B.com 2nd Year Meaning And Scope Short Notes In Hindi

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प्रश्न 16 – ऋण परिशोधन कोष पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।

Write a short note on Debt Sinking Fund.

उत्तर – ऋण परिशोधन कोष (Debt Sinking Fund)  ऋण चुकाने की यह रीति अत्यधिक सरल एवं प्रभावी है। इस पद्धति के अनुसार, ऋण . शोधन हेतु एक कोष बनाया जाता है जिसे ऋण परिशोधन कोष कहते हैं। इस कोष में प्रतिवर्ष एक निश्चित धनराशि जमा की जाती है। इस धनराशि को कहीं लाभदायक रूप में विनियोजित कर दिया जाता है और इस धनराशि में प्रतिवर्ष ब्याज भी जुड़ता रहता है। इस प्रकार प्रतिवर्ष विनियोजित राशि तथा ब्याज की राशि में लगातार बढ़ोतरी होती जाती है और ऋण के भुगतान की तिथि आने तक उसमें इतनी धनराशि जमा हो जाती है कि इससे ऋण का भुगतान आसानी से किया जा सकता है। इस कोष का निर्माण दो प्रकार से किया जा सकता है-(i) सरकार की वार्षिक आय में से, (ii) नए ऋण लेकर कोष में जमा करने से। लेकिन नए ऋण लेकर कोष का निर्माण करना तो एक प्रकार से ऋण का रूपान्तरण ही कहा जा सकता है। अत: आजकल इस कोष का निर्माण सरकार अपनी वार्षिक आय में से ही करती है।

डॉ० डाल्टन के अनुसार परिशोधन कोष दो प्रकार के होते हैं (i) अनिश्चित कोष (Indefinite Sinking Fund)-इस कोष में जमा की जाने वाली धनराशि अनिश्चित तथा अनियमित होती है। यदि बजट में अधिक बचत होती है तो कोष में अधिक धनराशि डाल दी जाती है। यदि किसी वर्ष बचत नहीं होती तो उस वर्ष कोष में कोई धनराशि नहीं डाली जाती। (ii) निश्चित कोष (Definite Sinking Fund)-इस कोष में सरकार अपनी वार्षिक आय में से प्रतिवर्ष एक निश्चित धनराशि जमा करती है।

प्रश्न 17 – करापात क्या है? What is Incidence of Tax ? 

उत्तर – करापात या कर-भार से आशय (Meaning of Incidence of Tax) सामान्यत: जो व्यक्ति अन्तिम रूप से कर का भुगतान करता है उस पर कर-भार पड़ना कहा जाता है। अन्य शब्दों में, कर-भार या करापात से आशय कर के अन्तिम भार से लगाया जाता है, अर्थात् करापात की समस्या में यह विश्लेषण किया जाता है कि सरकार द्वारा लगाए गए कर का भार किसके ऊपर पड़ता है। विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने करापात को निम्न प्रकार परिभाषित किया है

(1) सेलिगमैन के शब्दों में, “अन्तिम करदाता पर (कर के) बोझ के निर्धारण की कर-भार कहा जाता है।”

(2) ई० एच० प्लैंक के अनुसार, “कर-भार से आशय उस बिन्दु से है जहाँ कररूपी मुर्गियाँ अन्तिम रूप से बसेरा करती हैं।”

(3) मेहता के अनुसार, “करापात, कर का प्रत्यक्ष द्राव्यिक भार है।” .

(4) प्लेहन के अनुसार, “करापात कररूपी चिकन के अन्तिम रूप से भूने जाने का बिन्दु है।” निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि “कर-भार उस व्यक्ति पर पड़ा हुआ कहा जाता है जो अपने ऊपर पड़े हुए कर के दायित्व को किसी दूसरे पर नहीं टाल पाता है।” कर-भार को निम्न उदाहरण द्वारा और अधिक स्पष्ट किया जा सकता है उदाहरण – एक दुकानदार को एक वर्ष में रू. 5,000 विक्रय कर के देने पड़े, परन्तु यह राशि उसने माल का विक्रय करते समय उपभोक्ताओं से माल के मूल्य के साथ वसूल ली। इस स्थिति में कर-भार उपभोक्ताओं पर ही पड़ा हुआ कहा जाएगा क्योंकि दुकानदार द्वारा कर का भुगतान करने पर भी अन्तिम रूप से कर का भार उपभोक्ता को ही वहन करना पड़ा है।

प्रश्न 18 – किसी कर की कर देयता, कर वाह्यता, कर प्रभाव तथा कर विवर्तन में अन्तर स्पष्ट कीजिए।

Distinguish among Impact, Incidence, and Effects of Taxation and Shifting of a Tax. 

उत्तर – कर देयता अथवा कराघात (Impact of Tax) कराघात उस व्यक्ति पर पड़ता है जो उसे प्रारम्भ में सरकार को देता है। अन्य शब्दों में, जो व्यक्ति सर्वप्रथम कर की राशि सरकार को देता है, वही उस कर की देयता को वहन करता है। अतः कराघात किसी कर को उस व्यक्ति पर लगाने का तात्कालिक परिणाम है जो कि उसे सर्वप्रथम अदा करता है। यह कर के तात्कालिक भार को प्रकट करता है, कर के अन्तिम भार को नहीं।

कर वाह्यता (Incidence of Tax) जो व्यक्ति अन्तिम रूप स कर का भार वहन करता है उस पर कर के मौद्रिक भार का की वाह्यता’ कहते हैं। कर वाह्यता उस व्यक्ति पर रहती है जो कर के भार को किसी अन्य व्यक्ति पर नहीं टाल सकता, अर्थात् जो अन्ततः का अन्तिम परिणाम होता है। यह कर का प्रा करता है। इस प्रकार करापात विवर्तन परिणाम होता है। यह कर का प्रत्यक्ष मौद्रिक भार है।

कर प्रभाव (Effects of Tax)  कर केवल मात्र आय-प्राप्ति के स्रोत ही नहीं हैं, वरन् वे समाज में उत्पादन व वितरण को भी प्रभावित करते हैं। कर उस व्यक्ति की आय को कम कर देता है जिस पर कर का अन्तिम भार पड़ता है परिणामस्वरूप वह व्यक्ति अपना उपभोग या निवेश घटाने को बाध्य हो जाता है। इस प्रकार, उपभोग व निवेश कर से प्रभावित हो जाते हैं। यही कर प्रभाव है।

कर विवर्तन (Tax Shifting)  कर विवर्तन एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा किसी कर का द्राव्यिक भार एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को हस्तान्तरित होता है। कर विवर्तन ‘आगे की ओर’ (Forward Shifting) अथवा ‘पीछे की ओर’ (Backward Shifting) हो सकता है।

प्रश्न 19 – करदान क्षमता से आप क्या समझते हैं What do you mean by taxable capacity ? 

उत्तर – करदान क्षमता से आशय एवं परिभाषा (Meaning and Definitions of Taxable Capacity)  वर्तमान समय में लोकहितकारी राज्य की स्थापना होने तथा आर्थिक नियोजन को महत्त्व देने से प्रत्येक राज्य के व्यय में वृद्धि होती जा रही है। इन व्ययों की पूर्ति करने का एक प्रमुख साधन करारोपण है। यद्यपि सरकार को व्यय में वृद्धि होने के कारण अधिक करारोपण करन पड़ता है। लेकिन प्रत्येक नया कर लगाते समय सरकार को यह देखना पड़ता है कि व्यक्ति इन करों के भार को सहन कर सकता है अथवा नहीं अर्थात् क्या व्यक्ति के अन्दर इतनी क्षमता है कि वह इन करों को चुका सकता है अथवा नहीं। इसे ही करदान क्षमता कहते हैं। दूसरे शब्दों में, करदान क्षमता से आशय कर की उस अधिकतम धनराशि से है जिसे देश के नागरिक अपने जीवन को कष्टप्रद बनाए बिना भुगतान करते हैं। करदान क्षमता को विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने निम्नवत् परिभाषित किया है

(1) डॉ० आर० एन० भार्गव के अनुसार, “करदान क्षमता की विवेचना लोक व्यय के आधार पर की जानी चाहिए। राज्य द्वारा कर इस प्रकार लगाए जाने चाहिए कि करों के फलस्वरूप किया जाने वाला सीमान्त त्याग लोक व्यय की सीमान्त उपयोगिता के बराबर हो।”

(2) प्रो० फिण्डले शिराज के अनुसार, “करदान क्षमता को उस अधिकतम धनराशि के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसे किसी देश के नागरिक बिना असहनीय कष्ट के. सरकार के व्यय हेतु योगदान कर सकते हैं।”

(3) सर जोशिया स्टाम्प के अनुसार, “एक देश की करदान क्षमता वह अधिकतम धनराशि है जो उस देश के नागरिक वास्तव में बिना दु:खी और कष्टपूर्ण जीवन व्यतीत किए और आर्थिक संगठन को अधिक अस्त-व्यस्त किए बिना सरकार के व्यय हेतु भुगतान कर सकते हैं।”

(4) कोलिन क्लार्क के अनुसार, “करारोपण की अन्तिम सीमा उस समय आ जाती है, जबकि किसी देश के समस्त कर उसकी राष्ट्रीय आय के 25% से अधिक होने लगे अर्थात् करारोपण की सुरक्षित सीमा राष्ट्रीय उत्पादन का 25% प्रतिशत है।”

(5) मैसन के अनुसार, “करदान क्षमता की सीमा उस बिन्दु पर आती है जहाँ करारोपण से उत्पादन प्रभावित होता है।”

(6) प्रो० डी० फ्रेजर के अनुसार, “करदान क्षमता उस समस्त आधिक्य का प्रदर्शन जब उत्पादन और उस न्यूनतम उपभोग में, जो उस उत्पादन को बनाए रखने के लिए आवश्यक होता है, परन्तु जीवन स्तर में कोई अन्तर नहीं रहना चाहिए।” उपर्युक्त परिभाषाओं के अध्ययन के पश्चात् निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि ‘किसी देश की जनता की कर देने की शक्ति ही करदान क्षमता कहलाती है।” इससे अभिप्राय यह है कि हम जितना अधिक से अधिक कर के रूप में सरकार को द्रव्य दे सकते हैं. वही करदान क्षमता होती है।

प्रश्न 20 – क्या हीनार्थ प्रबन्धन आवश्यक रूप से मुद्रा प्रसार को जन्म देता है

Does deficit financing compulsorily give birth to inflation?

उत्तर – इसमें सन्देह नहीं है कि देश में मुद्रा की मात्रा अधिक होने (मुद्रा प्रसार) से मूल्य स्तर भी बढ़ जाता है क्योंकि सरकार द्वारा जब नई मुद्रा समाज में व्यय की जाती है तो इससे जनता के हाथों में अतिरिक्त क्रय-शक्ति पहुँच जाती है और यदि मुद्रा की मात्रा की वृद्धि के अनुपात में उत्पादन में वृद्धि नहीं होती तो वस्तुओं की बढ़ती हुई माँग सामान्य मूल्य स्तर में वृद्धि कर देती है, परन्तु स्मरण रहे कि प्रत्येक मूल्य वृद्धि मुद्रा-प्रसार को जन्म नहीं देती है। किसी राज्य में घाटे की वित्त व्यवस्था (हीनार्थ प्रबन्धन) के कारण मुद्रा-प्रसार की स्थिात उत्पन्न होगी अथवा नहीं, यह बात निम्नलिखित तथ्यों पर निर्भर करती है (1) विनियोग की प्रकृति। (2) उपभोग की प्रवृत्ति। (3) उत्पादन का लोचहीन होना। (4) साख निर्माण की गति तीव्र होना।

प्रश्न 21 – कर-विवर्तन से क्या आशय है What is meant by Shifting of Tax ?

कर-विवर्तन से आशय (Meaning of Shifting of Tax) कर भार से बचने का एक उपाय कर-विवर्तन है। फिण्डले शिराज के अनुसार, “कर भार कर विवर्तन का अन्तिम परिणाम है।”

प्रो० मसग्रेव के अनुसार, “परम्परागत अर्थ में कर-विवर्तन वह क्रिया है जिसके द्वारा कर का प्रत्यक्ष मौद्रिक भार, मूल्यों में परिवर्तन करके, दबाव बिन्दु से अन्तिम विश्राम स्थल की ओर हटा दिया जाता है।” प्रायः प्रत्येक व्यक्ति अपने कर भार को दूसरों पर टालने का प्रयास करता है, यद्यपि यह आवश्यक नहीं है कि वह कर भार को टालने में अवश्य ही सफल हो जाएगा। अत: जिस बिन्दु से आगे कर का विवर्तन सम्भव नहीं होता है, कर भार उसी बिन्दु पर पड़ जाता है। अन्य शब्दों में, कर विवर्तन न हो पाने की स्थिति में कराघात और करापात दोनों एक ही व्यक्ति पर पड़ते हैं। इस प्रकार, कर-विवर्तन कराघात और करापात के बीच की एक कड़ी है। यहाँ उल्लेखनीय बात यह है कि सामान्य रूप से प्रत्यक्ष करों का विवर्तन नहीं हो पाता है, जबकि परोक्ष करों का विवर्तन हो जाता है। संक्षेप में, जब कभी किसी कर के मौद्रिक भार को किसी अन्य व्यक्ति पर टाल दिया जाता है तो उसे कर-विवर्तन कहते हैं। यह विवर्तन करदाता की क्षतिपूर्ति होता है। इसके द्वारा करदाता अपनी उस हानि को पूरा करने का प्रयत्न करता है जो उसे कर का भुगतान करने के कारण होती है। कर का यह विवर्तन मूल्य संरचना द्वारा होता है। अन्य शब्दों में, विक्रेता कर के भार को वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि करके उपभोक्ताओं पर डाल देता है।

प्रश्न 22 – हीनार्थ प्रबन्धन क्या है? What is Deficit Financing ?  

उत्तर – हीनार्थ प्रबन्धन (Deficit Financing) वर्तमान समय में विभिन्न देशों की सरकार अपने बजट में वित्तीय आवश्यकताओं की पर्ति के लिए हीनार्थ प्रबन्धन का सहारा लेती हैं। उन्नीसवीं शताब्दी से पूर्व सरकार यदि अपनी आय से अधिक व्यय करके बजट में घाटे को दर्शाती थी तो यह उसकी अयोग्यता का सूचक माना जाता था परन्तु आजकल, जबकि प्रत्येक राष्ट्र कल्याणकारी राज्य की स्थापना के लिए प्रयासरत है तथा आर्थिक विकास हेतु नियोजन को अपना रहा है, हीनार्थ प्रबन्धन को अपनाना अनुचित नहीं समझा जाता है। सरकार जब जनकल्याण हेतु किए गए लोक व्ययों की पूर्ति, कर एवं ऋण के माध्यम से करने में स्वयं को असमर्थ पाती है तो ऐसी परिस्थिति में वह जिस आय व्यवस्था का सहारा लेती है उसे ही हीनार्थ प्रबन्धन अथवा घाटे की वित्त व्यवस्था कहते हैं। अन्य शब्दों में, सरकारी आय-व्यय के मध्य उत्पन्न खाई को कम करने के लिए जो वित्त व्यवस्था अपनायी जाती है उसे घाटे की वित्त व्यवस्था या हीनार्थ प्रबन्धन कहते हैं। हीनार्थ प्रबन्धन को विभिन्न विद्वानों ने निम्न प्रकार परिभाषित किया है(1) डॉ० वी० के० आर० वी० राव के अनुसार, “जब सरकार जानबूझकर, किसी उद्देश्य से, अपनी आय से अधिक व्यय करे और अपने घाटे की पूर्ति किसी भी ऐसी विधि से करे जिससे देश में धातु, पत्र या साख मुद्रा की मात्रा में वृद्धि हो तो उसे हीनार्थ प्रबन्धन कहना चाहिए।” (2) डॉ० के० के० शर्मा के अनुसार, “पश्चिमी देशों में राजस्व प्राप्ति की तुलना में सरकार द्वारा किए गए व्यय की अधिकता को, जिसमें कि पूँजीगत व्यय भी सम्मिलित हैं, घाटे की वित्त-व्यवस्था कहा जाता है, चाहे उस व्यय की पूर्ति ऋण द्वारा उपलब्ध प्राप्तियों से की गई हो।” (3) प्रो० शिनॉय के अनुसार, “घाटे की वित्त व्यवस्था, सरकार की आय और व्यय में हुए घाटे को पूरा करने के लिए सरकार की वित्तीय कार्यवाही को कहते हैं।” (4) ‘भारतीय योजना आयोग’ के अनुसार, “हीनार्थ प्रबन्धन शब्द का प्रयोग बजट के घाटे द्वारा कुल राष्ट्रीय व्यय में प्रत्यक्ष वृद्धि को प्रदर्शित करने के लिए किया जाता है। ये घाटे चाहे आगम खाते से सम्बन्धित हों अथवा पूँजी खाते से।”

प्रश्न 23 – आयगत एवं पूँजीगत बजट में क्या अन्तर है?

What is the difference between Revenue budget and Capital budget ?

उत्तर – राजस्व बजट (Revenue Budget) – इसमें राजस्व प्रकृति की आय एवं व्यय की मदों को शामिल किया जाता है। पूँजीगत बजट (Capital Budget) – इसमें पूँजीगत मदों पर होने वाले व्ययों को शामिल किया जाता है और इसकी आपूर्ति अधिकांशत: ऋणों द्वारा की जाती है।

प्रश्न 24 – अधिकतम सामाजिक कल्याण के सम्बन्ध में दो अर्थशास्त्रियों के नाम लिखिए।

Write two names of economists regarding the principle of Maximum Social advantage.

उत्तर – अधिकतम सामाजिक कल्याण से सम्बद्ध दो अर्थशास्त्री हैं (1) प्रो० पीगू (2) डॉ० आर० एन० भार्गव

प्रश्न 25 – लोक व्यय का उत्पादन पर प्रभाव बताइए।  Discuss the effects of Public Expenditure on Production.  उत्तर- लाक (सावजानक) व्यय का उत्पादन पर प्रभाव (Effects of Public Expenditure on Production)  सार्वजनिक व्यय का देश के उत्पादन पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। यह उत्पादन का मात्रा एवं उसकी प्रकृति को प्रभावित करके आय एवं रोजगार को भी प्रभावित करता है। प्रो० डाल्टन के अनुसार, “जब करारोपण अकेले उत्पादन को नियन्त्रित कर सकता है, तो सार्वजनिक व्यय को अकेले उसमें प्राय: निश्चित ही वृद्धि करनी चाहिए।” अत: सार्वजनिक व्यय के लिए यह होना चाहिए कि वह उत्पादन में अधिक-से-अधिक वृद्धि करे। डाल्टन ने उत्पादन पर सार्वजनिक व्यय के प्रभावों का विश्लेषण निम्नलिखित तीन शीर्षकों के अन्तर्गत किया है

(1) कार्य करने तथा बचत करने की क्षमता पर प्रभाव (Effect on Ability of Working and Saving)-सार्वजनिक व्यय का प्रभाव कार्य करने तथा बचत करने की क्षमता पर पड़ता है। जिस प्रकार कर (Tax) व्यक्ति की कार्य करने की क्षमता (कार्यकुशलता) को कम करता है उसी प्रकार सार्वजनिक व्यय यदि व्यक्ति की कार्यकुशलता में वृद्धि करता है तो उसकी कार्य करने की क्षमता को भी बढ़ावा मिलता है। यदि सार्वजनिक व्यय का लाभ जनता को नकद अनुदान के रूप में प्राप्त होता है तो इससे लोगों की कार्यकुशलता में वृद्धि नहीं होती है अपितु वे आलसी तथा अपव्ययी हो जाते हैं क्योंकि वे यह सोचते हैं कि उन्हें ऐसी सुविधाएँ आगे भी सरकार से प्राप्त होती रहेंगी, जिससे कार्य करने एवं बचत करने की क्षमता में वृद्धि नहीं होती है। इसके विपरीत, यदि जनता को सार्वजनिक व्यय का लाभ सेवा या वस्तु के अनुदान के रूप में प्राप्त होता है; जैसे—मकान, शिक्षा एवं चिकित्सा आदि, तो इससे जनता की कार्यकुशलता में वृद्धि होगी, जिससे कार्य करने व बचत करने की क्षमता भी बढ़ेगी। इस प्रकार सार्वजनिक व्यय प्राय: कार्य करने और बचत करने की क्षमता में वृद्धि करता है जिससे उत्पादन में भी वृद्धि होती है।

(2) कार्य करने तथा बचत करने की इच्छा पर प्रभाव (Effect on Desire of Working and Saving)-सार्वजनिक व्यय का कार्य करने एवं बचत करने की इच्छा पर क्या प्रभाव पड़ता है, इस प्रकार का उत्तर देना बहुत कठिन है। इसमें कठिनाई इसलिए पड़ती है क्योंकि इसके लिए हमें लोक व्यय के प्रति लोगों की मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया को समझना होता है। हम इसे समझने के लिए दो भागों में विभक्त करेंगे (i) वास्तविक व्यय का प्रभाव। (ii) सम्भावित व्यय का प्रभाव।

(3) आर्थिक साधनों के स्थानान्तरण पर प्रभाव (Effect on Diversion of Economic Resources)-सार्वजनिक व्यय द्वारा आर्थिक साधनों को एक उपयोग से दूसरे उपयोग में स्थानान्तरित किया जा सकता है। यदि साधनों को किसी विशेष व्यवसाय या व्यवहार में स्थानान्तरित किया जाए तो इससे उत्पादन में वृद्धि की जा सकती है। इस कार्य के सम्पादन हेतु या तो सरकार निजी उद्योगों को अनुदान देती है या स्वयं उद्योगों की स्थापना करती है, जिससे उत्पत्ति के साधन इन उद्योगों की ओर आकर्षित होते हैं एवं वस्तुओं व सेवाओं के उत्पादन में वृद्धि होती है। इसी प्रकार सार्वजनिक व्यय द्वारा विभिन्न स्थानों पर भी आर्थिक साधनों का स्थानान्तरण हो सकता है तथा उत्पादन में वृद्धि की जा सकती है।

प्रश्न 26 – भारत में सार्वजनिक व्ययों में वृद्धि के पाँच कारण बताइए। State any five causes of increases in public expenditure in India.  उत्तर – सार्वजनिक व्ययों में वृद्धि के कारण (Causes of Increase in Public Expenditure)  स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत में सार्वजनिक व्यय में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई है। प्रो० वैगनर (Prof. Wagner) के अनुसार, “सार्वजनिक कार्यों में गहन एवं विस्तृत (Intensive and Extensive) वृद्धि हुई है। गहन वृद्धि से अभिप्राय है कि अब पूर्व के कार्यों का स्वरूप परिवर्तित हुआ है और उन पर अधिक व्यय करना पड़ता है। विस्तृत वृद्धि का आशय है कि अब सरकार का कार्यक्षेत्र बढ़ गया है अर्थात् जो कार्य पहले निजी क्षेत्र में सम्पन्न किए जाते थे अब उन कार्यों का समावेश सरकारी कार्यों में हो गया है; जैसे-उद्योगों की स्थापना एवं संचालन, विद्युत की व्यवस्था इत्यादि। आजकल सरकार कृषि, उद्योग, सामाजिक सुरक्षा, सामाजिक कल्याण, शिक्षा एवं यातायात के क्षेत्र में कार्य करती हैं। भारत में सार्वजनिक व्यय में वृद्धि के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं

(1) कल्याणकारी राज्य की स्थापना (Formation of Welfare State)—व्यक्तिवादी भावना के प्रचलन के समय नागरिक स्वतन्त्र तथा सरकार के नियन्त्रण से मुक्त रहना ही अच्छा समझते थे। ऐसे समय में राज्य के कार्यों को सीमित रखा जाता था तथा सार्वजनिक व्यय न्यूनतम रूप में होना अच्छा माना जाता था। परन्तु आज समाजवादी तथा कल्याणकारी राज्य की भावना के विकास के कारण राज्य को देश में स्वास्थ्य बीमा, वृद्धावस्था पेंशन, प्रसति लाभ, बीमारी तथा अन्य कल्याणकारी कार्यों पर व्यय करना पड़ता है अतः इन कार्यों को सम्पन्न करने हेतु सार्वजनिक व्यय में वृद्धि स्वाभाविक ही है।

(2) आर्थिक सहायता (Economic Aid)विकासशील देशों में सरकारों द्वारा कृषि व औद्योगिक विकास के लिए उद्योगपतियों तथा कृषकों को आर्थिक सहायता के रूप में काफी राशि प्रदान की जाती है तथा ऋण की भी व्यवस्था की जाती है। इसके अतिरिक्त विकसित देशों की सरकारें अल्पविकसित एवं विकासशील देशों को अनुदान एवं ऋण के रूप में भी सहायता प्रदान करती हैं। इस प्रकार देश के सार्वजनिक व्यय में वद्धि हो जाती है।

(3) आर्थिक नियोजन तथा विकास (Economic Planning and Development) अलग-अलग देशों में प्रमुखत: अर्द्ध-विकसित देशों में हेतु वहाँ की सरकारों ने नियोजन का सहारा लिया है जिससे उनका कार्यक्षेत्र बढ़ गया है, परिणामस्वरूप सार्वजनिक व्यय भी बढ़ गया है। इसका कारण यह है कि आर्थिक नियोजन में जो व्यय किया जाता है वह एक तरफ काफी मात्रा में होता है एवं दसरी तरफ दीर्घकालीन परिणाम देने वाला होता है। (4) शहरीकरण की प्रवृत्ति (Tendency of Urbanization)-शहरीकरण का प्रवृत्ति प्राय: सभी देशों में बढ़ रही है। यह भी एक कारण है जिससे लोक व्यय में वृद्धि हो रही है। शहरों में बढ़ती जनसंख्या को देखकर सरकार शिक्षा, परिवहन, चिकित्सालय, जल-आपूर्ति आदि सुविधा उपलब्ध कराती है। (5) प्रजातान्त्रिक व्यवस्था (Democrative System)-प्रजातन्त्रीय शासन प्रणाली में चुनाव पर सरकार को भारी मात्रा में धन का व्यय करना होता है, जिस कारण सरकार पर विशेष भार पड़ता है। इसके साथ ही मन्त्रिमण्डलों, विधानमण्डलों आदि की व्यवस्था पर भारी मात्रा में धन व्यय किया जाता है।


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