B.Com 1st Year Financial Accounting Hindi Short Notes

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निम्नलिखित को संक्षेप में समझाइए-

Discuss the following in breif: 

(1) लेखांकन प्रमाप-

2 स्कन्ध का मूल्यांकन।

Accounting standard-2 to valuation of inventories. 

(ii) लेखांकन प्रमाप-6 हास लेखांकन।

Accounting standard-6 depreciation accounting. 

उत्तर- (i) लेखांकन प्रमाप-2 स्कन्ध का मूल्यांकन

(Accounting Standard-2 Valuation of Inventories) 

एक ही उद्योग की विभिन्न इकाइयों के रहतिये के मूल्यांकन में समानता लाने के लिए As-2 का प्रयोग किया जाता है। इसके प्रयोग से तलनात्मक अध्ययन अपेक्षाकत सरल हो जाता है।

As-2 में निम्नलिखित शब्दों का प्रयोग किया जाता है

1. स्कन्ध (Inventories)-स्कन्ध का आशय ऐसी मूर्त या स्पर्शनीय सम्पत्ति से है। जिसे व्यवसाय में विक्रय के लिए रखा जाता है अथवा जिसे माल के उत्पादन के प्रयोग करने के लिए रखा जाता है।

2. क्रय की लागत (Cost.of Purchase)-क्रय की लागत में क्रय मूल्य, आयात कर, आन्तरिक भाड़ा तथा अन्य ऐसे व्यय जो माल के क्रय से सम्बन्धित होते हैं, सम्मिलित किए जाते हैं तथा इसमें से व्यापारिक बट्टा, ड्यूटी एवं अन्य अनुदानों को घटाया जाता है जो कि स्थगित रूप में या तुरन्त इस वर्ष, किए गए हैं।

3. ऐतिहासिक लागत (Historical Cost)-ऐतिहासिक लागत से आशय उस लागत से है जो स्कन्ध को वर्तमान स्थिति में लाने के लिए आती है जिसमें क्रय की लागत, परिवर्तन लागत एवं अन्य लागत का योग को सम्मिलित किया जाता है।

4. प्रत्यक्ष लागते (Direct Costs)-प्रत्यक्ष लागतों में स्कन्ध की लागत केवल चल लागतों के उचित भाग के रूप में निर्धारित होती है, आगम के विरुद्ध सभी स्थायी लागतें उस अवधि में लगाई अथवा प्रभारित की जाती हैं, जिनमें वे व्यय की जाती हैं।

5. परिवर्तन की लागत (Cost of Conversion)-परिवर्तन की लागत विशेष रूप से इकाइयों के उत्पादन में आती है, जैसे-प्रत्यक्ष श्रम, प्रत्यक्ष व्यय आदि।

6. स्थायी लागतें (Fixed Costs)-ये लागतें सदैव स्थायी होती हैं जिन पर उत्पादन की मात्रा का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

7. परिवर्तनशील लागतें (Variable Cost)-परिवर्तन उत्पादन की मात्रा से जुड़ी होती हैं, जैसे-सामग्री की लागत, मजदूरा लागत लागत (Variable Cost)-परिवर्तनशील लागते प्रत्यक्ष रूप से at 

(ii) लेखांकन प्रमाप-6 हास लेखांकन

(Accounting Standard-6 Depreciation Accounting)

लेखांकन प्रमाप-6 नवम्बर 1982 को घोषित किया गया। इस प्रमाप में यह स्पष्ट किया गया है कि किस परिस्थिति में कौन-सी हास विधि अपनायी जानी चाहिए तथा एक विधि से दूसरी विधि में परिवर्तन तब ही किया जाना चाहिए जब यह परिवर्तन नियमानुसार आवश्यक हो।

इस लेखांकन प्रमाप में निम्नलिखित प्रमुख दिशा-निर्देशों का पालन करना चाहिए

(i) प्रत्येक लेखांकन अवधि में सम्पत्ति के उपयोगी जीवन के कार्यकाल में हास की राशि ठीक ढंग से लगाई जानी चाहिए। 

(ii) प्रत्येक वर्ष चयन की गई ह्रास पद्धति का प्रयोग करना चाहिए। (iii) हास पद्धति में परिवर्तन तब ही किया जाना चाहिए जबकि वह न्यायसंगत एवं आवश्यक हो। 

(iv) ह्रास पद्धति में परिवर्तन करने पर तथा नवीन पद्धति को अपनाने पर सम्पत्ति के शेष उपयोगी जीवन पर ह्रास लगाना चाहिए। इस परिवर्तन को लेखांकन नीति में परिवर्तन मानना चाहिए। 

(v) ह्रास सम्बन्धित सम्पत्ति के उपयोगी जीवन का अनुमान लगाते समय सम्पत्ति की टूट-फूट, प्रयोग सम्बन्धी वैधानिक सीमाएँ, अप्रचलन आदि तत्वों को भी ध्यान में रखना चाहिए।

समय-समय पर सम्पत्तियों के उपयोगी जीवन की जाँच की जानी चाहिए। 

(vii) सम्पत्ति के विस्तार की स्थिति में, ह्रास की दर यथावत् रखनी चाहिए। 

(viii) यदि कोई ह्रास योग्य सम्पत्ति नष्ट अथवा बेकार हो जाती है तो शुद्ध आधिक्य या किसी को अलग से दर्शाया चाहिए।

(ix) सम्पत्ति पर हास की विधि एवं दरों को वित्तीय विवरणों में अनिवार्य रूप से दिखाया जाना चाहिए। 

चालू व्यवसाय की अवधारणा का महत्त्व

Explain the significance of going concern concept.

व्यवसाय की अवधारणा 

(The Going Concern Concept)

चालू व्यवसाय की अवधारणा से आशय यह है कि लेखा करते समय लखापाल रखना चाहिए कि व्यवसाय अनन्त समय तक चलता रहेगा। इस धारणा के अनुसार जब तक यह समझा जाता है कि व्यवसाय भविष्य में भी अनिश्चित दीर्घकाल तक चलता रहेगा।

लेखांकन करते समय लेखापालक को अटल पूर्वदत्त व्ययों (Prepaid Expenses), उपार्जित आय आय (Unaccrued Income) आदि का लेखा करना (Fixed Assets) को चिट्टे में लागत मूल्य (Cost मूल्य (Market Value) पर।

इस अवधारणा के ठीक विपरीत किसी व्यवसाय के समय पीक विपरीत किसी व्यवसाय के समापन की स्थिति में लेले हो जाए जैसे स्थायी सम्पत्तियों के बाजार मूल्य उद्देश्य से किए जाएँ जिससे वर्तमान Value) को ध्यान में रखा जाएगा। लेकिन यदि व्यवसाय चाल या प्राप्य मल्य (Realisable Value) को ध्यान में रखा जाएगा लेकिन यदि व्यवसाय चालू रहने की स्तिथी में है तो स्थायी सम्पत्तियों का लागत मूल्य लागत मूल्य वृद्धि+वृद्धि -(हास+बिक्री) को ध्यान में रघा जाएगा। संक्षेप में, यदि व्यवसाय समाप्त हो सम्पत्तियों के विक्रय मल्य को ध्यान में रखा जाना चाहिए और यदि व्यवसाय चालू स्थिती में वित्तीय विवरण वास्तविक चित्र प्रस्तत नहीं करता, तब इसके लिए यह तक दिया जाता है कि स्थायी सम्पत्तियों को बेचने के उद्देश्य से नहीं खरीदा जाता बल्कि उनका प्रमुख उद्देश्य उनसे व्यवसाय चलाने का होता है, इसीलिए उनको बाजार मूल्य नहीं लिखना चाहिए।

लेखांकन की पाँच परम्पराओं या प्रथाओं का वर्णन कीजिए।

Explain the five Conventions of Accounting. 

लेखांकन की पाँच परम्पराएँ या प्रथाएँ

(Five Conventions of Accounting) 

लेखांकन की पाँच प्रमुख परम्पराएँ या प्रथाएँ निम्नलिखित है

1. व्यवसाय की निरन्तरता की परम्परा 

(Convention of Continuity of Business)- 

इस परम्परा के अनुसार यह मानकर लेखांकन किया जाता है कि व्यवसाय निरन्तर चलता रहेगा। कि व्यवसाय की वास्तविक आर्थिक स्थिति व्यवसाय की समाप्ति पर ही ज्ञात की जा सकती है, इसीलिए व्यवसाय के सम्बन्ध में वार्षिक वित्तीय विवरण बनाए जाते हैं।

2. मुद्रा सम्बन्धी परम्परा (Convention related to Money)-इस परम्परा के अनुसार लेखांकन में मुदा इकाई का ही प्रयोग किया जाता है, अर्थात जिस व्यवहार में मुद्रा का लेखांकन नहीं किया जा सकता है, उस व्यवहार को लेखांकन में शामिल नहीं किया जाता है।

3. लेखांकन अवधि की परम्परा (Convention of Accounting Period)-इस परम्परा के अनुसार लेखांकन अवधि के आधार पर ही किसी संस्था के अन्तिम खाते तैयार किए जाते है। यह लेखांकन अवधि प्रायः एक वर्ष के लिए निर्धारित है।

4. कानून को मान्यता की परम्परा (Convention of Validity of Law परम्परा के अनुसार लेखांकन में प्रयुक्त पद्धति कानूनन वैध होनी चाहिए जर लेखांकन बैंकिंग कम्पनी अधिनियम, 1949 के अनुसार तथा कम्पा भारतीय कम्पनी अधिनियम, 1956 के अनुसार रखा जाना आवश्यक बीमा कम्पनी, गैस कम्पनी आदि इसके अनेक उदाहरण है।

5. रूढिवादी परम्परा (Convention of Conservative) इस पर अनुसार लेखांकन में रूढ़िवादी परम्पराओं को अपनाया जाना चाहिए, अर्थात् समस्त के अनुसार तथा कम्पनियों का लेखांकन अनुसार रखा जाना आवश्यक है। बिजली कम्पनी, अपनाया जाना चाहिए, अर्थात् समस्त सम्भावित ही व्यवहार से दो से अधिक खाते प्रभावित होते हैं तो ऋणी पक्ष के सभी खातों का योग धनी पक्ष के समस्त खातों के योग के बराबर होगा। यही कारण है कि व्यापारी की पूँजी एवं ऋण खातों का योग उसकी समस्त सम्पत्तियों के योग के बराबर होता है।

प्रावधान (आयोजन) एवं संचय में अन्तर बताइए। 

Explain the differences between Provisions and Reserves. 

प्रावधान एवं संचय में अन्तर (Differences between Provisions and Reserves)

पूँजीगत एवं आयगत व्ययों को उदाहरण सहित परिभाषित कीजिए। 

Define Capital and Revenue Expenditure with examples. 

पूँजीगत व्यय

(Capital Expenditure) 

पंजीगत व्यय से आशय ऐसे व्ययों से है जो स्थायी सम्पत्तियों को खरीदने, उनमें किसी भी प्रकार वद्धि करने तथा स्थायी सम्पत्तियों की कार्यक्षमता में वृद्धि करने के सम्बन्ध में किए जाते हैं। पूँजीगत व्यय होने के लिए किसी भी व्यय को निम्नांकित शर्तों में से किसी भी एक या अधिक शर्त को पूरा करने वाला होना चाहिए—(1) व्यवसाय की लाभार्जन शक्ति को बढ़ाने के

लिए व्यय किया गया हो। (2) व्यवसाय के लिए किसी सम्पत्ति को क्रय करने, निर्मा प्राप्त करने एवं इसे प्रयोग में लाने हेत व्यय किया गया हो। (3) पूजी एवं ऋण प्राप्त किए गए व्यय। (4) व्यवसाय की स्थायी सम्पत्ति में वृद्धि हेतु व्यय किया गया हो। व्यवसाय को लोकप्रिय बनाने हेत किया गया विज्ञापन व्यय या प्रचार कालएकए गए अ कारक व्यया (6) अधिक समय तक लाभ प्राप्ति हेतु अधिक मात्रा में एक साथ का जस विज्ञापन पर किया गया व्यय। (7) यदि अनुसन्धान सफल हो जाता है तो किस अनुसंधान पर किए गए व्यय। (8) नए उत्पादन को लोकप्रिय बनाने हेतु किए गए विसाप या प्रचार के लिए किए गए अन्य प्रकार के व्यय।

पूजागत व्ययों के उदाहरण – कौन-सा व्यय पूँजीगत हैं और कोन-सा नहीं व्यापार के स्वभाव पर निर्भर करता है जैसे एक व्यापारी मशीनें खरीदने एवं बेचने का करता है तो उसके इस व्यापार के लिए मशीनों के क्रय पर किया गया व्यय पूँजी व्यय नहीं परन्तु यदि वह कोई कपड़े का व्यवसाय करता है तो उस दशा में मशीनों पर क्रय किया गया व्यय पूँजीगत व्यय माना जाता है। __

ऐसे व्यवसायी निम्नांकित मदों का व्यवसाय नहीं करते। उनके लिए ये व्यय पूँजीगत व्यय होते हैं—(1) भवन की लागत, (2) व्यापार चिह्न की लागत, (3) कॉपीराइट की लागत (4) पेटेण्ट्स एवं पैटर्न की लागत, (5) मशीन की स्थापना के व्यय, (6) मशीन व फर्नीचर के क्रय एवं निर्माण पर किया गया व्यय, (7) भवन, मशीन, फर्नीचर आदि की वृद्धि पर किए गए व्यय (8) मोटर-कार एवं भारवहन की लागत, (9) पट्टा सम्पत्ति की लागत, (10) बिजली एवं पंखों की फिटिंग की लागत, फुटकर औजारों की लागत, (11) ख्याति की लागत, (12) ख्याति का मूल्य, (13) स्वायत्त सम्पत्ति (Freehold Property), (14) पूँजी सम्पत्तियों की लागत के अतिरिक्त इन सम्पत्तियों को प्राप्त करने के व्यय, (15) पूँजी सम्पत्तियों को प्रयोग की अवस्था में लाने के व्यय, (16) किसी आविष्कार पर किए गए व्यय, (17) खानों के विकास पर व्यय आदि।

आयगत व्यय

(Revenue Expenditure) 

आयगत व्ययों से आशय उन व्ययों से है जो व्यवसायी के उपचार संचालन के सम्बन्ध में किए जाते हैं तथा जो व्यवसायी की स्थायी सम्पत्तियों की कार्यक्षमता को बनाए रखने से सम्बन्धित

होते हैं एवं व्यावसायिक माल के क्रय तथा उसके रूप परिवर्तन करने हेत किए जाते हैं। य व्यय बार-बार होने वाले स्वभाव के होते हैं। इन व्ययों को बार-बार निरन्तर किया जाता है।आयगत व्ययों के उदाहरण — यद्यपि आयगत व्यय व्यवसाय के स्वभाव पर नम करते हैं फिर भी इनके निम्नांकित उदाहरण हैं—(1) मजदरी एवं वेतन मरम्मत पर व्यय (8) किराया,(4) विद्युत व्यय, (5) दिया गया कमीशन, (6) बीमा किस्त (डाक ओर तारक व्यय (8) निर्माण सम्बन्धी व्यय, (9) व्यवसाय के लिए कच्चा-माल क्रय करने के व्य (10) स्थायी सम्पत्ति पर हास, 11) ऋणों पर ब्याज, (12) पॅजी पर ब्याज 130 बिक्रा व्यक (14) स्टोर्स (15) अग्नि से तथा अन्य प्रकार से माल अन्य प्रकार से माल नष्ट हो जाने की हानि

लेखांकन की विभिन्न शाखाएँ कौन-कौन सी हैं? 

What are the various branches of Accounting? 

लेखांकन की शाखाएँ

(Branches of Accounting) 

लेखांकन की विभिन्न शाखाएँ निम्नवत् हैं-

1. सामाजिक लेखांकन (Social Accounting)-समाज के आर्थिक लेन-देनों के पति और क्रमबद्ध लेखा को सामाजिक लेखांकन कहते हैं। सामाजिक लेखांकन के अन्तर्गत आय उत्पादन लेखे, कोष-प्रवाह खाते तथा साधन उत्पत्ति खाते आते हैं। संयुक्त राष्ट्रसव सामाजिक लेखांकन का कार्य करता है।

2.कर लेखांकन (Tax Accounting)-व्यापारिक अधिनियमों के अनसार व्यापार पर बिकी-कर, आयकर, धन-कर, उत्पाद-कर, सम्पत्ति-कर आदि विभिन्न प्रकार के कर लगते ही करों के आधार पर रख जान वाल लेखा को कर लेखांकन कहते हैं।

3. सामान्य या वित्ताय लखाकन (General or Financial Accounting) सी लेखांकन के अन्तर्गत राजनामचा, तलपट, व्यापारिक खाता. लाभ-हानि खाता तथा चिट्ठका किया जाता है। व्यापारा का इन खातों के द्वारा लाभ या हानि के अतिरिक्त व्यापार का आर्थिक स्थिति के विषय में भा जानकारी प्राप्त होती है।

4. मानवीय संसाधन लेखांकन (Human Resources Accounting)-पूजा निर्माण में मानव का सबसे बड़ा योगदान होता है। मानव संसाधन से सम्बन्धित मूल्यों और लागतों से सम्बन्धित लेखों को मानवीय संसाधन लेखांकन कहते हैं।

5. लागत लेखांकन (Cost Accounting)—वित्तीय लेखांकन की एक सहायक शाखा लागत लेखांकन है। लागत लेखांकन के द्वारा किसी वस्तु की प्रति इकाई लागत एवं कुल लागत, प्रमाणित लागत, वास्तविक लागत, भविष्यकालीन उत्पादन लागत आदि को निकाला जाता है। इन्हीं लागतों के आधार पर अनावश्यक लागतों को समाप्त करके लागत पर उचित नियन्त्रण किया जाता है।

6. प्रबन्धकीय लेखांकन (Management Accounting)—वित्तीय लेखांकन का पूरक प्रबन्धकीय लेखांकन है। प्रबन्धकों को प्रबन्धकीय लेखांकन के द्वारा नीति निर्धारण से सम्बन्धित सूचनाएँ दी जाती हैं। प्रबन्धकीय लेखांकन के अन्तर्गत रोकड़ प्रवाह विवरण, कोष प्रवाह विवरण, समविच्छेद बिन्दु विश्लेषण, अनुपात विश्लेषण, बजटरी नियन्त्रण आदि आते हैं। वित्तीय लेखांकन का कार्य समाप्त होने के बाद प्रबन्धकीय लेखांकन का कार्य आरम्भ होता है।

7. सरकारी लेखांकन (Government Accounting)-केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकार और स्थानीय निकायों के द्वारा रखे जाने वाले खातों को सरकारी लेखांकन कहते हैं। ये सभी सत्ताएँ अपने खाते आय-व्यय प्रणाली के आधार पर रखती हैं।

8. परिमाणिक लेखांकन 

(Quantitative Accounting)-

परिमाणिक लेखांकन के अन्तर्गत वस्तुओं के क्रय, विक्रय और कच्चा माल आदि से सम्बन्धित संख्यात्मक विवरण तैयार किए जाते हैं। निर्मित, अर्द्धनिर्मित तथा विक्रय-योग्य उत्पादों के परिमाण में विवरण तैयार कर, इनके आधार पर अनुमानित तथा वास्तविक उपलब्धियों की तुलना की जाती है।

तीन खाने वाली रोकड़ बही पर टिप्पणी लिखिए। 

Write a note on Three Column Cash Book. 

तीन खानों वाली रोकड़ बही

(Three Column Cash Book) 

इस बही में रोकड़, छूट तथा बैंक के तीन स्तम्भ दोनों पक्षों में होते हैं। इस प्रकार की बही की उपयोगिता अत्यधिक होती है क्योंकि प्रतिदिन बैंक से लेन-देन अधिक होते हैं तथा कुछ ऐसे भी लेने-देन होते हैं जो एक ही समय में रोकड़ और बैंक से सम्बन्धित होते हैं। रोकड स्तम्भ के साथ-साथ बैंक स्तम्भ होने से बिना समय हानि के लेखा एक साथ लिखा जा सकता है। जैसे बैंक में नकद जमा करना या बैंक से नकद राशि निकालना। 

इस पुस्तक में लेखा करते समय निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना होगा-

जब नकद या चैक बैंक में जमा किए जाते हैं तो बैंक स्तम्भ को डेबिट तथा रोकड़ स्तम्भ को क्रेडिट किया जाता है।

(2) जब चैक द्वारा कोई भुगतान किया जाता है तो उसका लेखा बैंक स्तम्भ में किया जाता है।

(3) जब बैंक से कोई राशि निकाली जाती है, तो उसका लेखा बैंक स्तम्भ में किया जाता है।

(4) जब कभी कोई लेन-देन रोकड और बैंक दोनों से सम्बन्धित होते हैं, तो इस बड़ी दानों पक्षों में लेखा किया जाना है। ऐसी स्थिति में संदर्भ हेतु ‘C’ को दोनों लेन-देनों के सामने दाना पक्षों में लिख दिया जाता है। ‘C’ का आशय Contra शब्द के लिए है। इस प्रकार की प्रविष्टियों को विपरीत प्रविष्टियाँ (Contra entries) कहते हैं।

खाताबही क्या है? खाताबही का प्रारूप दीजिए। 

What is ledger ? Give the proforma of ledger.

खाताबही का अर्थ

(Meaning of Ledger)

खाताबहा (Ledger) उस बही को कहते हैं जिसमें प्रत्येक आय, सम्पत्ति, व्यय. व्यक्ति और सस्था से सम्बन्धित सचनाएँ उनके खातों में अलग-अलग होती हैं। खाता की खाताबही में भी शीर्षक और पक्ष होते हैं।

खाता और खाताबही परस्पर समाहित हैं। किसी मद से सम्बन्धित लेखों के समूह को खाता कहते हैं, जबकि खातों के समूह को खाताबही कहते हैं। इसी कारण इसे Ledder Account भी कहा जाता है।

‘खाताबही’ शब्द एक पुस्तक का नाम है जिसमें खातों को रखा जाता है, जबकि ‘खाता’ शब्द एक तरीके को बताता है जिसमें सूचनाएँ समाहित होती हैं।

खाताबही का प्रारूप

(Proforma of Ledger) 

खाताबही एक मोटे सजिल्द रजिस्टर के रूप में होती है। इस बही के विभिन्न पृष्ठों पर पृथक्-पृथक् व्यक्तिगत, वास्तविक और नाममात्र खातों से सम्बन्धित एक पृथक् पृष्ठ रहता है। आवश्यकतानुसार पृष्ठों की संख्या को घटाया या बढ़ाया जा सकता है। इसका प्रारूप निम्नवत् है-

खाताबही का प्रत्येक पृष्ठ एकसमान ढंग से दो भागों में विभाजित रहता है। इसके बायाँ ओर का भाग डेबिट पक्ष (Debit side) तथा दायीं ओर का भाग क्रेडिट पक्ष (Credit side) कहलाता है।

निर्माणी खाते के डेबिट तथा क्रेडिट पक्ष में दिखाई जाने वाली मदो के बारे में बताइए।

Give te items to e shown in the debit side and credit sides of Manufacturing Account.

उत्तर – वे संस्थाएँ जो कच्चे माल को निर्मित माल में परिवर्तित करती है सस्था के सकल लाभ तथा शुद्ध लाभ के अतिरिक्त निर्मित माल की लागत जानने की आवश्यकता भी अनुभव करती हैं। ये निर्माणी गतिविधियों सहित व्यापारिक संस्थाएँ होती हैं। निर्मित माल के बार में पूर्ण सूचना पाने के लिए ये संस्थाएँ पहले निर्माणी खाता बनाती हैं, तत्पश्चात् व्यापारिक तथा लाभ-हानि खाता तैयार करती हैं। 

निर्माण खाते के डेबिट एवं क्रेडिट दो पक्ष होते हैं –

डेबिट पक्ष में दिखाई जाने वाली मदें

(Items to be shown in Debit side) 

1. रहतिया (Stock)—निर्माण की दशा में दो प्रकार का रहतिया होता है

(i) कच्चे माल का रहतिया (Raw material Stock)-ऐसा कच्चा माल जो निर्मित माल बनाने के लिए क्रय किया गया था परन्तु अभी तक उसका प्रयोग नहीं हो सका।

(ii) अर्द्धनिर्मित माल का रहतिया (Stock of Work-in progress)—यह ऐसे माल का रहतिया होता है जो बनना शुरू हो गया है परन्तु पूर्ण नहीं हुआ है।

2. प्रयुक्त कच्चा माल (Raw material consumed) यह प्रथा है कि निर्माणी खाते में प्रयुक्त कच्चे माल की लागत दिखाई जाती है जिसकी गणना निम्नलिखित प्रकार की जाती है

Opening Stock of Raw material 

Add : Purchases of Raw material 

Less : Closing Stock of Raw Material 

Raw material consumed

3. आवक भाड़ा (Carriage inward) आदि-कच्चे माल को कारखाने तक लाने के व्यय या निर्माता द्वारा कच्चे माल पर दी गई चुंगी या custom duty आदि भी निर्माणी खाते में दिखाए जाते हैं।

4.कारखाना उपरिव्यय (Factory overhead)-ऐसे अप्रत्यक्ष व्यय जो कारखाने को चलाने के लिए किए जाते हैं कारखाना उपरिव्यय कहलाते हैं। उदाहरण-(i) अप्रत्यक्ष सामग्री; जैसे-लुब्रीकेन्ट आदि (ii) अप्रत्यक्ष मजदूरी; जैसे–चौकीदार, सुपरवाइजर का वेतन आदि (iii) कारखाना व्यय; जैसे-किराया, बीमा, ह्रास आदि।

क्रेडिट पक्ष में दिखाई जाने वाली महें

(Items to be shown in Credit Side) 

1. अवशिष्ट माल की बिक्री (Sale of Scrap)-वस्तु बनाते समय कुछ अवशिष्ट माल प्राप्त होना स्वाभाविक है। यह माल बिक भी सकता है। यदि इस माल की कुछ राशि प्राप्त होती है तो ठीक लागत की गणना करने के लिए इस खाते को क्रेडिट पक्ष में लिखा जाता है।

2. अन्तिम अर्द्धनिर्मित माल (Closing Work-in-progress)-यह ऐसा माल होता है जो लेखा वर्ष के अन्त तक पूर्ण बनकर तैयार नहीं हुआ है, अत: डेबिट पक्ष के योग में क्रेडिट पक्ष का योग घटाने पर जो राशि आएगी वह उत्पादित माल की उत्पादन लागत होगी।

व्यापारिक खाते के डेबिट तथा क्रेडिट पक्ष में दिखाई जाने वाली मदों के बारे में बताइए।

Give the items to be shown in the debit and credit sides of Trading Account.

I व्यापारिक खाते के डेबिट पक्ष में आने वाली मर्दे

(Items to be shown in Debit Side of Trading Account) 

व्यापारिक खाते के डेबिट पक्ष में निम्नलिखित मदें लिखी जाती हैं

1. प्रारम्भिक रहतिया (Opening Stock)-जिस वर्ष व्यापारिक खाता बनाया जाता ह उस वर्ष प्रारम्भ में व्यापारी के पास पिछले वर्ष का जितना बिना बिका माल होता है उसे प्रारम्भिक रहतिया कहते हैं। प्रारम्भिक रहतिये में (i) कच्चा माल (Raw Material) (ii) तैयार माल (Finished Goods) और (iii) अर्द्ध तैयार माल (Semi Finished Goods) भी शामिल किए जाते हैं।

2. क्रय तथा क्रय वापसी (Purchases and Purchases Returns) सार वष में जितना माल नकद एवं उधार खरीदा जाता है उसे क्रय खाते में लिखा जाता है। परन्तु क्रय में से (i) क्रय वापसी (ii) दान में दिया गया माल (iii) स्वामी द्वारा निजी प्रयोग में लिया गया माल (iv) नमूने के रूप में दिया गया माल तथा (v) अग्नि, बाढ़ या दुर्घटना से नष्ट हुए माल के मूल्य को कम करके शुद्ध मूल्य दिखाया जाता है।

3. प्रत्यक्ष व्यय (Direct Expenses)-ये वे खर्चे हैं जो माल को व्यापारिक स्थल तक लाने या कच्चे माल को पक्के माल में बदलने के लिए या माल को बिक्री योग्य बनाने के लिए किए जाते हैं, अर्थात् ये वे खर्चे होते हैं जिनसे माल की लागत बढ़ जाती है या जिनका बोझ ग्राहक की जेब पर पड़ता है, अत: प्रत्येक व्यापारी को इस प्रकार के खर्च करना आवश्यक होता है। इन खर्चों के निम्नलिखित उदाहरण हैं

(i) मजदूरी (Wages)-ऐसी मजदूरी जो माल लाने, उतारने या चढ़ाने के लिए मजदूर को दी जाती है। इसके अतिरिक्त ऐसे सभी व्यक्तियों की मजदूरी और वेतन जो फैक्टरी में काम करते हैं, इसी के अन्तर्गत आती है।

(ii) आने वाले माल पर गाड़ी भाड़ा (Freight/Carriage/Cartage Inward) ये परिवहन के खर्चे होते हैं जो खरीदे हुए माल को व्यापारिक स्थान या गोदाम तक लाने के लिए किए जाते हैं।

(iii) उत्पादक व्यय (Manufacturing Expenses) ये वे खर्चे होते हैं जो कि चलाने के लिए किए जाते हैं; जैसे-गैस, ईंधन और चालन शक्ति (GasFuel and Motive power), कारखान का किराया आर बामा (Factory rent and कोयला, बिजली और पानी (Coal, Electricity and water) आदि।

(iv) सीमा शल्क (Import or Custom duty) – यह वह कर होता है जो कि विदेश से माल आयात करने पर सरकार को दिया जाता हैं।

(v) बन्दरगाह व्यय (Dock Charges)-जब माल विदेशों से मँगाया जाता है तो माल को जहाज से उतारने व कुछ समय के लिए बन्दरगाह पर रखने में जो खचा हाता ह १९ बन्दरगाह व्यय कहलाता है।

(vi) चुंगी कर (Octroi Duty)-जब माल नगर की सीमा में लाया जाता है तो उस पर नगरपालिका को स्थानीय कर देना होता है जो कि चुंगी कर कहलाता है।

(vii) उत्पादन शुल्क (Excise Duty)—यह एक ऐसा कर होता है जो कि माल के उत्पादन के समय लगाया जाता है और इसका भुगतान सरकार को किया जाता है।

II. व्यापारिक खाते के क्रेडिट पक्ष में आने वाली मदें। 

(Items to be shown in Credit Side of Trading Account) 

व्यापारिक खाते की क्रेडिट पक्ष में निम्नलिखित मदें लिखी जाती हैं –

1. विक्रय एवं विक्रय वापसी (Sales and Sales Returns)-इसके अन्तर्गत नकद और उधार विक्रय दोनों आती हैं। इनमें से विक्रय वापसी को घटा दिया जाता है, अतः व्यापारिक खाते में शुद्ध विक्रय को लिखा जाता है।

2. अन्तिम रहतिया (Closing Stock)-हिसाबी वर्ष के अन्त में जितना माल बिकने से रह जाता है उसे अन्तिम रहतिया (Closing Stock) कहते हैं। इसका मूल्यांकन बाजार मूल्य या लागत मूल्य दोनों में से जो भी कम हो उस पर किया जाता है। इसमें कच्चा माल, अर्द्धनिर्मित माल और तैयार माल शामिल होता है।

लेखा (Account)-प्रायः अन्तिम रहतिया तलपट के बाहर दिया जाता है क्योंकि इसका मूल्यांकन तलपट बनाने के बाद ही किया जाता है। इसलिए दोहरा लेखा पूर्ण करने के लिए निम्न समायोजन प्रविष्टि की जाएगी-

Closing Stock – dr.

To Trading A/C 

अत: इसका लेखा एक बार व्यापारिक खाते के क्रेडिट पक्ष में करते हैं तथा दूसरी बार स्थिति विवरण के सम्पत्ति पक्ष में किया जाता है।

यदि अन्तिम रहतिया तलपट में ही दिया हो तो इसे केवल एक बार स्थिति विवरण के सम्पत्ति पक्ष में ही लिखा जाएगा।

व्यापार एवं लाभ-हानि खाते में अन्तर बताइए।

Differentiate between Trading A/c and Profit & Loss Alc. 

व्यापार खाते तथा लाभ-हानि खाते में अन्तर

(Differences between Trading A/c and Profit & Loss A/C)

किसी निश्चित क्रम से न लिखे जाएँ तो उनसे शीघ्र आवश्यक जानकारी प्राप्त नहीं हो सकती, अत: इसके लिए निम्नलिखित में से किसी एक क्रम का प्रयोग किया जाता है

1. तरलता का क्रम (Order of Liquidity)-इस रीति के अनुसार सम्पत्तियों को इस प्रकार लिखा जाता है कि जो सबसे पहले बेच कर नकदी में बदली जा सके उन्हें पहल लिखा जाता है तथा जिन सम्पत्तियों को देर से बेचा जा सकता है, उन्हें क्रमश: बाद में लिखा जाता है। इसी प्रकार दायित्व पक्ष में उन दायित्वों को पहले लिखा जाता है जिनको सबसे पहल चकाना होता है तथा जिन दायित्वों को बाद में चुकाना है उन्हें क्रमशः बाद में लिखा जाता है। एकल व्यापारी और साझेदारी फर्मे अपने चिट्ठे तरलता के क्रम से ही तैयारी करती हैं।

2. स्थायित्व का क्रम (Order of Permanence)—यह विधि उपर्युक्त विधि का ठीक उल्टी विधि है। इस रीति के अनुसार जो सम्पत्तियाँ जितनी अधिक देर में रोकड़ में बदली जा सकती हैं, उन्हें पहले लिखा जाता है तथा जिन सम्पत्तियों को पहले बेचा जा सकता है, उन्हें क्रमश: बाद में लिखा जाता है। इसी प्रकार, जिस दायित्व का भुगतान सबसे बाद में करना है उसको सबसे पहले लिखा जाता है तथा जिसका भुगतान सबसे पहले करना है, उसे क्रमश: बाद में लिखा जाता है। इस क्रम के अनुसार कम्पनी एवं सहकारी समितियों के चिढे तैयार किए जाते हैं।

सम्पत्तियों का वर्गीकरण

(Classification of Assets) 

सम्पत्तियों का मुख्य वर्गीकरण उनके स्वभाव के अनुसार निम्न प्रकार समझा जा सकता है-

1. स्थायी या अचल सम्पत्तियाँ (Fixed Assets)-ये ऐसी सा पत्तियाँ होती हैं जो व्यापार को चलाने के उद्देश्य से खरीदी जाती हैं न कि पुन: विक्रय के लिए। इस प्रकार की सम्पत्तियों से व्यापार को एक लम्बी अवधि तक लाभ प्राप्त होता है; जैसे—भूमि और भवन, संयन्त्र और मशीनरी आदि। इन्हें दीर्घकालीन सम्पत्तियाँ (Long Term Assets) भी कहते हैं।

2.चालू सम्पत्तियाँ (Current Assets)-ये ऐसी सम्पत्तियाँ होती हैं जिन्हें व्यापारी जल्दी रोकड़ में बदलता है। ऐसी सम्पत्तियों में परिवर्तन होता रहता है। इसलिए इन्हें चल या परिवर्तनशील सम्पत्तियाँ (Floating Assets) भी कहते हैं। स्टॉक, देनदार (Debtors), प्राप्य बिल (Bills Receivable) आदि ऐसी सम्पत्तियों के उदाहरण हैं।

दायित्वों का वर्गीकरण

(Classification of Liabilities) 

दायित्वों को भी उनके स्वभाव के अनुसार निम्न प्रकार बाँटा जा सकता है-

1. स्थायी दायित्व (Fixed Liabilities)-यह वह दायित्व होता है जिसका भुगतान एक लम्बी अवधि के बाद किया जाता है। व्यापार की पूँजी तथा लम्बी अवधि के लिए ऋण स्थायी दायित्व है। इन्हें दीर्घकालीन दायित्व (Long Term Liabilities) भी कहते हैं।

2. चाल दायित्व (Current Liabilities)—यह वह दायित्व होते हैं जिनका भुगतान शीघ्र अथवा निकट भविष्य में करना होता है। देय बिल, लेनदार, बैंक अधिविकर्ष, अदत्त व्यय आदि ऐसे दायित्व है।

(अ) प्रेसीडेन्सी टाउन्स दिवालिया अधिनियम तथा प्रान्तीय दिवालिया अधिनियम के अनुसार पूर्वाधिकार लेनदार किसे कहते हैं ?

(ब) स्थिति विवरण क्या है ?

(A) What are preferential creditors according to the Presidency Towns Insolvency Act and Provincial Insolvency Act ?

(B) What is a Statement of Affairs ? 

(अ) पूर्वाधिकार लेनदा

(Preferential Creditors) 

पूर्वाधिकार लेनदार से हमारा अभिप्राय ऐसे लेनदारों से होता है जिन्हें ऋण की अदायगी के सम्बन्ध में पूर्वाधिकार प्राप्त होते हैं। ‘Presidency Towns Insolvency Act’ तथा ‘Provincial Insolvency Act’ के अनुसार पूर्वाधिकार लेनदार निम्नलिखित होंगे

(1) केन्द्रीय, प्रान्तीय अथवा स्थानीय सरकार को दिए जाने वाला कर अथवा ऋण।

(2) कर्मचारियों का गत 4 माह का वेतन जो कि-(a) Presidency Towns Insolvency Act’ के अनुसार एक क्लर्क को रू. 300 तथा अन्य को रू. 100 से अधिक नहीं हो सकता, (b) ‘Provincial Insolvency Act’ के अनुसार किसी भी व्यक्ति को रू. 20 से अधिक नहीं हो सकता।

(3) श्रमिक क्षतिपूर्ति अधिनियम के अन्तर्गत श्रमिक को दी जाने वाली क्षतिपूर्ति।

(4) केवल ‘Presidency Towns Insolvency Act’ के अनुसार मालिक मकान का एक माह का किराया चाहे कितना ही क्यों न हो।

(ब) स्थिति विवरण

(Statement of Affairs) 

जब कोई व्यक्ति दिवालिया घोषित किया जाता है तो उसे अपनी सम्पत्ति तथा दायित्वों का पूर्ण विवरण यह दर्शाते हुए कि सम्पत्तियाँ कितने में बेची गईं, दायित्वों को कितना भुगतान करना पड़ा तथा वास्तव में दिवाला कितनी राशि से निकला-इन सबका ब्योरा ‘Official Receiver’ तथा ‘Government Adjudicator’ को देना होता है। इसके अन्तर्गत 8 सची होती हैं जिसमें पहली चार (A,B.C तथा D) दायित्व पक्ष को दर्शाती हैं, बाद की तीन (E, F तथा G) सम्पत्तियों को तथा अन्तिम सूची (List H) कमी खाते को दर्शाती है।

List A – (Unsecured Creditors)-वे लेनदार जो पूर्ण रूप से असुरक्षित हैं जसे Trade Creditors. Loan Creditors, Bills Payable, Bills Receivable, Discounted Liability in regard thereto (भुनाए गए बिलों पर सम्भावित हानि), Balance of List D को सम्मिलित किया जाता है।

List B – (Fully Secured Cr रखा है और जमानत अधिक मल्य की ले रखी है, वे पूर्ण रूप से सुरक्षित होते हैं।

List C – (Partly Secured Cre रखा हो तथा जमानत कम ले रखी हो। ये लेनदार 

(Fully Secured Creditors) वे लेनदार कहलाते हैं। 

List D – Treferential Creditors)-इसके लिए इसी प्रश्न का पहला भाग पढ़िए।

List E – (Property) वे सभी सम्पत्तियाँ जो गिरवीं न रखी गई हो।

List F – (Book Debts) – डनको तीन वर्गों में विभाजित किया जाता है अच्छ (good) जिनसे पूर्ण राशि मिलेगी, संदिग्ध (Doubtful) जिनसे पूर्ण राशि प्राप्त नहीं होगा तथा बुरे (Bad) जिनसे कुछ भी प्राप्त नहीं होगा।

शाखा खाते रखने की स्टॉक तथा देनदार’ प्रणाली पर लेख लिखिए।

Write a note on ‘Stock and Debtor method of maintaining Branch Account. 

स्टॉक तथा देनदार प्रणाली का आशय

(Meaning of Stock and Debtor Method) 

शाखा से सम्बन्धित लेखे रखने की एक अन्य विस्तृत पद्धति ‘स्टॉक तथा देनदार पद्धति’ है। इस पद्धति में शाखा से सम्बन्धित स्टॉक के लिए ‘शाखा स्टॉक खाता’ (Branch Stock A/c) तथा उधार विक्रय से सम्बन्धित शाखा देनदार खाता (Branch Debtors ANC) मुख्य रूप से प्रधान कार्यालय की पुस्तकों में बनाए जाते हैं।

स्टॉक तथा देनदार प्रणाली में रखे जाने वाले खाते

(Accounts kept in Stock and Debtor Method)

1. शाखा को भेजे गए माल का खाता (Goods sent to Branch A/c) शाखा द्वारा भेजा गया माल, शाखा से वापस किए गए स्कन्ध का लेखा इस खाते में किया जाता है। क्रेडिट पक्ष में शाखा को भेजा गया माल बीजक मूल्य पर दर्शाया जाता है तथा डेबिट पक्ष में भेजे गए माल में लाभ के अश का लेखा समायोजन खाते में तथा शेष राशि व्यापार खाते (Trading Ac) में हस्तान्तरित कर दी जाती है।

2 शाखा स्कन्ध खाता (Branch Stock A/c)-इस खाते में शाखा से सम्बन्धित सभी लेन-देन जैस-प्रारम्भिक रहतिया, शाखा को भेजा गया स्कन्ध नकल पावा से प्रधान कार्यालय को वापस भेजा गया स्कन्ध, अन्तिम रहतिया आदि दर्शाए जाते हैं। यदि इस खाते में अन्तर है तो इसे स्टाँक की कमी (Spoilage) अथवा आधिक्य

जिसका लेखा लाभ अथवा हानि की गणना करने में किया जाता है। (Surplus) कहते हैं, जिसका लेखा लाभ अथवा हानि की गणना करने में किया जाता है।

3. शाखा देनदार खाता (Branch Debtors Ac) – इस खाते में देनदारों के प्रारम्भिक तथा अन्तिम शेष, उधार बिक्री, देनदारों से प्राप्त रोकड़, देनदारों को दी गई छूट, अशोध्य ऋण आदि दर्शाए जाते हैं।

4.शाखा व्यय खाते (Branch Expenses A/c) इस खाते में शाखा अथवा प्रधान कार्यालय द्वारा चुकाए गए सभी व्यय, देनदारों को छट, अशोध्य ऋण, शाखा सम्पत्तियों का ह्रास आदि दर्शाया जाता है। खाते का शेष ‘शाखा समायोजन खाते’ में हस्तान्तरित कर दिया जाता है।

5. शाखा समायोजन खाता (Branch Adjustment A/c)—यह खाता व्यापार तथा लाभ-हानि खाते’ की भाँति बनाया जाता है। विभिन्न खातों के शेष; जैसे-शाखा संचय खाता व शाखा व्यय खाता आदि इसी खाते में दर्शाते हैं।

किस्त भुगतान पद्धति का क्या अर्थ है? इसकी मुख्य विशेषताएँ क्या हैं?

What is meant by Instalment Payment System ? What are its characteristics? 

किस्त भुगतान पद्धति का अर्थ

(Meaning of Instalment Payment System) 

जे० आर० बाटलीबॉय के शब्दों में, “किस्त भुगतान पद्धति के अन्तर्गत माल क्रय किए जाने में माल क्रेता की सम्पत्ति उसी समय हो जाती है जबकि उसे माल की सपर्दगी मिलती है।”

एल०सी० कॉपर के शब्दों में, “विक्रेता के दृष्टिकोण से इस पद्धति के अन्तर्गत स्टॉक को ऐसे देनदारों में बदलना है जो किस्तों द्वारा भुगतान करें। क्रेता के दृष्टिकोण से इस विधि के अन्तर्गत एक ऐसी सम्पत्ति प्राप्त होती है जिसका क्रय मूल्य उसके ऊपर एक ऋण की तरह है जिसका उसे भुगतान करना है।’

इस प्रकार किस्त भुगतान पद्धति बिक्री की एक ऐसी पद्धति है जिसमें अपने अनुबन्ध के अनुसार सम्पत्ति का स्वामित्व बिक्री के समय ही क्रेता को हस्तान्तरित हो जाता है एवं सम्पत्ति की सपुर्दगी भी क्रेता को कर दी जाती है और बिक्री की राशि का भुगतान किस्तों द्वारा होता है तथा ब्याज किस्त में शामिल हो सकता है या किस्त के अतिरिक्त भी दिया जा सकता है। किसी भी किस्त भुगतान की त्रुटि की दशा में विक्रेता को माल वापस लेने का अधिकार नहीं होता है। वह अदत्त मल्य के लिए केवल दावा कर सकता है। इस प्रकार की बिक्री की विभिन्न शर्ते इसके अनुबन्ध में दी रहती हैं।

किस्त भगतान पद्धति की विशेषताएँ 

(Characteristics of Instalment Payment System) 

किस्त भुगतान पद्धति की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं

1. माल की सपर्दगी क्रेता को होना (Right of Possession to Purchaser)बिक्री की प्रसंविदा होते ही माल की सुपुर्दगी क्रेता को हो जाती है।

2. सादा होते ही स्वामित्व का हस्तान्तरण होना (Transfer of Ownership at me time of Agreement)-क्रेता को बिक्री प्रसंविदा के बाद ही तुरन्त माल का प्राप्त हो जाता है।

3. किस्त के भुगतान में त्रटि होने पर विक्रेता को दावा करने का आधकार होना (Right to Claim the Asset in case of Default)-क्रता द्वारा किसी भी किस्त का भुगतान न किए जाने पर विक्रेता उसके ऊपर दावा कर सकता है।

4. उधार बिक्री होना (Have Credit Sales)-इस पद्धति के अन्तर्गत माल की बिका तो होती है और इसकी सपर्दगी क्रेता को दी जाती है, परन्तु इस समय नहीं होता है, इसलिए यह बिक्री उधार बिक्री है।

5. कस्तो में भुगतान होना (Payment in Instalments)-इस प्रणाला मक्रता का सबसे अधिक सविधा यही है कि उसे माल की कीमत किस्तों में भुगतान करना किस्तों की राशि तथा इसके भगतान का समय क्रेता व विक्रेता के आपसा ठहरावास जाता है।

6. किस्त के भुगतान में त्रुटि होने पर भुगतान की हुई किस्तों का विक्रेता द्वारा जब्तन करना (To Forefeit the Instalments so paid in case of Default) याद क्रता न किसी भी किस्त के भुगतान करने में त्रुटि की है तो विक्रेता को यह अधिकार नहीं है कि वह क्रेता द्वारा उस समय तक भुगतान की हुई किस्तों को जब्त कर ले और पूरे मूल्य के लिए क्रेता पर दावा करे। वह पूरे मूल्य में से इस भुगतान की हुई किस्तों की राशि काटकर शेष किस्तों के लिए दावा कर सकता है। ऐसा इसलिए है कि माल का स्वामित्व क्रेता पर हस्तान्तरित हो जाता है।

7. क्रेता द्वारा बिक्री करने या गिरवी रखने पर दूसरे व्यक्ति को श्रेष्ठ स्वत्वाधिकार प्राप्त होना (Better Title to Third Party in case of Sale)-यदि क्रेता इस पद्धति के अन्तर्गत माल क्रय करने के बाद किसी अन्य व्यक्ति को माल बेचता है या गिरवी रखता है तो इस अन्य व्यक्ति को श्रेष्ठ स्वत्वाधिकार प्राप्त होता है।

किसी साझेदार के अवकाश ग्रहण करने या उसकी मृत्यु के समय दी जाने वाली राशि की गणना एवं उसका भुगतान किस प्रकार किया जाता है ? समझाइए।

How the amount to be paid to retiring partner or deceased partner is ascertained, and how it is paid ? Explain. 

किसी साझेदार के अवकाश ग्रहण या मृत्यु की दशा में

दी जाने वाली राशि की गणना विधि 

(Ascertainment of Amount to be paid to Retiring Partner or Deceased Partners) 

यदि कोई साझेदार फर्म से अवकाश ग्रहण करता है अथवा उसकी मृत्यु हो जाती है तो उसके काननी प्रतिनिधि को फर्म की शुद्ध सम्पत्तियों में से उचित हिस्सा पाने का अधिकार होता है। हिस्से की गणना साझेदारा सलख के अनुसार की जाती है। सामान्यतः देय राशि में अग्रलिखित रकमें सम्मिलित की जाती हैं-

(i) पूजी खाते का शेष, (ii) सम्पत्तियों एवं दायित्वों के पुनर्मल्यांकन पर होने वाले लाभ का आनुपातिक भाग, (iii) चालू वर्ष की अवधि में होने वाले लाभ या हानि में आनुपातिक भाग, (iv) पूंजी पर ब्याज (यदि साझेदारी संलेख में व्यवस्था हो), (v) वेतन (यदि कोई अदत्त हा), (vi) ख्याति की राशि का आनुपातिक भाग, (vii) संचय कोष या संचिति का आनुपातिक भाग (यदि कोई हो), (viii) अन्य कोई राशि जो अवकाश ग्रहण करने वाले साझेदार को मिलनी बाकी हो, (ix) मृत्यु की दशा में संयुक्त जीवन बीमा पॉलिसी का आनुपातिक भाग (यदि जावन बीमा करा रखा हो) आदि। यदि अन्य कोई दायित्व भी होते हैं तो उनको देय राशि की गणना करने में घटा दिया जाता है।

अवकाश ग्रहण या मृत्यु की दशा में देय राशि की भुगतान विधि 

(Mode of Payment in Case of Retirement or Death of a Partner)

उपर्युक्त प्रकार से देय राशि ज्ञात हो जाने पर उसके भुगतान के सम्बन्ध में पुस्तकों में कुछ लेखे किए जाते हैं। देय राशि का दायित्व फर्म पर होता है, लेकिन यदि किसी कारणवश फर्म इस सम्पूर्ण राशि का भुगतान नहीं कर पाती है, तब इस राशि को किसी भी साझेदार से प्राप्त करके इसका भुगतान कर दिया जाता है। यदि शेष साझेदार उचित समझें तो बैंक से या किसी अन्य संस्था या व्यक्ति से ऋण लेकर अथवा किसी नए साझेदार को प्रवेश देकर उसके द्वारा लायी जाने वाली पूँजी में से देय शेष राशि का भुगतान किया जा सकता है। इस देय राशि को ब्याज सहित किस्तों के रूप में भी भुगतान किया जा सकता है।

अदत्त एवं पूर्वदत्त व्यय पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।

Write a short note on Outstanding Expenses and Prepaid Expenses.

अदत्त व्यय (Outstanding Expenses)-कुछ व्यय ऐसे होते हैं जिनका सम्बन्ध चाल वर्ष से होता है, लेकिन जिनका भुगतान अन्तिम खाते बनाने की तिथि तक नहीं हो पाता, अत: इनका पुस्तकों में लेखा भी नहीं होता। इनका भुगतान अगले माह में किसी तिथि को किया जाता है। जैसे-वेतन, किराया, ब्याज इत्यादि। इस प्रकार के व्यय ‘अदत्त व्यय’ कहलाते हैं। उदाहरणार्थ-कोई दुकान ₹ 1,000 मासिक के हिसाब से किराये पर ली गई है। यदि हिसाबी वर्ष में केवल 11 माह का ₹ 11,000 चुकाया गया है तो 1 माह का किराया रे 1.000 अदत्त किराया होगा। चालू वर्ष का ठीक-ठीक लाभ-हानि ज्ञात करने के लिए इनका पुस्तकों में समायोजन लेखा किया जाना आवश्यक होता है।पूर्वदत्त व्यय (Prepaid Expenses)-कुछ व्यय ऐसे होते हैं जिनका पेशगी भुगतान कर दिया जाता है, अर्थात् व्ययों की कुल देय रकम का प्रयोग अन्तिम खाते बनाने की तिथि तक नहीं हो पाता. अतः ऐसे व्ययों की जितनी रकम चालू वर्ष में प्रयोग कर ली जाती है, उसे ही चाल वर्ष के व्ययों में दिखाया जाना चाहिए तथा शेष राशि को पूर्वदत्त व्यय माना जाना चाहिए तभी चाल वर्ष का लाभ ठीक-ठीक ज्ञात होगा। उदाहरण-1 अक्टूबर को दिया जाने वाला वार्षिक बीमा प्रीमियम अगले वर्ष 30 सितम्बर तक का व्यय है, अत: चालू वित्तीय वर्ष में कवल उसका आधा भाग हो समायोजित होगा तथा शष आधा भाग पूर्वदत्त व्यय कहलाएगा।

वे कौन-कौन सी अशद्धियाँ हैं जो तलपट का मिलान होने पर भी पता नहीं चलतीं? उदाहरण सहित बताइए।

State the errors that cannot be detected even matching the trial balance. Explain with examples. 

लेखांकन अशुद्धियाँ

(Accounting Errors) 

अशुद्धियों का अध्ययन निम्नलिखित दो शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है।

I. तलपट से प्रकट न होने वाली अशुद्धियाँ 

(Errors not disclosed by Trial Balance)

II. तलपट से प्रकट होने वाली अशुद्धियाँ (Errors disclosed by Trial Balance) 

I. तलपट से प्रकट न होने वाली अशुद्धियाँ 

(Errors not disclosed by Trial Balance)

तलपट बनाने के उद्देश्य लेखा पुस्तकों की शुद्धता की जाँच करना है परन्तु तलपट के दोनों स्तम्भों का योग मिल जाने का अभिप्राय यह नहीं है कि लेखा पुस्तकों में कोई अशुद्धि नहीं है। वास्तविकता तो यह है कि तलपट का योग मिल जाने के पश्चात् भी लेखा पुस्तकों में अनेक अशुद्धियाँ रह जाती हैं, अत: यह कहना कि तलपट लेखा पुस्तकों की शुद्धता का पक्का प्रमाण है (Trial balance is a conclusive proof of the accuracy of the books of accounts) सत्य नहीं। ऐसी अशुद्धियाँ जिनके रहते हुए भी तलपट मिल जाता है, निम्नलिखित हैं

1. भूल की अशुद्धियाँ (Errors of Omission)-यदि किसी लेन-देन का भूल से जर्नल या सहायक पुस्तक में बिल्कुल ही लेखा होने से रह जाए तो तलपट से मिलने पर ऐसी अशुद्धि का कोई प्रभाव नहीं पड़ता क्योंकि इसका लेखा न तो डेबिट होता है तथा न ही क्रेडिट। उदाहरणार्थ-संजय को ₹ 800 का माल उधार बेचा और हम अपनी पुस्तकों में इसका लेखा करना भल गए तो इसकी खतौनी का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। इस अशुद्धि का दोनों पक्षों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, इसलिए तलपट के मिलान में कोई बाधा नहीं होगी।

2. हिसाब की अशुद्धियाँ (Errors of Commission)-यदि प्रारम्भिक लेखे की पस्तकों (जर्नल या सहायक पुस्तको) में गलत राशि से लेखा हो जाए तो उस लेखे की खतौनी की उसी के अनुसार होगी। ऐसी गलती तलपट के मिलान पर कोई प्रभाव नहीं डालती। बाहरणार्थ-नरेश से ₹ 350 का उधार माल खरीदा परन्तु गलती से जर्नल में ₹ 530 की राशि प्रविष्ट की गई परिणामस्वरूप खाताबही में भी क्रय खाते में ₹530 डेबिट और नरेश के खाते में ₹ 530 क्रेडिट हो जाएंगे जिससे तलपट मिल जाएगा।

3. सैद्धान्तिक अशुद्धियाँ (Errors of Principle)-ऐसी अशुद्धियाँ जिनमें यांकन के मल सिद्धान्तों का पालन नहीं किया जाता, सैद्धान्तिक अशुद्धियाँ कहलाती हैं। इन अशुद्धियों में रकम की अशुद्धि न होकर केवल सिद्धान्त की अशुद्धि होती है। इन अशुद्धियों का तलपट पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। ऐसी अशुद्धियाँ अग्र प्रकार की होती हैं

(i) जब किसी पूँजीगत व्यय (Capital expenditure) को आगम व्यय (Revenue expenditure) मानकर लेखा कर दिया जाता है जैसे मकान में गोदाम बनाने पर किए गए व्यय का लेखा मरम्मत खाते (Repairs A/C) में कर देना अथवा फर्नीचर के क्रय को फनाचर के खाते में डेबिट न करके क्रय खाते में डेबिट कर दिया जाए।

(ii) किसी व्यय का आगम व्यय के स्थान पर पूँजीगत व्यय मानकर लेखा कर देना जैसे मशीन की मरम्मत पर किए गए खर्चे का लेखा मरम्मत खाते में न करके मशीन खाते में कर देना।

(iii) किसी आय का लेखा देयधन मानकर कर देना जैसे किराया प्राप्त करने पर किराए खाते में क्रेडिट करने की बजाय किराया देने वाले के खाते को क्रेडिट कर दिया जाए।

4. क्षतिपूरक अशुद्धियाँ (Compensating Errors)-जब एक अशुद्धि का कमा दूसरी अशुद्धि द्वारा पूरी कर दी जाती है तो ऐसी अशुद्धियों को क्षतिपूरक अशुद्धियाँ कहते हैं। ऐसी दशा में दो या अधिक प्रविष्टियाँ एक दूसरे की क्षतिपरक होती हैं तथा वे तलपट से प्रकट नहीं होतीं। उदाहरणार्थ—सुरेश के खाते में रू. 200 डेबिट करने की बजाय रू. 20 डेबिट कर दिए गए तथा दिनेश के खाते में रू. 20 डेबिट करने की बजाय रू. 200 डेबिट कर दिए गए। यद्यपि सुरेश और दिनेश दोनों के खाते गलत बनेंगे परन्तु तलपट के मिलान पर इन अशुद्धियों का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। __

5. खतौनी की अशुद्धियाँ (Errors of Posting)—यदि रोजनामचे से खाताबही में खतौनी करते समय गलत खाते में परन्तु ठीक पक्ष में खतौनी की गई हो तो यह अशुद्धि तलपट के मिलान पर कोई प्रभाव नहीं डालेगी। उदाहरणार्थ-रामगोविन्द से माल क्रय किया परन्तु रोजनामचे से खतौनी करते समय रामगोपाल के खाते में क्रेडिट कर दिया गया। यद्यपि बहियों में दोनों के खातों में अशुद्धि है, तथापि यह अशुद्धि होने पर भी तलपट मिल जाएगा।

उपर्युक्त अध्ययन से स्पष्ट है कि तलपट के दोनों स्तम्भों (डेबिट तथा क्रेडिट) का योग बराबर होना लेखा पुस्तकों की शुद्धता का पक्का प्रमाण नहीं है क्योंकि इसके मिल जाने पर भी भल सम्बन्धी, सैद्धान्तिक, क्षतिपूरक आदि अशुद्धियाँ रह जाती हैं इसलिए यह केवल लेखा पस्तकों का गणितीय शुद्धता का प्रमाण अवश्य है परन्तु खातों की पूर्ण शुद्धता का प्रमाण नहीं है। 

II. तलपट के न मिलने पर अशुद्धियों का पता लगाना 

(Detection of Errors on the disagreement of Trial Balance)

तलपट के न मिलने का अर्थ है कि लेखा पुस्तकों में कुछ अशुद्धियाँ रह गई हैं, अत: इन अशुद्धियों की खोज करके इनका सुधार करना आवश्यक होता है। अशुद्धियाँ ज्ञात करने के लिए निम्नलिखित क्रम से प्रयास करना चाहिए-

(1) सर्वप्रथम तलपट के जोड़ की जाँच करनी चाहिए।

(2) तलपट के दोनों पक्षों के जोड़ों का अन्तर मालूम करके यह देखना चाहिए कि जिस पक्ष में कमी है उस ओर अन्तर की रकम जितनी हो, किसी खाते की रकम का शेष लिखने से रह तो नहीं गया है।

(3) यह देखना चाहिए कि अन्तर की आधी रकम जितनी कोई राशि भूल से विपरीत पक्ष में तो नहीं लिख दी गई।

(4) कभी-कभी अंकों का स्थान परिवर्तन हो जाने के कारण भी अशुद्धि हो जाती है लिए अन्तर की रकम को 9 से भाग देकर देख लेना चाहिए। यदि भाग पूरा चला जाता है तो अशुद्धि अंकों को उल्टा लिखने के कारण हई है। जैसे,रू.47 क स्थान

(5) यह देख लेना चाहिए कि कोई खाता तलपट में लिखने से तो नहीं छट गया है। 

(6) सभी खातों में योगों और शेषों की जाँच पड़ताल करनी चाहिए।

(7) प्रारम्भिक लेखों की पस्तकों के योगों तथा इनसे की गई खतोनियों को जाच करनी चाहिए।

(8) देनदारों तथा लेनदारों की सूचियों की पुनः जाँच पड़ताल करनी चाहिए। 

(9) यह देखना चाहिए कि रोकड बही से रोकड व बैंक का शेष तलपट में शामिल किया गया है या नहीं।

(10) यह देखना चाहिए कि गत वर्ष के खातों की शेष रकमें इस वर्ष के प्रारम्भ में ठीक-ठीक लिखी गई हैं या नहीं।

(11) यदि उपर्युक्त प्रयासों के बाद भी तलपट नहीं मिलता तो अशुद्धि ज्ञात करने के लिए प्रत्येक लेन-देन की लेखे से तलपट बनाने तक विशेष चिन्ह

(12) लगाते हुए जाँच करनी चाहिए।

सूची ‘डी’ के अनसार पर्वाधिकार लेनदार समझाइए। 

Explain preferential creditors as per List D.

पूर्वाधिकार लेनदार वे लेनदार हैं जिन्हें ऋण की अदायगी के सम्बन्ध में पूर्वाधिकार प्राप्त होते हैं। सची ‘डी’ के अनसार ये लेनदार निम्नलिखित होंगे

(1) सरकार को दिए जाने वाला कर अथवा ऋण की अदायगी, (2) श्रमिक को श्रमिक क्षतिपूर्ति अधिनियम के अन्तर्गत दी जाने वाली क्षतिपर्ति, (3) कर्मचारियों का गत 4 माह का वतन, (4) केवल मुम्बई (बम्बई), कोलकाता (कलकत्ता) एवं चेन्नई (मद्रास) में एक माह का किराया।

आप निम्नलिखित लेनदेनों को दिवालिया खाता तैयार करते समय कैसे व्यवहार करेंगे

(i) पत्नी या पति से लिया गया ऋण। 

(ii) आहरण की धनराशि से पत्नी के लिए आभूषण क्रय करना।

How will you treat the following transactions with reference to Insolvency accounts:

(i) Loan from wife or husband 

(ii) Purchase of ornaments out of drawings.

(i) पत्नी या पति से लिया गया ऋण (Loan from wife or Husband)-पत्नी से लिए गए ऋण की राशि को कुल दायित्व (Gross Liabilities) में सम्मिलित करते हैं। इस राशि को देने योग्य दायित्व में सम्मिलित नहीं करते हैं। प्रायः यह मान लिया जाता है कि पत्नी ने जो ऋण दिया है, वह अपने पति के धन में से ही दिया है। इस ऋण की राशि का वह भाग ही देने योग्य दायित्व में दिखाया जाता है, जो उसने स्त्री धन अर्थात् पिता से प्राप्त धन में से दिया है। इस ऋण की राशि का वह भाग जिसके दायित्व से दिवालिए को छुटकारा मिल जाता है, Deficiency Account के डेबिट पक्ष में Exemption from Loan के रूप में दिखाया जाता है।

(ii) आहरण की धनराशि से पत्नी के लिए आभूषण क्रय करना (Purchase of Ornaments out of Drawings)-यदि दिवालिया आहरण की गई धनराशि से अपनी पलि के लिए आभूषण बनवाता है तो वे आभूषण उसके ऋणों पर भुगतान के लिए प्रयोग किए जाएंगे। इन आभषणों को सूची ई (Liste) में निजी सम्पत्ति के रूप में दिखाया जाएगा और निजी सम्पत्ति का आधिक्य (Surplus of Private Assets) के नाम से न्यनता खाते में बाएं पक्ष में दिखाया जाएगा। यह व्यवस्था दिवालिया व्यक्ति की इस प्रवृत्ति को रोकती है कि वह प्रार्थना-पत्र देने से पहले अपने धन से पनि के लिए आभूषण बनवाकर ऋणदाताओं को धोखा दे सके। परन्तु जो आभूषण पत्नी को अपने पिता, भाई आदि से प्राप्त हए हैं. उन्हें प्रयोग नहीं किया जाएगा।

किराया-क्रय पद्धति में ‘विपरीत क्रियाविधि’ क्या है? 

What is Work Back Method’ in Hire-Purchase System?

जब किस्तों की धनराशि में ब्याज सम्मिलित होता है, ब्याज की दर दी होता है, लेकिन रोकड मल्य नहीं दिया होता है, और किस्तों की धनराशि यदि समान या असमान हैं तो रोकड़ मूल्य की गणना करने के लिए अन्तिम किस्त पर ब्याज ‘विपरीत क्रियाविधि से निकाला जाता है। सूत्रानुसार

Interest on Last Instalment 

Rate of Interest

-x Amt. of Last Instalment. 

100+ Rate of Interest 

रोकड़ मूल्य ज्ञात करने की वार्षिकी विधि से आप क्या समझते हैं ? 

What is Annuity Method of calculating cash price ?

इस विधि का प्रयोग तभी किया जाता है, जबकि-(i) सभी किस्तें वार्षिक हों, (ii) सभी किस्तों की राशि समान हो। इस विधि के अन्तर्गत वार्षिकी तालिका से रू.1 की वार्षिकी का किस्तों की अवधि का निर्धारित की गई ब्याज की दर पर वर्तमान मूल्य ज्ञात किया जाता है तथा कारक (Factor) को वार्षिक किस्त की राशि से गुणा करके रोकड़ मूल्य ज्ञात कर लिया जाता है।

अधिकार-शुल्क के विभिन्न प्रकार समझाइए। 

xplain the various kinds of Royalty. 

अधिकार-शुल्क के प्रकार

(Types of Royalty) 

1. खदान अधिकार-शुल्क – खदान अधिकार-शुल्क का आशय उस राशि से है जो खनिज उत्पादन की प्रति इकाई (जैसे—प्रति टन, प्रति हजार ईंट आदि) पर एक निश्चित दर से निकाली जाती है। खदान के स्वामी को पट्टादाता अथवा भूस्वामी तथा खदान प्रयोग करने वाले को पट्टेदार कहते हैं।

2. पेटेण्ट अधिकार – शुल्क–पेटेण्ट (एकस्व) अधिकार-शुल्क का आशय उस राशि से है जो कि पेटेण्ट के प्रयोग करने पर या बिक्री पर एक निश्चित दर से निकाली जाती है। पेटेण्ट के स्वामी को पेटेण्टी या होल्डर कहा जाता है, जबकि विशेषाधिकार प्राप्त करने वाले को पेटेण्ट का प्रयोगकर्ता कहते हैं।

3. प्रतिलिप्याधिकार अधिकार – शुल्क-प्रतिलिप्याधिकार अधिकार-शुल्क का आशय उस राशि से है जो पुस्तकों आदि के प्रकाशन एवं बिक्री पर एक निश्चित दर से निकाली जाती है। इस प्रकार के अनबन्ध लेखकों एवं प्रकाशकों के मध्य होते हैं।

4. टेडमार्क के सम्बन्ध में अधिकार – शुल्क-ट्रेडमार्क के प्रयोग करने पर भी अधिकार शुल्क की व्यवस्था हो सकती है।

लघुकार्य किसे कहते हैं? 

What is Shortworkings?

जिस वर्ष वास्तविक अधिकार-शल्क की राशि न्यूनतम किराये की राशि से कम होती है उस वर्ष सम्पत्ति के स्वामी को न्यूनतम किराये की राशि का भुगतान करना पड़ता है,

न्यूनतम किराये की राशि का अधिकार-शुल्क की राशि पर आधिक्य तकनीकी भाषा में लघ. कार्य’ (Shortworkings) कहलाता है, अर्थात्

Shortworkings = Minimum Rent-Actual Royalty. 

लघुकार्य संचय खाता क्यों खोला जाता है? 

Why is Shortworking Reserve Account opened?

यदि पट्टेदार को भविष्य में लघुकार्य राशि वसूल नहीं हो पाती तो वह राशि उस वर्ष के लाभ-हानि खाते में हस्तान्तरित कर दी जाती है। जिस वर्ष यह अवधि समाप्त होती है। इस व्यवस्था का यह दोष है कि इससे लघकार्य राशि उत्पन्न होने वाले वर्ष के लाभ-हानि खाते पर प्रभाव पड़ने के स्थान पर न वसूल हुए वर्ष का लाभ-हानि खाता प्रभावित होता है। इस दोष के निवारण के लिए लघुकार्य संचय खाता खोला जाता है।

ख्याति के मूल्यांकन की कोई दो रीतियाँ बताइए। 

Explain any two methods of Valuing Goodwill. 

ख्याति के मूल्यांकन की दो रीतियाँ निम्नलिखित हैं

1. औसत लाभ का आधार (Average Profit Method), 

2. अधिलाभ का आधार (Super Profit Method)।

1. औसत लाभ का आधार – इस रीति के अनुसार गत तीन या पाँच वर्षों का औसत लाभ निकाल कर उसका दो या तीन गुना कर लिया जाता है। यही ख्याति की राशि होती है।

2. अधिलाभ का आधार – इस रीति के अनुसार गत कुछ वर्षों का औसत अधिलाभ निकालकर उसका दो या तीन गुना कर लिया जाता है। यही ख्याति की राशि होती है।

किन परिस्थितियों में एक फर्म अनिवार्य रूप से भंग कर दी जाती है? 

Under what circumstances a firm is compulsorily winded up? 

(1) जब एक को छोड़कर सभी साझेदार दिवालिया हो जाएँ। (2) जब सभी साझेदार दिवालिया हो जाएँ। (3) जब फर्म का व्यवसाय गैर-कानूनी हो जाए। (4) जब साझेदारों की संख्या 20 से अधिक अथवा बैंकिंग व्यवसाय में 10 से अधिक हो जाती है।

गार्नर बनाम मरे के न्यायालय के निर्णय पर टिप्पणी लिखिए। Write a note on Garner Vs. Murray Rule.

(1) दिवालिया साझेदार की पूँजी की कमी को अन्य शोधक्षम साझेदार अपना पूजा के अनुपात में बांटंगे। पूजी का अनपात वह लिया जाएगा जो विघटन से पर्व स्थिति विवरण में था।

(2) यदि पूँजी स्थायी है तो जो स्थायी पूँजी विघटन से पूर्व के चिट्ठे में दिखाई गइह पूँजी के अनुपात में दिवालिया साझेदार की पँजी की कमी को शोधक्षम साझेदार बाटेगे। यदि पूँजी अस्थायी है तो विघटन के पूर्व के चिट्टे में दर्शायी गई पूँजी में उन संचित कोणों व


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