B.Com 2nd Year Motivating & Leading People Work Long Notes In Hindi
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विस्तृत उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1- अभिप्रेरणा को परिभाषित कीजिए। इसके क्या उद्देश्य हैं? अभिप्रेरणा को प्रभावित करने वाले घटकों का वर्णन कीजिए। अभिप्रेरणा की आवश्यकता एवं विधियाँ बताइए।
Define Motivation. What are its aims ? Describe the factors affecting motivation. Explain the necessity and methods of motivation.
अथवा अभिप्रेरणा के सिद्धान्तों को स्पष्ट कीजिए। इसको प्रभावित करने वाले तत्त्वों की विवेचना कीजिए।
Explain the principle’s of motivation. Describe the factors affecting motivation.
उत्तर- अभिप्रेरणा का अर्थ एवं परिभाषा
(Meaning and Definitions of Motivation)
अभिप्रेरणा मानव की अन्त:प्रेरणा है जिससे प्रेरित होकर व्यक्ति स्वयं कार्य करने के लिए प्रेरित होता है। किसी भी व्यक्ति में कार्य करने की योग्यता हो सकती है, परन्तु वह कार्य अपनी पूर्ण योग्यता से तब ही सम्पन्न करेगा जबकि उसे कार्य करने के लिए प्रेरित किया जाए। अत: किसी भी व्यक्ति से कार्य का निष्पादन कराने के लिए अभिप्रेरणा देना अत्यन्त आवश्यक है। प्रमुख विद्वानों ने अभिप्रेरणा को निम्नलिखित प्रकार परिभाषित किया है
(1) माइकल जे० जूसियस के शब्दों में, “अभिप्रेरणा स्वयं की अथवा किसी अन्य व्यक्ति को वांछित कार्य करने हेतु प्रोत्साहित करने की प्रक्रिया है, अर्थात् वांछित प्रक्रिया प्राप्त करने के लिए सही बटन को दबाना है।” .
(2) डेल एस० बीच के अनुसार, “अभिप्रेरणा को किसी लक्ष्य या पुरस्कार प्राप्त करने की दृष्टि से अपनी शक्ति का विस्तार करने की तत्परता के रूप में परिभाषित किया ज सकता है।”
(3) स्टैनले वेन्स के अनुसार, “ऐसा कोई विचार अथवा इच्छा, जिससे किसी के भावना इस प्रकार परिवर्तित होती है कि वह कार्य करने के लिए कृतसंकल्प हो जाता है अभिप्रेरणा है।”
कैरोल शार्टल के शब्दों में, “किसी निश्चित दिशा में गतिमान होने अथवा निर्धारित लक्ष्य प्राप्त करने के लिए निश्चित प्रेरणा या तनाव ही अभिप्रेरणा है।”
उपर्युक्त परिभाषाओं के विश्लेषणात्मक अध्ययन के आधार पर कहा जा सकता है”अभिप्रेरणा एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा मानव को अभिप्रेरित किया जाता है, जिससे व अपनी समस्त शक्ति एवं क्षमता निश्चित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए लगा सके। वास्तव अभिप्रेरणा व्यक्ति की अन्त:प्रेरणा है जो उसे स्वयं कार्य करने के लिए प्रेरित करती है।
अभिप्रेरणा के तत्त्व अथवा विशेषताएँ
(Elements or Characteristics of Motivation)
अभिप्रेरणा के प्रमुख तत्त्व अथवा विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
1. अन्त:प्रेरणा (Self-incentive)-अभिप्रेरणा व्यक्ति की अन्त:प्रेरणा है अर्थात् था, व्यक्ति के अन्दर से उत्पन्न होती है। वास्तव में कोई भी व्यक्ति अपने जीवन की आवश्यकता को पूरा करने के लिए ही कार्य करने के लिए प्रेरित होता है।
2. अनन्त प्रक्रिया (Unending Process)-अभिप्रेरणा एक अनन्त प्रक्रिया है। यह कभी भी समाप्त नहीं होती है, अर्थात व्यक्ति सदैव कार्य करने के लिए प्रेरित होता है।
3. मनोवैज्ञानिक अवधारणा (Psychological Concept)-अभिप्रेरणा एक मनोवैज्ञानिक अवधारणा है। यह व्यक्ति की मानसिक शक्ति को विकसित करके अधिक कार्य करने के लिए प्रेरित करती है। “
4. कार्य करने की शक्ति (Power to Act)-अभिप्रेरणा व्यक्ति को कार्य करने के | लिए प्रोत्साहित करती है। यह कार्य करने की शक्ति प्रदान करती है, जिससे व्यक्ति अपनी क्षमताओं का अधिकतम प्रयोग कर पाता है। अभिप्रेरणा से सम्पूर्ण व्यक्ति प्रभावित होता है, उसका कोई भाग नहीं क्योंकि व्यक्ति एक अविभाज्य इकाई है। अतः वह पूर्ण रूप से ही अभिप्रेरित होता है।
5. कार्यक्षमता में वृद्धि (Increase in Efficiency)-अभिप्रेरणा. व्यक्ति की । कार्यक्षमता में वृद्धि करती है, इससे व्यक्ति अपनी योग्यता एवं क्षमता का अधिकतम प्रयोग करता है और इसके परिणामस्वरूप उसकी कार्यक्षमता में वृद्धि होती है। अभिप्रेरणा से व्यक्ति के उत्पादन की किस्म में सुधार होता है तथा वह अधिकतम उत्पादन करता है।
6. मनोबल में वृद्धि (Increase in Morale)-मनोबल एक सामूहिक भावना है। अभिप्रेरणा व्यक्तियों को सहयोग से कार्य करने के लिए अभिप्रेरित करती है, अत: अभिप्रेरणा मनोबल में वृद्धि करने में सहायक होती है।
कण्ट्ज एवं ओ’डोनेल (Koontz and O’Donnell) ने अभिप्रेरणा के निम्नलिखित चार तत्त्व बताए हैं –
(1) उत्पादकता (Productivity), (2) प्रतिस्पर्धा (Competition), (3) व्यापकता Comprehension) एवं (4) लोचपूर्णता (Flexibility)।
अभिप्रेरणा के उद्देश्य
अभिप्रेरणा के प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार हैं-
(1) कर्मचारियों को अधिक कार्य करने के लिए प्रेरित करना।
(2) कर्मचारियों की आर्थिक, सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं को पूरा
(3) उपक्रम में मानवीय सम्बन्धों का विकास करना।
(4) कर्मचारियों के मनोबल में वृद्धि करना।
(5) कर्मचारियों की कार्यक्षमता में वृद्धि करना।
(6) कर्मचारियों से सहयोग प्राप्त करना।
(7) श्रम और पूँजी के मध्य मधुर सम्बन्ध स्थापित करना।
(8) मानवीय साधनों का सदुपयोग करना।
(9) उपक्रम के लक्ष्यों को प्राप्त करना।
अभिप्रेरणा को प्रभावित करने वाले घटक
(Factors affecting Motivation)
अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से अभिप्रेरणा को प्रभावित करने वाले घटकों का निम्नलिखित दो भागों में विभाजित किया जा सकता है
1. मौद्रिक प्रेरणाएँ (Monetary Incentives)-उपक्रम में कर्मचारी मौटिल प्रेरणाओं से प्रत्यक्ष रूप से अभिप्रेरित होते हैं। मौद्रिक प्रेरणाओं में निम्नलिखित घटकों को सम्मिलित किया जाता है
(i) उचित मजदूरी या वेतन, (ii) बोनस, (iii) ओवरटाइम, (iv) मौद्रिक पुरस्कार एव
(v) विनियोग पर ब्याज।
मौद्रिक प्रेरणाएँ कर्मचारियों की आधारभूत आवश्यकताओं को पूरा करती हैं।
2. अमौद्रिक प्रेरणाएँ (Non-monetary Incentives)-कर्मचारियों से अधिक कार्य कराने के लिए केवल मौद्रिक प्रेरणाएँ ही पर्याप्त नहीं होतीं अपितु अमौद्रिक प्रेरणाएँ भी कर्मचारियों को अधिक कार्य करने हेतु अभिप्रेरित करती हैं। अमौद्रिक अभिप्रेरणाओं निम्नलिखित घटकों को सम्मिलित किया जाता है
(i) कार्य की सुरक्षा, (ii) कार्य की प्रशंसा, (iii) कर्मचारियों का सम्मान, (iv) कर्मचारियों से समानता का व्यवहार, (v) पदोन्नति के अवसर, (vi) अधिकारों का भारार्पण (vii) कर्मचारियों के सुझावों को मान्यता, (viii) कर्मचारियों के लिए कल्याणकारी योजनाएँ। जैसे-आवास-गृह, चिकित्सा, मनोरंजन, शिक्षा, बीमा आदि, (ix) प्रबन्ध में सहभागिता।
अभिप्रेरणा की आवश्यकता
(Necessity of Motivation)
प्रबन्ध का प्रमुख कार्य दूसरे व्यक्तियों से कार्य कराना है। किसी उपक्रम की स्थापना निर्धारित लक्ष्यों की पूर्ति के लिए की जाती है। इन लक्ष्यों की पूर्ति उपक्रम में लगे व्यक्तियों का कार्य के प्रति प्रोत्साहित करके ही की जा सकती है। किसी भी व्यक्ति में कार्य करने का मानसिक एवं शारीरिक क्षमता तो हो सकती है, परन्तु यह आवश्यक नहीं कि वह उस क्षमता के पूर्ण उपयोग करे और किसी भी कार्य का श्रेष्ठ निष्पादन उसी दशा में सम्भव है जबकि व्यकि में कार्य करने की क्षमता के साथ-साथ कार्य करने की इच्छा भी हो। किसी व्यक्ति से कार्य की भली प्रकार से निष्पादन कराने के लिए यह आवश्यक है कि उस व्यक्ति को कार्य करने के लिए अभिप्रेरणा दी जाए। प्राय: व्यवहार में यह देखने में आया है कि यदि किसी व्यक्ति के उचित प्रेरणा प्राप्त नहीं होती है, तब निश्चय ही वह अपनी क्षमता का केवल 50% से 75% तक ही उपयोग करता है। इसके विपरीत, यदि व्यक्ति को उचित अभिप्रेरणा दी जाती है तो १७ अपनी क्षमता का उपयोग 90% से 100% तक करता है और अपने कार्य से सन्तुष्ट रहता अत: किसी भी उपक्रम में कार्य का उचित मात्रा में निष्पादन कराने के लिए कर्मचारिया अभिप्रेरित किया जाना आवश्यक है।
अभिप्रेरणा की विधियाँ या अभिप्रेरणा के आधार
(Methods of Motivation or Basis of Motivation)
कर्मचारियों की क्षमता का पूर्ण लाभ उठाने के लिए एवं उनसे श्रेष्ठ उत्पादन कराने के लिए उन्हें प्रेरणा देना आवश्यक है। अभिप्रेरणा देने की कोई एक निश्चित विधि नहीं है अपितु अभिप्रेरणा अनेक विधियों से दी जा सकती है। श्रेष्ठ अभिप्रेरणा विधि उपक्रम की स्थिति, कर्मचारियों की मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति एवं सामाजिक परिस्थितियों पर निर्भर करती है। यदि अभिप्रेरणा देने की उचित विधि का प्रयोग नहीं किया जाता है, तब इसका कर्मचारियों पर ऋणात्मक प्रभाव पड़ता है और वे उपक्रम के लिए दुष्कर सिद्ध हो सकते हैं। अत: अभिप्रेरणा विधि उपयुक्त होनी चाहिए।
किसी भी उपक्रम से कर्मचारियों को निम्नलिखित विधियों से अभिप्रेरणा दी जा सकती है
1.धनात्मक एवं ऋणात्मक अभिप्रेरणाएँ (Positive and Negative Incentives)-धनात्मक अभिप्रेरणाओं से आशय ऐसी प्रेरणाओं से है, जिनके द्वारा कर्मचारियों को अधिक मजदूरी, वेतन, बोनस आदि देकर अधिक उत्पादन करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।
ऋणात्मक अभिप्रेरणाओं से आशय ऐसी प्रेरणाओं से है, जिनके द्वारा व्यक्तियों को भयभीत करके अधिक कार्य करने के लिए प्रेरित किया जाता है। इसमें निष्कासन, पदावनति, दण्ड, प्रताड़ना आदि को सम्मिलित किया जाता है।
आज के युग में धनात्मक अभिप्रेरणाओं का प्रभाव ऋणात्मक अभिप्रेरणाओं की तुलना में अधिक पड़ता है। धनात्मक अभिप्रेरणाओं से कर्मचारी उपक्रमों में अपना अस्तित्व समझते हैं और अधिक कुशलता से कार्य करते हैं।
2. व्यक्तिगत एवं सामूहिक अभिप्रेरणाएँ (Individual and Collective Incentives)-व्यक्तिगत अभिप्रेरणाओं से आशय ऐसी प्रेरणाओं से है जो व्यक्ति-विशेष को प्रत्यक्ष रूप से दी जाती हैं। ये केवल उन्हीं व्यक्तियों को दी जाती हैं जो उपक्रम को अधिक अलाभ पहुँचाते हैं। ये अभिप्रेरणाएँ मौद्रिक एवं अमौद्रिक रूप में दी जा सकती हैं।
1 सामूहिक अभिप्रेरणाओं से आशय ऐसी प्रेरणाओं से है, जो सम्पूर्ण समूह को अभिप्रेरित करती हैं। ये प्रेरणाएँ समूह को प्रत्यक्ष रूप से प्रदान की जाती हैं। इनसे व्यक्ति-विशेष प्रभावित न होकर, व्यक्तियों का पूर्ण समूह प्रेरित होता है। ये अभिप्रेरणाएँ भी मौद्रिक एवं अमौद्रिक अभिप्रेरणाओं के रूप में दी जा सकती हैं।
३. मौद्रिक एवं अमौद्रिक अभिप्रेरणाएँ (Monetary and Non-monetary Incentives)-मौद्रिक अभिप्रेरणाओं से आशय ऐसी प्रेरणाओं से है जिनमें व्यक्ति को मदा दकर कार्य करने के लिए प्रेरित किया जाता है। किसी भी व्यक्ति की प्रथम आवश्यकता जीवनयापन एवं सुरक्षा की है, जिसके लिए धन की आवश्यकता होती है। प्रत्येक व्यक्ति धन प्राप्त करने के लिए ही कार्य करता है, अत: मौद्रिक अभिप्रेरणा सबसे महत्त्वपूर्ण प्रेरणा है।
इससे व्यक्ति शीघ्र ही कार्य करने के लिए प्रेरित होता है। मौद्रिक अभिप्रेरणा उचित मजद वेतन, बोनस, प्रीमियम, विनियोग पर ब्याज आदि के द्वारा दी जा सकती है।
अमौद्रिक अभिप्रेरणाओं से आशय ऐसी प्रेरणाओं से है, जिनमें व्यक्ति को धन न दे अन्य विधियों से अभिप्रेरित किया जाता है। व्यक्ति केवल धन प्राप्त करने के लिए ही कार्य न जात करता है, अर्थात् व्यक्ति सामाजिक सम्मान, आत्मसन्तुष्टि, लगाव आदि आवश्यकताओं का कर प्राप्ति के लिए भी कार्य करता है। इन सब की पूर्ति अमौद्रिक अभिप्रेरणाओं के द्वारा ही सम्भव है। अमौद्रिक अभिप्रेरणाओं में कार्य-सुरक्षा, प्रशंसा, प्रबन्धं में सहभागिता, पदोन्नति | परामर्श, अधिकारों का भारार्पण, कार्य को मान्यताएँ, कल्याणकारी योजनाएँ जैसे आवास-गृह चिकित्सा, शिक्षा, प्रशिक्षण सुविधाएँ , बीमा आदि अनेक विधियों को सम्मिलित किया जा कर सकता है।
मौद्रिक अभिप्रेरणाओं की तुलना में अमौद्रिक अभिप्रेरणाएँ अधिक प्रभावी सिद्ध होती है। अत: उपक्रम में कर्मचारियों को मौद्रिक अभिप्रेरणाओं के साथ-साथ अमौद्रिक अभिप्रेरणाएँ भी दी जानी चाहिए।
अभिप्रेरणा का महत्त्व
(Importance of Motivation)
अभिप्रेरणा किसी भी उपक्रम में लगे व्यक्तियों को अधिक और श्रेष्ठ किस्म का कार्य करने के लिए प्रेरित करती है। यह उपक्रम में कर्मचारियों के बीच सहयोग की भावना उत्पन्न करती है। यदि किसी उपक्रम में श्रेष्ठ माल एवं मशीन का तो प्रयोग होता है, परन्तु वहाँ के कर्मचारियों को कार्य करने के लिए प्रोत्साहित नहीं किया जाता है, तब निश्चय ही वह उपक्रम अपने पूर्व-निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त नहीं कर सकेगा। अत: उपक्रम में माल, मशीन आदि के सही प्रयोग के लिए यह आवश्यक है कि उस उपक्रम में लगे कर्मचारियों को अभिप्रेरणादा जाए। इससे उनकी कार्यक्षमता में वृद्धि होगी और वे संस्था के प्रति निष्ठावान् बने रहे अभिप्रेरणा प्राप्त कर्मचारियों में श्रम परिवर्तन दर (Labour Turnover Rate) भी का होती है। इसके विपरीत, यदि किसी उपक्रम के कर्मचारी असन्तुष्ट हैं तथा वे उपक्रम में लगन कार्य नहीं करते हैं तो उपक्रम में नैराश्यता की स्थिति फैल जाएगी तथा ऐसा उपक्रम पतन ओर अग्रसर होगा। अत: उपक्रम की सफलता के लिए आवश्यक है कि उसमें लगे कर्मचा। को अभिप्रेरणा दी जाए।
प्रश्न 2 – मैकग्रेगर द्वारा प्रतिपादित ‘X’ तथा ‘Y’ सिद्धान्त को समझाइए। ‘Y’ सिद्धान्त की प्रमुख मान्यताएँ क्या हैं? भारत के सन्दर्भ में X’ सिद्धान्त तथा सिद्धान्त की उपयुक्तता समझाइए।
Explain the ‘X’ and ‘Y’ Theories as propounded by Cragor. What are the main assumptions of these theories ir suitability with reference to India.
अथवा X एवं Y सिद्धान्त पर लेख लिखिए।
Write a note on Theory X and Y.
उत्तर – अभिप्रेरणा देते समय मुख्यत: ‘X’ सिद्धान्त तथा ‘Y’ सिद्धान्त को ध्यान में रखा जाता है। ‘X’ सिद्धान्त निराशावादी दृष्टिकोण तथा ‘Y’ सिद्धान्त आशावादी दृष्टिकोण प्रस्तुत
करता है।
‘एक्स‘ सिद्धान्त
(‘X’ Theory)
मैकग्रेगर द्वारा प्रतिपादित इस सिद्धान्त की यह मान्यता है कि व्यक्ति स्वत: कार्य नहीं करना चाहता है, अत: व्यक्ति को डरा-धमकाकर अथवा दण्ड का भय दिखाकर काम करने के | लिए प्रेरित किया जाता है।
‘एक्स‘ सिद्धान्त की मान्यताएँ
(Assumptions of ‘x’ Theory)
इस सिद्धान्त की मान्यताएँ निम्नलिखित हैं-
(1) ‘एक्स’ सिद्धान्त को परम्परागत विचारधारा के रूप में मान्यता प्रदान की गई है।
(2) आर्थिक रूप से अधिक लाभ अर्जित होने का लालच देकर कार्य के लिए प्रेरित किया जा सकता है।
(3) श्रमिक के प्रति प्रबन्धन तन्त्र की भावना कुण्ठित होने के कारण वह श्रमिक को एक मशीन समझता है तथा उसी रूप में लगातार काम लेना चाहता है।
(4) व्यक्ति अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को दबाए रखता है क्योंकि वह अपनी अथवा परिवार की सुरक्षा के प्रति अधिक सतर्क रहता है। महत्त्वाकांक्षी होने में जोखिम बढ़ जाता है।
(5) इसमें व्यक्ति की कार्य के प्रति कोई रुचि नहीं होती है।
(6) व्यक्ति स्वेच्छा तथा प्रसन्नतापूर्वक कार्य करने का इच्छुक कदापि नहीं होता है।
(7) निर्देशन की अवस्था में ही व्यक्ति कार्य करने की ओर प्रेरित होता है।
(8) भयातुर होने पर ही व्यक्ति कार्य करने की ओर उन्मुख होता है।
(9) व्यक्ति स्वत: किसी उत्तरदायित्व को वहन करने से सदैव बचता है। मजबूरी में ही वह उत्तरदायित्व का भार अपने ऊपर लेता है।
भारत के सन्दर्भ में ‘एक्स‘ सिद्धान्त का प्रयोग
(Use of ‘X’ Theory with Reference to India)
उपर्युक्त मान्यताओं का अध्ययन कर हम इस सिद्धान्त की प्रकृति का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं तथा यह कह सकते हैं कि ‘X’ सिद्धान्त अवास्तविक मान्यताओं पर आधारित है। यह । सिद्धान्त उत्पादन के मुख्य साधन श्रमिक को केवल एक मशीन के पुर्जे की तरह महत्त्व देता है। भारत में निरन्तर लम्बे समय तक गुलाम रहने के कारण यहाँ के श्रमिकों की मानसिकता नहीं बदली है, उन्हें नियन्त्रण चाहिए।
इस प्रकार, X’ सिद्धान्त परम्परागत है तथा निराशावादी दृष्टिकोण प्रस्तुत करत इसके अन्तर्गत व्यक्ति से कार्य लेने के लिए दबाव का प्रयोग किया जाता है तथा श्रमिक को कोई प्रेरणा नहीं दी जाती है।
‘वाई सिद्धान्त
(‘Y’ Theory)
‘X’ सिद्धान्त के दोषों को दूर करने के लिए ‘Y’ सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया इसका प्रतिपादन भी मैकग्रेगर ने किया है। यह सिद्धान्त आशावादी दृष्टिकोण पर आधारित इसमें मानवीय सम्बन्धों पर अधिक ध्यान दिया जाता है। मैकग्रेगर के अनुसार, “क प्रभावशाली संगठन वह है जिसमें निर्देशन एवं नियन्त्रण के स्थान पर सत्यनिष्ठा एवं सहयोगको और जिसमें प्रत्येक निर्णय से प्रभावित होने वाले को सम्मिलित किया जाता हो।”
“वाई‘ सिद्धान्त की मान्यताएँ
(Assumptions of ‘Y’ Theory)
इस सिद्धान्त की मान्यताएँ निम्नवत् हैं
(1) इस सिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति को पद की सन्तुष्टि रहती है तथा अपने सामाजिक स्वरूप के अनुसार जीवन-स्तर भी सही रहता है।
(2) यह सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित है कि व्यक्ति को मौद्रिक अभिप्रेरणाओं के साथ-साथ अमौद्रिक अभिप्रेरणाएँ भी दी जानी चाहिए।
(3) इसमें कर्मचारियों की समस्याओं के निराकरण पर विशेष जोर दिया जाता है। प्रजातान्त्रिक अवधारणाओं पर आधारित होने के कारण ऐसा किया जाना स्वाभाविक है।
(4) कोई भी व्यक्ति कार्य से नहीं घबराता है। वह स्वेच्छा से कार्य करना चाहता है। इसके लिए आवश्यक है कि व्यक्ति को कार्य करने का उचित अवसर प्रदान किया जाए।
(5) कार्य के द्वारा व्यक्ति को पूर्ण सन्तुष्टि प्राप्त होती है, अत: उसको कार्य का किया। जाना अरुचिकर नहीं लगता है।
(6) किसी भी व्यक्ति को डरा-धमकाकर कार्य का निष्पादन नहीं कराया जा सकता है। कार्य का निष्पादन कराने के लिए उचित वातावरण, साधन एवं अवसर प्रदान किए जाते हैं।
(7) इस सिद्धान्त में व्यक्ति में महत्त्वाकांक्षा का तत्त्व महत्त्वपूर्ण होता है। वह उत्तरदायित्व के गुरुतर भार को सहर्ष स्वीकार करने के लिए सदैव उद्यत रहता है।
(8) इसमें मानवीय सम्बन्धों पर जोर दिया जाता है जिस कारण सम्बन्धों में मधु परिव्याप्त रहती है तथा कर्मचारियों को सन्तुष्टि प्राप्त होती है।
भारत के सन्दर्भ में ‘वाई‘ सिद्धान्त का प्रयोग
(Use of ‘Y’ Theory with Reference to India)
भारत में नियोक्ता व कर्मचारी के बीच आज भी मालिक और नौकर का भाव हआ है, इसीलिए श्रमिक यह सोचता है कि उसे अपने मालिक की आज्ञा, फिर चाहे वह कैसे
भी हो, का पालन करना है और नियोक्ता यह सोचता है कि श्रमिक से अधिक-से-अधिक कार्य लेना और कम-से-कम पारिश्रमिक तथा न्यूनतम सुविधाएँ देना उसका अधिकार है। इसी कारण | भारत में Y सिद्धान्त के आधार पर अधिकतर प्रबन्ध में कार्य नहीं किया जाता है। वर्तमान समय में वैधानिक प्रावधानों और श्रम संघों में जागरूकता आने के पश्चात् भी इस सिद्धान्त के उपयोग में कोई विशेष वृद्धि नहीं हुई है। अब श्रमिक अपने अधिकारों की माँग धीरे-धीरे करने लगा है। | इसी प्रकार कुछ नियोक्ता भी लाभ विभाजन एवं प्रबन्ध में सहभागिता आदि के विचार को व्यवहार में ला रहे हैं। ये विचार ‘Y’ सिद्धान्त के अन्तर्गत ही आते हैं। ‘Y’ सिद्धान्त की मान्यताओं को भारत में अभी पूर्ण रूप से स्वीकार नहीं किया गया है, लेकिन इसके सम्बन्ध में श्रम संघों तथा सरकार द्वारा प्रयास किए जा रहे हैं।
भारत में Y सिद्धान्त की मान्यताओं का अभी पूर्ण विकास तो नहीं हुआ है, परन्तु यह आशा अवश्य की जा सकती है कि भविष्य में धीरे-धीरे ही यहाँ ‘Y’ सिद्धान्त की मान्यताओं का महत्त्व मिलेगा।
Y सिद्धान्त आज के युग में अधिक महत्त्वपूर्ण तथा कारगर है। इस सिद्धान्त के अन्तर्गत श्रमिकों का स्तर ऊँचा रहता है तथा उन्हें उपक्रम में मान्यता मिलती है, इसीलिए आजकल इस सिद्धान्त का उपयोग किया जाता है।
प्रश्न 3 – नेतृत्व की गुणमूलक विचारधारा का वर्णन कीजिए।
Describe the trait theory of leadership.
अथवा “नेता जन्म लेते हैं बनाए नहीं जाते।” इस कथन का विवेचन कीजिए।
“Leaders are born not made.” Explain this statement.
उत्तर – महान व्यक्ति विचारधारा
(The Great Men Approach)
नेतृत्व की विचारधारा इस मान्यता पर आधारित है कि “नेता जन्म लेते हैं, बनाए नहीं जाते।” यह विचारधारा मानती है कि ‘नेता-नेता है’ अर्थात् वह जन्म से नेता बनने की योग्यता रखता है। कुछ व्यक्ति जन्मजात ही ‘महान संगठनकर्ता’ होते हैं। उनमें अथाह अभीप्सा, उच्च आकांक्षा, योग्यता एवं शक्ति होती है। ऐसे व्यक्ति परिश्रम करने, अवसरों का विदोहन करने तथा प्रबन्ध करने की अपूर्व क्षमता रखते हैं। ये ‘कार्यशील व्यक्ति’ (Men of Action) होते हैं। हेनरी फोर्ड, जॉन रॉकफेलर, वाल्टर किस्लर, गांधी, नेपोलियन आदि इसी श्रेणी के व्यक्ति हैं। इसमें ‘स्वाभाविक’ नेतृत्व क्षमता होती है। यह विचारधारा मानती है कि “नेतृत्व विशिष्ट व्यक्तित्व से ही उत्पन्न होता है।”
इसे चामत्कारिक अथवा ‘करिश्माई व्यक्तित्व’ नेतृत्व भी कहते हैं। कुछ लोगों के व्यक्तित्व में चुम्बकीय खिंचाव एवं अपील होती है जिसके द्वारा वे दूसरों पर जाद कर देते हैं। संगठन में ऐसे अनेक प्रबन्धक होते हैं जो अपने ‘जादुई व्यक्तित्व’ से कर्मचारियों से काम ले लेते हैं तथा उनमें उत्साह जगाए रखते हैं।
नेतृत्व की गुणमूलक विचारधारा
(Trait Theory of Leadership)
यह विचारधारा इस मान्यता पर आधारित है कि सफल नेतृत्व नेता के व्यक्तित्व लक्षा पर आश्रित होता है तथा इन लक्षणों व गुणों का व्यवस्थित अध्ययन किया जाना सम्भव होता है। गुणमूलक विचारधारा न केवल अधिकारी नेता के व्यक्तिगत गुणों का विश्लेषण करती है, वान यह नेतृत्व की सफलता के साथ उन, गुणों का सम्बन्ध भी स्थापित करती है।
ओर्डवे टीड तथा चेस्टर आई० बरनार्ड इस विचारधारा के प्रमुख प्रवर्तक माने जाते हैं। इन्होंने अनेक नेताओं के गुणों का अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला कि सफल नेताओं में कुछ विशिष्ट वैयक्तिक गुण पाए जाते हैं तथा जिन व्यक्तियों में ये विशिष्ट गुण होते हैं, वे | तृत्व के उच्च शिखर को प्राप्त कर लेते हैं।
विभिन्न शोध परिणामों के अनुसार एक सफल नेता में भिन्न-भिन्न गुण पाए जाते हैं। अनेक शोधकर्ताओं ने एक सफल नेता में पाए जाने वाले गुणों की सूची तैयार की है। नेतृत्व गुणों के सम्बन्ध में स्टॉगडिल (Stogdill), यूगेन जेनिंग्स (Eugene Jennigns), घीसेली | (Ghiselli), कीथ डेविस (Keith Davis) आदि विद्वानों के शोध महत्त्वपूर्ण रहे हैं। इन
अध्ययनों से प्रभावी नेतृत्व एवं विभिन्न गुणों के बीच महत्त्वपूर्ण सह-सम्बन्ध होने का संकेत मिला है। सामान्यतः अधिकांश विद्वानों ने एक सफल नेता के लिए बुद्धिमता, विद्वत्ता, उत्तरदायित्व, सामाजिक भागीदारी, परिपक्वता, शारीरिक शक्ति, प्रशासकीय योग्यता, उत्साह, निर्णयन क्षमता, तर्क शक्ति, सम्प्रेषण योग्यता, आत्मविश्वास आदि गुणों को आवश्यक माना है।
आलोचनात्मक विश्लेषण (Critical Analysis)-गुणमूलक नेतृत्व विचारधारा अत्यन्त सरल एवं समझ में आ जाने वाली विचारधारा है। यह नेता के सभी गणों को महत्व देती है। इन गुणों के आधार पर एक अच्छे नेता का चयन करना अति सरल हो जाता है। । विचारधारा नेताओं के प्रशिक्षण के लिए भी उपयुक्त मार्गदर्शन प्रदान करती है। लेकिन विचारधारा में निम्नलिखित कमियाँ भी हैं
(1) यह विचारधारा इस बात को स्पष्ट नहीं करती है कि एक श्रेष्ठ नेता को कितन से युक्त होना चाहिए।
(2) नेताओं के गुणों का सही मापन करना भी कठिन होता है।
(3) सभी नेता सभी गुणों एवं चातुर्यों के धनी नहीं होते हैं तथा अनेक नेता के गुणा विहीन व्यक्ति उनमें से अधिकांश गुणों को संजोए होते हैं।
(4) यह विचारधारा नेताओं में इन गुणों के विकास की प्रक्रिया को भी स्पष्ट नहीं करत
(5) यह विचारधारा नेता के गुणों को ही उसकी सफलता का आधार मानती है, ज व्यवहार में नेता की सफलता सम्पूर्ण वातावरण से प्रभावित होती है।
(6) गुणों के मापन हेतु जो व्यक्तित्व परीक्षण किए गये हैं, उनकी प्रामाणिकता एवं विश्वसनीयता भी संदेहपूर्ण है।
(7) विभिन्न अध्ययनों से यह भी पता चला है कि परिचित गुणों में कोई साम्य नहीं होता तथा वास्तविक नेतृत्व के उदाहरणों तथा इन गुणों में कोई महत्त्वपूर्ण सहसम्बन्ध भी नहीं | होता है।
(8) यह विचारधारा प्रबन्धकीय स्तरों के अनुरूप गुणों का वर्णन नहीं करती है।
नेतृत्व की व्यवहारात्मक विचारधारा
(Behavioural Theory of Leadership)
इसके पूर्व की विचारधारा में यह नहीं बताया जा सकता था कि प्रभावी नेतृत्व का विकास कैसे किया जाए इसके बाद 1950 के दशक में ही लोगों का ध्यान नेतृत्व व्यवहार की ओर गया व यह माना जाने लगा कि नेतृत्व जन्मजात गुणों का परिणाम नहीं है अपितु नेताओं के व्यवहार का फल तथा प्रभाव है। इस तरह इन विचारधाराओं के अनुसार, “प्रभावी नेतृत्व प्रभावशाली व्यवहार का ही परिणाम है।”
मान्यताएँ (Assumptions)-व्यवहारात्मक विचारधारा की निम्नलिखित मान्यताएँ हैं
(1) इसमें यह माना जाता है कि नेतृत्व के व्यवहार एवं कार्यों का परिणाम ही नेतृत्व होता है।
(2) नेता पैदा नहीं होते बल्कि विकसित किए जा सकते हैं।
(3) व्यवहारात्मक दृष्टिकोण ये मान कर चलता है कि नेतृत्व चार तत्त्वों से प्रभावित होता है-(अ) नेता, (ब) अनुयायी, (स) लक्ष्य, (द) वातावरण।
(4) नेता की सफलता के लिए विशेष प्रकार का व्यवहार होना जरूरी है।
(5) यह विचारधारा ‘व्यवहार सीखा हुआ होता है’ धारण पर निर्भर है।
(6) नेतृत्व बहुआयामी होता है तथा प्रभावी नेतृत्व व्यवहार स्थिति के अनसार बदलता है।
(7) यह विचारधारा ‘नेता क्या करते हैं’ पर जोर देती है न कि ‘नेता क्या है’ पर। अत: इस विचारधारा में मूलरूप से व्यावहारिक दृष्टिकोण पर बल दिया जाता है।
प्रश्न 4 – नेतृत्व को परिभाषित कीजिए तथा नेतृत्व की विभिन्न शैलियों का वर्णन कीजिए।
Define leadership and describe the various styles of leadership.
उत्तर – नेतृत्व का आशय
(Meaning of Leadership)
नेतृत्व शक्ति के द्वारा एक व्यक्ति अन्य व्यक्तियों का विशिष्ट विषय अथवा क्षेत्र में मार्गदर्शन करता है और उसके अनुसार अन्य लोग कार्य हेतु प्रेरित होते हैं। वास्तव में एक
अच्छा नेतृत्व अपने अनुयायियों को कार्य निष्पादन में आवश्यक प्रात्साहन दता है एवं उन कुशलता व सुरक्षा प्रदान करता है।
नेतृत्व की परिभाषाएँ
(Definitions of Leadership)
(1) चेस्टर बरनार्ड के शब्दों में, “नेतृत्व व्यक्तियों के व्यवहार का वह गुण है जिसके द्वारा वे लोगों या उनकी क्रियाओं को संगठित प्रयत्न का रूप देने के लिए पथ-प्रदर्श
करते हैं।”
(2) कण्ट्ज तथा ओ’डोनेल के अनुसार, “किसी लक्ष्य की प्राप्ति हेतु सन्देशवाहन के माध्यम द्वारा व्यक्तियों को प्रभावित कर सकने की योग्यता नेतृत्व कहलाती है।”
(3) अल्फोर्ड एवं बीटी के शब्दों में, “नेतृत्व वह गुण है जिसके द्वारा स्वेच्छापूर्वक तथा बिना किसी दबाव के एक समूह से कोई वांछित कार्य करवाया जाता है।”
अत: निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है-“औद्योगिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए सम्प्रेषण के माध्यम से लोगों को प्रभावित कर सकने का गुण ही नेतृत्व कहलाता है।”
नेतृत्व की शैलियाँ
(Styles of Leadership)
नेतृत्व की विभिन्न शैलियाँ दृष्टिगत होती हैं। उद्योग क्षेत्र में भी कई प्रकार की शैलियाँ दिखाई पड़ती हैं। प्रमुख शैलियाँ निम्नवत् हैं
1. पर्यवेक्षणीय नेतृत्व शैली
(Supervisory Style of Leadership)
नेतृत्व की पर्यवेक्षणीय शैली भी निम्नलिखित दो प्रकार की होती है
1.उत्पादन-प्रधान नेतृत्व शैली (Production-oriented Style of Leader ship)-इस शैली में प्रबन्धक उत्पादन वृद्धि की ओर अपना अधिक ध्यान लगाता है। प्रबन्धक यह मानकर चलता है कि उत्पादन की नवीनतम तकनीकों एवं विधियों को अपनाकर तथा कर्मचारियों को निरन्तर काम पर लगाकर संगठनात्मक लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सकता है।
2.कर्मचारी-प्रधान नेतृत्व शैली (Employees-oriented Style Leadership)-इस शैली में प्रबन्धक अपने अधीनस्थ कर्मियों अधानस्थ कर्मियों को अधिक महत्त्व प्रदा करता है। वह उनकी इच्छाओं, आकांक्षाओं, रुचियों, आवश्यकताओं, सविधाओं एवं भावना को दृष्टिगत रखते हुए कार्य की दशाओं और वातावरण में निरन्तर सधार के लिए प्रयत्नशा रहता है। इन क्रियाओं के द्वारा कर्मियों में नई ऊर्जा का संचार होता है और वे अधिक उत्साह कार्य में संलग्न हो जाते हैं।
II. नेतृत्व की शक्ति शैलियाँ
(Power Styles of Leadership)
शक्ति के आधार पर नेतृत्व की निम्नलिखित शैलियाँ प्रचलित हैं
1. परामर्शात्मक नेतृत्व शैली (Consultative Style of Leadership)-नेतृत्व की इस शैली में सन्देशवाहन ऊर्ध्वगामी तथा अधोगामी दोनों ही प्रकार का होता है। संगठनात्मक लक्ष्यों की प्राप्ति का उत्तरदायित्व सामान्य होता है, किन्तु उपक्रम की व्यापक नीतियों का | निर्धारण उच्च स्तर पर किया जाता है। इस शैली के अन्तर्गत नेतृत्व अपने कर्मचारियों पर काफी विश्वास करता है। एक प्रकार से नेतृत्व के द्वारा अधीनस्थों को ऊर्जा प्राप्त होती है तथा नई प्रेरणाएँ प्राप्त होती रहती हैं।
2. निरंकुश नेतृत्व शैली (Authoritarian Style of Leadership)-इस शैली में प्रबन्धक या संचालक समस्त शक्ति को अपने में ही केन्द्रित रखते हैं तथा प्रतिनिधायन में विश्वास नहीं करते हैं। वे स्वयं ही निर्णय करते हैं, नीतियों का निर्धारण करते हैं तथा स्वयं ही कार्य-सम्बन्धी आदेशों और निर्देशों का प्रसारण अधीनस्थों में करते हैं।
3.निर्बाध या स्वतन्त्रतावादी नेतृत्व शैली (Laissez-faire or Free Rein Style of Leadership)-नेतृत्व की इस शैली में प्रबन्धक प्रशासनिक नीतियों के निर्धारण में अपने अधीनस्थों को स्वतन्त्रतापूर्वक सुझाव देने का अवसर प्रदान करते हैं तथा उनके सुझावों को समन्वित ढंग से लागू करते हैं। इसमें अनुयायी स्वयं अपने-अपने कार्य की सीमाएँ निश्चित करके उनकी प्राप्ति हेतु नीतियों के निर्धारण में सहयोग देते हैं।
4.जनतन्त्रीय नेतृत्व शैली (Democratic Style of Leadership)-कभी-कभी प्रबन्धक अपने अनुयायियों से प्राप्त सुझावों और विचारों में आवश्यक और उपयोगी परिवर्तन एवं संशोधन करके ही नीतियों एवं कार्य-पद्धतियों का निर्धारण कर लेता है। इस शैली में प्रबन्धक या संचालक की भूमिका समन्वयकारी होती है। नेतृत्व की यह शैली अधिकारों के भारार्पण तथा विकेन्द्रीकरण पर आधारित है।
5.सहभागी नेतृत्व शैली (Participative Style of Leadership)-इस शैली में संगठन के कर्मियों की भागीदारी भी सुनिश्चित की जाती है। इसमें सुझाव आमन्त्रित किए जाते हैं तथा निर्णय के समय कर्मियों की भागीदारी भी रहती है। इस शैली में विभिन्न वित्तीय एवं अवित्तीय अभिप्रेरणाओं तथा पुरस्कारों की घोषणा करके अधीनस्थों को अभिप्रेरित करने का प्रयास किया जाता है। नेतृत्व की इस शैली में भारार्पण ऊर्ध्वगामी, अधोगामी तथा समतल तीनों प्रकार का होता है।
6. हितकारी निरंकुश नेतृत्व शैली (Benevolent Authoritarian Style of Leadership)-इस शैली के अनुसार प्रबन्धक का व्यवहार कुछ विनम्र होता है और वह अपने अनुयायियों पर विश्वास करता है। कर्मचारियों से उनके सुझाव प्राप्त किए जाते हैं, लेकिन नेतृत्व द्वारा ही सर्वोच्च तथा अन्तिम निर्णय लिया जाता है।
7. शोषक निरंकश नेतृत्व शैली (Exploitative Authoritarian Style as Leadership)-प्रबन्धकीय नेतत्व की इस प्रकार की शैली में अधीनस्थ कर्मचारी अपने उच्चाधिकारी से काम के सम्बन्ध में खुलकर वार्ता कर सकते हैं और न ही उनसे किन्ही सुझावों की अपेक्षा की जा सकती है।
III. अभिप्रेरणात्मक नेतृत्व शैलियाँ
(Motivational Styles of Leadership)
नेतृत्व अभिप्रेरणात्मक शैलियाँ दो प्रकार की होती हैं, जिनका वर्णन अग्र प्रकार है
1. धनात्मक अभिप्रेरण शैली (Positive Motivation Style)-नेतृत्व की इस शैली में प्रेरणा, पुरस्कार एवं सहभागी निर्णयन के माध्यम से संगठनात्मक लक्ष्यों की प्राप्ति के प्रयास किए जाते हैं। अन्य शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि जब नेता अपने सहायकों को अधिक कार्य करने पर वित्तीय और अवित्तीय प्रेरणाएँ प्रदान करने की घोषणा करता है तो ऐसे धनात्मक या सकारात्मक अवित्तीय लाभ प्राप्त होने के कारण वे अधिकाधिक परिश्रम और लगन से कार्य करने लगते हैं।
2.ऋणात्मक अभिप्रेरण शैली (Negative Motivation Style)-नेतृत्व की इस शैली को अधिक कारगर नहीं माना गया है। इस शैली में नेतृत्व द्वारा कर्मियों को अल्पावधि के लिए ही प्रेरित किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त, इस शैली द्वारा श्रमिक सन्तुष्टि तथा औद्योगिक शान्ति के वातावरण की स्थापना भी असम्भव है। इस दृष्टि से ऋणात्मक अभिप्रेरण की इस शैली को यथासम्भव व्यवहार में नहीं लाया जाना चाहिए।
इन विभिन्न शैलियों के साथ ही अन्य शैलियाँ भी हैं, जैसे-व्यक्तिगत नेतृत्व शैली, अव्यक्तिगत नेतृत्व शैली, क्रियात्मक तथा पैतृक नेतृत्व शैली आदि। लेकिन व्यावहारिक रूप से ये सभी शैलियाँ एक-दूसरे की पूरक हैं, इनमें किसी प्रकार का स्थायी भेद नहीं है।
प्रश्न 5 – नेतृत्व का कार्य एवं महत्त्व लिखिए।
Write the functions and importance of leadership,
उत्तर – नेतृत्व का कार्य एवं महत्त्व
(Functions and Importance of Leadership)
किसी भी उपक्रम का सर्वोच्च प्रशासनिक अधिकारी उपक्रम का नेतत्व करता है। वह जनरल मैनेजर या मैनेजिंग डायरेक्टर अथवा कम्पनी का अध्यक्ष हो सकता है। विभिन्न कर्मचारी-समूहों अथवा विभागों या क्रियाओं के लिए भी अलग-अलग उच्चाधिकारी होते हैं जा अपने कार्य-क्षेत्र के उत्तरदायित्व को सम्भालते हैं और उस परिधि के कर्मचारी-समूह के नता या नेतृत्वकर्ता का पद ग्रहण किए होते हैं। ये सब उप-नेताओं के सदश होते हैं और सवाल अधिकारी की सहायता करते हैं और उनसे आदेश लेकर अपने-अपने क्षेत्रों में कार्य संचालन करते हैं। इस प्रकार उपक्रम का सर्वोच्च नेता अपने सहायक नेताओं या उप-नेताओं का सहायता से प्रबन्ध सूत्र सम्भालता है।
किसी व्यावसायिक उपक्रम में विभिन्न स्तरों पर नेतागण या नेतृत्वकर्ता निम्नलिखित कार्य करते हैं
1. उपक्रम का प्रशासन (Administration of the Enterprise)-उपक्रम के दैनिक कार्यों का संचालन करना इन्हीं अधिकारियों का दायित्व होता है जो विभिन्न स्तरों पर क्रियाओं का नेतृत्व करते हैं। उच्चाधिकारियों से आदेश प्राप्त करके विभागीय स्तरों पर उन आदेशों का पालन करना और निम्नस्तरीय कर्मचारियों को आदेश देकर प्रशासन तन्त्र को बनाए रखना, नेतृत्वकर्ता के ही कार्य क्षेत्र में आता है।
2. समस्त क्रियाओं का एकीकरण (Uniform Activities)-उपक्रम की क्रियाओं के परस्पर संयुक्तिकरण के पश्चात् नेतृत्वकर्ता समस्त क्रियाओं में ऐसा सामंजस्य पैदा करते हैं कि सभी एकीकृत होकर व्यापक ढाँचे का एक महत्त्वपूर्ण अवयव बन जाएँ। यही समन्वय और संगठन की क्रिया है।
3. नवीन युक्तियों, प्रयोगों तथा सुधारों का प्रारम्भ (Begining of New Techniques, Experiments and Improvements)-नेतृत्वकर्ता ही नए-नए विचारों, विधियों तथा युक्तियों को उपक्रम की कार्य-प्रणाली में समाविष्ट करने की पहल करते हैं। वे स्वयं अनुभव और अध्ययन द्वारा अथवा अन्य सहयोगियों के सुझावों के आधार पर उपक्रम के विकास और कुशल संचालन हेतु अभिनव युक्तियों का चयन करके उन्हें लागू करते हैं।
4. व्यक्तियों और कार्यों में पारस्परिक समायोजना (Adjustment with Work and Persons)-सर्वप्रथम नेतृत्वकर्ता उपक्रम में संचालित विभिन्न कार्यों का गहन अध्ययन करते हैं और फिर अपने अधीन कार्यरत विभिन्न कर्मचारियों की क्षमताओं को ध्यान में रखते हुए वे इन कर्मचारियों में कार्य का इस प्रकार वितरण करते हैं कि प्रत्येक कार्य श्रेष्ठ योग्यता वाले व्यक्ति को मिले।
5. नीतियों, उनमें परिवर्तनों और सुधारों को समझाना (To Understand the Policies, Their Amendment and Improvement)-नेतृत्वकर्ता ही उपक्रम की नीतियों का समन्वय सहयोगियों को समझाता है, अर्थात् वही उसकी व्याख्या करता है। इससे इन नीतियों के पालन में प्रत्येक का योगदान स्पष्ट होता है। वैसे भी नीतियों और कार्यविधियों में हुए परिवर्तनों तथा संशोधनों की आवश्यकता और औचित्य भी कर्मचारियों को अपने नेतृत्व द्वारा ही समझायी जाती है।
6. अनुशासन का पालन करना (To Maintain Discipline)-नेतृत्व अपनी शक्ति और प्रभाव का प्रयोग उपक्रम और उसके विभिन्न विभागों में अनुशासन बनाए रखने के लिए करता है। अनुशासनहीनता अव्यवस्था और अनियमितता को जन्म देती है। इनका परिणाम कार्यक्षमता की हानि और अपव्यय के रूप में परिलक्षित होता है। अत: नेता नियमों का उल्लंघन करने वालों को दण्डित करके अनुशासन बनाए रखता है।
2. प्रेरक शक्ति (Motivating Power)–नेतृत्व संचालक-ऊर्जा’ है जो समस्त समूह व अनुयायियों को लक्ष्य की ओर गतिशील कर देती है। यह विद्युत धारा के समान है जो निर्जीव संसाधनों में प्राण फूंकती है। यह व्यक्तियों के प्रयासों को द्विगुणित कर देती है।
3. प्रबन्धकीय प्रभावशीलता में वृद्धि (Increases_Managerial Effectiveness)-प्रभावपूर्ण प्रबन्ध के लिए नेतृत्व एक आधारशिला है। रॉबर्ट अलबानीज (Robert Albanese) ने लिखा है कि “संगठनों के प्रभावशाली प्रबन्ध के लिए नेतृत्व एक महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है।” नेतृत्व के अभाव में प्रबन्ध की शक्ति शिथिल हो जाती है तथा लक्ष्यों की प्राप्ति में बाधा पड़ती है।
4. समन्वय में सहायक (Helps in Coordination)–नेतृत्व एक समन्वयकारी शक्ति भी है। इसके द्वारा वैयक्तिक एवं संगठनात्मक हितों व आवश्यकताओं में विरोध समाप्त करके सामंजस्य उत्पन्न किया जा सकता है।
5. समूह निष्ठा का विकास (Creates Group Loyalty)-कुशल नेतृत्व के द्वारा वैयक्तिक इच्छाओं व उद्देश्यों की तुलना में सामूहिक उद्देश्यों व समूह निष्ठा को प्राथमिकता देने के लिए कर्मचारियों को प्रेरित किया जा सकता है।
6. सम्भावनाओं को साकार करना (Transforming dreams into reality)कुशल नेतृत्व अपने अनुयायियों की अपेक्षाओं व सपनों को मूर्त रूप देता है। वह उनके सम्भावित लक्ष्यों को कार्य रूप में परिणत करने का प्रयास करता है। कीथ डेविस लिखते हैं कि “नेतृत्व ही सम्भावनाओं को यथार्थ बनाता है।”
7. समय का सदुपयोग (Using Time Effectively)-एक अच्छा नेता अपने अनुयायियों की कार्य-योजनाओं को इस प्रकार से निर्धारित करता है कि जिससे सभी के समय का श्रेष्ठ उपयोग हो सके। _8. शक्तियों का सदुपयोग (Using Power Properly)-एक कुशल नेता अपने अधिकारों का भय उत्पन्न नहीं करता। वह अपने अधिकारों एवं शक्तियों का सदुपयोग करके लोगों को स्वेच्छा से कार्य करने के लिए प्रेरित करता है।
9. सहयोग की प्राप्ति (Seeks Cooperation)-नेतृत्व सहयोग प्राप्त करने का आधार है। सहभागी व्यवस्था, मानवोचित व्यवहार, पारस्परिक विचार-विनिमय के द्वारा नेता अपने अधीनस्थों से सहयोग प्राप्त करने में सफल रहता है।
10. व्यक्तित्व का विकास (Development of Personality)–नेतृत्व व्यक्तित्व के विकास में भी सहायक होता है। पीटर एफ० ड्रकर के शब्दों में, “नेतृत्व व्यक्ति की दष्टि को व्यापक एवं ऊर्ध्वगामी बनाता है, कार्य निष्पादन को उच्चता प्रदान करता है तथा अपरिमित क्षमता वाले व्यक्तित्व का निर्माण करता है।
प्रश्न 6 – सम्प्रेषण की व्याख्या कीजिए तथा इसके प्रकार बताइए।
Explain communication and discuss types of communication.
अथवा “एक व्यवसाय के लिए सम्प्रेषण का उतना ही महत्त्व है जितना कि एक व्यक्ति के लिए रक्त संचार का।” विवेचना कीजिए।
“Communication is as necessary to business as the blood stream to a person.” Discuss.
उत्तर – सम्प्रेषण का अर्थ
(Meaning of Communication)
सम्प्रेषण का शाब्दिक अर्थ है-‘सूचनाओं को किसी माध्यम से प्रेषित करना। सम्प्रेषण में दो व्यक्तियों या पक्षों का होना अनिवार्य होता है-एक सन्देश भेजने वाला और दूसरा इसे प्राप्त करने वाला। एक अकेला व्यक्ति सम्प्रेषण नहीं कर सकता। प्रेषक के साथ प्राप्तकर्ता होने पर ही सम्प्रेषण पूर्ण होता है।
इस प्रकार सम्प्रेषण से अभिप्राय किसी संस्था या संगठन में दो या दो से अधिक व्यक्तियों के मध्य सूचनाओं, विचार, तथ्यों, सम्मतियों एवं भावनाओं का इस दृष्टि से आदान-प्रदान है कि सन्देश प्रेषक की बात को सन्देश प्राप्तकर्ता उसी सन्दर्भ में समझे।
सम्प्रेषण की परिभाषा
(Definitions of Communication)
विभिन्न विद्वानों ने सम्प्रेषण की विभिन्न परिभाषाएँ दी हैं। इनमें से कुछ प्रमुख विद्वानों द्वारा दी गई परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं
(1) सी०सी० ब्राउन, “सम्प्रेषण एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक सूचना का हस्तान्तरण है, चाहे उसके द्वारा विश्वास उत्पन्न हो या नहीं अथवा विनिमय हो या नहीं, किन्तु हस्तान्तरण की गई सूचना प्राप्तकर्ता को समझ में आनी चाहिए।”
(2) फ्रेड जी० मायर, “सम्प्रेषण शब्दों, पत्रों अथवा सूचना, विचारों, सम्मतियों का आदान-प्रदान करने का समागम है।”
(3) बेलोंज एवं गिलसन, “सम्प्रेषण शब्दों, पत्रों चिन्हों अथवा समाचार का आदान-प्रदान करने का समागम है, और इस प्रकार से यह संगठन के एक सदस्य द्वारा दूसरे व्यक्ति में अर्थ एवं समझदारी में हिस्सा बँटाना है।”
न्यमैन एवं समर, “सम्प्रेषण दो या दो से अधिक व्यक्तियों के मध्य तथ्यों, विचारा, सम्मतियों अथवा भावनाओं का विनिमय है।”
(5) शोभना खण्डवाला, “सामान्यतः सम्प्रेषण से तात्पर्य कहे गए अथवा लिखित शब्दों से होता है। किन्तु वास्तव में यह इससे कहीं अधिक है। सम्प्रेषण अनेक बातों का योग है। जैसे-प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में, जाने या अनजाने शब्दों का प्रेषण, प्रवृत्तियाँ, भावनाएँ, क्रियाए, इशारे अथवा स्वर। कभी-कभी शान्ति भी प्रभावपूर्ण सन्देशवाहन का भावपूण सन्दशवाहन का कार्य करती है।”
(6) लुईस ए० एलन, “सम्प्रेषण उन समस्त बातों का योग है जिन्हें एक व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के मस्तिष्क म समझ-बूझ उत्पन्न करने के लिए करता है। यह अर्थ का है। इसमें कहने, सुनने तथा समझाने की एक विधिवत निरन्तर प्रतिक्रिया चलता रहती है।”
(7) चार्ल्स ई० रेडफील्ड, “सम्प्रेषण से तात्पर्य उस व्यापक क्षेत्र से है जिसके माध्यम से मानव तथ्यों एवं सम्पत्तियों का आदान-प्रदान करते हैं। टेलीफोन, तार, रेडियो अथवा इसी प्रकार के तकनीकी साधन सम्प्रेषण नहीं है।’
निष्कर्ष – निष्कर्ष रूप में सम्प्रेषण की एक उचित परिभाषा निम्नलिखित प्रकार दी जा सकती है-
“सम्प्रेषण दो या अधिक व्यक्तियों के मध्य सन्देशों, विचारों, भावनाओं, सम्मतियों, तथ्यों तथा तर्कों का पारस्परिक आदान-प्रदान है।”
सम्प्रेषण के प्रकार
(Types of Communication)
सम्प्रेषण के निम्नलिखित प्रकार हैं-
1. नीचे की ओर सम्प्रेषण (Downward Communication)-किसी संगठन में उच्च अधिकारियों द्वारा अपने अधीनस्थ अधिकारियों तथा कर्मचारियों को भेजा गया सन्देश ‘नीचे की ओर सम्प्रेषण’ कहलाता है। यह मौखिक अथवा लिखित किसी भी प्रकार का हो सकता है।
2. ऊपर की ओर सम्प्रेषण (Upward Communication)-जब अधीनस्थ अधिकारी या कर्मचारी उच्च अधिकारियों को कोई सन्देश, रिपोर्ट, ज्ञापन, प्रार्थना-पत्र, शिकायत या सुझाव के रूप में भेजते हैं तो उसे ‘ऊपर की ओर सम्प्रेषण’ कहते हैं।
3. समतल सम्प्रेषण (Horizontal Communication)-जब किसी संगठन में एक ही स्तर पर कार्यरत अधिकारियों के मध्य सूचनाओं या विचारों का आदान-प्रदान होता है, तो उसे ‘समतल सम्प्रेषण’ कहते हैं।
4. औपचारिक सम्प्रेषण (Formal Communication)-सामान्यत: एक ही संस्था में काम करने वाले कर्मचारियों व अधिकारियों के मध्य औपचारिक सम्बन्ध होते हैं। जब कोई सम्प्रेषक (Sender) ऐसे सम्बन्धों के आधार पर सम्प्रेषिती को कोई सन्देश भेजता है तो वह औपचारिक सम्प्रेषण’ कहलाता है।
5. अनौपचारिक सम्प्रेषण (Informal Communication)-एक ही संस्था, संगठन, कार्यालय या कारखाने में काम करने वाले लोगों के मध्य प्राय: मैत्री, घनिष्ठता या समूह भावना के अनौपचारिक सम्बन्ध विकसित हो जाते हैं जिन्हें उच्च अधिकारी रोक नहीं सकते। जब इन अनौपचारिक सम्बन्धों के सहारे से कोई सन्देश एक व्यक्ति से दूसरे, दूसरे से तीसरे और इसी प्रकार बहुत से लोगों के मध्य फैल जाता है तो इस प्रकार के सम्प्रेषण को ‘अनौपचारिक सम्प्रेषण’ कहते हैं। कुछ लोग उसे ‘अंगूरीलता’ (grapewine) की संज्ञा भी देते हैं।
6. मौखिक सम्प्रेषण (Oral Communication)-जब दो व्यक्तियों या पक्षों के मध्य सूचनाओं सन्देशों या तथ्यों का आदान-प्रदान लिखित रूप में न द्वारा होता है, तो उसे ‘मौखिक सम्प्रेषण‘ कहते हैं।
मौखिक सम्प्रेषण के प्रमुख साधन निम्नलिखित हैं
(i) प्रत्यक्ष वार्तालाप (Direct Conversation)
(ii) aldala (Discussions)
(iii) भाषण (Speech)
(iv) रेडियो (Radio)
(v) लाउडस्पीकर (Loudspeaker)
(vi) टेलीविजन (T.V.)
(vii) टेलीफोन (Telephone)
(viii) सम्मेलन एवं सभाएँ (Conferences and Meetings)।
7. लिखित सम्प्रेषण (Written Communication)-जब किसी सन्देश के सम्प्रेषण के लिए मौखिक शब्दों की अपेक्षा लिखित शब्दों का उपयोग किया जाता है तो उसे ‘लिखित सम्प्रेषण‘ कहते हैं।
लिखित सम्प्रेषण के प्रमुख साधन व उदाहरण निम्नलिखित हैं
(i) कार्यालय बुलेटिन (Office Bulletin)
(ii) कार्यालय डायरी (Office Diary)
(iii) कार्यालय हैण्डबुक (Office Handbook)
(iv) संस्थागत पत्रिकाएँ (House Magazines)
(v) कार्यविधि पुस्तिकाएँ (Procedure Manual)
(vi) fifa yferich (Policy Manual)
(vii) संगठन निर्देशिका (Organization Manual)
(viii) सभाओं के सूक्ष्म (Minutes of Meetings)।
व्यवसाय तथा प्रबन्ध में सम्प्रेषण (सन्देशवाहन) का महत्त्व
(Importance of Communication in Business and Management)
आधुनिक युग को ‘सूचना-युग’ (The Information Age) की संज्ञा दी गयी है। यू तो सूचनाओं की आवश्यकता समाज में हर स्तर पर होती है किन इसका विशेष महत्त्व है। क्रिस आगिरिस (Chris Argyris) के शब्दों में, “मेरी एक आधारभूत मान्यता हैं कि किसी संगठन का सबसे महत्त्वपर्ण साधन उसकी वैध सूचनाए होता हैं।”
व्यावसायिक संगठन में सूचनाओं के शीघ्र एवं कुशल आदान-प्रदान के लिए सम्प्रेषण की कुशल व्यवस्था की आवश्यकता होती हैं कीप डेविस के अनुसार, “संदेशवाहन के बिना संगठनों का अस्तित्व बने रहना असम्भव है। यदि संदेशवाहन नहीं हैं तो कर्मचारियों को यह पता नहीं चलेगा कि उनके सहयोगी क्या कर रहे हैं, प्रबन्ध को सूचनाएँ नहीं मिल पाएँगी और |वह निर्देश भी नहीं दे पाएगा।”
प्रबन्ध में सन्देशवाहन के महत्त्व एवं उपयोगिता का अनुमान निम्नलिखित बातों से लगाया जा सकता है
1. शीघ्र निर्णय एवं उसका कार्यान्वयन (Quick Decision and its Implementation)-सन्देशवाहन की कुशल व्यवस्था होने पर विचार-विमर्श शीघ्रगामी और सुगम हो जाता है। इससे समस्याओं के तुरन्त समाधान और शीघ्र निर्णय लेने में मदद मिलती है।
2. प्रभावशाली समन्वय एवं नियन्त्रण (Effective Co-ordination and Control)-एक अकुशल सम्प्रेषक एक बुरा प्रबन्धक होता हैं समन्वय और नियन्त्रण के लिए सुगम सन्देशवाहन की आवश्यकता होती है। आधुनिक व्यवसाय में श्रम विभाजन, विशिष्टीकरण एवं विभागीकरण का बहुत प्रयोग होने लगा है। इससे समन्वय और नियन्त्रण की आवश्यकता भी बढ़ गयी है। सन्देशवाहन समन्वय और नियन्त्रण को प्रभावशाली बनाने में सहायक है।
3. न्यूनतम लागत पर अधिकतम उत्पादन (Maximum Production at Minimum Cost)-प्रतिस्पर्धा के कारण व्यवसाय में वही फर्मे सफल होती हैं जो न्यूनतम लागत पर अधिक से अधिक उत्पादन करें। यह तभी सम्भव है जबकि उत्पादन निरन्तर जारी रहे
और नियोक्ता व कर्मचारी के मध्य मधुर सम्बन्ध बने रहें। एक सुव्यवस्थित सन्देशवाहन की व्यवस्था प्रबन्धकों एवं अधीनस्थ कर्मचारियों व श्रमिक के मध्य संवाद की सतत सम्भावना बनाए रखती है।
4. प्रबन्ध में जनतान्त्रिक मूल्यों का उपयोग (Use of Democratic Values in Management)-आधुनिक युग में जनतान्त्रिक मूल्यों का उपयोग सिर्फ राजनीतिक व्यवस्था में नहीं होता, अपितु व्यावसायिक प्रबन्ध भी इससे अछूता नहीं है। प्रबन्ध में जनतान्त्रिक मूल्यों व सिद्धान्तों का समावेश कर्मचारियों एवं श्रमिकों के मनोबल को ऊँचा करता है। सन्देशवाहन प्रत्येक वर्ग को सूचना प्रक्रिया में भाग लेने का अवसर प्रदान कर जनतान्त्रिक मूल्यों को मजबूत करता है।
निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि सन्देशवाहन की प्रभावपूर्ण व्यवस्था व्यवसाय की कुशलता और उत्पादकता को मजबूत बनाती है। भारत जैसे विकासशील देश के औद्योगिक श्रमिकों के लिए तो यह और भी अधिक आवश्यक है क्योंकि उनके अपने सूचना स्रोत बहुत सीमित होते हैं।
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