामले में यह क्रमश: 22 प्रतिशत व 11 प्रतिशत ही था। इन ऑकड़ों से अनुमान लगाया गया है कि देश में लगभग ₹ 7.53 लाख करोड की मुद्रा चलन में इस्तेमाल नहीं हो रही थी। इन परिस्थितियों में 8 नवम्बर, 2016 के विमुद्रीकरण को निम्नलिखित रूप से देखा जाना चाहिए
(i) मद्रा की आपूर्ति में कमी (किन्तु केवल नकद मुद्रा की आपूर्ति कम होना)
(ii) काले धन पर कर तथा
(iii) औपचारिक वित्तीय प्रणाली (Formal Financial system) के बाहर की गई बचतों पर कर।
इन सन्दर्भो में विमुद्रीकरण के प्रभावों को दो अलग-अलग स्थितियों में देखना चाहिए-
(i) 30 दिसम्बर, 2016 तक प्रभाव तथा
(ii) दीर्घकालिक सम्भावित प्रभाव।
दोनों परिस्थितियों में उसके प्रभावों का उल्लेख निम्नलिखित प्रकार से किया जा सकता है
(i) मुद्रा आपूर्ति – 30 दिसम्बर, 2016 तक इससे देश में चलन में मुद्रा की मात्रा में तेजी से गिरावट आई। दीर्घकालिक अवधि में इसमें सुधार यद्यपि होगा, तथापि यह अपेक्षाकृत निचले स्तर पर ही निर्धारित होगी।
(ii) बैंक जमाएँ – 30 दिसम्बर, 2016 तक बैंक जमाओं में तीव्र वृद्धि हुई, किन्तु बाद में दीर्घावधि में इसमें कमी आएगी, तथापि यह पहले से कुछ उच्च स्तर पर निर्धारित होगी।
(iii) ब्याज दरें – जमाओं, उधारियों व सरकारी प्रतिभूतियों में गिरावट 30 दिसम्बर तक आई तथा दीर्घावधि में भी ब्याज दरें निचले स्तर पर ही निर्धारित होंगी।
(iv) वित्तीय प्रणाली में बचतें – इनमें दीर्घकालिक अवधि में उस सीमा तक वृद्धि होगी कि नकदी-जमा अनुपात में स्थायी रूप से गिरावट आएगी।
(v) काले धन का भण्डारण – काले धन के भण्डारण में कमी आएगी।
(vi) रियल एस्टेट – तत्कालीन रूप से रियल एस्टेट के मूल्यों में गिरावट आई तथा आगे भी उनके निचले स्तर पर सैटल होने की सम्भावना।
(vii) वृहद् इकोनॉमी (Macro Economy) – तात्कालिक रूप से नौकरियाँ कम हुईं तथा कृषि आय में गिरावट आई, किन्तु जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था में पुनः मुद्रीकरण होगा इसमें क्रमिक रूप से स्थिरता आएगी।
(viii) जी डी पी – तात्कालिक रूप से विकास धीमा हुआ, क्योंकि विमुद्रीकरण से माँग व पूर्ति दोनों में गिरावट आई तथा अनिश्चितता में वृद्धि हुई। कैश इन्टेसिव सेक्टर्स (रियल एस्टेट, गोल्ड व कृषि) पर विशेष रूप से प्रतिकूल प्रभाव इससे पड़ा, किन्तु दीर्घावधि में यदि सूत्रीकरण (formalization) में वृद्धि होती है तथा भ्रष्टाचार में कमी यदि होती है तो उसमें परिणाम लाभदायक होंगे। अनौपचारिक (informal) आउटपूट इससे यद्यपि घटेगा, तथापि । रिकॉर्डिड जीडीपी में वृद्धि होगी।
कर संग्रहण – अघोषित आयों के खुलासों के कारण 30 दिसम्बर, 2016 तक आप कर संग्रहण में वृद्धि हुई। स्थानीय निकायों व ‘डिस्कॉम’ कम्पनियों की वसूली में भी तीव्र गति से वृद्धि इससे हुई, क्योकि इन्हें भुगताना के लिए विमुद्रीकृत मुद्रा भी कुछ समय तक वैध रखा गइ थी। दीर्घावधि में विकास दर यदि धीमी रहती है तो कॉर्पोरेट टैक्स व अप्रत्यक्ष करों से राजस्व संग्रहण घटेगा, किन्तु दीर्घावधि में सूत्रीकरण में वृद्धि से कर संग्रह में भी वृद्धि होगी।
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