B.Com 1st Year Business Regulatory Framework Long Notes In Hindi

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दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

(Long Answer Type Questions)

प्रश्न – प्रस्ताव को परिभाषित कीजिए तथा प्रस्ताव सम्बन्धी वैधानिक नियम की व्याख्या कीजिए।

Define Proposal and explain the legal provisions regarding proposal. 

अथवा प्रस्ताव को परिभाषित कीजिए – वैध प्रस्ताव सम्बन्धी नियमों की उदाहरण सहित विवेचना कीजिए। प्रस्ताव के निमन्त्रण से यह किस प्रकार अलग हैं ?

Define Proposal. Explain with illustrations the legal provision relating to a valid proposal. How does it differ from invitation to proposal ? 

उत्तर – प्रस्ताव

(Meaning and Definition of Proposal) 

किसी समझौते के लिए प्रस्ताव (Proposal) तथा उसकी स्वीकृति (Acceptance होनी आवश्यक है। धारा 2 (a) के अनुसार, जब कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति से किस कार्य को करने अथवा न करने के विषय में अपनी इच्छा को इस आशय से प्रकट करे कि दूस व्यक्ति उसके कार्य को करने अथवा न करने के लिए अपनी सहमति प्रदान करे तो इस इच्छ. को प्रस्ताव कहते हैं। प्रस्ताव रखने वाले को वचनदाता या प्रस्तावक कहा जाता है, जबकि जिसके समक्ष प्रस्ताव रखा जाता है उसे वचनगृहीता कहते हैं। उदाहरणार्थ-‘क’, ‘ख’। यह कहे कि वह 10 क्विटल गेहूँ रू. 175 प्रति क्विटल के हिसाब से बेचने के लिए तैयार है। कहेंगे कि ‘क’ ने ‘ख’ के समक्ष बेचने का प्रस्ताव रखा। इसी प्रकार ‘अ’, ‘ब’ से कहता है कि यदि ‘ब’ उसे रू. 500 दे दे तो वह रू.700 का दावा न करे। यहाँ पर ‘अ’, ‘ब’ से दावा करने रुकने का प्रस्ताव रखता है।

प्रस्ताव के मुख्य लक्षण (Main Characteristics of a Proposal)-प्रस्ताव निम्नलिखित लक्षण होने चाहिए1. दोनों पक्षों का होना (Existing of two Parties)-प्रस्ताव के लिए दो पक्ष हो चाहिए एक वचनदाता और दूसरा वचनगृहीता, कोई भी व्यक्ति अपने आप प्रस्ताव नहीं , सकता।

2. प्रस्ताव का सकारात्मक अथवा नकारात्मक रूप (Positive or Negative Proposal)-प्रस्तावक द्वारा किसी कार्य को करने या उससे विरत रहने की तत्परता अथवा इच्छा प्रकट की जाती है। इस प्रकार से प्रस्ताव किसी कार्य को करने (Positive) अथवा उसे न करने (Negative) से सम्बन्धित होता है।

उदाहरणार्थ-यदि ‘हवाई प्रकाशन रू.40,00,000 में अपना कारोबार ‘चित्रा प्रकाशन’ को बेचने के लिए तैयार हो तो यह किसी कार्य को करने के सम्बन्ध में सकारात्मक प्रस्ताव कहलाएगा। इसके विपरीत, यदि हवाई प्रकाशन’ रू. 50,000 देकर ‘चित्रा प्रकाशन’ से कहे कि वह दो वर्ष तक उसके विरुद्ध प्रतियोगी व्यापार न खोले तो इसे हम किसी कार्य को न करने के सम्बन्ध में नकारात्मक प्रस्ताव कहेंगे।

3. एक पक्ष द्वारा इच्छा प्रकट किया जाना (To make an offer by one party)–एक पक्ष द्वारा दूसरे के समक्ष किसी कार्य को करने अथवा न करने के सम्बन्ध में इच्छा प्रकट की जाती है।

4.सहमति प्राप्त करने का उद्देश्य (Aim to get Consent on the Proposal)एक पक्ष दूसरे पक्ष के समक्ष अपना प्रस्ताव इस दृष्टि से रखता है कि दूसरा पक्ष उस कार्य को करने अथवा न करने के सम्बन्ध में अपनी सहमति प्रदान कर सके। यदि कोई व्यक्ति दूसरे पक्ष से सहमति लेने के लिए बात न कहे तो उसे न तो प्रस्ताव कहा जा सकता है और न उसकी सहमति ही दी जा सकती है।

उदाहरणार्थ–‘अ’ अपनी मित्र-मण्डली में बैठकर यह कहे कि वह अपनी पुत्री का विवाह किसी सुयोग्य वर से करना चाहता है, तब यह बात न तो किसी के समक्ष प्रस्ताव है और न ही किसी व्यक्ति द्वारा इस पर सहमति ही दी जा सकती है।

हैरिस बनाम् निकरसन के मामले में प्रतिवादी ने यह विज्ञापन दिया कि वह अपना कुछ सामान लन्दन से दूर निश्चित स्थान पर नीलामी द्वारा बेचेगा।

विज्ञापन के अनुसार वादी लन्दन से उस नियुक्त स्थान पर पहुँचा, परन्तु उसने पाया कि वहाँ सामान नीलाम नहीं किया गया। इस पर वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध अनुबन्ध खण्डन के लिए वाद प्रस्तुत किया। यह निर्णय किया गया कि प्रतिवादी ने विज्ञापन द्वारा प्रस्ताव करने के लिए अपने केवल अभिप्राय की घोषणा की, वास्तव में कोई प्रस्ताव नहीं किया।

इस प्रकार कोई अमुक कथन वास्तविक प्रस्ताव है या प्रस्ताव करने का केवल अभिप्राय, यह एक तथ्य सम्बन्धी प्रश्न है जिस पर न्यायालय मामले की सभी परिस्थितियों को ध्यान में रखकर निर्णय कर सकता है।

इस प्रकार बातचीत में किसी अभिप्राय के कथन मात्र से ही बाधित वचन नहीं हो जाता, यद्यपि दूसरे पक्षकार ने उस कथन मात्र के आधार पर ही कार्य किया हो। एक मामले में एक ससुर ने अपने होने वाले दामाद को लिखा, “मेरी पुत्री……… का उस सम्पत्ति में एक भाग होगा, जो कि उसकी माँ की मृत्यु के पश्चात् मेरे पास होगी।” यह निर्णय किया गया कि यह केवल अभिप्राय का एक कथन मात्र था।

प्रस्ताव सम्बन्धी वैधानिक नियम (Legal Provisions in regard to Proposal) –माननीय न्यायाधीशों के निर्णय के आधार पर प्रस्ताव सम्बन्धी कुछ वैधानिक नियम बनाए गए हैं जिनमें से मुख्य अग्र प्रकार हैं

1. प्रस्ताव विनय के रूप में हो (Proposal as a Request)-प्रस्ताव एक विनय के रूप में होना चाहिए, आज्ञा के रूप में नहीं। उदाहरणार्थ-यदि ‘कमल’, ‘दीपक’ से यह कर कि वह दिल्ली जाकर उसके लिए स्कूटर ला दे जिसके लिए उसे पारिश्रमिक दिया जाएगा तो यह एक आज्ञा है, निवेदन नहीं, अत: प्रस्ताव नहीं कहलाएगा।

2. प्रस्ताव का विशेष अथवा सामान्य रूप (Proposal may be Specific or General)-किसी व्यक्ति-विशेष के सम्मुख प्रस्तुत किया हुआ प्रस्ताव ‘विशेष प्रस्ताव’ कहलाता है। इसके विपरीत, जनसाधारण के लिए सम्बोधित किया हुआ प्रस्ताव सामान्य प्रस्ताव’ कहा जाता है। उदाहरणार्थ-यदि ‘कमल’, ‘कान्ति’ से अपनी घड़ी रू. 200 में बेचने के लिए प्रस्ताव रखे तो यह स्पष्ट प्रस्ताव कहलाएगा और यदि वह विज्ञापन द्वारा समस्त जनसमुदाय को रू. 200 में अपनी घड़ी बेचने के लिए प्रस्ताव रखे तो इसे हम सामान्य प्रस्ताव कहेंगे। इस सम्बन्ध में Carlill Vs. Carbolic Smoke Ball Company (1893) का निर्णय महत्त्वपूर्ण है जिसके अन्तर्गत कम्पनी की विज्ञप्ति के अनुसार, “जो कोई व्यक्ति कम्पनी की दवा प्रयोग करने के उपरान्त इन्फ्लुएन्जा का शिकार होगा उसे कम्पनी 1,000 पौण्ड देगी।’ श्रीमती कार्लिल ने दवा का प्रयोग किया। बाद में उन्हें इन्फ्लुएन्जा हो गया जिसके लिए उन्होंने वाद प्रस्तुत किया। कम्पनी ने अपनी दलील देते हुए इसे प्रस्ताव न कहकर प्रस्ताव के लिए निमन्त्रण कहा। बाद में यह दलील व्यर्थ मानी गई।

न्यायालय के अनुसार विज्ञापन इनाम देने के अभिप्राय का एक कथन मात्र ही नहीं था, बल्कि एक निश्चय था, और यद्यपि प्रस्ताव किसी व्यक्ति विशेष के लिए न होकर सामान्य जनता के लिए था, फिर भी वह ऐसे किसी भी व्यक्ति या व्यक्तियों द्वारा स्वीकार किया जा सकता था जिन्होंने अपने व्यवहार से अथवा शर्तों का निष्पादन करके उसे स्वीकार किया।

3. प्रस्ताव की शर्ते निश्चित एवं स्पष्ट होना (Definite and Clear Conditions of Proposal)-अस्पष्ट (Vague) अथवा अनिश्चित (Uncertain) प्रस्ताव विधान द्वारा प्रवर्तनीय नहीं होता है, अत: यह आवश्यक है कि प्रस्ताव की शर्ते निश्चित होनी चाहिए अन्यथा उसकी स्वीकृति नहीं की जा सकेगी। उदाहरणार्थ-एक भाग्यवादी दुकानदार एक व्यापारिक सन्नियम’ खरीदते समय यह कहे कि यदि यह भाग्यवान् हुई तो दूसरी वही पुस्तक खरीदेगा, अस्पष्ट है और निश्चितता के अभाव में वह प्रस्ताव नहीं कहलाया जा सकता है।

4. प्रस्ताव द्वारा एक वैधानिक सम्बन्ध उत्पन्न होना (Creating Legal Relations)-प्रस्ताव वैध सम्बन्ध स्थापित करने की दृष्टि से किया जाना चाहिए अन्यथा यह संविदा नहीं हो पाएगा। इस प्रकार के प्रस्ताव जो सामाजिक रीतियों, परम्पराओं, प्रतिष्ठाओ अथवा मनोरंजन से सम्बन्धित हों, वैधानिक उत्तरदायित्व स्थापित करने के लिए प्रस्तुत किए हुए नहीं कहे जा सकते; जैसे-नौका विहार, सम्मिलित अध्ययन, सम्मिलित घूमने जाना, पिक्च जाना आदि। उदाहरणार्थ-यदि ‘अ’, ‘ब’ को अपने यहाँ भोजन करने के लिए आमन्त्रित को और उसकी आवभगत के लिए व्यंजनों पर अपार धनराशि व्यय करे परन्तु ‘ब’ कुछ कारणवश न आ सके तो ‘अ’ उस व्यय की गई धनराशि के लिए अभियोग नहीं चला सकता। इस सम्बन में Balfour Vs. Balfour, 1919 का निर्णय महत्त्वपूर्ण है जिसमें श्री Balfour अपन पत्नी के साथ इंग्लैण्ड छुट्टियाँ व्यतीत करने गया। वहाँ उसकी पत्नी अस्वस्थ हो गई और

परिणामस्वरूप उसकी पत्नी को इंग्लैण्ड में ही रहकर इलाज कराना पड़ा। Balfour को अपनी नौकरी पर वापस लंका आना था। वापस आते समय उसने अपनी पत्नी को वचन दिया कि वह प्रत्येक माह 30 पौंड खर्च के लिए भेजता रहेगा। कुछ समय तक उसने उक्त रकम भेजी, परन्तु बाद में मतभेद के कारण उक्त रकम भेजना बन्द कर दिया। बाद में उसकी पत्नी ने उसके विरुद्ध वचन भंग का वाद प्रस्तुत किया। न्यायालय ने इसमें निर्णय देते हुए कहा था कि वचन का उद्देश्य राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय कराने का नहीं था।

5. केवल प्रस्ताव की इच्छा प्रकट करना प्रस्ताव नहीं (Mere expressing desire will not constitute proposal)-यदि कोई व्यक्ति प्रस्ताव करने की केवल इच्छा प्रकट करे तो उसकी इस इच्छा को प्रस्ताव नहीं कहा जा सकता। उदाहरणार्थ-‘अ’ द्वारा अपनी मित्र-मण्डली में अपनी पुत्री की शादी में रू. 30,000 लगाने की बात केवल इच्छा है, प्रस्ताव नहीं। इस सम्बन्ध में Harris vs. Nickerson (1973) का निर्णय महत्त्वपूर्ण है, जिसके अन्तर्गत प्रतिवादी ने यह विज्ञप्ति निकाली कि वह निश्चित तिथि को लन्दन से कुछ दूर अपने सामान का नीलाम करेगा, जिसके अनुसार वादी लन्दन से अमुक स्थान पर पहुँचा लेकिन नीलामी रद्द कर दी गई। इसके लिए वादी ने अपने हर्जाने का अभियोग चलाया। निर्णय में कहा कि यह केवल प्रस्ताव की इच्छा है, प्रस्ताव नहीं।

6. प्रस्ताव का संवहन आवश्यक (Communication of Proposal)-प्रस्ताव संविदा का रूप तभी ले सकता है जब उसकी स्वीकृति कर दी गई हो। स्वीकृति का प्रश्न उसी दशा में उठता है जबकि सूचना उस व्यक्ति तक पहुँच जाए जो उसकी स्वीकृति देना चाहता है। यह सामान्य नियम है कि कोई भी व्यक्ति प्रस्ताव की स्वीकृति उस समय तक नहीं दे सकता है जब तक कि वास्तविक रूप में उस प्रस्ताव की जानकारी उस व्यक्ति को न हो जिसको यह प्रस्ताव दिया गया है। इस सम्बन्ध में Lalmon Shukla Vs. Gauri Dutt (1930) का निर्णय महत्त्वपूर्ण है। इसके अन्तर्गत वादी प्रतिवादी के यहाँ एक मुनीम है जिसे वादी के खोए हुए भतीजे की खोज के लिए भेजा गया। इसी बीच विज्ञप्ति में ₹ 501 का इनाम उस व्यक्ति को देने का वचन दिया गया जो खोए हुए बच्चे को ढूँढ़ निकाले। वादी इस विज्ञप्ति की अज्ञानता में बच्चे को खोज लाया और इनाम के लिए वाद प्रस्तुत करता है। निर्णय में यह कहा गया कि प्रस्ताव की अनभिज्ञता में उसकी स्वीकृति का प्रश्न ही नहीं उठता है। प्रस्ताव शब्दों अथवा आचरण द्वारा व्यक्त किया जा सकता है तथा लिखित, मौखिक अथवा गर्भित (व्यावहारिक अथवा परिस्थिति निर्मित) हो सकता है। उदाहरणार्थ-रोडवेज अपनी बस देहरादून से गाजियाबाद तक एक निश्चित किराये पर चलाती है, यह रोडवेज का गर्भित प्रस्ताव है। जो भी यात्री यात्रा करेगा उसे निर्धारित किराया देना पड़ेगा।

7. प्रस्ताव तथा प्रस्ताव का निमन्त्रण पृथक् है (Offer and Invitation to make an offer is not one thing)-प्रस्ताव में दूसरे व्यक्ति की सहमति प्राप्त करने का उद्देश्य होता है जबकि प्रस्ताव के लिए निमन्त्रण में सहमति प्राप्त करने का उद्देश्य नहीं होता। इस प्रकार के समझौते में अन्तर करना कठिन होता है, जो मूलत: Prima Facie प्रस्ताव प्रतीत होते हैं लेकिन वास्तव में वे केवल प्रस्ताव के लिए निमन्त्रण मात्र (Invitation to make an offer) ही होते हैं। यह भिन्नता पक्षकारों के अभिप्राय पर निर्भर मामले की समस्त परिस्थितियों

को ध्यान में रखकर निश्चित की जा सकती है। इस प्रकार स्वयं प्रस्ताव न करके दसरी प्रस्ताव करने के लिए निमन्त्रण देना दो पृथक्-पृथक् बातें हैं। उदाहरणार्थ-(1) रेलवे टा टेबिल, (ii) नीलामी द्वारा विक्रय की सूचना, (iii) टेण्डर के लिए आमन्त्रण, (iv) कम्पनीका प्रविवरण पत्र.. (v) मूल्य सूची का निगमन तथा (vi) मूल्य सम्बन्धी पूछताछ का उत्तर।

प्रश्न – प्रतिफल की परिभाषा दीजिए। “बिना प्रतिफल के ठहराव व्यर्थ होता है।” नियम की व्याख्या कीजिए। क्या इस नियम के कोई अपवाद हैं? समझाइए।

Define Consideration. “An agreement without consideration is void.” Explain this rule. Are there any exceptions to this rule ? If so,

उत्तर – प्रतिफल का अर्थ एवं परिभाषा

(Meaning and Definition of Consideration) 

एक वैध अनुबन्ध होने के लिए आवश्यक लक्षण यह है कि अनुबन्ध के लिए न्यायोचित प्रतिफल तथा उद्देश्य होना चाहिए। किसी अनुबन्ध में (कुछ अपवादों को छोड़कर) यदि इसका अभाव होगा तो वह एक ‘बाजी’ या ‘जुआ’ का ठहराव कहलाएगा और इसलिए व्यर्थ होगा। इंगलिश राजनियम के अनुसार प्रत्येक ‘साधारण’ अनुबन्ध प्रतिफल के आधार पर ही होना चाहिए, किन्तु एक ‘सीलयुक्त अनुबन्ध’ बिना प्रतिफल के भी वैध है। भारतीय संविदा – अधिनियम के अनुसार, “वे सभी समझौते संविदा हैं जो न्यायोचित प्रतिफल तथा उद्देश्य के लिए द संविदा करने की योग्यता वाले पक्षों की स्वतन्त्र सहमति”…….. अर्थात् किसी संविदा में न्यायोचित प्रतिफल तथा उद्देश्य का होना आवश्यक है। अंग्रेजी राजनियम के अनुसार प्रत्येक साधारण संविदा प्रतिफल (Consideration) के आधार पर ही होना चाहिए, परन्तु सीलबन्द संविदा (Contract Under Seal) बिना प्रतिफल के भी वैध है। प्रतिफल तथा उद्देश्य दो. पक्षकारों की दृष्टि से दो भिन्न नाम हैं उदाहरणार्थ-‘अ’ ₹10,000 में अपना चेतक स्कूटर ‘ब’ को बेचने के लिए समझौता करता है। ऐसी स्थिति में ‘अ’ के लिए रू.10,000 प्रतिफलहर तथा ‘ब’ के लिए ‘चेतक स्कूटर’ उद्देश्य है। धारा 2 (d) के अनुसार, “जब वचनदाता की इच्छा पर वचनगृहीता अथवा किसी व्यक्ति ने कोई कार्य किया हो या करने से विरक्त रहा हो अथवा ह करता हो या करने से विरक्त रहता हो अथवा करने या विरक्त रहने का वचन देता हो तो ऐसअ कार्य से विरक्ति अथवा वचन उस वचन के लिए प्रतिफल कहलाता है।” अन्य शब्दों में वचनदाता की इच्छा पर वचनगृहीता अथवा किसी अन्य व्यक्ति द्वारा किया जाने वाला कार्य अथवा विरक्ति प्रतिफल कहलाता है जो भूत (Past), भविष्य (Future) अथवा वर्तमान Present) का रूप ले सकता है, अत: जब वचनदाता की इच्छा पर वचनग्रहीता अथवा किस अन्य व्यक्ति ने (i) कुछ कार्य किया हो या उसके करने से विरक्त रहा हो (भूतकाल) अथवा (ii) कुछ कार्य करता हो अथवा करने से विरक्त रहता हो (वर्तमान) अथवा (iii) कुछ का का करने अथवा करने से विरक्त रहने का वचन देता हो (भविष्य) तो हम इसे प्रतिफल कहते हैं।

प्रतिफल के लक्षण

(Characteristics of Consideration) 

1. प्रतिफल (कार्य या विरक्ति) वचनदाता की इच्छा पर दिया जाना चाहिए (Consideration must move at the desire of the promiser)-700991 H वचनदाता की इच्छा के अभाव में किया गया कार्य प्रतिफल नहीं माना जा सकता है। इस सम्बन्ध में Durga Pd. Vs. Baldeo (1880) का निर्णय महत्त्वपूर्ण है जिसमें ‘अ’ ने जिलाधीश की प्रार्थना पर एक बाजार बनवाया। तत्पश्चात् ‘ब’ ने ‘अ’ को यह वचन दिया कि उस बाजार में अपनी एजेन्सी के द्वारा बिक्री पर ‘अ’ को कमीशन देगा। यह निर्णय किया गया कि ‘ब’ का कमीशन देने का वचन वैध नहीं है।

2.प्रतिफल वचनगृहीता अथवा अन्य व्यक्ति की ओर से हो सकता है (The consideration may proceed from the promisee or any other person)”यह आवश्यक नहीं कि वचन वचनगृहीता द्वारा ही दिया जाए, वह अन्य किसी व्यक्ति द्वारा भी दिया जा सकता है। इस सम्बन्ध में रचनात्मक प्रतिफल के सिद्धान्त (Doctrine of Constructive Consideration) को मान्यता दी जाती है जिसके अनुसार यद्यपि वचनगृहीता द्वारा स्वयं प्रतिफल देना आवश्यक नहीं है, फिर भी उसे स्वयं प्रतिफल का एक पक्ष होना आवश्यक है।” इस सम्बन्ध में Chinayya Vs. Ramayya (1891) का निर्णय महत्त्वपूर्ण है जिसमें पिता ने अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति अपनी पुत्री के नाम इस शर्त पर कर दी कि वह अपने चाचा (पिता के भाई) को कुछ वार्षिक राशि आवश्यक रूप से देगी। उसी दिन पुत्री ने वार्षिक राशि देने के लिए वचन दिया, परन्तु कुछ समय उपरान्त पुत्री ने वार्षिक राशि देना बन्द कर दिया, यह कहा कि चाचा की ओर से कोई प्रतिफल नहीं है, परन्तु उसकी यह दलील न्यायालय द्वारा न सुनी गई।

3. कुछ प्रतिफल का होना आवश्यक (There must be some consideration)संविदा का कुछ प्रतिफल होना आवश्यक अंग है। धारा 25 के अनुसार, प्रतिफल का पर्याप्त होना आवश्यक नहीं है। यद्यपि प्रतिफल की प्राप्ति आवश्यक नहीं है, तथापि राजनियम की दृष्टि में उसका कुछ मूल्य होना आवश्यक है। इस सम्बन्ध में Jagindra Vs. Chandra Nath (1903) का निर्णय महत्त्वपूर्ण है जिसमें यह कहा गया था कि प्रतिफल को वास्तविक होना चाहिए काल्पनिक नहीं। इंगलिश राजनियम के अनुसार भी प्रतिफल की पर्याप्तता आवश्यक नहीं।

4. प्रतिफल कुछ कार्य या विरक्ति या वचन हो सकता है (A consideration may be an act or abstinence or promise)-प्रतिफल सकारात्मक (Positive) तथा नकारात्मक (Negative) भी हो सकता है, अर्थात् किसी कार्य को करना अथवा उससे विरक्ति आवश्यक है। उदाहरणार्थ-‘अ’, ‘ब’ को अपना मकान रू. 5,00,000 में बेचने का संविदा करता है। ऐसी स्थिति में ‘अ’ के लिए रू. 5,00,000 प्रतिफल सकारात्मक (Positive) है। इसी प्रकार रू. 10,000 के ऋण के लिए रू. 6,000 लेकर वाद प्रस्तुत करने का वचन नकारात्मक कार्य (Negative Act) कहलाएगा।

5. प्रतिफल भूत, वर्तमान अथवा भावी हो सकता है (Consideration may past, present or future)-भूत प्रतिफल तथा वर्तमान प्रतिफल को सम्पादित प्रतिफल (Executed Consideration) तथा भावी प्रतिफल को सम्पादनीय प्रतिफल (Executors Consideration) कहते हैं। भूत प्रतिफल (Past Consideration) वह प्रतिफल है जिसमें संविदा से पूर्व ही किसी कार्य को कर दिया गया है अथवा उससे विरक्ति कर दी गई है। उदाहरणार्थ-‘अ’ द्वारा एक गरीब व्यक्ति ‘ब’ को रू. 50 दयाभाव से देना और बाद में ‘ब’ द्वारा ‘अ’ को रू. 50 लौटाने का वचन भूत प्रतिफल होगा। इसी प्रकार, दिए गए ऋण के लिए कानूनी कार्यवाही न करने का वचन भी भूतकालीन प्रतिफल पर आधारित है। वर्तमान प्रतिफल (Present Consideration) में प्रतिफल तथा उद्देश्य दोनों का होना आवश्यक है। उदाहरणार्थ-‘अ’ द्वारा ‘ब’ को रू. 9,000 में स्कूटर बेचने का वचन ‘अ’ के लिए प्रतिफल तथा ‘ब’ के लिए उद्देश्य है।

भावी अथवा सम्पादनीय प्रतिफल (Future or Executory Consideration)-यदि कोई व्यक्ति किसी वर्तमान संविदा के सम्बन्ध में किसी कार्य को करने रू. अथवा उसके न करने के लिए वचन देता है तो यह भावी प्रतिफल कहा जाएगा।

प्रतिफल के अभाव में समझौते का व्यर्थ न होना 

(Agreement without Consideration, not Void)

एक वैध समझौते के लिए प्रतिफल का होना आवश्यक है। धारा 25 में स्पष्ट कहा गया है कि प्रतिफल के अभाव में सभी समझौते व्यर्थ होते हैं। उदाहरणार्थ-‘अ’ द्वारा ‘ब’ को बिना किसी प्रतिफल के अपनी कार देने का वचन व्यर्थ है, परन्तु कुछ परिस्थितियाँ ऐसी भी है। जिनमें प्रतिफल के अभाव में भी समझौता वैध हो जाता है। ये परिस्थितियाँ निम्नलिखित हैं

1. प्राकृतिक प्रेम तथा स्नेह से प्रेरित वचन (Natural Love and Affection)यदि समझौता ऐसे व्यक्तियों के मध्य होता है जिनमें आपसी प्रेम (पति, पत्नी) अथवा स्नेह (पिता, पुत्र) है तो इसमें प्रतिफल का होना आवश्यक नहीं है, परन्तु आवश्यकता इस बात की है कि इस प्रकार के समझौते उसी समय संविदा का रूप ले सकेंगे जबकि वे उस समय के प्रचलित राजनियम के अनुसार लिखित तथा पंजीकृत हों।

2. स्वेच्छा से किए गए कार्य की क्षतिपूर्ति का वचन (Promise to compensate अनु voluntary service) यदि कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के लिए किसी ऐसे कार्य को कर जिसे करने के लिए वह वैधानिक रूप से उत्तरदायी था तथा दूसरा व्यक्ति उसे कुछ क्षतिपति क एसा वचन दे तो यह वचन प्रतिफल न होते हुए भी वैध होगा। इस प्रकार क्षतिपूर्ति का वचन दृष्टिकोणों से हो सकता है-(1) ऐसे कार्य के लिए जिसे वचनदाता ने स्वेच्छा से ही कर दिय जनस हो। उदाहरणार्थ-‘अ’ का पर्स ‘ब’ को मिल जाता है जिसे वह ‘अ’ को ही लौटा देता है। या नहीं ‘अ’ उसे रू. 100 देने का वचन दे तो यह प्रतिफलरहित वैध समझौता माना जाएगा । (ii) ऐ कार्य के लिए जो वचनदाता ने स्वेच्छा से किया हो यद्यपि वह वैधानिक रूप से उसके करने जांच लिए उत्तरदायी न था। उदाहरणार्थ-‘अ’ ‘ब’ के पुत्र पर स्वेच्छा से व्यय करे, ‘ब’ उसके सम्पूर्ण व्ययों का भुगतान करने का वचन दे, ऐसी स्थिति में बिना प्रतिफल के भी समझौता व्य नहीं होगा।

3. समय द्वारा वर्जित ऋण के भुगतान का वचन (Promise to pay a time barred debt)-यदि वचनदाता अथवा उसके अधिकृत एजेन्ट द्वारा वचनगृहीता के पुराने ऋण, जो समय द्वारा वर्जित (Time-barred) है, भुगतान करने का वचन देता है तो प्रतिफल के अभाव में समझौता व्यर्थ नहीं माना जाता है। उदाहरणार्थ-‘अ’ ‘ब’ का रू.2,000 का ऋणी था, परन्तु समय समाप्त होने के कारण ‘ब’ उस पर अभियोग नहीं चला सकता था, ‘अ’ यदि ‘ब’ को रू.2,000 देने का वचन दे तो यह प्रतिफल के अभाव में भी व्यर्थ नहीं माना जाएगा।

4.दान का वचन (Promise to Donate)-साधारणत: दान का वचन देने पर भी दान न देने पर माँगने वाला व्यक्ति दान के लिए अभियोग नहीं चला सकता, परन्तु यदि दान लेने वाला दान मिलने के विश्वास में कुछ व्यय कर ले तथा दान देने वाला दान देने से मना कर दे तो उस पर अभियोग चलाया जा सकता है। उदाहरणार्थ-‘अ’ सनातन धर्म के मंत्री को रू.6,000 दान देने का वचन देता है जिसके आधार पर मंत्री कुछ कमरे बनाने का ठेका दे देता है, ठेका पूरा होने के बाद ‘अ’ दान देने के लिए मना करता है, ऐसी दशा में मंत्री कानूनी हस्तक्षेप द्वारा रुपया प्राप्त कर सकता है। ,

5. प्रतिफलरहित निक्षेप (Gratuitous Bailment)-निक्षेप में यह कार्य अनिवार्य नहीं है कि प्रतिफल हो, नि:शुल्क निक्षेप भी वैध होते हैं।

6. एजेन्सी का संविदा (Contract of Agency)-धारा 185 के अनुसार, एजेन्सी के संविदा में प्रतिफल अनिवार्यत: आवश्यक नहीं है।

प्रश्न – अनुचित व्यापार व्यवहार पर टिप्पणी लिखिए। Write a short note on Unfair Trade Practices.

उत्तर- अनुचित व्यापार व्यवहार/प्रथा

(Unfair Trade Practice) 

किसी माल की बिक्री (Sale), प्रयोग या आपूर्ति की वृद्धि के लिए अथवा सेवाओं को प्रदान करने के लिए प्रयोग किया गया कोई अनुचित तरीका या अनुचित प्रवंचनापूर्ण प्रथा, अनुचित व्यापारिक प्रथा कहलाएगी जिनमें निम्नलिखित प्रथाएँ सम्मिलित होगी

1.(A) मौखिक या लिखित रूप से किया गया कथन या दृश्यमान व्यपदेशन करने वाली ऐसी प्रथा जो

(i) किसी उत्पाद या वस्तु की कार्यक्षमता, प्रभावकारिता या जीवनावधि के सम्बन्ध में जनसाधारण को ऐसी गारण्टी या वारण्टी देती है जो उनकी पर्याप्त या उचित जाँच पर आधारित नहीं है।

परन्तु जहाँ ऐसा कोई बचाव किया जाता है कि ऐसा गारण्टी या वारण्टी उचित या पर्याप्त जांच पर आधारित है तो उसे सिद्ध करने का भार उस व्यक्ति पर होगा जो ऐसा बचाव चाहता है। या करता है।

(ii) यह झूठा व्यपदेशन (Representation) करती है कि कोई विशिष्ट माल, वस्तु किसी विशेष मानक, गुण, मात्रा, स्तर, मिश्रण शैली, तरीके या नमूने का है।

(C) जनसाधारण को किसी उत्पाद या उसी तरह के अन्य उत्पाद या माल या सेवाओं के मूल्य के विषय में जिसके बदले में वे सामान्यतः बेची जाती है या उपलब्ध कराई जाती है, सारवान रूप से गुमराह करती है और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए मूल्य के विषय में किया गया कोई व्यपदेशन उस मूल्य के विषय में माना जाएगा जिस पर उत्पाद, माल या सेवा का सामान्यत: विक्रेता या उत्पादक द्वारा बाजार में विक्रय या उपलब्ध कराया जाता है जब तक उस व्यक्ति द्वारा या उसकी ओर से जो ऐसा व्यपदेशन करता है यह स्पष्ट रूप से विनिर्दिष्ट न किया गया हो कि बेचे गए उत्पाद या उपलब्ध कराई गई सेवाओं का मूल्य क्या है।

(D) अन्य व्यक्ति के माल, सेवाओं या व्यापार के विषय में निन्दास्वरूप झूठे और भ्रामक तथ्यों का देना।

2.अप्रामाणिक माल या सेवाएँ (Spurious goods or Services)-अप्रामाणिक माल या सेवाओं से तात्पर्य ऐसे माल या सेवाओं से है जिसके असली होने का दावा किया जाता है, परन्तु वस्तुत: वे ऐसी नहीं होती हैं।

3. दोष (Defect) – दोष का अर्थ है किसी माल की क्वालिटी, मात्रा, शक्ति, शुद्धत या मानक जिसे अभिव्यक्त या विवक्षित संविदा के अन्तर्गत या किसी विधि द्वारा या उसन अधीन बनाए रखना जरूरी है या जिसका ऐसे किसी माल के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार व्यापारी द्वारा दावा किया जाता है, में कोई दोष, अपूर्णता या कमी।

4. किन्हीं ऐसे मालो को बेचने देना जो कार्यकशलता, संरचना, तत्त्व, डिजाइनर बनावट, फिनिशिंग या पैकिंग आदि की दृष्टि से किसी नियम प्राधिकारी द्वारा नियत किए। मानक के अनुरूप नहीं है जो कि माल को प्रयोग करने वाले व्यक्ति को होने वाले खतर कम करने के लिए आवश्यक है।

किसी माल या सेवा का संग्रह या नष्ट होने देना या उन्हें बेचने या प्राप्त कराने से कार करना इस आशय या प्रवृत्ति के साथ कि ऐसा करने से माल या सेवाओं की कीमत में वृद्धि होगी।

6. अप्रामाणिक (Spurious) माल का निर्माण या ऐसे माल का विक्रय के लिए प्रस्ताव या सेवाओं के उपबन्ध में प्रवंचनापूर्ण (Deceptive) व्यवहार करना।

7. उपभोक्ता विवाद (Consumer Dispute)-ऐसा विवाद जब वह व्यक्ति जिसके विरुद्ध परिवाद किया गया है परिवाद में किए गए अभिकथनों से इन्कार करता है या उनका प्रतिवाद करता है तो वह विवाद उपभोक्ता विवाद कहलाता है।

8. कमी (Deficiency)-‘कमी’ से ऐसे कार्य की क्वालिटी, प्रकृति और रीति में जिसे उस समय लागू किसी विधि द्वारा या उसके अधीन बनाए रखना जरूरी है या जिसको किसी सेवा के सम्बन्ध में किसी संविदा के अनुसरण में या किसी व्यक्ति द्वारा पालन किए जाने का वचन दिया गया है, कोई दोष, अपूर्णता, कमी या अपर्याप्तता अभिप्रेरित है।

9. सेवाएँ (Services)-सेवा का अर्थ किसी भी प्रकार की सेवा से है जो उसके सम्भावित प्रयोगकर्ताओं को प्रदान की जाती है। इसके अन्तर्गत बैंककारी, वित्तपोषण, बीमा, परिवहन, प्रसंस्करण, विद्युत या अन्य ऊर्जा की सप्लाई बोर्ड या निवास अथवा दोनों (गृह निर्माण), मनोरंजन, आमोद-प्रमोद या समाचार या अन्य सूचना देने के सम्बन्ध में सुविधाओं

का प्रबन्ध भी आता है, लेकिन यह सीमित नहीं है। परन्तु इसके अन्तर्गत निःशुल्क (Free of charge) या व्यक्तिगत सेवा संविदा (Contract of Personal Service) के अधीन दी गई सेवाएँ नहीं आएँगी।

प्रश्न ” – एक अवयस्क दूसरे को बाध्य करता है किन्तु स्वयं बाध्य नहीं होता।” विवेचना कीजिए।

“A minor binds others but is never bound by others.” Explain.

अथवा ‘संविदा करने की योग्यता से क्या अभिप्राय है? वे विभिन्न व्यक्ति कौन-से हैं जो विधान द्वारा संविदा करने के अयोग्य समझे जाते हैं?

What is meant by ‘Competency of Contracť? Who are the various persons regarded as incompetent by law to enter into contract ?

अथवा “अवयस्क के साथ ठहराव कुछ व्यर्थ होते हैं, कुछ वैध होते हैं और कछ व्यर्थनीय होते हैं।” उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।

“Agreements with minors are void, voidable and valid.” Clarify with examples.

उत्तर- संविदा करने की योग्यता का अभिप्राय

(Meaning of Competency of Contract) संविदा को वैधानिक रूप देने के लिए यह आवश्यक है कि पक्षों में संविदा करने की योग्यता होनी चाहिए, अन्यथा कोई भी समझौता संविदा का रूप नहीं ले सकता। पक्षकारों में

संविदा करने की योग्यता का होना संविदा के आवश्यक लक्षणों में है। धारा 11 के अन “प्रत्येक व्यक्ति संविदा करने के योग्य है, जो राजनियम के अनुसार जिसके अन्तर्गत आता है, वयस्क है, स्वस्थ मस्तिष्क का है और सम्बन्धित राजनियम के द्वारा अयोग्य घोषित नहीं किया गया है।” इस धारा का विश्लेषण करने से ज्ञात हो जाता है कि जिन व्यक्तियों को संविदा करने की क्षमता नहीं होती, वे हैं-(i) अवयस्क (minor), (ii) अस्वस्थ मस्तिष्क वाला व्यक्ति (A man of unsound mind), (iii) राजनियम द्वारा अयोग्य घोषित व्यक्ति (disqualified from contracting by the law to which he is a subject)

सामान्यतया राजनियम द्वारा यह माना जाता है कि प्रत्येक अनुबन्ध करने के योग्य है और यदि कोई व्यक्ति अनुबन्ध करने के अयोग्य होने के आधार पर दायित्व से मुक्ति का दावा करता है तो उसी को ही ऐसी अयोग्यता प्रमाणित करनी होगी।

1. अवयस्क (Minor)-एक व्यक्ति, जो वयस्क न हो पाया हो उसे अवयस्क कहा जाता है। भारतीय वयस्कता अधिनियम के अन्तर्गत जो व्यक्ति 18 वर्ष की आयु पूरी कर ले वह वयस्क कहलाता है तथा यदि उसकी सम्पत्ति का किसी व्यक्ति को संरक्षक नियुक्त किया गया है तो वह 21 वर्ष की आयु पूरी करने पर वयस्क होगा।

2. अस्वस्थ मस्तिष्क (Unsound Mind)-एक पागल, पैदायशी बेवकूफ, नशे के प्रभाव वाले व्यक्ति के साथ किया गया संविदा व्यर्थ माना जाता है। धारा 12 के अनुसार, स्वस्थ मस्तिष्क का व्यक्ति वह व्यक्ति है जो संविदा करते समय यह समझ सके कि वह क्या संविदा कर रहा है और उसका उसके हित पर क्या प्रभाव पड़ेगा। एक पागल (Insane), मूर्ख (Idiot) अथवा नशे में चूर बेसुध व्यक्ति स्वस्थ मस्तिष्क का नहीं कहलाया जा सकता है। स्वस्थ व्यक्ति के साथ संविदा करने के दृष्टिकोण से इस प्रकार निर्णय किया गया-(i) एक व्यक्ति जो अधिकांशतः स्वस्थ रहता हो, परन्तु संविदा करने के समय यदि अस्वस्थ मस्तिष्क का हो गया हो तो उसके साथ किया गया संविदा व्यर्थ होगा, (ii) एक व्यक्ति जो अधिकांशतः अस्वस्थ मस्तिष्क का रहता हो, परन्तु संविदा करते समय स्वस्थ मस्तिष्क का हो गया हो ता उसके साथ किया गया संविदा वैध होगा, परन्तु दूसरे पक्षकार को यह सिद्ध करना होगा कि संविदा करते समय वह व्यक्ति स्वस्थ मस्तिष्क का था। किसी पागल के साथ शादी करने का संविदा भी मान्य नहीं है।

3. अन्य अयोग्य व्यक्ति (Other Disqualified Persons)-ऐसे व्यक्ति जे राजनीतिक स्थिति के कारण अयोग्य माने गए हों जैसे विदेशी शत्रु, विदेशी समाज, राजदूत अथवा प्रतिनिधि, कैदी या अपराधी हों, ऊँचे पेशे के कारण अयोग्य माने गए हों जैसे बैरिस्टर, डॉक्टर, कुछ संस्थाएँ तथा व्यक्ति जो वैधानिक स्थिति के कारण संविदा करने के अयोग्य हों-कॉरपोरेशन, विवाहित स्त्रियाँ आदि-सभी संविदा के अयोग्य पक्षकार हैं।

अवयस्क के हितों की राजनियम द्वारा रक्षा 

(Protection afforded to Minors by the Indian Contract Act)

अवयस्कता एक अयोग्यता कही जाती है, वास्तव में यह न्यायालयों के द्वारा अवयस्कों को प्रदान की गई रक्षा है। यह कथन ठीक ही प्रतीत होता है-“राजनियम अपने अवयस्कों की रक्षा करता है, उनकी सम्पत्तियों तथा अधिकारों का बचाव करता है, उनके अभावों को क्षमा करता है, उनकी ओर से वैधानिक कार्यवाहियों में उनकी रक्षा करता है, न्यायाधीश उनके सलाहकार, जूरी उनके सेवक तथा राजनियम उनका संरक्षक होता है।” अवयस्क द्वारा संविदा करने की क्षमता के सम्बन्ध में वर्तमान स्थिति इस प्रकार है

1. अवयस्क द्वारा किया गया संविदा व्यर्थ होता है (Contract with a minor is void)-अवयस्क द्वारा किया गया संविदा प्रारम्भ से व्यर्थ माना जाता है। धारा 11 के अनुसार अवयस्क के साथ किए गए सम्पूर्ण संविदे व्यर्थ माने जाते हैं। यदि दूसरे पक्ष को अवयस्क की अल्पवयस्कता (minority) का आभास न हो तो भी उसके साथ किया हुआ समझौता व्यर्थ माना जाता है। इस सम्बन्ध में Mohiri Bibi Vs. Dharmdas Ghosh (1903) का निर्णय महत्त्वपूर्ण है जिसमें अवयस्क द्वारा रू. 20,000 की सम्पत्तियों को बन्धक रखकर रू. 8,000 महाजन से लिए गए।

मोहरी बीबी बनाम् धर्मदास घोष ।

(Mohiri Bibi Vs. Dharamdas Ghosh) 

इस मामले में अवयस्क ने अपनी सम्पत्ति का रू. 20,000 के लिए एक बन्धक लिख दिया था, जिसमें से ऋणदाता ने अवयस्क के लिए रू. 8,000 भुगतान कर दिया था। अवयस्क ने बन्धक को निरस्त करने के लिए वाद प्रस्तुत किया। दूसरे पक्षकार की ओर से यह कहा गया कि अनुबन्ध व्यर्थनीय था और अवयस्क उसका परित्याग कर रहा था, इसलिए भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 64 एवं 65 के अधीन अवयस्क को दिया गया रू. 8,000 वापस होना चाहिए। प्रिवी काउन्सिल द्वारा यह निर्णय किया गया कि अनुबन्ध पूर्ण रूप में व्यर्थ था (व्यर्थनीय नहीं), इसलिए ऐसी परिस्थितियों में रुपया वापस करने का कोई प्रश्न उत्पन्न नहीं हो सकता था। धारा 64 एवं 65 ऐसे मामलों में लागू नहीं हो सकती जहाँ पर कोई अनुबन्ध हो ही नहीं सकता।

2. अवयस्क वैधानिक समझौते नहीं कर सकता, परन्तु अपनी आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपनी सम्पत्तियों की जमानत पर ऋण ले सकता है (Right to take loan on the security of property for essential requirements)-अवयस्क किसी भी वैधानिक समझौते को करने में असमर्थ है। वह ऋण लेने अथवा लाभ के लिए कोई वस्तु या सम्पत्ति खरीदने का वैधानिक समझौता नहीं कर सकता है। परन्तु वह अपनी आवश्यक (जीवन सम्बन्धी) आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपनी सम्पत्ति पर ऋण ले सकता है और ऋण देने वाला धारा 68 के अनुसार अवयस्क की सम्पत्ति से भुगतान पाने का अधिकारी है। जीवन की आवश्यकताएँ अवयस्क के जीवन की

आर्थिक स्थिति तथा रहन सहन के स्तर पर निर्भर करेंगी। कोक के अनुसार जीवन आवश्यकताओं में सम्मिलित है–() मकान का किराया, Gi) भोजन व कपड़ा, iii) अवय तथा उसकी पत्नी की आवश्यकताएँ, दवा आदि पर खर्च, (iv) सफर खर्च, (v) मृत संस्कार का व्यय, (vi) प्रतिष्ठाजन्य वस्तुएँ लेने के लिए ऋण, (vii) सम्पत्ति की रक्षा के लिए आवश्यक खर्च तथा (viii) अवयस्क के विवाह का खर्च। इस सम्बन्ध में Peters Vs. Flemming (1840) का निर्णय महत्त्वपूर्ण है जिसमें शृंगार एवं सजावट की वस्तुओं को जीवन की आवश्यकताएँ नहीं माना गया था, अत: अवयस्क को इन वस्तुओं के मूल्यों का भुगतान करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है।

3. एजेन्ट के रूप में अवयस्क (Minor as an Agent) यद्यपि किसी अवयस्क की नियुक्ति एजेन्ट के रूप में की जा सकती है तथापि धारा 184 के अनुसार, उसके प्रत्येक कार्य के लिए स्वामी उत्तरदायी होता है तथा इसे कर्त्तव्यपालन न करने, जानबूझ कर गलती करने के लिए मालिक उससे क्षतिपूर्ति नहीं करा सकता। एक अवयस्क एजेन्ट नियुक्त किया जा सकता है। और ऐसे अवयस्क द्वारा, एजेन्सी की प्रगति में किए गए सब अनुबन्ध उसके नियोक्ता पर बाध्य होंगे, परन्तु नियोक्ता अवयस्क एजेन्ट की लापरवाही अथवा कर्त्तव्य उल्लंघन के कारण हुई किसी हानि के लिए उससे क्षतिपूर्ति प्राप्त करने का अधिकारी न होगा।

4. साझेदार के रूप में अवयस्क (Minor as a Partner)-भारतीय साझेदारी अधिनियम की धारा 30 के अनुसार, अवयस्क साझेदार नहीं हो सकता है, परन्तु सभी साझेदारों की सहमति से उसे साझेदारी के लाभ में सम्मिलित किया जा सकता है। अवयस्क स्वयं हानि के लिए व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी नहीं होता है। वयस्कता के छह माह के अन्तर्गत उसे अपनी फर्म में रहने अथवा न रहने की सूचना देनी होगी।

5. अवयस्क दिवालिया घोषित नहीं किया जा सकता (Minor cannot be Adjudicated Insolvent) जो व्यक्ति संविदा करने के योग्य ही नहीं है उसे न तो देनदार (Debtor) ही माना जा सकता है और न ही उसे दिवालिया घोषित किया जा सकता है।

6. अवयस्क की कम्पनी की स्थिति (Minor’s Position in aJoint Stock Company)-एक अवयस्क कम्पनी का अंशधारी बन सकता है जब तक कि कम्पनी के अन्तर्नियम (Articles of Association) उसे अंशधारी बनने के लिए रोक न लगाएँ। परन्तु माँगों के लिए वह व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी नहीं होगा। इस सम्बन्ध में Jaffer Vs. Credit Bank Ltd. का निर्णय महत्त्वपूर्ण है। इससे ही सम्बन्धित Stenburg Vs. Scala, (1923) के सम्बन्ध में यह कहा गया था कि यदि अवयस्क कम्पनी के अंश खरीदन के समझौते को रद्द करे तो वह दी हुई राशि (paid up money) उस समय तक पाने क अधिकारी नहीं है जब तक कि प्रतिफल का पूर्ण अभाव न हो।

7. अनुचित कार्य अथवा गुनाह के लिए अवयस्क का उत्तरदायित्व (Liabilityo a minor for a tort)-अवरोध का सिद्धान्त (Doctrine of Estoppel) अवयस्क के विरुद्ध लागू नहीं होता है। यह निर्णय Kangul Vs. Lakha Singh के मामले में किया गया था। कपट अथवा मिथ्यावर्णन द्वारा अवयस्क के द्वारा किए गए संविदा में भी अवयस्क उत्तरदायी नहीं होगा। परन्तु अवयस्क किसी व्यक्ति के शरीर अथवा सम्पत्ति के नुकसान के लिए उत्तरदायी होता है। धोखा देकर संविदा करने के सम्बन्ध में Jagannath Singh Vs. Lalta Pd. (1808) का निर्णय महत्त्वपूर्ण है जहाँ पर अवयस्क ने अपनी सम्पत्ति रखकर 210.000 धोखा देकर ले लिए, बाद में न्यायालय ने उसे सारी रकम वापस करने के लिए आदेश दिया। इस सिद्धान्त की पुष्टि Mohd. Syed Vs. Bishamber Nath के मामले में भी की गई।

8. विनिमय साध्य लेखों के सम्बन्ध में अवयस्क की स्थिति (Position of a Minor in Negotiable Instruments)-एक अवयस्क विनिमय साध्य लेखपत्र लिख सकता है, सुपुर्द अथवा पृष्ठांकित कर सकता है, उससे सम्बन्धित अवयस्क को छोड़कर सब पक्षकार उत्तरदायी होंगे।

9. अवयस्क द्वारा अपनी भलाई के लिए संविदा (Minor’s Contract for his Benefits)-भारतीय संविदा अधिनियम उसे वचनगृहीता (Promisee) होने से रोक नहीं लगाता है। इस प्रकार उसके द्वारा अपनी भलाई के लिए संविदा किया जा सकता है तथा सम्बन्धित पक्षकार इसके लिए उत्तरदायी ठहराए जाएंगे।

10. अवयस्क के संरक्षक द्वारा अवयस्क की भलाई के लिए किए गए संविदा (Contracts by the Guardian for the Benefits of the Minor)-यदि अवयस्क के संरक्षक ने अवयस्क की भलाई के लिए कुछ संविदा किया है तो वे अवयस्क द्वारा मान्य होंगे। परन्तु संविदा केवल अवयस्क की ओर से संविदा करने के योग्य पक्ष द्वारा तथा अवयस्क की भलाई तथा लाभ के लिए ही किए जाने चाहिए। अवयस्क की शादी का संविदा, उसके हित तथा लाभ के समझौते उसके द्वारा मान्य होंगे। परन्तु लड़की के संरक्षकों द्वारा उसकी नौकरी का समझौता मान्य नहीं होगा।

11. अवयस्क द्वारा किए गए संविदा का पुष्टीकरण उसकी वयस्कता के समय नहीं हो सकता (Minor’s Contract cannot be ractified on his becoming major)क्योंकि अवयस्क के साथ किया हुआ संविदा प्रारम्भ से ही व्यर्थ होता है, अत: उसके वयस्क हो जाने पर उसके पुष्टीकरण का प्रश्न ही नहीं उठता है। उदाहरणार्थ-यदि अवयस्क ‘अ’ ‘ब’ से यह संविदा करे कि ‘ब’ उसे रू. 5,000 दे दे जिसे वह वयस्क होने के बाद लौटा देगा, तो यह संविदा व्यर्थ है और ‘अ’ पर धनराशि वापस करने का कोई वैधानिक उत्तरदायित्व नहीं होगा।

12. अवयस्क का प्रतिभू अवयस्क के लिए उत्तरदायी होता है (Minor’s Surety is liable for the minor)-यद्यपि अवयस्क के साथ किया गया संविदा व्यर्थ है, परन्त यदि कोई व्यक्ति उसके लिए अपने आपकी जमानत दे तो ऐसा व्यक्ति (जमानत देने वाला) उसके कृत्यों के लिए उत्तरदायी होगा।

प्रश्न – “एक ठहराव जो राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय होता है, अनुबन्ध कहलाता है।” इस कथन को समझाइए एवं एक वैध अनुबन्ध के आवश्यक लक्षणों की विवेचना कीजिए।

“An agreement enforceable by law is a contract.” Explain this statement and discuss the essentials of a valid contract. 

अथवा अनुबन्ध से क्या अभिप्राय है? एक वैध अनुबन्ध के प्रमुख लक्षणों को स्पष्ट कीजिए। व्यर्थ तथा व्यर्थनीय अनुबन्धों में अन्तर बताइए।

What is a Contract ? Explain in brief the essential elements of valid contract. Distinguish between Void and Voidable Contract. 

उत्तर – संविदा (अनुबन्ध) क्या है

(What is a Contract) 

संविदा दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच वैधानिक उत्तरदायित्व पैदा करने वाला समझौता है जिसकी परिभाषा भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 2 (h) के अनुसार इस प्रकार है-“कोई समझौता जो राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय हो. संविदा कहलाता है।” इसकी परिभाषा विभिन्न विद्वानों ने इस प्रकार दी है“कोई भी समझौता जो दो पक्षों के बीच उत्तरदायित्व पैदा कर दे, संविदा कहलाता है।”

-सालमण्ड “संविदा का आशय दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच ऐसे समझौते से है, जो राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय हो और जिसके द्वारा एक पक्ष दूसरे पक्ष पर कुछ अधिकार प्राप्त करता है।”

“संविदा वैधानिक सम्बन्ध स्थापित करने के उद्देश्य से किया गया एक ऐसा समझौता है, जिसके द्वारा एक पक्षकार कुछ कार्य करने के लिए बाध्य होगा तथा जिसे प्रवर्तनीय कराने के लिए दूसरे पक्ष को वैधानिक अधिकार होगा।’ “प्रत्येक समझौता अथवा वचन जो राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय हो, संविदा कहलाता है।”

वैध अनुबन्ध के आवश्यक लक्षण अथवा तत्त्व

(Essentials of a Valid Contract) 

यद्यपि सभी परिभाषाएँ एक ही दृष्टिकोण पर प्रकाश डालती हैं, फिर भी सर फ्रैडरिक पोलॉक द्वारा दी गई परिभाषा अधिक वैधानिक मानी जाती है और भारतीय अनुबन्ध अधिनियम द्वारा दी गई परिभाषा इसी के समान है। इस प्रकार सब परिभाषाएँ संविदा के वैधानिक अस्तित्व पर ही आधारित हैं, परन्तु वैधानिक संविदा क्या है, इसके बारे में सभी कानूनवेत्ता मौन हैं। इस दृष्टिकोण से धारा 10, संविदा की परिभाषा को स्पष्ट करती है। इसके अनुसार, “वे सभी समझौते संविदा हैं, जो न्यायोचित प्रतिफल और उद्देश्य के लिए, संविदा करने की क्षमता वाले पक्षों की स्वतन्त्र सहमति से किए गए हों, जिन्हें स्पष्ट रूप से व्यर्थ घोषित न कर दिया गया हो । और जो किसी विशेष अधिनियम के आदेश पर लिखित या साक्षी द्वारा प्रमाणित एवं पंजीकृत हो” इसके आधार पर संविदा के मुख्य लक्षण निम्नलिखित हैं

(1) दो पक्षों के बीच समझौता होना, प्रस्ताव तथा प्रस्ताव की स्वीकृति (Offer and Acceptance)।

(2) समझौता राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय (Enforceable by law) होना, जिसके लिए निम्नलिखित बातें आवश्यक होंगी

(i) पक्षों में संविदा करने की क्षमता (Legal capacity of the parties), (ii) पक्षों की स्वतन्त्र सहमति (Free consent of the parties), (iii) न्यायोचित प्रतिफल तथा उद्देश्य (Lawful consideration and object),

(iv) समझौते का लिखित, साक्षी द्वारा प्रमाणित अथवा पंजीकृत होना यदि किसी विशेष अधिनियम द्वारा ऐसा होने का स्पष्ट आदेश हो (Written or registered if so required by the special law under which it comes)!

1. दो पक्षों के बीच समझौता होना (Agreement between two Parties)समझौतों के लिए दो या दो से अधिक पक्षों का होना आवश्यक है। एक पक्षकार के वैधानिक प्रस्ताव की स्वीकृति दूसरे पक्षकार द्वारा होनी चाहिए। समझौता व्यर्थ, व्यर्थनीय, अवैध तथा अप्रवर्तनीय नहीं होना चाहिए। इस प्रकार एक प्रस्ताव प्रस्तुत करने वाला होना चाहिए जिसे प्रस्तावक (Proposer or Promisor) कहते हैं तथा दूसरा स्वीकार करने वाला होना चाहिए जिसे वचनदाता या वचनगृहीता (Promisee) कहते हैं। धारा 2 (a) के अनुसार, जब कोई व्यक्ति किसी कार्य को करने अथवा न करने के लिए दूसरे व्यक्ति के समक्ष अपनी इच्छा इस दृष्टि से प्रकट करे कि दूसरा व्यक्ति अपनी सहमति दे तो यह कहेंगे कि एक व्यक्ति ने दूसरे के समक्ष प्रस्ताव रखा। धारा 2 (b) के अनुसार, जब वह व्यक्ति, जिसके समक्ष प्रस्ताव रखा गया हो, उस पर अपनी सहमति प्रकट कर दे तो कहेंगे कि प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया। उदाहरणार्थ-यदि प्रकाशक ‘अ’ व्यापारिक ‘सन्नियम’ की पुस्तक लेखक ‘ब’ के समक्ष ₹3000 में लिखने के लिए प्रस्ताव रखे और लेखक ‘ब’ इसके लिए सहमत हो जाए तो इसे दोनों के बीच समझौता कहेंगे।

2. समझौता राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय होना (Enforceable by Law)-समझौते को वैधानिक अस्तित्व प्रदान करने के लिए यह आवश्यक है कि वह योग्य पक्षकारों, उनकी स्वतन्त्र सहमति, न्यायोचित उद्देश्य या प्रतिफल के लिए होना चाहिए जो स्पष्ट रूप से अवैधानिक घोषित न किया गया हो तथा जो किसी विशेष अधिनियम के अनुसार लिखित, साक्षी द्वारा प्रमाणित अथवा पंजीकृत भी हो सकता है।

(i) प्रसंविदा के योग्य पक्षकार (Crntractual Ability)-धारा 1 के अनुसार, वह व्यक्ति संविदा कर सकता है जो वयस्क हो, स्वस्थ मस्तिष्क का हो तथा जिसे किसी राजनियम द्वारा संविदा करने के अयोग्य घोषित न कर दिया गया हो। इस प्रकार वयस्क आय का व्यक्ति वह है जिसने 18 वर्ष की आयु पूरी कर ली हो अथवा यदि उसके लिए किसी संरक्षक की नियुक्ति कर दी गई हो तो ‘Court of Wards Act’ के अनुसार, उसने 21 वर्ष एक अध्ययन का आयु पूरी कर ली हो। धारा 12 के अनसार स्वस्थ मस्तिष्क का व्यक्ति वह समझा जाएगा

अनुबन्ध करते समय उसको समझने तथा अपने हितों पर उसके प्रभाव को समझने के योग ।। काइव्याक्त जो अस्वस्थ मस्तिष्क का हो तथा संविदा करते समय वह स्वस्थ मास्तष्क काय हो गया हो तो वह संविदा करने योग्य है। इसी प्रकार यदि स्वस्थ मस्तिष्क का व्यक्ति संविटा करन क समय अस्वस्थ मस्तिष्क का हो तो वह संविदा के योग्य नहीं रहेगा।

राजनियम द्वारा अयोग्य न होना–वे व्यक्ति राजनियम के द्वारा अयोग्य माने जाएंगे का जिन्हें राजनैतिक पेशे कानन सम्बन्धी स्थिति के कारण अनबन्ध करने के अयोग्य ठहरा दिया। गया है; जैसे-विदेशी प्रतिनिधि, कारावास भगतने वाले व्यक्ति, वैधानिक संस्थाएं अपनी वेधानिक शक्ति से अधिक के लिए संविदा. कम्पनी अपने स्मारक-पत्र के विरुद्ध संविदा. दिवालिया, बैरिस्टर अपनी फीस के लिए संविदा करने के लिए राज्य द्वारा निषेध घोषित कर दिए गए हैं।

(ii) पक्षकारों की स्वतन्त्र सहमति (Free Consent of Parties)-धारा 14 के अनुसार, पक्षकारों की सहमति स्वतन्त्र मानी जाएगी जबकि वह उत्पीड़न (Coercion), अनुचित । प्रभाव (Undue influence), कपट (Fraud), मिथ्यावर्णन (Misrepresentation) या त्रुटि । (Mistake) से न ली गई हो क्योंकि धारा 13 के अनुसार, दो या दो से अधिक व्यक्तियों की सहमति उस समय कही जाती है जब वे एक ही बात पर एक ही भाव से सहमत होते हैं। उदाहरणार्थ-‘अ’ जो ठेले पर आम (दशहरी तथा चौसा) बेच रहा है, वह आम का भाव ‘ब’ से ₹ 8 प्रति किलो में करे जबकि ‘अ’ चौसा आम का भाव कर रहा है और ‘ब उसे दशहरी । आम का समझे तो ऐसी दशा में यह सहमति नहीं कही जा सकती है क्योंकि दोनों पक्षकार एक ही बात को नहीं समझ पा रहे हैं। धारा 14 के अनुसार, सहमति उस दशा में स्वतन्त्र कहीब जाती है, जबकि वह निम्नलिखित तत्त्वों में से किसी के कारण प्रदान नहीं की गई है— (1) उत्पीड़न, (ii) अनुचित प्रभाव, (iii) कपट, (iv) मिथ्यावर्णन अथवा (v) त्रुटि।

(iii) न्यायोचित प्रतिफल का उद्देश्य (Object of Lawful Consideration)-बिना प्रतिफल के समझौता व्यर्थ माना जाता है। धारा 2(d) के अनुसार, जब वचनदाता की इच्छा पर वचनगृहीता या किसी अन्य व्यक्ति ने कोई बात की हो अथवा करने को मना किया हो अथवा करता हो या उसको न करने के लिए कहता हो अथवा करने या न करने का वचन देता हो तो उसका यह कार्य प्रतिफल कहलाता है। अन्य शब्दों में, वचनदाता की इच्छा पर वचनगृहीता अथवा अन्य व्यक्ति द्वारा किए जाने वाला कार्य अथवा विरक्ति प्रतिफल कहलाता है जो भूत, भविष्य या वर्तमान का रूप ले सकता है। धारा 23 के अनुसार, निम्नलिखित दशाओं में प्रतिफल अथवा उद्देश्य अवैध कहलाएगा और ऐसा प्रत्येक ठहराव जिसका प्रतिफल अथवा उद्देश्य अवैध है, व्यर्थ होगा-(i) यदि वह राजनियम द्वारा वर्जित है, (ii) यदि वह इस प्रकार का है कि यदि अनुमति दे दी जाए तो वह किसी राजनियम की व्यवस्थाओं को निष्फल कर देगा, (iii) यदि वह कपटमय है, (iv) यदि उससे किसी दूसरे व्यक्ति के शरीर या सम्पत्ति को हानि पहुँचती है, अथवा (v) यदि न्यायालय उसे अनैतिक अथवा लोक नीति के विरुद्ध समझता है। धारा 23 से 25 तक न्यायोचित प्रतिफल तथा उद्देश्य की व्याख्या की गई है। प्रतिफल के अभाव में समझौता ‘बाजी’ या ‘जुए’ का समझौता मात्र कर रह जाएगा, जो व्यर्थ होगा। अनुबन्ध का उद्देश्य न्यायोचित होना चाहिए। किसी व्यक्ति के भंग करना या उसे शारीरिक कष्ट पहुँचाने के लिए किए गए समझौते अवैध तथा व्यर्थ सोते हैं। उदाहरणार्थ-रू.30,000 लेकर तीन माह बाद पुस्तक लिख देना लेखक तथा काशक के बीच प्रतिफल है। लेखक के लिए रू. 30,000 मिलना तथा प्रकाशक के लिए तीन माह बाद पुस्तक प्राप्त होना ही प्रतिफल है।

(iv) स्पष्ट रूप से व्यर्थ समझौते (Agreement expressly declared as Joid)-धारा 26-30 तथा 56 के अनुसार, कुछ समझौते स्पष्ट रूप से व्यर्थ घोषित कर दिए ए हैं, जैसे-धारा 26-28 के अनुसार, विवाह, व्यापार एवं कानूनी कार्यवाही में रोक लगाने ले समझौते, धारा 29 के अनुसार, अनिश्चितता वाले समझौते, धारा 30 के अनुसार, बाजी गाने वाले समझौते तथा धारा 56 के अनुसार, असम्भव कार्य करने वाले समझौते। इसके तिरिक्त, संविदा की क्षमता न रखने वाले व्यक्तियों से किए गए समझौते, दोनों पक्षों की लती से किए गए समझौते, प्रतिफल के अभाव में किए गए समझौते, दो उद्देश्य या प्रतिफल ले समझौते, व्यर्थनीय समझौते माने जाते हैं।

(v) लिखित तथा साक्षी द्वारा प्रमाणित अथवा पंजीकृत होना (Written, | legistered and Witnessed)-यद्यपि धारा 10 के अनुसार, संविदा का लिखित, साक्षी द्रारा प्रमाणित अथवा पंजीकृत होना आवश्यक नहीं है, तथापि यदि किसी विशेष अधिनियम रा ऐसा किया जाना आवश्यक हो तो संविदा लिखित, प्रमाणित (Witnessed) तथा पंजीकृत Registered) हो सकता है। उदाहरणार्थ-अचल सम्पत्ति का बिक्री बन्धक अथवा पट्टा नुबन्धों का लिखित तथा रजिस्टर्ड होना ट्रांसफर ऑफ प्रोपर्टी एक्ट के अनुसार अनिवार्य है। दि किसी अधिनियम द्वारा ऐसा करना अनिवार्य नहीं है तो ऐसा करना या न करना पक्षकारों स्वेच्छा पर निर्भर होता है।

व्यर्थ तथा व्यर्थनीय संविदा (अनुबन्ध) में अन्तर 

(Differences between Void and Voidable Contract) 

धारा 10 की शर्तों को पूरा न करने पर संविदा को व्यर्थ अथवा व्यर्थनीय माना जाता है। पानिक दृष्टिकोण से व्यर्थ अथवा व्यर्थनीय दोनों प्रकार के संविदों को कोई मान्यता नहीं दी ता है। इन दोनों में अन्तर के आधार निम्नलिखित हैं

1.धारा का आधार (Basis of Section)–धारा 2(6) के अनुसार, जो समझौता नयम द्वारा प्रवर्तनीय होने से वर्जित हो जाता है, व्यर्थ कहलाता है, अर्थात जब वह किसी यस्क के साथ बिना प्रतिफल के, गलती पर आधारित, लोक नीति के विरुद्ध, अनैतिक वा असम्भव समझौता हो तो वह व्यर्थ कहलाता है। इसके विपरीत धारा 2(6) के अनुसार, समझौता केवल एक पक्षकार की इच्छा पर आधारित हो, व्यर्थनीय संविदा कहलाता है, मात् जब समझौता उत्पीड़न, अनुचित प्रभाव, कपट या मिथ्यावर्णन द्वारा प्रभावित हो तो वह र्थनीय कहलाता है।

2. मान्यताका आधार (Basis of Recognition)-व्यर्थ संविदा किसी भी द्वारा प्रवर्तनीय नहीं हो सकता है, किन्तु व्यर्थनीय संविदा किसी एक पक्षकार द्वारा प्रवर्ती सकता है, अर्थात् व्यर्थ संविदा किसी पक्षकार द्वारा राजनियम की सहायता से प्रवर्तनीय नम अतः राजनियम द्वारा व्यर्थ संविदा को कोई मान्यता नहीं दी गई है जबकि हानि उठाण, पक्षकार की इच्छा पर राजनियम द्वारा व्यर्थनीय संविदा में इसे मान्यता प्रदान की जा सकती है।

3. हस्तान्तरणशीलता का आधार (Basis of Transferability)-व्यर्थ संविदा अन्तर्गत प्राप्त वस्तु का हस्तान्तरण किसी तीसरे पक्ष को नहीं किया जा सकता है, अर्थात् तीर पक्षकार को अच्छा अधिकार प्राप्त नहीं हो सकता है, परन्तु व्यर्थनीय संविदा के अन्तर्गत तीर पक्षकार को अच्छा अधिकार मिल सकता है, यदि उसने सद्भावना (In good faith) से वार का उचित मूल्य चुकाकर वस्तु को प्राप्त किया है।

4. वैधता की अवधि का आधार (Basis of Time or Period)-व्यर्थ सवित्र आरम्भ से लेकर अन्त तक व्यर्थ ही रहता है। इसके विपरीत, व्यर्थनीय संविदा प्रारम्भ वैधानिक होता है और उस समय तक वैधानिक रहता है, जब तक कि अधिकार प्राप्त पक्षा उसे व्यर्थ घोषित न कर दे।

प्रश्न – उत्पीड़न से आपका क्या आशय है? अनुबन्ध की वैधता पर इसका का प्रभाव पड़ता है?

What do you mean by Coercion ? What is its effect on the validt of a contract ? 

अथवा उत्पीड़न तथा अनुचित प्रभाव में अन्तर बताइए।

Distinguish between Coercion and Undue Influence. 

उत्तर – उत्पीड़न का अर्थ

(Meaning of Coercion) 

‘उत्पीड़न का अभिप्राय किसी ऐसे कार्य को करने या करने की धमकी देने से है जोक भारतीय दण्ड विधान (Indian Penal Code) द्वारा वर्जित है, अथवा किसी व्यक्तिार हानि पहुंचाने के लिए किसी सम्पत्ति को अवैध रूप से रोकना या रोकने की धमकी देने वार ताकि वह व्यक्ति समझौते में सम्मिलित हो जाए। यह आवश्यक नहीं है कि जहाँ उत्पीड़ाए प्रयोग किया गया है वहाँ पर भारतीय दण्ड विधान आवश्यक रूप से लागू होता हो ।

धारा 15 के अनुसार, “उत्पीड़न का अभिप्राय किसी ऐसे कार्य को करने अथवा की धमकी देने से है जो भारतीय दण्ड विधान द्वारा वर्जित है अथवा इस दृष्टिकोण व्यक्ति को संविदा में सम्मिलित कर लिया जाए अथवा संविदा के लिए उसका सह कर ली जाए अथवा उस व्यक्ति की सम्पत्ति को अवैध रूप से रोकना या रोकना ” इस प्रकार इस परिभाषा के विश्लेषण के अनसार यदि कोई व्यक्ति । विधान के विरुद्ध कार्य करे अथवा (ii) सम्पत्ति को अवैध रूप से राक कहलाएगा। जहां पर उत्पीड़न प्रयोग में लाया गया है. वहाँ पर भारतीय दण्ड होना या न होना महत्त्वहीन है।

1. भारतीय दण्ड विधान के विपरीत कार्य (Activities forbidden by Indian Donal Code)-भारतीय दण्ड विधान प्रत्येक कार्य को करने की सहमति नहीं देता है। ऐसे हत-से कार्य हैं जो दण्ड विधान द्वारा वर्जित हैं, जैसे किसी की लाश को न उठाने देना या चदकशी आदि की धमकी देना।

2. सम्पत्ति को अवैध रूप से रोकना (Unlawful Detention of Property)क मामले में एक एजेन्ट ने, एक निश्चित हिसाब-किताब की पुस्तकें तथा अन्य महत्त्वपूर्ण पत्र उस समय तक वापस करने से इनकार कर दिया जब तक कि नियोक्ता एजेन्सी उसके मय में हुए उसके सभी दायित्वों से उसे मुक्त न कर दे। नियोक्ता द्वारा ऐसी मुक्ति देनी पड़ी नौर नए एजेन्ट ने सब पुस्तकें प्राप्त कर लीं। यह निर्णय हुआ कि मुक्ति पत्र वादी द्वारा तिवादी के उत्पीड़न से दिया गया था और इसलिए वह वादी की इच्छा पर व्यर्थनीय था। परन्तु, कोई वैधानिक धमकी अथवा रोक उत्पीड़न न होगी। किसी की सम्पत्ति को रोकना अथवा रोकने की धमकी देना भी ‘उत्पीड़न’ माना जाता है।

अनुबन्ध की वैधता पर उत्पीड़न का प्रभाव (Effect of Coercion on the Validity of Contract)-धारा 19 के अनुसार, उत्पीड़न से प्रेरित संविदा पीड़ित पक्षकार की इच्छा पर व्यर्थनीय होता है। यह आवश्यक है कि उत्पीड़न के लिए प्रयुक्त रोक या धमकी अवैधानिक होनी चाहिए। वैधानिक धमकी या रोक उत्पीड़न नहीं मानी जाएगी।

अनुचित प्रभाव का अर्थ

(Meaning of Undue Influences 

कोई संविदा उस समय अनुचित प्रभाव द्वारा प्रेरित माना जाता है जब दो पक्षों के बीच विद्यमान सम्बन्ध ऐसे हों कि पक्षों में से प्रत्येक एक-दूसरे की इच्छा को प्रभावित करने की स्थति में हो और दूसरे पर अनुचित लाभ पाने की इच्छा से उस स्थिति को प्रयोग में लाए। इस कार केवल किसी पक्षकार का अनुचित प्रभाव डाल पाने की स्थिति में होना ही पर्याप्त नहीं है, वरन् उस स्थिति का अनुचित लाभ पाने के दृष्टिकोण से प्रयोग किया जाना भी आवश्यक है। पारा 16 के अनुसार, “एक संविदा अनुचित प्रयोग द्वारा प्रेरित किया हुआ उस समय कहा एगा जबकि पक्षकारों के सम्बन्ध इस प्रकार के हों कि वे एक-दूसरे की इच्छा को प्रभावित कित हों और एक-दूसरे पर अनुचित लाभ पाने के लिए अपनी इस स्थिति का प्रयोग इस प्रकार अनुचित प्रभाव सिद्ध करने के लिए दो तथ्यों का होना आवश्यक है

के बीच ऐसा सम्बन्ध होना आवश्यक है, जिसमें एक पक्षकार दूसरे पक्षकार की वित कर सके तथा (ii) उस स्थिति का प्रयोग पक्षकार अनुचित लाभ उठाने के द्रष्टिकोण से करें।इच्छा को प्रभावित करने की स्थिति (State of Influencing the Will)-ॊ कास्थिति प्राय: निम्नलिखित दशाओं में कही जाती है(More Power)-जहाँ पक्षकारों के बीच सम्बन्ध ऐसे हैं कि उनमें सत्ता रखता है, जिससे कि वह दूसरे पर अपना प्रभुत्व जमा सके;

प्रश्न – संविदा के खण्डन होने पर पीड़ित पक्षकार को क्या उपचार उपलब्ध हैं। उन सिद्धान्तों को समझाइए जिनके आधार पर संविदा के खण्डन की दशा में हर्जाने के मात्रा निर्धारित की जाती है।

State the different remedies available to the aggrieved party for a breach of contract, and explain in brief the principles on which damages are assessed for the contract.

अथवा संविदा भंग होने पर कौन-कौन से उपचार उपलब्ध हैं, उनको समझाक उल्लेख कीजिए।

Briefly explain the different kinds of remedies available breach of contract.

उत्तर – जब दो पक्षकार परस्पर संविदा करते हैं तो उस संविदे की समाप्ति, निष्पाप खण्डन अथवा अन्य विधियों से हो सकती है। प्रायः निष्पादन अथवा खण्डन हा रीतियाँ हैं। जब निष्पादन द्वारा संविदे की समाप्ति नहीं होती तो संविदे के खण्डन द्वारा ही संविदा

की समाप्ति हो जाती है। जब एक पक्षकार संविदा भंग कर देता है तो दूसरा पक्षकार अपने वचन को परा करने के लिए उत्तरदायी नहीं रहता और वह संविदा को समाप्त कर सकता है। विदा के खण्डन द्वारा समाप्ति की दशा में पीड़ित पक्षकार को निम्नलिखित अधिकार होते हैं

1. हर्जाने का अधिकार (Claim for Damage)-संविदा के खण्डन से किसी एक पक्षकार को हानि पहुँच सकती है। जिस पक्षकार को हानि पहुँचती है (दूसरे पक्षकार द्वारा संविदा खण्डन करने से) वह उस हानि की वसूली करने का अधिकारी है। क्षतिपूर्ति का अभिप्राय वित्तीय क्षतिपूर्ति से है अर्थात् पीड़ित पक्षकार को उस संविदा के कारण हुई हानि दे देनी है। उदाहरणार्थ-‘अ’, ‘ब’ को एक मशीन देने के लिए संविदा करता है, ‘ब’ उस मशीन से सम्बन्धित उत्पादन हेतु अन्य सामान खरीद लाता है, परन्तु बाद में ‘अ’ मशीन के विक्रय को के मना कर देता है। इस दशा में ‘ब’ को ‘अ’ से क्षतिपूर्ति पाने का अधिकार है।

2. निर्दिष्ट का अधिकार (Claim for Specific Performance)-जब एक पक्षकार को संविदा के खण्डित होने से हानि हो और उस हानि की क्षतिपूर्ति का पर्याप्त उपचार न हो तो पीड़ित पक्षकार निर्दिष्ट निष्पादन के लिए वाद प्रस्तुत कर सकता है। व्यक्तिगत सेवा सम्बन्धी संविदा में निर्दिष्ट निष्पादन का यह सिद्धान्त लागू नहीं होता है। उदाहरणार्थ-‘अ’, ‘ब’ से एक मृतक चित्रकार की बनाई हुई तस्वीर देने का वादा करता है, परन्तु वह उसके लिए मना कर देता है। ‘अ’ को निष्पादन के लिए बाध्य किया जा सकता है क्योंकि वास्तविक क्षति क का ज्ञान करना मुश्किल है। इसी प्रकार, यदि तीन माह में एक लेखक एक पुस्तक लिखने का वचन दे, परन्तु बीमारी के कारण वह लिखने में असमर्थ रहे तो वहाँ पर निर्दिष्ट निष्पादन की माँग नहीं की जा सकती।

3. निष्पादन से मुक्त (Exoneration)-जब संविदा का एक पक्षकार संविदा को पूरा करने में असमर्थ रहता है, अर्थात् खण्डन कर देता है तो पीड़ित पक्षकार संविदा को समाप्त किया हुआ मान सकता है तथा ऐसी स्थिति में पीड़ित पक्षकार अपने भाग के निष्पादन के लिए उत्तरदायी नहीं रहेगा।

4. उचित पारिश्रमिक पाने का अधिकार (Claim for Quantum Merit)इसका अभिप्राय किसी व्यक्ति को उतना धन देना है जितना कि उसने अपने कार्य से अर्जित किया है। इस सिद्धान्त के आधार पर यदि एक पक्ष दूसरे पक्ष की प्रार्थना पर कोई कार्य करता है अथवा उसने कोई कार्य किया हो जिसका पारिश्रमिक निश्चित न हो पाया हो तो वह अपने किए गए कार्य का पारिश्रमिक पाने का अधिकारी है। उचित पारिश्रमिक कितना होगा यह विवाद की परिस्थितियों पर निर्भर करता है। उदाहरणार्थ-‘अ’, ‘ब’ को एक मकान बनाने का ठेका दता है, मकान के पूरा बनने के पूर्व ही ‘अ’, ‘ब’ से आगे काम करने के लिए मना कर देता है, ऐसी स्थिति में ‘ब’, ‘अ’ से रुपया पाने का अधिकारी है। इसी प्रकार यदि ‘अ’ एक चित्रकार ब’ को तस्वीर बनाने का वचन देता है, परन्तु तस्वीर पूरी होने से पूर्व ही चित्रकार की मृत्यु हो जाती है, ऐसी स्थिति में चित्रकार का उत्तराधिकारी राशि पाने का अधिकारी नहीं है क्योंकि चित्र के कार्य को भिन्न नहीं किया जा सकता है।

5. घोषणा-पत्र प्राप्त करने का अधिकार (Claim for Declaratory Suit) पाड़त पक्षकार इस बात की घोषणा के लिए कि वह संविदा से अब बाध्य नहीं है न्यायाल वाद प्रस्तुत कर सकता है। ऐसा करने से पीड़ित पक्षकर को अपने दायित्व से मक्ति र जाती है।

6. निषेध आज्ञा पाने का अधिकार (Claim for Injunction)-न्यायालय पोलि पक्षकार के वाद की सत्यता के आधार पर निषेध आज्ञा प्रदान कर देता है। उदाहरणार्थ’ब’ से एक मकान बेचने का संविदा करता है ‘अ’, ‘ब’ को मकान न बेचकर ‘स’ को बैना करना चाहता है, ऐसी स्थिति में न्यायालय अन्य व्यक्ति को बेचने से ‘अ’ को रोक सकता है।

हर्जाने का अर्थ एवं माप 

(Meaning and Measurement of Compensation) 

हर्जाने का अभिप्राय अर्थ-मुद्रा में क्षतिपूर्ति से है, जिसे पीड़ित पक्षकार संविदा खण्डन की दशा में पाने का अधिकारी हो जाता है। संविदा के खण्डन से हर्जाना क्षतिपर्ति रूप में आता है, दण्ड के रूप में नहीं। इस कारण हर्जाने के लिए वाद प्रस्तुत किए जाने पादश न्यायालय केवल हुई हानि के प्रति उचित क्षतिपूर्ति के लिए निर्णय दे सकता है। यदि किरको संविदा का खण्डन हो जाता है तो पीड़ित पक्षकार हर्जाने के लिए वाद प्रस्तुत करता है, ऐसी स्थिति में हानि के निर्धारण की समस्या मुख्य समस्या होती है। इस सम्बन्ध में Hadley va रू Baxendable (1954) का निर्णय महत्त्वपूर्ण है, जिसके अनुसार एक मिल-मालिक ने एक मशीन उसी के अनुसार दूसरी मशीन बनाने के कारखाने में एक सार्वजनिक वाहक के द्वारा भेज स परन्तु सार्वजनिक वाहक ने इसे लापरवाही के कारण कारखाने में नहीं पहुँचाया जिसके कारण पर मिल-मालिक को नई मशीन न प्राप्त होने के कारण कारखाना बन्द करना पड़ा, जिसकी हान के लिए मिल-मालिक ने वाहक पर एक अभियोग व्यापार में अर्जित किए जाने वाले लाभ वे व लिए चलाया। न्यायालय द्वारा इस प्रकार की अप्रत्यक्ष हानि के हर्जाने की दलील व्यर्थ कर गई। भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 73 तथा 74 के अनुसार हर्जाने की माप – जाती है। इस सम्बन्ध में मुख्य प्रावधान निम्न प्रकार हैं

1. पीड़ित पक्षकार की क्षतिपूर्ति का अधिकार (Right of Compensation ल the Suffering Party) संविदा के खण्डन होने की दशा में पीड़ित पक्षकार साव खण्डन करने वाले पक्षकार से ऐसी हानि की पूर्ति कराने का अधिकारी है, जब (i) सा परिणामस्वरूप हुई हो (Naturally arises in the usual course)-उदाहरणार्थ –

‘ब’ ‘अ’, ‘ब’ से 30 क्विटल चावल के विक्रय का संविदा करके उसे परा नहीं करता ता स्थान से चावल लेकर होने वाली हानि को परा कर सकता है। ii) पक्षकारों को खण्डन जा परिणामों का ज्ञान था-उदाहरणार्थ-‘अ’, ‘ब’ को 100 क्विटल गेहू प्रात की दर से बेचने का संविदा करता है तथा उसी दिन वह ‘स’ से रू. 750 क्विटल गहू सौदा करता है, यदि ‘स गेहँ न दे सके तो ‘अ’ से रू. 5000 जो इस व्यापार का अधिकारी है।

2.  अप्रत्यक्ष हाऩि की तो पीड़ित पक्षकार क्षतिपूर्ति के लिए वाद प्रस्तुत कर सकता है। उदाहरणार्थ-यदि वाहक को पुरानी मशीन किसी कारखाने में भेजने के ना दी जाए, जिससे उसे देखकर नई मशीन बनाई जा सके, वाहन के द्वारा देर में मशीन भेजने से यदि नई मशीन समय पर न मिले और फैक्ट्री बन्द करनी पड़े तो वाहक पर क्षतिपूर्ति के लिए अभियोग नहीं चलाया जा सकता है।

3. क्षति का अनुमान लगाते समय संविदा के निष्पादन न करने से उत्पन्न हुई असुविधाओं को दूर करने के लिए विद्यमान साधनों को ध्यान में रखना चाहिए। उदाहरणार्थ’अ’, ‘ब’ से एक कमरे की छत बनाने का संविदा करता है, परन्तु ‘अ’ बाद में इस संविदा का खण्डन कर देता है और ‘ब’ की छत गिर जाती है, तो ‘ब’, ‘अ’ पर क्षतिपूर्ति के लिए वाद प्रस्तुत नहीं कर सकता है।

4. निश्चित नियत हर्जाने की दशा में उस हर्जाने की पूर्ति (Compensation of के Specific Loss)-यदि पक्षकार स्पष्ट रूप से यह संविदा कर ले कि संविदे की खण्डन की पर दशा में पीड़ित पक्षकार को हर्जाने के रूप में नियत राशि देय होगी तो पीड़ित पक्षकार द्वारा हानि सी को प्रमाणित करने की भी आवश्यकता नहीं है, वह नियत हर्जाना पाने का अधिकारी है। 

हर्जाने के प्रकार (Kinds of Damages)-पीड़ित पक्षकार दूसरे पक्षकार से मुख्य रूप से निम्न हर्जाने के लिए माँग कर सकता हैएक 

1. सामान्य अथवा साधारण हर्जाना (Ordinary Damages)-ऐसी हानि जो जी संविदा के खण्डन के कारण पीड़ित पक्षकार को हुई है। हानि की राशि की गणना परिस्थितियों “पर निर्भर करती है। fall 

2. (Special or Extraordinary Damages)– विशेष हानि वह होती है जो कि विशेष परिस्थितियों में संविदा के खण्डन के कारण उठानी पड़ती है। इस सम्बन्ध में Hadley Vs. Baxendable का निर्णय महत्त्वपूर्ण है जिसमें एक वाहक कम्पनी को स्पष्ट रूप से पशु प्रदर्शिनी में चारा भेजने के लिए कहा गया था और चारे को न भेज पाने की दशा में स्पष्ट रूप से यह कहा गया था कि कम्पनी को हानि होगी। परन्तु वाहक कम्पनी ने चारा बाद में भेजा तथा ऐसी स्थिति में वाहक कम्पनी को चारे के विक्रय से होने वाले लाभ के लिए उत्तरदायी ठहराया गया।

3. आदर्श या मानहानि का हर्जाना (Damages for Loss of Reputation)सम्बन्धित पक्षकारों को कभी-कभी संविदा के खण्डन से अत्यधिक मान-हानि होती है, उसकी प्रतिष्ठा पर चोट पहुँचती है अथवा व्यापारिक जगत् में ख्याति कम होती है। इस प्रकार के हर्जाने की माँग विवाह करने के वचन का खण्डन करने पर अथवा चैक के अनादूत हो जाने पर की जा सकती है। 1 

4. निस्तीर्ण हर्जाना अथवा दण्ड (Liquidated Damages or Penalty)- जब न्यायालय के ऊपर हर्जाने के निर्धारण का कार्य न सौंपा जाकर पीड़ित पक्षकार द्वारा स्वयं ही यह कार्य किया जाए तो इसे हम निस्तीर्ण हर्जाना अथवा दण्ड कहते हैं।

5. नाममात्र की क्षतिपर्ति (Nominal Compensation)-जब एक पक्षकार को संविदा की समाप्ति से कोई विशेष हानि न हई हो तो केवल अधिकार स्थापित करने के दृष्टिकोण से न्यायालय दोषी पक्षकार पर नाममात्र के लिए जुर्माना कर देता है।

6. ब्याज के रूप में हर्जाना (Interest by way of Damages)-सावदा भग होने स ब्याज हर्जाने के रूप में दिया जा सकता है यदि (i) राजनियम द्वारा ब्याज का प्रचलन हो (ii) ब्याज का समझौता पहले कर लिया गया हो, अथवा (iii) सम्बन्धित राजनियमों में ब्याजाकी हर्जाने के रूप में व्यवस्था हो।

प्रश्न – कपट तथा मिथ्यावर्णन का अर्थ एवं उनमें अन्तर बताइए। 

Define Fraud and Misrepresentation and distinguish between them.

उत्तर – कपट का अर्थ

Meaning of Fraud)

धारा 17 के अनुसार, जब अनुबन्ध का एक पक्षकार, अथवा उसकी अपेक्षा से उसका प्रतिनिधि दूसरे पक्षकार अथवा उसके प्रतिनिधि को धोखा देने के अभिप्राय से अथवा उसको pal अनुबन्ध के लिए प्रेरित करने के अभिप्राय से निम्नलिखित कार्यों में से कोई कार्य करता है तो कहेंगे कि उसने ‘कपट’ किया; जैसे

(1) किसी ऐसी बात को जानबूझकर सत्य बताना जो कि असत्य है और जिसको कहने । वाला भी असत्य मानता है,

(2) तथ्य को क्रियात्मक रूप से छिपाना जिसके सम्बन्ध में उसे जानकारी अथवा । विश्वास हो,

(3) एक वचन जो पूरा न करने की दृष्टि से दिया गया हो, 

(4) कोई भी अन्य कार्य जो किसी दूसरे पक्ष को धोखा देने की दृष्टि से किया जाए,

(5) कोई भी ऐसा कार्य अथवा भूल जिसे कोई अधिनियम विशेष रूप से कपटमय घोषित करता हो,

(6) कभी-कभी मौन का अर्थ कपट होता है। साधारणत: मौन कपट नहीं माना जाता चाहे उससे किसी व्यक्ति की संविदा करने की इच्छा पर प्रभाव पड़े या न पड़े, किन्तु दो दशाओं में मौन कपट माना जाता है-(i) जहाँ परिस्थिति ऐसी हो कि उनका ध्यान रहते हुए मौन रहने वाले व्यक्ति का बोलना कर्त्तव्य हो जाता है, (ii) जब मौन रहना भाषण के समान हो।

कपट के आवश्यक लक्षण

(Main Characteristics of Fraud) 

अधिनियम में दी गई कपट की परिभाषा का विस्तृत अध्ययन करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि कपट में निम्नलिखित आवश्यक लक्षण पाए जाते हैं।1. कपट का कार्य संविदा के एक पक्ष अथवा उसके एजेन्ट द्वारा किया जा सकता है (Fraudulent work may be done by one party or by his agent)-कपट क कार्य एक पक्षकार अथवा उसके प्रतिनिधि द्वारा किया जा सकता है।

कपट का कार्य धोखा देने के उद्देश्य से किया जाना चाहिए (Fraudulent activity to deceive aparty)-जिस व्यक्ति को धोखा देने का उद्देश्य हो यदि उसे धोखा ना हुआ तो उसे वैधानिक आपत्ति उठाने का अधिकार नहीं है। इस सम्बन्ध में Horsfall Vs. homas (1862) तथा Smith Vs. Chadwick के निर्णय महत्त्वपूर्ण हैं।

3.धोखा संविदा के पक्षकार अथवा उसके एजेन्ट के प्रति अथवा दूसरे पक्षकार को अनुबन्ध के लिए प्रेरित करने के लिए होना चाहिए (Fraud must be against the party or his agent or to inspire him or his agent to a contract)-यह आवश्यक नहीं है कि मिथ्यावर्णन प्रभावित पक्षकार का ही किया गया हो, यदि वह इस उद्देश्य सें किया गया हो कि दूसरा पक्ष उस पर कार्य करे अर्थात् संविदा करे तो यह कपटपूर्ण कार्य आना जाएगा। इस सम्बन्ध में Michael Vs. Wilsoe (1899) तथा Langridge Vs. kevy के निर्णय महत्त्वपूर्ण हैं।

4. सम्बन्धित पक्षकार को कपट से हानि होना आवश्यक (Concrete loss to the Prarty to which fraud has been exercised)-कपट के कारण दूसरे पक्ष को हानि भी होनी अनिवार्य है क्योंकि हानि के बिना कपट के आधार पर वैधानिक आपत्ति नहीं की जा सकती।

5. मौन द्वारा कपट (Fraud by Silence)-धारा 17 की व्याख्या के अनुसार, भधारण दशाओं में मौन कपट नहीं होता भले ही किसी व्यक्ति की संविदा करने की इच्छा पर सका प्रभाव पड़े या न पड़े, परन्तु दो दशाओं में मौन कपट माना जाता है–(i) जहाँ रिस्थितियाँ ऐसी हों कि मौन रखने वाले व्यक्ति का बोलना वैधानिक कर्त्तव्य हो, अथवा 1) जहाँ मौन रहना स्वयं बोलने के बराबर हो। ___

6. कपट की विशेष दशाएँ (Special Conditions of Fraud)-कपट एक ऐसा यापक शब्द है जिसे धारा 17 के अनुसार पाँच भागों में विभक्त किया गया है। कपट सम्बन्धी विशेष तथ्य इस प्रकार हैं

(1) सुझाव या प्रदर्शन द्वारा कपट-यदि संविदा का एक पक्षकार दूसरे पक्षकार को नामपना सुझाव दे जिसे वह गलत अथवा असत्य समझता है तो इस प्रकार वह दूसरे पक्ष को पट द्वारा संविदा करने के लिए प्रेरित करता है।

(ii) सक्रिय छिपाव द्वारा कपट – जब कोई पक्षकार संविदा के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण भात को छिपाता है तो इसे छिपाव द्वारा कपट कहा जाएगा। उदाहरणार्थ-यदि विक्रेता क्रेता की वस्तु की खराबी की बात न बताकर वस्तु बेच दे तो विक्रेता के इस कार्य को छुपाव द्वारा कपट की संज्ञा प्रदान की जाएगी। निम्नवत् संविदा में एक पक्षकार दूसरे पक्षकार को संविदा की सभी बातें बताने के लिए उत्तरदायी हैका (अ) जब महत्त्वपूर्ण बातों का बताना वैधानिक उत्तरदायित्व हो,

(ब) विशेष सम्बन्ध के कारण भी महत्त्वपूर्ण बातें बताना आवश्यक है; जैसे-एजेन्ट और प्रधान का सम्बन्ध, कानूनी सलाहकार तथा मुवक्किल, अवयस्क और संरक्षक आदि।

(स) सद्भावना वाले संविदा में (Contract Uberrimae Fidei) जो (i) पारिवारिक पटारों से सम्बन्धित हो, (ii) ऐसे व्यक्तियों के बीच हो जिनका एक-दूसरे के साथ

विश्वसनीय सम्बन्ध हो; जैसे-माता-पिता, कानूनी सलाहकार, (iii) बीमा का (iv) भूमि विक्रय सम्बन्धी संविदा, (v) साझेदारी का संविदा, (vi) कम्पनी के अंश खरील संविदा, (vii) गारण्टी का संविदा आदि।

(iii) पूरा न करने के विचार से किया गया कोई भी वचन कपट कहलाता है। 

(iv) कोई भी ऐसा कार्य जिसमें मनुष्य को धोखा देना ही ध्येय हो।

(v) कोई भी भूल अथवा कार्य जो किसी विशेष राजनियम द्वारा कपटमय घोषित दिया गया हो जैसे

Presidency Towns Insolvency Act की धारा 53 तथा 54/ अधीन दिवालिया द्वारा हस्तान्तरण कपटमय घोषित कर दिया गया।

मिथ्यावर्णन का अर्थ

(Meaning of Misrepresentation) 

‘मिथ्यावर्णन’ शब्द दो अर्थों में प्रयोग किया गया है। एक तो ऐसा मिथ्यावर्णन जो सक जान-बूझकर धोखा देने के दृष्टिकोण से किया जाए, दूसरे ऐसा मिथ्यावर्णन जो कि अज्ञानताव क किया जाए। इस प्रकार मिथ्यावर्णन या तो ‘कपटमय मिथ्यावर्णन’ हो सकता है अथव ‘निर्दोषपूर्ण मिथ्यावर्णन’। पहले अर्थ के लिए राजनियम में ‘कपट’ शब्द का प्रयोग किया गया है, जिसका पीछे वर्णन किया जा चुका है। दूसरे अर्थ में, ‘मिथ्यावर्णन’ शब्द ही प्रयोग किया गया है।

धारा 18 के अनुसार, ऐसा ‘मिथ्यावर्णन’ निम्नलिखित रूपों में माना जाता है

1. अज्ञानतावश मिथ्यावर्णन से गलती करा देने पर (Causing mistake it Innocent Misrepresentation)-यदि किसी व्यक्ति के प्रदर्शन से, यद्यपि व अज्ञानतावश है, अनुबन्ध से सम्बन्धित दूसरा पक्षकार अनुबन्ध की वस्तु के सारात्व के विषय वि एक पक्षकार द्वारा अनुबन्ध की विषय-वस्तु के सारात्व के विषय में गलतियाँ प्रेरित की गई अनुबन्ध दूसरे पक्षकार की इच्छा पर व्यर्थनीय है, यद्यपि वह प्रेरणा अज्ञानतावश ag उदाहरणार्थ-‘अ’, ‘ब’ से कहता है-“मेरा मकान दोषमुक्त है।”

2. कर्त्तव्यभंग द्वारा मिथ्यावर्णन (Misrepresentation by Breach Duty)-यदि व्यक्ति अपना कर्त्तव्य भंग करता है और कर्त्तव्य भंग करने के फलस्वरूप कुछ लाभ होता है तथा दूसरे पक्षकार का अहित होता है, तो ऐसा कर्त्तव्यभंग ‘मिथ्याव कहलाता है, यद्यपि वह धोखा देने के अभिप्राय से नहीं किया गया है। अनबन्धों के कुछ मामले में; जैसे-सद्भावना वाले अनुबन्धों में, जिनमें कि एक पक्षकार को विषय से सम्बा को जानने के ऐसे साधन उपलब्ध होते हैं जो कि दसरे पक्षकार को नहीं होते हैं, एक का राजनियमानुसार कर्तव्य होता है कि वह अनुबन्ध के सम्बन्ध में सभी महत्त्वपूर्ण दूसरे पक्षकार के लिए प्रकट कर दे। ऐसा न करना कर्त्तव्यभंग कहलाता ही

3. निश्चयात्मक कथन द्वारा मिथ्यावर्णन (Misrepresentation by Positive Statement)-किसी ऐसी बात का निश्चयात्मक कथन जो सत्य नही हैं। य़द्धपि कहने वाला उसके सत्य होने का विश्वास रखता है, मिथ्यावर्णन उसी स्थिति में माना जाता है जबकि कहने वाले के पास इस प्रकार विश्वास करने के लिए कोई उचित आधार न हो। यदि कहने वाले ने किसी उचित आधार पर ही ऐसा विश्वास किया है, तब मिथ्यावर्णन नहीं होगा, बल्कि ‘पारस्परिक’ गलती मानी जाएगी।

कपट तथा मिथ्यावर्णन में अन्तर 

(Differences between Fraud and Misrepresentation) 

1. उद्देश्य का आधार (Basis of Object)-कपट धोखा देने के उद्देश्य से किया जाता है, इसके विपरीत, मिथ्यावर्णन धोखा देने के उद्देश्य से नहीं किया जाता है।

2.वैधताका आधार (Basis of Validity)-कपट की दशा में पीड़ित पक्षकार द्वारा उचित समय के अन्तर्गत संविदा के विरुद्ध कोई कार्यवाही न करने पर भी संविदा वैध नहीं हो सकता। इसके विपरीत, जिस पक्ष के साथ अज्ञानवश मिथ्यावर्णन हुआ है, यदि वह उचित समय के अन्तर्गत कार्यवाही नहीं करता है तो संविदा वैध माना जाता है।

3. पीड़ित पक्षकार को अधिकार (Right of the Suffered Party)-कपट की दशा में संविदा के रद्द होने पर पीड़ित पक्षकार को पुनःस्थापना तथा क्षतिपूर्ति का अधिकार होता है। इसके । विपरीत, मिथ्यावर्णन में पीड़ित पक्षकार को पुनःस्थापना का ही अधिकार होता है।

4. सत्यता का पता लगाना (To find out the truth)-कपट की दशा में (मौन द्वारा कपट को छोड़कर) दोषी पक्षकार यह नहीं कह सकता कि पीड़ित पक्षकार सत्यता का पता लगा सकता था, इसके विपरीत, मिथ्यावर्णन में दोषी पक्षकार सदैव दूसरे पक्षकार द्वारा by सत्यता का पता लगाने के सम्बन्ध में कह सकता है। 

प्रश्न – एजेन्सी क्या है? विभिन्न प्रकार के एजेन्टों का वर्णन कीजिए। एजेन्सी म किस प्रकार स्थापित होती है? एजेन्सी की समाप्ति की रीतियों का उल्लेख कीजिए।

What is Agency ? What are the different types of agents ? How is eft agency constituted or created ? Explain the modes of termination of agency. 

अथवा एजेन्सी की परिभाषा दीजिए। यह किस प्रकार उत्पन्न होती है और किस प्रकार समाप्त होती है?

Define Agency. How it is created and how it is terminated ? 

उत्तर – एजेन्सी का अर्थ एवं परिभाषा

(Meaning and Definition of Agency) 

हानिरक्षा, प्रतिभूति तथा निक्षेप अनुबन्धों की ही भाँति एजेन्सी भी एक विशेष व्यापारिक अनुबन्ध है। इससे सम्बन्धित व्यवस्थाएँ भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 182-238 में सन्निहित हैं।

प्रकृति का सामान्य नियम है कि एक व्यक्ति उस समय तक दूसरे व्यक्ति की मदद नहीं लता है जब तक कि वह स्वयं किसी कार्य को कर सकता है। एक व्यक्ति सम्पूर्ण कार्य अपने भाप नहीं कर सकता, वह अपने कार्यों के निष्पादन तथा उद्देश्य की पूर्ति के लिए दूसरे व्यक्तियों माध्यम से अपना प्रतिनिधित्व कराने के लिए कहता है। वैधानिक भाषा में इस प्रकार के अधिकृत व्यापारियों को एजेन्सी की संज्ञा प्रदान की जाती है। धारा 182 के अनुसार वह  व्यक्ति जो किसी दूसरे व्यक्ति की ओर से कार्य करने के लिए अथवा अन्य व्यक्तियों प्रतिनिधित्व करने के लिए नियक्त किया गया है, एजेन्ट (Agent) कहलाता है। वह व्या जिसका कार्य करने के लिए अथवा प्रतिनिधित्व करने के लिए जिस व्यक्ति को नियक्त गया है वह प्रधान (Principal) कहलाता है। इन दोनों के सम्बन्ध को एजेन्सी कहते हैं।”

एजेन्सी की परिभाषा के अनुसार एजेन्सी संविदा के मुख्य लक्षण इस प्रकार (i) एजेन्सी संविदा में एक पक्षकार को मूल स्वामी की ओर से कार्य करने के लिए अधिकतर दिया जाता है, (ii) धारा 183 के अनुसार, मूल स्वामी में संविदा करने की क्षमता होनी चाहि क्योंकि कोई भी व्यक्ति जो एजेन्ट के माध्यम से कार्य करता है वह स्वयं उसके द्वारा किया हा कार्य माना जाता है (He who acts through an agent is himself acting i.e.ON facit per alium persue); (iii) धारा 184 के अनुसार, उस व्यक्ति को जिसे एजेल नियुक्त किया जाता है, उसमें संविदा की क्षमता होनी आवश्यक है। इस दृष्टिकोण से नियुक्त एका तृतीय पक्ष से सम्बन्ध करने से कोई भी व्यक्ति एजेन्ट बन सकता है, परन्तु जो व्यक्ति वयस्क नहीं है, अथवा स्वस्थ मस्तिष्क का नहीं है, अपने को बाध्य करने के लिए एजेन्ट नहीं बन सकता है, अर्थात् अवयस्क एजेन्ट तो बन सकता है और उसके द्वारा किए गए कार्यों के लिए इसका प्रधान उत्तरदायी भी रहता है, परन्तु वह स्वयं प्रधान एवं तीसरे पक्ष के लिए उत्तरदाय नहीं रहता है। (iv) धारा 185 के अनुसार, एजेन्टों के संविदा में पारिश्रमिक का पाया जान आवश्यक नहीं है। एजेन्ट पारिश्रमिक रहित अथवा पारिश्रमिक सहित हो सकते हैं।

एजेन्टों के प्रकार

(Types of Agents) 

1. कमीशन एजेन्ट (Commission Agent)-कमीशन एजेन्ट साधारणत: विदेश प्रधान की तरफ से कमीशन के बदले में कार्य करता है। वह अपने प्रधान के लिए अपने ही ना से माल खरीदता है। खरीदे माल की कीमत चुकाने के लिए वह स्वयं उत्तरदायी होता है, अप परिश्रम के लिए कमीशन पाने का अधिकारी है। प्रधान के द्वारा कीमत का भुगतान न करन क्षति के लिए वाद प्रस्तुत कर सकता है। वह है जो प्रधान

2. परिशोधी एजेन्ट (Del credereAgents)-परिशोधी एजेन्ट वह है जात्र एक निश्चित कमीशन लेकर ऋणदाताओं द्वारा भुगतान की गारण्टी देता है। याद भुगतान करने में असमर्थ रहता है तो वह स्वयं भुगतान का उत्तरदायित्व अपने ऊपर

3. बैंकर (Bankers)-साधारणत: बैंकर तथा ग्राहकों के बीच ऋणी तथा सम्बन्ध होता है। यदि बैंकर ग्राहक की ओर से अन्य कार्य करने का उत्तरदाय जैसे-प्रतिभूतियों का क्रय-विक्रय, प्रतिभूतियों, अंशों, ऋण-पत्रों का ब्या एकत्रित करना आदि तथा ग्राहक की ओर से बिजली के बिल आयकर,बामा का भुगतान करना। बैंकर को अपने ग्राहक के व्यवहार गप्त रखने होते है, पर सुरक्षित रखने के लिए वह ग्राहक के व्यवहारों को प्रकट (Disclose) भी सकता है। सम्बन्ध में Tourier Vs. National Provincial and Union Bank of England (1914) का निर्णय महत्त्वपूर्ण है।

4. बीमा दलाल (Insurance Brokers)-ये दलाल जहाजी बीमा करने के लिए नियुक्त किए जाते हैं। ये बीमादार तथा बीमादाता की मध्यस्थता का काम करते हैं।

5.नीलामकर्ता (Auctioner)-नीलामकर्ता वह व्यक्ति होता है जिसे जनसाधारण में माल को बेचने अथवा नीलाम करने का अधिकार होता है।

6.दलाल (Broker)-दलाल वह एजेन्ट है जो दलाली के प्रतिफल में दोनों पक्षकारों की ओर से कार्य करता है। यदि वह वाणिज्य, व्यापार अथवा नौवहन सम्बन्धी बातों के लिए संविदा अथवा सौदा (Bargain) करने के लिए नियुक्त किया जाता है तो वह अपने कार्य के लिए प्रधान को उत्तरदायी ठहरा सकता है।

7. आढ़तिया (Factor)-आढ़तिया उस एजेन्ट को कहते हैं जो प्रतिफल के बदले में प्रधान द्वारा भेजे गए अथवा सुपुर्द किए गए माल को बेचने के उद्देश्य से नियुक्त किया जाए। यह consignee तथा कमीशन एजेन्ट दोनों होता है। इसे माल पर अधिकार तथा पूर्वाधिकार प्राप्त होते हैं।

विवाहित स्त्री अपने पति की साख पर क्रय कर सकती है अथवा नहीं यह एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है। पुरुष का अपनी पत्नी के ऋण के लिए दायित्व एजेन्सी के सिद्धान्त पर ही निर्भर है। साधारणत: पति तथा पत्नी में एक-दूसरे के लिए एजेन्ट होने की क्षमता नहीं है। किन्तु यदि पति. पत्नी की आवश्यकताओं की उचित व्यवस्था करने की उपेक्षा करता है तो पत्नी अपनी आवश्यकताओं को प्राप्त करने के लिए अपने पति की साख गिरवी रख सकती है और ऐसी स्थिति में पत्नी आवश्यकता के कारण अपने पति की एजेन्ट हुई। पुरुष अपनी स्त्री के कार्यों के लिए तभी उत्तरदायी ठहराया जा सकता है जब यह सिद्ध हो जाए कि जो कुछ भी उसकी पत्नी ने किया है वह अपने पति की व्यक्त या गर्भित आज्ञा से किया है। जब पुरुष ने अपनी पत्नी को स्पष्ट रूप से (Expressly) कर्ज लेने का अधिकार दिया है तो वह उत्तरदायी होगा ही। जब पति-पत्नी साथ रहते हैं तो अपने पति के नाम पर पत्नी को जीवन की आवश्यकताओं को खरीदने का गर्भित अधिकार है, परन्तु यदि वह सिद्ध कर सके-(i) खरीदी हुई वस्तु जीवन के लिए आवश्यक नहीं थी; (ii) आवश्यक वस्तुओं के क्रय के लिए उसने रकम पत्नी को द दी थी, (iii) विक्रेताओं को स्पष्ट रूप से उधार देने के लिए मना कर दिया गया, (iv) यदि पत्नी पति से अलग रहती है तथा (v) उसने स्पष्ट रूप से अपनी पत्नी को ऋण लेने अथवा उधार सौदा खरीदने से मना कर दिया हो।

एजेन्सी की स्थापना

(Creation of Agency) 

1. स्पष्ट अथवा गर्भित रूप से अधिकार प्राप्त करने पर (By Express or Implied Delegation of Authority) धारा 186-187 के अनुसार, एजेन्ट की नियुक्ति या तो लखित अथवा मौखिक शब्दों द्वारा की जा सकती है जिसे स्पष्ट अधिकार द्वारा नियुक्ति कहते हैं। यदि परिस्थितियों द्वारा नियुक्ति की जाती है तो उसे ‘गर्भित नियुक्ति’ कहते हैं।

2. पुष्टीकरण द्वारा (By Ratification)-धारा 196 के अनुसार जब एक नियोक्ता किसी व्यक्ति द्वारा किए गए कार्यों को मान्यता प्रदान कर देता है ता इस हम पुष्टीकरण द्वारा एजन्ट का नियुक्ति कहते हैं, अर्थात स्पष्ट रूप से स्वामी द्वारा एजेन्ट की नियुक्ति न की जाकर व्यक्ति द्वारा किए गए कार्य को मानना। स्वामी तथा एजेन्ट के मध्य यह संविदा गभित संविता कहलाएगा। उदाहरणार्थ-‘क’ को ‘ब’ से ₹ 500 लेने थे। ‘स’ ‘क’ की आज्ञा के बिना ही ‘व’ स राशि लेकर ‘क’ को देता है जिसे ‘अ’ स्वीकार कर लेता है तो ‘क’और ‘स’ के मध्य एजेन्सी का संविदा कहलाएगा।

3. अवरोध अथवा प्रदर्शन द्वारा (By Estoppel or Holding Out)-भारतीय साक्ष्य आधिनियम (Indian Evidence Act) की धारा 155 के अनसार, जब कोई व्यक्ति अपने शब्दों अथवा आचरण द्वारा ऐसा प्रदर्शित करता है कि कोई व्यक्ति उसका एजन्ट है (जबकि वास्तव में नहीं होता है) और यदि उसके उस व्यवहार से कोई अन्य व्यक्ति एजेन्सी की उपस्थिति में विश्वास करने को प्रेरित होता है तो ऐसा प्रदर्शनकारी अपने एजेन्सी के दायित्वों से इनकार नहीं कर सकता। उदाहरणार्थ-‘अ’, ‘ब’ की उपस्थिति में कोई ऐसा कार्य करे जिससे अन्य व्यक्ति उसकी एजेन्सी के सम्बन्ध में विश्वास कर ले तो ‘अ’ तथा ‘ब’ के बीच यह प्रदर्शन द्वारा एजेन्सी स्थापित करना कहलाएगा।

4. आवश्यकता के कारण (By Necessity)-किसी आकस्मिक घटना अथवा आवश्यकता के कारण भी एक व्यक्ति ऐसी परिस्थितियों में पड़ सकता है कि स्पष्ट आदेश के बिना भी एजेन्ट के रूप में कार्य करने के लिए बाध्य हो जाए, तब एजेन्ट की नियुक्ति आवश्यकता के कारण मानी जाएगी।

एजेन्सी की समाप्ति की रीतियाँ

(Modes of Termination of Agency) 

(1) प्रधान द्वारा एजेन्ट के अधिकार का खण्डन करके, एजेन्ट द्वारा एजेन्सी के व्यवहार का परित्याग करना। इसके लिए एजेन्ट का एजेन्सी की विषय-वस्तु में हित होना, प्रधान द्वारा खण्डन करने पर, एजेन्ट द्वारा अपने अधिकार का थोड़ा प्रयोग करने पर, समय से पूर्व एजेन्सी की समाप्ति का प्रभाव, प्रधान या एजेन्ट को परित्याग के लिए क्रमश: एक-दूसरे पक्ष को उचित सूचना देना, परित्याग स्पष्ट या गर्भित होना, एजेन्ट के अधिकार की समाप्ति कब, सूचना मिल जाने पर, (2) एजेन्सी के व्यापार के पूरा हो जाने पर, (3) प्रधान अथवा एजेन्ट की मृत्यु अथवा पागल हो जाने पर, (4) प्रधान के दिवालिया हो जाने पर, (5) प्रधान अथवा एजेन्ट के समझा। की दशा में, (6) एजेन्सी के मूल तत्त्व के नष्ट हो जाने पर, (7) एजेन्सी की अवधि समाप्त पर। अखण्डनीय एजेन्सी–जहाँ एजेन्ट का एजेन्सी में हित हो तथा एजेन्ट न अप अधिकार का आंशिक प्रयोग किया हो।

प्रश्न – उपएजेन्ट कौन होता है? उपएजेन्ट एवं स्थानापन्न एजेन्ट अन्तर है? एजेन्ट, नियोक्ता तथा तीसरे पक्षकारों के साथ सम्बन्धों में उसय स्थिति है?

What constitutes a subagent? Distinguish between suba substituted agent. What is his position in relation to agent and third party?

अथवा उपएजेन्ट तथा स्थानापन्न एजेन्ट में अन्तर बताइए। नियोक्ता तथा तीसरे पक्ष से उसका सम्बन्ध बताइए।

Distinguish between a subagent and substituted agent. Indicate their relation to principal and the third party. 

अथवा “एक एजेन्ट अपने प्रधान की ओर से अपने द्वारा किए गए अनुबन्धों को व्यक्तिगत रूप से लागू नहीं करा सकता और न ही वह ऐसे अनुबन्धों के लिए व्यक्तिगत रूप से बाध्य किया जा सकता है।” इस कथन की व्याख्या कीजिए तथा इसके अपवादों की विवेचना कीजिए।

“An agent cannot personally enforce a contract entered into by him on behalf of his principal nor is he personally liable for such contracts.” Explain this statement and describe its exceptions. 

उत्तर – उपएजेन्ट की परिभाषा एवं अर्थ

(Meaning and Definition of Subagent) 

धारा 191 के अनुसार, उपएजेन्ट वह व्यक्ति है जो एजेन्सी के कारोबार में मूल एजेन्ट द्वारा रखा गया है तथा उसके नियन्त्रण में कार्य करता है। उदाहरणार्थ-‘अ’, ‘ब’ को 400 बोरी गेहूँ खरीदने के लिए कहे, ‘ब’ इस कार्य में ‘स’ की सहायता ले तो ‘स’, ‘ब’ का एजेन्ट कहलाएगा। सिद्धान्तानुसार, एजेन्ट अपने कार्य के लिए दूसरे व्यक्ति को नियुक्त नहीं कर सकता है। फ्रेंच भाषा की एक कहावत है- ‘Delegatus non potest delegate’ i.e. A delegate cannot further appoint a delegate. इस सिद्धान्त के अनुसार, एक एजेन्ट अपने कार्य के लिए दूसरे व्यक्ति को नियुक्त नहीं कर सकता, परन्तु इस नियम के निम्नलिखित अपवाद हैं

(i) जब प्रधान के द्वारा एजेन्ट को उपएजेन्ट नियुक्त करने का अधिकार दे दिया जाए, 

(ii) जब उपएजेन्ट की नियुक्ति व्यापारिक प्रथा के अनुसार की जाती हो, 

(iii) जब प्रधान को यह मालूम हो जाए कि उसका एजेन्ट उपएजेन्ट रखना चाहता है, 

(iv) किसी आकस्मिक समय में जब एजेन्ट के लिए उपएजेन्ट की नियुक्ति करना आवश्यक हो,

(7) जब एजेन्ट की प्रकृति ऐसी हो कि उसके उपएजेन्ट की नियुक्ति की जानी आवश्यक हो,

(vi) जब किसी ऑफिस का काम हो जहाँ विशेष प्रकार के विवेक या बुद्धि की आवश्यकता न हो।

नियोक्ता का क्षमता(Capacity of Principal)-जहाँ तक नियोक्ता की क्षमता कोई भी व्यक्ति जो नियमानुसार वयस्क है तथा जो स्वस्थ मस्तिष्क का है, कता है। दूसरे शब्दों में, नियोक्ता में अनुबन्ध करने की क्षमता का होना विषय में एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है-“कोई भी व्यक्ति जो एजेन्ट द्वारा कार्य स्वय का कार्य माना जाता है।” इसलिए यदि नियोक्ता स्वयं अवयस्क है तो

उसके एजेन्ट द्वारा किए गए कार्य उस पर कैसे बाध्य हो सकते हैं। इसलिए यदि नियोक्ता के अनुबन्ध करन की क्षमता न होगी तो अन्य व्यक्ति उसके एजेन्ट द्वारा भी अनुबन्ध न करेंगे।

नियोक्ता, एजेन्ट तथा उपएजेन्ट के मध्य वैधानिक स्थिति (Legal position of meagent, the subagent and the principal)-इनके आपसी सम्बन्ध का ज्ञान टो दशाओं में हो सकता है, जबकि उपएजेन्ट की नियुक्ति अधिकृत ढंग से की गई हो तथा जब उपएजेन्ट की नियुक्ति अनधिकृत रूप से हुई हो।

(1) उपएजेन्ट की नियुक्ति उचित दशा में होने पर (Subagent appointed properly)-

धारा 192 के अनुसार जब उपएजेन्ट की नियुक्ति उचित दशा में की गई हो तो उसके वैधानिक दायित्व इस प्रकार होंगे

(1) एजेन्ट नियोक्ता के प्रति अपने उपएजेन्ट के कार्यों के लिए उत्तरदायी है। ___

(2) उपएजेन्ट अपने कार्यों के लिए एजेन्ट के प्रति उत्तरदायी होगा, नियोक्ता के प्रति नहीं। एजेन्ट, नियोक्ता तथा उपएजेन्ट के बीच एक ऐसी कड़ी है जो एक ओर तो नियोक्ता के प्रति तथा दूसरी ओर उपएजेन्ट के प्रति उत्तरदायी होता है। उपएजेन्ट अपने कमीशन के लिए एजेन्ट पर वाद प्रस्तुत कर सकता है नियोक्ता पर नहीं। उपएजेन्ट द्वारा छल-कपट की दशा में नियोक्ता को अधिकार होगा कि वह एजेन्ट तथा उपएजेन्ट दोनों पर अभियोग चला सके।

(3) तीसरे पक्षकार के सम्बन्ध में नियोक्ता उपएजेन्ट की नियुक्ति के उपरान्त अपने दायित्वों से मुक्त नहीं होता, अर्थात् नियोक्ता तीसरे पक्षकार के लिए उपएजेन्ट के कार्यों के लिए भी उत्तरदायी है।

(II) उपएजेन्ट की अनधिकृत नियुक्ति की दशा में (Subagent appointed wrongfully)-धारा 193 के अनुसार यदि उपएजेन्ट की नियुक्ति अनधिकृत ढंग से की गई है, तो मूल एजेन्ट ऐसी दशा में एक ओर तो नियोक्ता के लिए उत्तरदायी है और दूसरी ओर उपएजेन्ट के लिए उत्तरदायी है। न तो नियोक्ता उपएजेन्ट के द्वारा किए गए कार्यों के लिए उत्तरदायी होगा और न ही उपएजेन्ट नियोक्ता के प्रति उत्तरदायी होगा।

स्थानापन्न एजेन्ट का अर्थ

(Meaning of Substituted Agent) 

स्थानापन्न एजेन्ट से आशय एजेन्ट के स्थान पर नियुक्त ऐसे व्यक्ति से है जिसके द्वारा एजेन्ट का कार्यभार संभाल लिया जाता है तथा एजेन्ट को उसके कार्य से मुक्त कर दिया जाता है। धारा 194 के अनुसार जब एजेन्ट ने नियोक्ता की ओर से काम करने के लिए किसा अन्य व्यक्ति को नामांकित करने अथवा स्पष्ट या गर्भित अधिकार रखते हए. किसी अन्य व्यापा को नामांकित कर दिया हो तो ऐसे व्यक्ति को ‘स्थानापान्न एजेन्ट’ कहेंगे न कि उपएजैन्ट। उदाहरणार्थ-‘अ’,एक Electrician ‘ब’ के पास रेडियो ठीक कराने के लिए जाता है। उस रेडियो को स्वयं ठीक न करके रेडियो विशेषज के पास छोड देता है। यहाँ पर ब का रेडियो विशेषज्ञ ने ले लिया।

प्रश्न – अदत्त विक्रेता किसे कहते हैं? अदत्त विक्रेता के विभिन्न अधिकार का स्पष्ट कीजिए तथा उन परिस्थितियों को समझाइए जिनमें अधिकारी का उपयोग किया जा सकता है।

Who is Unpaid Seller ? Explain the various rights of an unpaid seller and the circumstances when there rights can be exercised, 

अथवा माल का विक्रेता कब अदत्त विक्रेता माना जाता है? माल के विरुद्ध उसके क्या अधिकार हैं?

What is meant by Unpaid Seller? What are his rights in respecto goods sold by him?

अदत्त विक्रेता का अर्थ

(Meaning of Unpaid Seller) 

धारा 45 के अनुसार, अदत्त विक्रेता से अभिप्राय एक ऐसे व्यक्ति से है जिसको वस्त पूरे मूल्य का भुगतान न किया गया हो अथवा प्राप्त बिल को बिल की तिथि पर प्रस्तुत करते | समय अनादृत कर दिया गया हो। इस परिभाषा के अनुसार विक्रेता ऐसा व्यक्ति माना जाएगा जी या तो स्वयं वस्तु का स्वामी हो अथवा विक्रय करने योग्य व्यक्ति हो। उदाहरणार्थ-‘अ’ ‘ब’ को ₹ 5000 में एक रेडियो बेचा, जिसमें से ‘अ’ को ‘ब’ से ₹ 2000 मिले। ऐसी स्थिति में ‘अ’ अदत्त विक्रेता कहलाएगा। इसी प्रकार ‘ब’ को एक रेडियो बेचा जिसके लिए एक Billod Exchange भी लिख दिया। ‘ब’ ने उस बिल को स्वीकार कर लिया। ‘अ’ द्वारा बिल प्रस्तुत किए जाने पर वह अनादृत हो गया, ऐसी स्थिति में ‘अ’ अदत्त विक्रेता कहलाएगा। ऐसे सभी व्यक्ति जो विक्रय करने की स्थिति में हों उन सबको विक्रेता की श्रेणी में रखा जाता है।

अंदत्त विक्रेता के अधिकार

(Rights of Unpaid Seller) 

अदत्त विक्रेता के अधिकारों को मुख्य रूप से दो भागों में विभक्त किया जा सकता है

I. क्रेता के विरुद्ध अधिकार तथा II. माल के विरुद्ध अधिकार। 

I. क्रेता के विरुद्ध अधिकार (Rights of Unpaid Seller against Buyer)

धारा 32,36 तथा 61 के अनुसार, विपरीत समझौते के अभाव में माल का विक्रेता मा निः की सुपुर्दगी के समय ही मूल्य पाने का अधिकारी है। यदि क्रेता मल्य चकाने में त्रुटि करता है। विक्रेता मूल्य के लिए वाद प्रस्तुत कर सकता है, यदि क्रेता बिके हए माल की सपर्दगी लासा इनकार करता है तो विक्रेता क्षतिपूर्ति का अधिकार रखता है तथा उस तिथि तक जब का भुगतान न किया जाए यथोचित दर से ब्याज पाने का अधिकारी है। 

II. माल के विरुद्ध अधिकार (Rights of Unpaid Seller against the Goods)

धारा 46 के अनुसार, जब विक्रेता को पर्ण या आंशिक रूप से मल्य का किया गया हो तो विक्रेता को माल के विरुद्ध मख्य अधिकार अग्र प्रकार प्राप्त हैैं।-

1. माल का विशेषाधिकार (Right of Lien) यदि माल उसी के हो.

2. माल को मार्ग में रोकने का अधिकार (Right of Stoppage in Transit) यदि उसके अधिकार से निकल गया हो तो

3. माल के पुन: विक्रय का अधिकार (Right of Resale) जबकि स्वामित्व के अधिकार का हस्तान्तरण क्रेता को नहीं हुआ तो अदत्त विक्रेता को अन्य उपचारों के अतिरिक्त स्वामित्व का भी अधिकार होगा।

1.माल का विशेषाधिकार (Right of Lien) धारा 47 के अनुसार, ऐसा विक्रेता जिसके पास उस समय तक माल हो, अर्थात् माल को यदि हस्तान्तरित न किया गया हो तथा उसे मूल्य चुकाया या प्रस्तुत न किया गया हो तो अदत्त विक्रेता को निम्नलिखित दशाओं में माल पर विशेषाधिकार होगा

(1) जहाँ माल उधार दिए जाने की शर्त के बिना ही बेचा गया हो; (ii) जहाँ माल उधार बेचा गया हो, परन्तु उधार देने की अवधि समाप्त हो गई हो तथा (iii) जहाँ क्रेता दिवालिया हो गया हो।

धारा 48 के अनुसार, यदि विक्रेता ने क्रेता को वस्तु की आंशिक सुपुर्दगी तो कर दी हो लेकिन पूर्ण सुपुर्दगी न कर पाया हो तो विक्रेता उस शेष भाग पर जो कि उसके पास है, अपने विशेषाधिकार का प्रयोग कर सकता है।

धारा 49 के अनुसार, वह अपने विशेषाधिकार को खो देता है, जबकि (1) वह किसी वाहक द्वारा बिना किसी शर्त लगाए हुए वस्तु को क्रेता के पास भेज देता है; (ii) जब क्रेता अथवा उसका एजेन्ट वैध रूप से माल प्राप्त कर लेता है; अथवा (iii) जब विक्रेता स्वत: ही अपने अधिकार को त्याग देता है।

2. माल को मार्ग में रोकने का अधिकार (Right of Stoppage in Transit)धारा 50 के अनुसार, जब माल विक्रेता के अधिकार में न रहकर मार्ग में हो, अर्थात् विक्रेता ने उस माल को अपने से पृथक् कर दिया हो तो क्रेता के दिवालिया हो जाने की दशा में माल विक्रेता को उस समय तक पुनः माल वापस पाने का अधिकार है जब तक वह माल मार्ग में रहे. वह माल को मार्ग में उस समय तक रोकने का अधिकार रखता है जब तक उसे माल का पूरा मूल्य न मिल जाए।

धारा 51 के अनुसार, माल को मार्ग में कब तक समझा जाए, इस सम्बन्ध में निम्नलिखित नियम हैं

(i) वाहक द्वारा क्रेता की सुपुर्दगी-धारा 51 (1) के अनुसार, यदि विक्रेता ने सामान की सुपुर्दगी कर दी है, लेकिन वाहक ने क्रेता अथवा उसके अधिकृत एजेन्ट को माल की सुपुर्दगी न की हो।

(ii) मार्ग में ही क्रेता द्वारा सुपुर्दगी प्रदान करना-धारा 51(2) के अनुसार, यदि वाहक द्वारा क्रेता अथवा उसके एजेन्ट ने सामान को नियत स्थान तक पहुँचने से पूर्व ही प्राप्त में कर लिया हो तो माल का मार्ग में रहना समाप्त हो जाता है।

(iii) वाहक द्वारा क्रेता के एजेन्ट के रूप में कार्य करना-धारा 51 (3) के अनुसार, यदि वाहक क्रेता के एजेन्ट के रूप में सामान रखने के लिए सहमत हो जाए।

(iv) क्रेता द्वारा माल की स्वीकृति – धारा 51 (4) के अनुसार, यदि वाहक निक्षेपगृहीता के रूप में सामान रखने के लिए सहमत हो जाए।

(v) जहाज द्वारा माल भेजने पर – धारा 51 (5) के अनुसार, विक्रेता यदि सामान को जहाज द्वारा भेजता है जिसको क्रेता ने किराये पर ले रखा हो तो माल का मार्ग में होना इस बात पर निर्भर करेगा कि विक्रेता से जहाजी कम्पनी ने मालवाहक के रूप में लेना स्वीकार किया है अथवा क्रेता के रूप में।

(vi) वाहक द्वारा जानबूझकर क्रेता को सामान न देना – धारा 51 (6) के अनुसार, वाहक जब क्रेता अथवा उसके एजेन्ट को जानबूझकर माल सुपुर्दगी करने से मना कर देता है तो माल का मार्ग में रहना समाप्त हुआ माना जाएगा।

(vii) आंशिक सुपुर्दगी की दशा में – धारा 51 (7) के अनुसार यदि वाहक द्वारा आंशिक सुपुर्दगी की गई है तो विक्रेता शेष सामान को रोकने का अधिकार रखता है। लेकिन यदि आंशिक सुपुर्दगी ऐसी स्थिति में की गई है कि जिससे माल को देने का समझौता प्रकट होता है तो माल मार्ग में नहीं रोका जा सकता है।

धारा 52 माल को मार्ग में रोकने की विधि का वर्णन करती है जिसके अनुसार विक्रेता माल को (i) वास्तविक रूप से लेकर रोक सकता है, अथवा (ii) वाहक अथवा निक्षेपगृहीता को उपयुक्त सूचना देकर मार्ग में रोक सकता है। ऐसी सूचना उस व्यक्ति को दी जा सकती है जिसके पास माल वास्तविक रूप से हो अथवा उसका स्वामी हो, लेकिन सूचना उपयुक्त समय में पहँचनी चाहिए।

3. माल के पुनः विक्रय का अधिकार (Right of Resale)-(i) नष्ट होने वाली प्रकृति के माल की दशा-धारा 54(1) के अनुसार, यदि माल नष्ट होने वाली प्रकृति का हो और विक्रेता ने पूर्वाधिकार अथवा माल को मार्ग में रोकने के अधिकार का प्रयोग करके वस्तु का पुन: विक्रय कर लिया है तथा पुनः विक्रय की सूचना क्रेता को दे दी है तो उससे होने वाली हानि की क्षतिपूर्ति क्रेता से कर सकता है और लाभ का अधिकारी विक्रेता ही रहेगा। इसके विपरीत, यदि विक्रेता ने पुनः विक्रय की सूचना नहीं दी है तो विक्रेता हानि को प्राप्त नहीं कर सकता, अर्जित लाभ क्रेता को ही दिया जाना चाहिए।।

(ii) पुनः विक्रय में नवीन क्रेता के अधिकार –  धारा 54 (2) के अनुसार, विक्रेता अपने विशेषाधिकार अथवा माल को मार्ग में रोकने के अधिकार का प्रयोग करक १० का पुनः विक्रय कर दे तो इस प्रकार वस्तु को प्राप्त करने वाला नया क्रेता मूल क्रेता स अधिकार प्राप्त कर लेता है।(iii) पुन: क्रेता की त्रुटि की अवस्था में धारा 54 (3) के अनुसार, जब क्रेता की त्रुटि के कारण विक्रेता ने माल का पुनः विक्रय कर दिया हो तो ऐसा करने से मूल विक्रय संविदा का परित्याग हो जाता है, परन्तु विक्रेता की क्षतिपर्ति के अधिकार पर कोई प्रभाव नहीं पडता।

प्रश्न – निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए

(a) यथाविधि भुगतान (b) रेखांकन के तरीके (c) पृष्ठांकन। 

Write short notes on the following: 

(a) Payment in due course (b) Modes of Crossing 

(c) Endorsement. 

उत्तर – (a) यथाविधि भुगतान का आशय

(Payment in due Course) 

यथाविधि भुगतान का आशय लेख-पत्र के आदेशानुसार बिना उपेक्षा (negligence) के सद्भावना से, बिना किसी सन्देह के विलेख के धारक को भुगतान करना होता है।

इस प्रकार किसी विनिमय-साध्य लेख-पत्र का भुगतान यथाविधि निम्नलिखित शतों के पूरा होने पर ही किया जा सकता है

1. भुगतान लेख-पत्र की स्पष्ट शर्तों के अनुसार होना चाहिए-यह अत्यावश्यक है कि भुगतान लेख-पत्र की शर्तों के अनुसार हो। लेख-पत्र पर एक महत्त्वपूर्ण शर्त समय के बारे में होती है, अत: यह आवश्यक है कि भुगतान उस समय पर ही किया गया हो। समय से पूर्व भुगतान यथाविधि नहीं माना जाएगा।

2. भुगतान लेख-पत्र पर अधिकार रखने वाले व्यक्ति को ही किया गया हैभुगतान उसी व्यक्ति को होना चाहिए जो लेख-पत्र पर अपना अधिकार रखता है। एक चोर लेख-पत्र का अधिकार नहीं रख सकता, अत: उसे किया हुआ भुगतान यथाविधि नहीं माना जाएगा।

3. भुगतान केवल मुद्रा में ही होना चाहिए-वास्तव में भुगतान केवल मुद्रा में ही होना चाहिए तथा भुगतान लेने वाले व्यक्ति को किसी अन्य रूप में भुगतान लेने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता, यदि भुगतान लेने वाला स्वीकार कर लेता है तो चैक या विनिमय-विपत्र द्वारा भुगतान यथाविधि मान लिया जाता है।

4. भुगतान सद्भाव में किया गया हो-यह भी आवश्यक है कि भुगतान यह जानते हुए किया गया है कि भुगतान लेने वाला व्यक्ति भुगतान लेने के लिए अधिकार रखता है।

5. भुगतान सावधानी से किया गया है-यह अति महत्त्वपूर्ण है कि भुगतान सावधानी से किया गया है। यदि कोई बैंक रेखांकित चैक का भुगतान खिड़की पर कर देता है या लेनदार के आदेश पर देय चैक का भुगतान बिना उचित जाँच किए ही कर देता है या चैक लिखने वाले (Drawer) के हस्ताक्षर मिलाए बिना चैक का भुगतान कर देता है तो यह माना जाएगा कि भुगतान असावधानी में किया गया है और वह भुगतान यथाविधि नहीं होगा।

6. भुगतान ऐसी परिस्थितियों में होना चाहिए कि यह सन्देह न हो कि भुगतान पाने वाला व्यक्ति अनधिकृत व्यक्ति है-यथाविधि भुगतान होने पर भुगतान देने वाला अपने दायित्व से मुक्त हो जाता है।

अथवा उसके साथ लगे हुए किसी पर्चे पर अथवा किसी भी स्टाम्प लगे हुए ऐसे पर्चे पर, किसको कि बाद में वह विनिमय-साध्य लेख-पत्र के रूप में परिवर्तित करना चाहता है, अपना हस्ताक्षर करता है, तो वह उसका पृष्ठांकन करता है और उसे लेख-पत्र का पृष्ठांकक (endorser) कहते हैं।

जिस व्यक्ति के लिए पृष्ठांकन किया जाता है उसे पृष्ठांकिती (endorsee) कहते हैं। पृष्ठांकन सुपुर्दगी द्वारा पूर्ण किया जाता है।

वैध पृष्ठांकन के लक्षण (Essentials of Valid Endorsement)(1) पृष्ठांकन लेख-पत्र के लेखक या धारक अथवा लेनदार या आहर्ता (Payee) या पृष्ठांकिती द्वारा होना चाहिए।

(2) पृष्ठांकन लेख-पत्र के मुख्य पृष्ठ या लेख-पत्र की पीठ पर अथवा लेख-पत्र के साथ लगे हुए किसी पर्चे पर जिसे ‘संयुक्त-पत्र’ (allonge) कहते हैं, होना चाहिए। संयुक्तपत्र का व्यवहार तभी किया जाता है, जबकि लेख-पत्र की पीठ पर पृष्ठांकन करने के लिए जगह न हो। संयुक्त-पत्र पर पृष्ठांकन करते समय पृष्ठांकक को इस बात का विचार रखना चाहिए कि उसका लेख तथा हस्ताक्षर अंशत: संयक्त-पत्र पर तथा लेख-पत्र पर हो, जिससे संयुक्त-पत्र को मूल लेख-पत्र से हटाकर किसी अन्य लेख-पत्र के साथ चिपकाया न जा सके।

(3) पृष्ठांकक द्वारा लेख-पत्र हस्ताक्षरित होना चाहिए। हस्ताक्षर की वर्तनी लेख-पत्र में दी गई वर्तनी से बिल्कुल मिलनी चाहिए। जब किसी लेख-पत्र के संयुक्त लेनदार साझेदार न हों, तो उन सभी को हस्ताक्षर करना चाहिए। यदि पृष्ठांकन करने वाला व्यक्ति अनपढ़ है तो उसे साथियों के समक्ष बाएँ हाथ का अंगूठा लगाकर पृष्ठांकन करना चाहिए।

(4) लेख-पत्र सुपुर्दगी के पहले पूर्ण होना चाहिए, परन्तु धारा 20 के अनुसार, यदि अपूर्ण लेख-पत्र पर स्टाम्प लगा हुआ हो तो इसे भी पृष्ठांकित किया जा सकता है।

(5) सामान्यतः पेंसिल या रबड़ की मुहर द्वारा पृष्ठांकन नहीं करना चाहिए।

(6) पृष्ठांकन में शब्दों का कोई विशेष क्रम होना आवश्यक नहीं है, परन्तु भुगतान का आदेश होना अनिवार्य है।

प्रश्न – विक्रय अनुबन्ध क्या है? इसकी मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिए। विक्रय एवं विक्रय के ठहराव में अन्तर स्पष्ट कीजिए।

What is contract of sale ? Give its main characteristics. Distinguish between sale and agreement to sale. 

अथवा विक्रय संविदा क्या है ? विक्रय’ और ‘विक्रय के समझौते में क्या अन्तर है?

What is a contract of sale ? How is ‘sale’ distinguished from an ‘Agreement to sale’?

उत्तर – वस्तु – विक्रय अनुबन्ध भी एक विशेष प्रकार का व्यापारिक अनुबन्ध है। इस बल अनुबन्ध से सम्बन्धित व्यवस्थाएँ वस्तु-विक्रय अधिनियम में सम्मिलित हैं। इस अधिनियम की धारा 2 के अनुसार, यह अधिनियम वस्तु-विक्रय अधिनियम’, 1930 कहलाता है। यह

जम्मू तथा कश्मीर राज्यों को छोड़कर सम्पर्ण भारत के लिए होता है और यह । जुलाई, 1930 से कार्यान्वित हुआ।

सन् 1990 से पहले वस्तु विक्रय से सम्बन्धित व्यवस्थाएँ भारतीय अनुबन्ध अधिनियम 1879 की धाराओं 76.193 में सम्मिहित थी, परन्तु ये व्यवस्थाएँ वस्तु विक्रय अनुबन्ध के सम्बन्ध में उत्पन्न हुए बहुत से प्रश्नों पर प्रकाश नहीं डालती थी। इस कारण भारतीय संसद सन् 1980 में इन व्यवस्थाओं को मूल अनुबन्ध में निरस्त कर दिया और उनके स्थान पर एक नवीन अधिनियम ‘वस्तु विक्रय अधिनियम, 1930’ व्यवस्थापित किया, जिसके द्वारा वस्तु-विक्रय से सम्बन्धित राजनियम को पूर्ण एवं वैज्ञानिक कर दिया गया।

वस्तु – विक्रय संविदा का अर्थ एवं परिभाषा

(Meaning and Definition of Contract of Sale) 

वस्तु-विक्रय अधिनियम की धारा 4 (1) के अनुसार, “वस्तु विक्रय की संविदा वह | संविदा है, जिसके द्वारा विक्रेता एक निश्चित मूल्य के बदले वस्तु का स्वामित्व हस्तान्तरित | करता है अथवा हस्तान्तरित करने का समझौता करता है।” उदाहरणार्थ-‘अ’, ‘ब’ को अपनी घड़ी र 500 में बेचता है। यहाँ ‘अ’ और ‘ब’ के बीच घड़ी के लिए वस्तु विक्रय संविदा कहलाएगा। इसी प्रकार यदि ‘अ’, ‘ब’ को अपनी पुरानी साइकिल ₹ 200 में देने के लिए संविदा करता है तो यह वस्तु विक्रय का संविदा कहलाएगा।

विक्रय संविदा की मुख्य विशेषताएँ 

(Main Characteristics of a contract of sale) 

उपर्युक्त विश्लेषण तथा अन्य प्रावधानों के आधार पर विक्रय संविदा के मुख्य लक्षण इस प्रकार है –

1. वैध संविदा के तत्त्व (Main Elements ofa Valid Contract) वस्तु विक्रय, संविदा अधिनियम का ही एक भाग है, लेकिन 1960 में इसको पृथक से पारित करने का मूल उद्देश्य इसे अधिक विस्तृत बनाना था। अत: वस्तु विक्रय संविदों में वे समा आवश्यक लक्षण होने चाहिए, जो एक वैध संविदा में होते हैं। जैसे-योग्य पक्षकारों का हाल उनकी स्वतन्त्र सहमति का पाया जाना, उचित प्रतिफल होना आदि।2. केता तथा विक्रेता का होना (Existance of both Purchaser Seller) अन्य संविदा की भांति इसमें भी पक्षकार होते हैं। ये पक्षकार वस्तु विक्रय में क्रमशः क्रेता तथा विक्रेता कहलाते हैं। क्रेता वह व्यक्ति है जो कि वस्त को निधार पर खरीदने के लिए सहमत होता है तथा विक्रेता वह है जो वस्त का निर्धारित मूल लिए सहमत होता है।

प्रश्न – निक्षेप क्या है? एक निक्षेपी तथा निक्षेपगृहीता के अधिकार तथा दायित्व का उल्लेख कीजिए।

What is Bailment ? State the rights and duties of a bailor and bailee.

अथवा निक्षेप क्या है? खोये हुए माल को पाने वाले के अधिकार एवं कर्त्तव्य क्या है? 

What is Bailment? State the rights and duties of finder of goods.

उत्तर – निक्षेप की परिभाषा

(Definition of Bailment) 

भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 148 के अनुसार, “निक्षेप एक व्यक्ति स दूस व्यक्ति को किसी विशेष उद्देश्य के साथ माल की सुपुर्दगी देने को कहते हैं। जब उद्देश्य पूण हा जाएगा तब माल लौटा दिया जाएगा अथवा सुपुर्दगी देने वाले के आदेशानसार बेच दिया जाएगा।

जो व्यक्ति माल की सुपुर्दगी देता है, वह निक्षेपी (Bailor) कहलाता है तथा जो माल की संपर्दगी लेता है वह निक्षेपगृहीता (Bailee) कहलाता है। उदाहरणार्थ-‘अ’ ‘ब’ को अपनी साइकिल 2 घण्टे के लिए किराये पर देता है। इसमें ‘अ’ निक्षेपी (Bailor) तथा ‘ब’ निक्षेपगृहीता (Bailee) कहलाएगा।

-निक्षेपी के कर्त्तव्य 

(Duties of Bailor) 

1. निक्षेप किए गए माल के दोष को बताना (To disclose faults in goods bailed)-निक्षेपी का यह कर्त्तव्य है कि निक्षेप किए गए माल के सम्बन्ध में जो दोष निक्षेपी को ज्ञात हों, उन्हें वह निक्षेपगृहीता को बता दे अन्यथा वह निक्षेपगृहीता को इस कारण हुई हानि के लिए उत्तरदायी होगा। उदाहरणार्थ-यदि ‘अ’ ‘ब’ को अपना घोड़ा घुड़सवारी के लिए किराये पर दे और घोड़ा ‘ब’ को गिरा दे तो ‘अ’ उसकी क्षतिपूर्ति के लिए उत्तरदायी होगा।

2. आवश्यक साधारण व्ययों का भुगतान करना (To repay the necessary expenses)-धारा 158 के अनुसार, निक्षेपी का यह कर्त्तव्य है कि निक्षेपगृहीता द्वारा किए, गए साधारण खर्चों का भुगतान कर दे। इस प्रकार के व्यय साधारणत: माल की सुरक्षा के लिए माल को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने के विषय में हो सकते हैं। उदाहरणार्थ-‘अ’ ‘ब’ के हाथों अपना कुछ सामान अपने रिश्तेदार के यहाँ भेजता है। ‘ब’ द्वारा उस सामान को ले जाने के सम्बन्ध में किए गए खर्चों का भुगतान करने का उत्तरदायित्व निक्षेपी का है।

3.विशेष व्ययों के भुगतान का दायित्व (To repay special expenses)-यदि माल को उचित दशा में रखने के लिए निक्षेपगृहीता को कुछ विशिष्ट व्ययों का भुगतान करना पड़ा हो तो निक्षेपी का कर्तव्य है कि वह उन विशेष व्ययों का भुगतान निक्षेपगृहीता को कर दे। उदाहरणार्थ-गंगा स्नान करते समय ‘अ’ ‘ब’ के पास अपनी भैंस छोड़ जाता है, भैंस बाद में बीमार पड़ जाती है, जिसकी चिकित्सा पर ‘ब’ को ₹50 व्यय करने पड़ते हैं, ‘अ’ का कर्तव्य है कि वह उस राशि का भुगतान ‘ब’ को कर दे।

4. शुल्करहित निक्षेप की समय से पूर्व समाप्ति से होने वाली हानि को देने का cifera (Liability to pay damages caused to bailee by revocation of gratuitous bailment before time)-धारा 159 के अनुसार, जब निक्षेपकर्ता शुल्करहित निक्षेप को तय किए हुए समय से पहले अथवा उद्देश्य पूर्ण होने से पूर्व ही समाप्त कर देता है और इससे यदि निक्षेपगृहीता को हानि हो तो उस हानि की पूर्ति करना निक्षेपी का कर्तव्य है। उदाहरणार्थ-‘अ’ब’ को 3 वर्ष के लिए अपनी कार बिना किराये के प्रयोग के लिए देता है, जिसके फलस्वरूप ‘ब’ उस पर ₹ 20,000 व्यय कर लेता है। एक वर्ष उपरान्त ‘अ’ ‘ब’ से अपनी कार वापस माँगता है, ‘अ’ का कर्तव्य है कि ‘ब’ को हानिरक्षा की उचित पूर्ति करके अपनी कार वापस ले ।

5. निक्षेपगृहीता की हानिरक्षा करना (To indemnify the bailee)-धारा 164 के अनुसार, निक्षेपी का यह कर्त्तव्य है कि वह निक्षेपगृहीता की उन सम्पूर्ण हानियों की क्षतिपूर्ति

करे जो निक्षेपित माल के विषय में निक्षेपी के अधिकारों की न्यूनता अथवा किसी कारण ६२ । उदाहरणार्थ-‘अ’ एक साइकिल ‘ब’ के पास बेचने के लिए रख देता है को बेच देता है, बाद में यह पता लगता है कि वह साइकिल ‘द’ की थी और ‘ब’ को अनधिक विक्रय का दोषी ठहराया जाता है। ‘अ’का कर्त्तव्य है कि ‘ब का इस प्रकार हुई सम्पर्ण हानि की पूर्ति करे।

‘निक्षेपी के अधिकार

(Rights of Bailor) 

1. देखभाल की कमी के कारण होने वाली क्षतिपूर्ति का अधिकार (Right to compensation for loss incurred in case of proper care is not done)-_STAT 152 के अनुसार, निक्षेपी को निक्षेप की साधारण देखभाल की कमी के कारण होने वाली अनि की पूर्ति का अधिकार है। उदाहरणार्थ-‘अ’ ‘ब’ को अपनी साइकिल किराये पर देता है, ‘ब’ अपनी गलती से साइकिल से दुर्घटना कर ले, जिसके कारण साइकिल को क्षति हो तो ‘अ’ को यह अधिकार है कि वह उस क्षतिपूर्ति को ‘ब’ से पूरा करा ले।

2.संविदा समाप्ति का अधिकार (Right to cancel the contract)-धारा 153 HT के अनुसार, यदि निक्षेपगृहीता निक्षेप की शर्तों के अनुसार कार्य नहीं करता है तो निक्षेपी को यह । अधिकार है कि वह उस निक्षेप संविदा को समाप्त कर दे। उदाहरणार्थ-‘अ’ ‘ब’ को घुड़सवारी के लिए घोड़ा किराये पर देता है, ‘ब’ उसे तांगे में चलाता है। ‘अ’ को अधिकार है । कि यदि वह चाहे तो निक्षेप का संविदा समाप्त कर दे।

3. अनधिकृत प्रयोग से होने वाली क्षतिपूर्ति का अधिकार (Right to claim damages in case of unauthorised use of goods bailed)-धारा 154 के अनुसार, यदि निक्षेपगृहीता निक्षेप संविदा के विरुद्ध कोई कार्य करता है, और उस उपयोग से कोई हानि होती है तो निक्षेपी को यह अधिकार प्राप्त है कि वह निक्षेपगृहीता से उस हानि का वसूल कर सके। उदाहरणार्थ-उपर्युक्त उदाहरण में यदि घोडे को कोई हानि होती है तो अ उस हानि की पूर्ति करा सकता है।

4. निक्षेपगृहीता द्वारा निक्षेप को अपने माल में मिलाने पर निक्षेपी के अधिकार (Right against mixture of goods bailed)–यदि निक्षेपगृहीता निक्षेप के सामान का अपने सामान में मिला ले तो (i) धारा 155 के अनसार, यदि निक्षेपी की सहमति सभा तो निक्षेपगृहातक्षपी की आज्ञा माल अनुपात में भाग होगा

मिलाया जाता है तो मिश्रण में उस अनुपात में भाग होगा जिसमें उसका माल था। (ii) धारा के अनुसार निक्षेपी की आज्ञा माल मिलाने में नहीं ली गई हो, परन्त माल विभाजित हासन तो निक्षेपगृहीता का अधिकार है कि वह उस सामान को वापस पा सके। (iii) धारा अनसार यदि सामान अलग न किया जा सके तो निक्षेपी को क्षतिपर्ति पाने का आपका

5. शुल्कराहत निक्षेप के पूर्व खण्डन का अधिकार (To cancel gral bailment)-धारा 159 के अनुसार, निक्षेपी का अधिकार है कि वह शुल्करहित निक्षेप का अधिकार है कि वह शुल्करहित निक्षेप का पूर्ण खण्डन कर सके।

प्रश्न – “कोई भी वह नहीं दे सकता जो उसके अधिकार में नहीं है।” टिम काजिए। क्या इस नियम के कोई अपवाद हैं, उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए।

“Nemo Dat Quod Non Habet (No one can give who possess omment. Giving exception if any to this rule with suitable examples.

अथवा “कोई भी विक्रेता क्रेता के माल पर स्वयं से अच्छा आया नियम को समझाइए। भारतीय विक्रय संविदा अधिनियम के प्रावधानानुसार इस नियम अपवादों का वर्णन कीजिए।

“No seller can give the buyer of goods a better title than what? himself has.” Describe this rule and describe briefly the exceptions: this rule as laid down in the Indian Sale of Goods Act. 

उत्तर – विक्रय सम्बन्धी सामान्य नियम

(General Law regarding Sale of Goods) ___ 

वस्तु विक्रय संविदा अधिनियम की धारा 17 के अनुसार, कोई भी विक्रेता माल के को माल पर अपने से अच्छा अधिकार दे सकता है। यदि विक्रेता का अधिकार दोषपर्ण । अथवा सीमित है तो वह क्रेता को अपने से अच्छा अधिकार देने में समर्थ नहीं है। साधारणत माल का विक्रय वे लोग करते हैं जिनको विक्रय करने का अधिकार होता है, ऐसे व्यक्ति भी वस्तु के विक्रय का अधिकार प्राप्त कर लेते हैं जो स्वयं न तो वस्तु के स्वामी ही होते हैं और न अधिकृत विक्रेता। ऐसी स्थिति में निर्दोष क्रेताओं को माल के सम्बन्ध में अपने से अच्छ अधिकार मिल जाता है।

माल के अधिकार के सम्बन्ध में साधारण नियम है कि कोई व्यक्ति वह नहीं दे सकता जो उसके पास नहीं है (Nemo Dat Quod Non Habet or no one can give whal he does not have)। उदाहरणार्थ-‘अ’ एक चोरी से प्राप्त घड़ी ‘ब’ को ₹ 1001 बेचता है क्योंकि ‘अ’ स्वयं उस घड़ी का स्वामी नहीं है, अत: घड़ी के सम्बन्ध में अपन अच्छा अधिकार नहीं दे सकता। इस सम्बन्ध में Cundy Vs. Lindsay (1873) निर्णय महत्त्वपूर्ण है जिसके अनुसार ब्लेनकर्न जिसने ब्लेनकरीन एण्ड कम्पनी के नाम स प्राप्त कर लिया था, उसे माल के दोषपूर्ण अधिकार होने के कारण विक्रय का अधिकार दिया गया। यह नियम वास्तविक स्वामी की रक्षा करता है तथा निर्दोष क्रेता को हानि पहा परन्तु सामाजिक हितों तथा सम्पत्ति की रक्षा करने के लिए यह नियम आवश्यक है।

नियम के अपवाद

(Exceptions) 

यद्दपि धारा 27 के अनुसार, साधारणतः क्रेता को विक्रेता से अच्छा प्राप्त नहीं हो सकता तथापि इस नियम के अपवाद निम्न प्रकार हैं

1. अवरोध द्वारा अधिकार प्राप्त करना (Title by Estopple) अनुसार, जब विक्रेता अपने आचरण द्वारा क्रेता को यह विश्वास दिला दे कि वह वस्तु का वास्तविक स्वामी है अथवा उसे वस्तु के विक्रय का अधिकार प्राप्त है तो क्रेता को विक्रेता से अच्छा अधिकार प्राप्त हो जाता है। इस सम्बन्ध में Commonwealth Trust Vs. Akotey का निर्णय महत्त्वपूर्ण है जिसके अन्तर्गत ‘ब’ द्वारा ‘अ’ को मूल्य चुकाने से पूर्व ही ‘स’ को वस्तु का सौदा कर दिया गया। यद्यपि ‘ब’ वस्तु का वास्तविक स्वामी था तथापि ‘स’ को ‘ब’ से अच्छा अधिकारी माना गया।

2. व्यापारिक एजेन्ट द्वारा बिक्री (Sale by a Mercantile Agent) धारा 27 क अनुसार, यदि एजेन्ट जिसके पास स्वामी का अधिकार-पत्र हो तथा वह क्रेता को सामान बेचता है, तो क्रेता को विक्रेता से अच्छा अधिकार प्राप्त हो जाता है, बशर्ते वह सद्भावना एवं विश्वास से वस्तु का क्रय करता हो।

3. संयुक्त स्वामियों में से किसी एक के द्वारा बिक्री (Sale by one of Joint owners)-धारा 28 के अनुसार, यदि माल के अनेक स्वामियों में से किसी एक स्वामी को सह-स्वामियों की सहमति से माल का एकाकी अधिकार प्राप्त हो जाता है तो माल का स्वामित्व ऐसे व्यक्ति को हस्तान्तरित हो जाता है जो सद्भावना से किसी ऐसे सह-स्वामी से खरीदे जिसे विक्रय का अधिकार प्राप्त न हो। उदाहरणार्थ-‘अ’ और ‘ब’ एक कार के सह-स्वामी हैं, जिनमें से ‘ब’, ‘स’ को कार बेच देता है, ‘ब’ के वास्तविक स्वामी न होने पर भी ‘स’ उस कार का वैध स्वामी हो जाता है।

4. व्यर्थनीय संविदा के अधीन माल रखने वाले व्यक्ति द्वारा बिक्री (Sale by a person in possession under voidable contracts)-धारा 29 के अनुसार, यदि किसी विक्रेता ने व्यर्थनीय संविदा के अधीन वस्तु पर अधिकार कर रखा है और यदि वह किसी व्यक्ति को वस्तु का विक्रय कर दे और क्रेता सद्भावना एवं विश्वास के अधीन उसे प्राप्त करे तो क्रेता को (इस तथ्य का ज्ञान न होने पर) विक्रेता से अच्छा अधिकार प्राप्त हो जाता है। परन्तु व्यर्थ संविदा के अधीन विक्रेता क्रेता को अपने से अच्छा अधिकार नहीं दे सकता। इस सम्बन्ध में Phillips Vs. Brooks (1919) का निर्णय महत्त्वपूर्ण है जिसके अन्तर्गत एक व्यक्ति ने कपट द्वारा झूठा चैक देकर जौहरी से हीरा प्राप्त कर लिया जिसे पुन: गिरवी रख दिया। उसे गिरवी रख लेने वाले व्यक्ति से अच्छा अधिकार प्राप्त हो गया।

5. विक्रय के बाद विक्रेता द्वारा उसी का दुबारा विक्रय (Sale by a seller in possession after sale)-धारा 30(1) के अनुसार, जब ऐसा विक्रेता जो अपने अधिकार में विक्रय के उपरान्त भी वस्तु को बेच दे तो ऐसी स्थिति में सद्भावना एवं सद्विश्वास द्वारा क्रेता ने अधिकार प्राप्त किया हो तो इस प्रकार क्रय करने वाले क्रेता को विक्रेता से अच्छा अधिकार प्राप्त हो जाता है।

6. माल रखने वाले क्रेता द्वारा विक्रय (Sale by a buyer in possession)धारा 30 (2) के अनुसार, जब क्रेता को विक्रेता की सहमति से माल का अधिकार प्राप्त हो जाता है यद्यपि स्वामित्व का नहीं, तथापि उसके द्वारा बिक्री करने पर यदि कोई क्रेता सद्भावना एवं सविश्वास से ऐसा अधिकार प्राप्त करता है तो उसे अच्छा अधिकार मिल जाएगा।

प्रश्न – विनिमय-साध्य लेख-पत्रों की परिभाषा दीजिए और न बारभूत लक्षण बताइए जो इन्हें सामान्य वस्तओं से भिन्न करते हैं।

Define a negotiable instrument, and describe the fundament characteristics which distinguish a negotiable instrument from ordinary goods. 

उत्तर- विनिमय-साध्य लेख-पत्र की परिभाषा एवं अर्थ

(Meaning and Definition of Negotiable Instrument) 

(अ) विनिमय-साध्य विलेख अधिनियम की धारा 13 (1) के अनस विनिमय-साध्य विलेख का अभिप्राय किसी प्रतिज्ञा-पत्र, विनिमय-विपत्र अथवा चैक सेकस आदशित व्यक्ति अथवा वाहक को देय होते हैं।” परन्तु व्यावहारिक रूप से इस परिभाषा क्षेत्र अत्यन्त सीमित है क्योंकि अधिनियम में केवल अभिप्राय शब्द का प्रयोग किया गया है जा इसके विस्तृत क्षेत्र का उल्लेख नहीं करता। इस दृष्टिकोण से टामसन (Tomsona अनुसार, विनिमय-साध्य लेख-पत्र वह है जो व्यापार की प्रथा अथवा कानून के अनसार विनिमय-साध्य लेख-पत्र माना जाता है, जिसका हस्तान्तरण सुपुर्दगी से किया जाता है तथा जिसके फलस्वरूप इसका धारक (Holder)-(i) अपने नाम से वाद प्रस्तुत कर सकता है तथा (ii) इसकी सम्पत्ति वास्तविक हस्तान्तरिती (Transferee) को हस्तान्तरित हो जाती है चाहे हस्तान्तरणकर्ता दूषित ही क्यों न हो।” न्यायाधीश विलिस ने इसकी विस्तृत परिभाषा इस प्रकार दी– “विनिमय-साध्य लेख-पत्र ऐसे पत्र को कहते हैं, जिसका स्वामित्व किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा प्राप्त किया जाता है जो सद्भावना तथा मूल्य के बदले में प्राप्त करता है। भले ही उसके देने वाले के अधिकार में दोष हो…।

विनिमय-साध्य लेख पत्रों के लक्षण (Essential Characteristics of Negotiable Instruments)-उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर विनिमय लेख-पत्रों क निम्नलिखित आवश्यक लक्षण हैं जो कि उसे अन्य वस्तुओं अथवा चल सम्पत्तियों से भिन्न करते हैं

1. लिखित प्रपत्र-यह लिखित रूप में एक लेख-पत्र होता है जिसमें उसके बनान वाले तथा आहर्ता के हस्तान्तरण तथा तिथि लिखी होनी चाहिए केवल मौखिक स्वीकृति या वचन ही पर्याप्त नहीं है।

2.हस्तान्तरणशीलता-इसका स्वामित्व केवल वाहक (Bearer) की दशा म सपर्दगी द्वारा तथा आदेशित (Order) होने की दशा में पृष्ठांकन तथा सपर्दगी द्वारा हस्ता किया जा सकता है।

3. प्रतिफल का होना-इसके अन्तर्गत मल्यवान प्रतिफल का होना अका आवश्यक है।

bearer) की दशा में केवल दगो द्वारा हस्तान्तरित

4. सद्भावना का होना-इसके लिए पक्षों में सद्भावना (Good faith) का होना आवश्यक होता है।

5.ऋण अभिहस्तान्तरण की विधि – यह ऋण के अभिहस्तान्तरण (Assignment) का सबसे आसान तथा सुलभ साधन है।

6. यथाविधिधारी का अधिकार – इसके अन्तर्गत यथाविधिधारी को यह अधिकार प्राप्त है कि वह अपने नाम से ही अभियोग चला सके। उसे ऋणी को इस तथ्य की सूचना देना आवश्यक नहीं है कि वह अब धारक हो गया है इसलिए अभियोग चला रहा है।

7.दोषपूर्ण हस्तान्तरण का प्रभाव – हस्तान्तरिती (Transferee) का अधिकार सदव अच्छा रहता हे भल ही हस्तान्तरक का अधिकार दषित ही क्यों न हो। अन्य शब्दों म, हस्तान्तरिती के अधिकार पर हस्तान्तरक के स्वामित्व अधिकार सम्बन्धी दोषों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।

8. भुगतानों का माध्यम – इसका प्रयोग ऋणों एवं दायित्वों के भुगतान के रूप में किया जाता है। वास्तव में यह विनिमय का एक महत्त्वपूर्ण साधन है। बड़ी राशि के भुगतानों के लिए इसका अधिकांशत: प्रचलन होता है।

इस प्रकार विभिन्न न्यायालयों के निर्णयों के आधार पर वे सभी हुण्डियाँ, शेयर वारण्ट, रेलवे रसीद, डाक वारण्ट स्टॉक, डिबेन्चर्स आदि विनिमय-साध्य लेख-पत्रों के अन्तर्गत आएंगे यदि वे (a) इस रूप में हैं कि धारक उन्हें अपने नाम में प्रयोग कर सकता है तथा (b) व्यापारिक प्रथा एवं चलन के अनुसार इनका हस्तान्तरण द्रव्य की भाँति एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को होना सम्भव है।

प्रश्न – विदेशी विनिमय प्रबन्ध अधिनियम के अन्तर्गत पूँजी खाता लेन-देन एवं चालू खाता लेनदेन सम्बन्धी प्रावधानों की विवेचना कीजिए। माल के निर्यातक के क्या कर्त्तव्य हैं?

Explain the provisions regarding capital account transactions and current account transactions under Foreign Exchange Management Act. What are the duties of the exporter of goods ? 

अथवा विदेशी विनिमय के नियमन एवं प्रबन्ध के सम्बन्ध में मुख्य प्रावधानों का वर्णन कीजिए।

Explain in brief the provisions of FEMA regarding Foreign Exchange Management.

उत्तर – विदेशी विनिमय का नियमन एवं प्रबन्ध (धारा 3 से 9 तक)

[Provisions of FEMA (Section 3 to 9)] 

विदेशी विनिमय प्रवन्ध अधिनियम की धारा 3 से 9 के प्रावधानों में विदेशी विनिमय एवं प्रवन्ध के सम्बन्ध में की गई व्यवस्थाएं इस प्रकार है –1. विदेशी विनिमय के व्यवहार (Foreign Exchange Transactions) – धारा 3 के अनुसार, भारतीय रिजर्व बैंक की अनुमति के बिना या इस अधिनियम के नियमों के विशिष्ट प्रावधानों के अभाव में कोई भी व्यक्ति अग्रलिखित कार्य नहीं कर सकता है

(i) कोई भी व्यक्ति भारत से बाहर कोई सम्पत्ति प्राप्त करने, निर्मित करने या ङस्तान्तरित करने के उद्देश्य से भारत में किसी वित्तीय सोद म शामिल नही हो सकता हैं।

(ii) अधिकृत व्यक्ति के अतिरिक्त कोई भी व्यक्ति अनिवासी व्यक्ति के लिए किसी आपकार से पाल नहीं भारत आ सकता है। यदि कोई व्यक्ति ऐसा धन प्राप्तकर हो धन विदेश से भारत आ जाता है तो यह अदायगी मान्य हो सकती है।

(iii) कोई भी व्यक्ति किसी भी अनिवासी व्यक्ति को न तो धन की अदायगी का सकता है और न ही उसके खाते में कोई धन डाल सकता हैं।

(iv) अधिकृत व्यक्ति के अतिरिक्त कोई भी व्यक्ति विदेशी विनिमय अथवा विस प्रतिभूति में न तो व्यवहार कर सकता है और न उसे हस्तान्तरित कर सकता है।

2. विदेशी विनिमय को अधिकार में रखना (To keep Foreign Exchange under Control)-धारा 4 के अनुसार, भारत में निवासी कोई भी व्यक्ति इस अधिनियम के प्रावधानों के अतिरिक्त, भारत से बाहर विदेशी विनिमय, विदेशी प्रतिभूति या अचल सम्पत्ति न तो प्राप्त करेगा, न धारक होगा, न कब्जे में रखेगा और न स्थानान्तरित करेगा।

3. चालू खाता लेनदेन (Current Account Transactions)-धारा 5 के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति को यह अधिकार होगा कि वह विदेशी विनिमय अधिकृत व्यक्ति को बेच सकता है या उससे प्राप्त कर सकता है, यदि ऐसा विक्रय या प्राप्ति चालू खाता व्यवहार है।

तथापि सामान्य जनता के हित में और रिजर्व बैंक के परामर्श से केन्द्रीय सरकार चालू खाता व्यवहारों पर ऐसे तर्कसंगत प्रतिबन्ध लगा सकती है, जो वह निश्चित करे।

4. पूँजी खाता लेनदेन (Capital Account Transaction)-धारा 6 के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति को यह अधिकार होगा कि वह पूँजी खाता व्यवहार हेतु अधिकृत व्यक्ति को विदेशी विनिमय बेच सकता है या उससे प्राप्त कर सकता है। केन्द्रीय सरकार के परामर्श से रिजर्व बैंक पूँजी खाता व्यवहार के किसी वर्ग या किन्हीं वर्गों को अनुमति प्रदान कर सकता है तथा इसकी सीमा का निर्धारण भी कर सकता है। रिजर्व बैंक इससे सम्बन्धित कार्यवाहिया का रोकने, प्रतिबन्धित करने या नियमित करने के लिए नियम बना सकता है।

5. माल व सेवाओं का निर्यात (Export of Goods and Services)-धाराक अनसार माल के प्रत्येक निर्यातक को निम्नलिखित कार्य करने होंगे

(i) उसे ऐसी सभी सूचनाएं भी देनी होंगी, जिनके लिए रिजर्व बैंक निर्देश दे।

(ii) यह सुनिश्चित करने के लिए कि माल का परा निर्यात मल्य या रिजर्व बक निर्धारित घटा हुआ मूल्य बिना किसी देरी के मिल गया है. रिजर्व बैंक निर्यातक का अ अनिवार्यताओं का पालन करने का निर्देश दे सकता है। उसे इन सभी निर्देशों का पालन करना होगा प्राप्त करने की आशा करे।

(iii) यदि माल के मूल्य का निर्धारण सम्भव नहीं है तो वह मल्य जो वह भारत के बाहर प्राप्त करने की आशा करे। 

(iv) वह रिजर्व बैंक या अन्य किसी प्राधिकत व्यक्ति के समक्ष निधारित निर्दिष्ट तरीके से एक घोषणा पेश करेगा, जिसमें निर्यात किए जाने वाले माल का सच्चा व सही विवरण तथा मूल्य हो।

(v) सेवाओं के निर्यात की स्थिति में वह रिजर्व बैंक या अन्य किसी अधिकृत सत्ता के निर्धारित प्रारूप में निर्दिष्ट तरीके से यह सच्ची व सही घोषणा करेगा कि ऐसी सेवाओं के तान के सम्बन्ध में क्या महत्त्वपूर्ण विवरण है।

6. विदेशी विनिमय की वसूली तथा प्रत्यावर्तन (Realization and Repatriation of Foreign Exchange)-धारा 8 के अनुसार, जब विदेशी विनिमय की कोई राशि भारत में निवासी किसी व्यक्ति को देय है या अर्जित हो चुकी है तो ऐसा व्यक्ति इसकी वसूली तथा प्रत्यावर्तन के लिए रिजर्व बैंक द्वारा निर्दिष्ट अवधि में तथा निर्दिष्ट तरीके से उचित कदम उठाएगा। कुछ मामलों में इन प्रावधानों से छूट दी गई है (इन मामलों में धारा 4 से 18 के प्रावधान लागू नहीं होंगे)। ये मामले निम्नलिखित हैं

(i) रिजर्व बैंक द्वारा विशेष रूप से स्पष्ट की गई अन्य विदेशी विनिमय की प्राप्ति।

(ii) नौकरी, व्यवसाय, व्यापार, पेशा, सेवा मानदेय, भेंट, वसीयत या अन्य किसी वैध साधन द्वारा प्राप्त विदेशी विनिमय रिजर्व बैंक द्वारा निर्धारित सीमा के अन्तर्गत रखा जा सकता है।

(iii) यदि भारत के किसी निवासी को किसी उपहार या उत्तराधिकार में विदेशी विनिमय प्राप्त होता है तो वह उसे तथा उससे उत्पन्न आय को रिजर्व बैंक द्वारा निर्धारित मात्रा में रख सकता है।

माल के निर्यातक के कर्तव्य

(Duties of Exporter of Goods) 

धारा 7 के अनुसार माल के निर्यातक के निम्नलिखित कर्त्तव्य हैं

1. निर्यात सम्बन्धी विवरण (Particulars regarding Export)-वह रिजर्व बैक या अन्य अधिकारी को, निर्धारित विधि से एवं निर्धारित प्रपत्र में, सम्पूर्ण निर्यात से सम्बन्धित विवरण निर्यात किए जाने वाले माल का पूर्ण मूल्य, जो विदेशों में माल बेचने से प्राप्त होने की आशा हो, को सत्य एवं सही रूप में भरकर प्रस्तुत करे।

2. निर्यात-प्रतिक्रिया की सूचना (Information regarding Export Procedure)-वह रिजर्व बैंक को वे सूचनाएँ भी प्रस्तुत करेगा जिससे रिजर्व बैंक को निर्यात-प्रक्रिया के सुचारु क्रियान्वयन का विश्वास हो सके।

3. निर्यात मूल्य प्राप्ति की सूचना (Information regarding Receipt of Payment)-वह रिजर्व बैंक को विश्वास दिलाएगा कि वह पूर्ण निर्यात मूल्य बिना किसी विलम्ब के प्राप्त कर लेगा।

प्रश्न – वस्तु-विक्रय के अनुबन्ध में शर्त तथा आश्वासन में अन्तर बताइए। सम्पल द्वारा माल की बिक्री में क्या गर्भित शर्ते होती हैं?

Distinguish between Condition and a Warranty in a contract of sale of goods. What conditions are implied in a sale by sample ? 

अथवा शर्त तथा आश्वासन में अन्तर स्पष्ट कीजिए। किन दशाओं में शर्त को आश्वासन माना जाता है?

Distinguish between Condition and Warranty. In which cases, condition is to be treated as warranty ?

उत्तर – शर्त और आश्वासन की कसौटी (Test of Condition Warranty)-शर्त और आश्वासन दो ऐसे शब्द हैं, जिनका भेद संविदा की बनावट निभर करता है। धारा 12 (4) इस तथ्य का स्पष्ट रूप से उल्लेख करती है-“किसी वित सावदा में कोई बन्धन (stipulation) शर्त है अथवा आश्वासन, यह प्रत्येक संविदा कि बनावट 

(construction) पर निर्भर करता है। एक बन्धन शर्त भी हो सकता ह या में आश्वासन माना गया है।” अन्तर स्पष्ट करने के लिए पक्षकारा का अभिप्राय मालम का आवश्यक है। उदाहरणार्थ-‘अ’ यदि ‘ब’ से कहता है कि यह कार एक लीटर पेटोल 15 किमी चलती है, परन्तु वास्तव में यदि वह 12 किमी ही चलती है तो ‘अ’ का यह आश्वासन माना जाएगा। इसके विपरीत, यदि ‘ब’ ‘अ’ से कहे कि वह उसकी कार को दशा में क्रय करने के लिए सहमत है, जबकि 1 लीटर में 15 किमी चले, जिसके लिए अपनी सहमति दे देता है, ऐसी स्थिति में यह शर्त मानी जाएगी तथा 12 किमी प्रति लीटर चलने पर ‘ब’ को संविदा भंग करने का अधिकार होगा।

शर्त और आश्वासन में अन्तर 

(Differences between Condition and Warranty) ___ 

1. परिभाषा का आधार (Basis of Definition)-धारा 12 (2) के अनुसार, शर्त एक ऐसा बन्धन है, जो संविदा के मुख्य आशय के लिए परम आवश्यक है और जिसका खण्डन होने पर संविदा का परित्याग करने का अधिकार उत्पन्न हो जाता है। इसके विपरीत, धारा 13 (3) के अनुसार, आश्वासन एक ऐसा बन्धन है, जो संविदा के लिए आनुषंगिक है, जिसके खण्डन की दशा में क्षतिपूर्ति का अधिकार प्राप्त होता है, माल की अस्वीकृति अथवा संविदा के परित्याग का प्रश्न नहीं उत्पन्न होता है।

2. मुख्य आशय का आधार (Basis of Main Purpose of the Contract)शर्त संविदा के मुख्य आशय की पूर्ति के लिए परमावश्यक है। इसके विपरीत, आश्वासन संविदा की पूर्ति के लिए आनुषंगिक है।

3. भंग के परिणाम का आधार (Basis of Consequence of Breach)-शत भंग होने की दशा में पीड़ित पक्षकार को संविदा समाप्त करने का अधिकार होता है। इसक विपरीत आश्वासन के खण्डन की दशा में पीड़ित पक्षकार का केवल क्षतिपर्ति का ही आधकार होगा।

4. पीड़ित पक्षकारों के अधिकारों का आधार (Basis of Rights of Aggrieved Party)-शर्त भंग की दशा में पीड़ित पक्षकार को दो अधिकार प्राप्त संविदा समाप्ति का अधिकार, दूसरे आश्वासन भंग मानकर क्षतिपर्ति का अधिकारा २० विपरीत, आश्वासन भंग की किसी दशा में भंग नहीं माना जा सकता है, अर्थात् पाड़ित को केवल क्षतिपूर्ति का ही अधिकार है।

5. संविदा के निष्पादन से मुक्ति का आधार (Basis of Freedom from Execution of Contract)-शर्त भंग की दशा में पीडित पक्षकार को संविदा के निष्पादन से मुक्ति मिल सकती है। इसके विपरीत, आश्वासन भंग की दशा में पीड़ित पक्षकार को संविदा के निष्पादन से मुक्ति नहीं मिल सकती। 

6. संविदा के समर्थन का आधार (Basis of Support of Contract)-शत, संविदा के समर्थन में मुख्य बिन्दु है, जिसके ऊपर सम्पूर्ण संविदा की वैधानिकता निर्भर करती है। इसके विपरीत, आश्वासन समर्थन की एक ऐसी स्थिति है, जिसके भंग होने पर सम्पूर्ण संविदा की वैधानिकता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।

गर्भित शर्ते

(Implied Conditions) 

शर्ते तथा आश्वासन स्पष्ट अथवा गर्भित हो सकते हैं। जब सम्बन्धित पक्षकार स्पष्ट रूप से उनका वर्णन करते हैं तो वे स्पष्ट शर्ते एवं आश्वासन कहलाते हैं, जो लिखित अथवा मौखिक हो सकते हैं। गर्भित शर्ते एवं आश्वासन वे होते हैं, जिनका लिखित अथवा मौखिक होना आवश्यक नहीं है। गर्भित शर्तों के सम्बन्ध में वैधानिक नियम धारा 14-17 तक दिए गए हैं, जबकि गर्भित आश्वासनों के सम्बन्ध में प्रावधान धारा 14 (b), 14 (c) तथा 14 (3) में दिए गए हैं। निम्नलिखित शर्ते गर्भित मानी जाएँगी

1. वस्तु के अधिकार सम्बन्धी शर्ते (Conditions as to Title)-धारा 14 (a) के अनुसार, प्रत्येक विक्रय संविदा में, जब तक कि संविदा की परिस्थितियों से कोई विपरीत आशय प्रकट न होता हो, यह शर्ते गर्भित रहती हैं कि विक्रेता को विक्रय की दशा में माल बेचने का अधिकार प्राप्त है तथा विक्रय समझौतों की दशा में स्वामित्व हस्तान्तरण के समय माल के विक्रय का अधिकार प्राप्त है। इस सम्बन्ध में Ronaland Vs. Duall (1923) का निर्णय महत्त्वपूर्ण है जिसके अन्तर्गत अनधिकृत खरीदी गई कार वास्तविक स्वामी को लौटानी पड़ी।

2. वर्णन द्वारा विक्रय की दशा में (Sale by Description)-जब माल को वर्णन के अनुसार बेचा गया है तो उसमें यह गर्भित अधिकार होता है कि माल वर्णन से मेल खाएगा। धारा 15 इस तथ्य का उल्लेख करती है कि यदि माल नमूने तथा वर्णन से बेचा गया है तो माल नमूना तथा वर्णन दोनों से मेल खाने वाला होना चाहिए। इस सम्बन्ध में Nichol Vs. Godts (1862) का निर्णय महत्त्वपूर्ण है, जिसमें तेल नमूने से मिलता था, लेकिन वर्णन से नहीं, इस कारण उसे अस्वीकार कर दिया गया।

3. वस्तु की किस्म तथा उपयुक्तता के विषय में (As to Quality and Fitness)-साधारण क्रेता सावधान (Caveat Emptor i.e. Buyer beware) का नियम लागू होने के कारण माल के विक्रय के सम्बन्ध में धारा 16 (1) के अनुसार, कोई भी गर्भित शर्त अथवा आश्वासन रहता है कि माल किसी विशिष्ट उद्देश्य की पूर्ति के लिए उपयुक्त होगा, जिसके लिए खरीदा जा रहा है। परन्तु यदि संविदा किसी विशिष्ट वस्तु के विक्रय के लिए हो, जिस पर पेटेन्ट अथवा व्यापारिक नाम पड़ा है तो किसी विशेष आशय के लिए उसकी उपयुक्तता के लिए कोई गर्भित शर्त नहीं है। इस सम्बन्ध में Chanter Vs. Hopkins का निर्णय महत्त्वपूर्ण है, जिसमें पेटेन्ट का सामान बेचने के लिए विक्रेता को उत्तरदायी नहीं ठहराया गया।

4.वस्त की व्यापार योग्यता के विषय में (As to Mercantability) यद्यपि माल नमूने तथा वर्णन से मेल खाता भी हो. तथापि धारा 16 (2) के अनुसार, यह व्यापार योग्य होना चाहिए। इस सम्बन्ध में Peer Mohammed Vs. Daloogam का निर्णय महत्त्वपूर्ण जिसके अन्तर्गत पानी में भीगने के बाद सीमेण्ट जमकर पत्थर हो गया था उसे व्यापार योग्य नहीं माना गया। इसी प्रकार यद्यपि क्रेता ने वस्त की जाँच कर ली है, लेकिन जॉच से दोष प्रकार होते हैं तो भी उस माल में व्यापार योग्यता का पाया जाना आवश्यक है।

5. व्यापार की रीति के विषय में (As to Usage of Trade)-धारा 17 के अनुसार यह आवश्यक है कि यदि माल किसी विशिष्ट निर्माता से मँगाया जाए तो यह गर्भित शर्त है कि मंगाई जाने वाली वस्तु वही हो, जिसका वह निर्माता निर्माण कर रहा है। इस सम्बन्ध में Gohnson Vs. Raylton (1881) का निर्णय महत्त्वपूर्ण है।

6. नमूने के द्वारा विक्रय के सम्बन्ध में (As to Sale by Sample)-धारा 17 के अनुसार, नमूने के द्वारा विक्रय के सम्बन्ध में गर्भित शर्ते इस प्रकार होनी चाहिए-(i) अधिकांश माल नमूने के द्वारा विक्रय के अनुसार हो, (ii) क्रेता को नमूने के माल के साथ तुलना का अवसर प्राप्त हो, (ii) माल में कोई ऐसा दोष न हो, जिससे वह माल विक्रय योग्य न रहे। इस सम्बन्ध में Modi Vs. Gregson का निर्णय महत्त्वपूर्ण है जिसके अन्तर्गत क्रेता द्वारा खरीदा गया कपड़ा कोट बनाने योग्य न होने के कारण, यद्यपि कपड़ा नमूने के आधार पर सही था, व्यापार योग्य नहीं माना गया।

CD गर्भित आश्वासन

(Implied Warranties) 

वस्तु-विक्रय के सम्बन्ध में निम्नलिखित गर्भित आश्वासन होते हैं

1. वस्तु पर शान्तिपूर्ण अधिकार एवं उपयोग का गर्भित आश्वासन (As to Good Possession and Employment)-धारा 14 (b) के अनुसार, प्रत्येक विक्रय के संविदा में जब तक कि कोई विपरीत संविदा न हो विक्रेता का यह गर्भित आश्वासन है कि वह वस्तु का वास्तविक स्वामी होगा तथा क्रेता वस्तु का प्रयोग पूर्ण रूप से शान्तिपूर्वक कर सकेगा। अन्य शब्दों में, वस्तु के स्वामित्व के सम्बन्ध में होने वाली हानि की पर्ति विक्रेता को ही करनी पड़ेगा।

2.वस्तु-भार से मुक्त होने का गभित आश्वासन (As against Incumber rances)-धारा 14 (c) क अनुसार, यदि विक्रेता ने कोई वस्त बेची हो तो विपरीत सावदा’. होने की दशा में यह गर्भित आश्वासन होता है कि वस्त पर किसी तीसरे पक्षकार का कार अधिकार नहीं होगा। यदि कोई इस प्रकार का भार हो जिसे क्रेता ने चकाया है तो यह विन का अधिकार है।3. माल के गुण अथवा उपयुक्तता सम्बन्धी गर्भित आश्वासन (As to Quali Fitness)-धारा 16(3) के अनुसार, (व्यापार की रीति के अनसार) माल के गुण अथवा

प्रयुक्तता गर्भित आश्वासन है। इस सम्बन्ध में Johns Vs. Bawden (1893) का निर्णय  हत्त्वपूर्ण है।

शर्त को आश्वासन के रूप में समझा जाना

(Condition to be treated as Warranty) 

निम्नलिखित दशाओं में कोई शर्त आश्वासन के रूप में समझी जाएगी

1. विक्रय के संविदा में ऐसी शर्त, जिसे विक्रेता को पूरा करना हो (Condition of ale to be fulfilled by Seller)-धारा 13 (c) के अनुसार, यदि विक्रय के सम्बन्ध में ई आवश्यक शर्त हो जिसकी पूर्ति विक्रेता द्वारा की जानी चाहिए तो ऐसी स्थिति में ता-(i) उस आवश्यक शर्त का परित्याग कर सकता है, अथवा (ii) उस आवश्यक शर्त भंग को केवल आश्वासन का भंग समझना तथा संविदा भंग न मानना। उदाहरणार्थ-एक खक ने प्रकाशक को पुस्तक 15 मार्च, 1996 तक देने का वचन दिया परन्तु लेखक ने यह स्तक 25 मार्च, 1996 को दी। यहाँ पर समय सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य है जिसके कारण काशक इस संविदा को त्याग सकता है अथवा शर्त भंग को आश्वासन भंग मानकर क्षतिपूर्ति सकता है। 

2. विक्रय के संविदा में ऐसी शर्त जिसे विशेष परिस्थितियों में विक्रेता द्वारा पूरा किया जाना हो 

(Such condition which is to be fulfilled by Seller under Decific Conditions)-धारा 13 (2) के अनुसार-(i) जहाँ विक्रय का संविदा लग-अलग होने योग्य न हो और क्रेता ने आंशिक वस्तु को स्वीकार कर लिया हो तो शर्त भंग आश्वासन भंग ही माना जाएगा, अथवा (ii) जहाँ विक्रय संविदा किसी निर्दिष्ट माल Decific coods) के सम्बन्ध में हो और वह विक्रेता से क्रेता को चला गया हो तो विक्रेता किसी भी आवश्यक शर्त का खण्डन केवल आश्वासन का खण्डन माना जाएगा। इस बन्ध में Street Vs. Blake (1881) का निर्णय महत्त्वपूर्ण है। 

प्रश्न 20 – अधिकृत व्यक्ति कौन होता है? इसके सम्बन्ध में प्रमुख प्रावधानों को पद्माइए और अधिकृत व्यक्ति को निर्देश देने के सम्बन्ध में भारतीय रिजर्व क्तियों की विवेचना कीजिए।

Who is authorized Person ? Explain the main Provisions garding it and discuss the power of Reserve Bank of India regarding struction to authorized person.

उत्तर – विनिमय-विपत्र, प्रतिज्ञा-पत्र या चैक पर किसी व्यक्ति की दायित्व ग्रहण कर क्षमता उसके अनुबन्ध करने की क्षमता के साथ-साथ विकसित होती है।

अत: प्रत्येक व्यक्ति जिसे अपने देश के नियम के अनुसार, अनुबन्ध करने की क्षमता त है, वह प्रतिज्ञा-पत्र, विनिमय-विपत्र या चैक लिखकर, पृष्ठांकन, सुपुर्दगी तथा हस्तान्तरण के अपने को दायी बनाकर बाध्य हो सकता है।

अयोग्य पक्षकार (In competent Parties)-ऐसे व्यक्ति जो किसी देश के के अनुसार अनुबन्ध करने के योग्य न हो, जैसे-अवयस्क, पागल, शराबी, विनिमय-साध्य लेख-पत्र के पक्षकार बनकर दायी नहीं ठहराये जा सकते है, किन अयोग्य व्यक्ति के विनिमय-साध्य लेख-पत्र का पक्षकार हो जाने से, अनुबन्ध करने के पक्षकारों का उत्तरदायित्व समाप्त नहीं होता है।

1. अवयस्क (Minor)-एक अवयस्क अनुबन्ध करने के अयोग्य होता है किसी विनिमय-साध्य विलेख का पक्षकार बनने के लिए अपने को बाध्य नहीं कर लेकिन कानून में पक्षकार बनने के लिए मनाही नहीं है। अत: एक अवयस्क Mine विनिमय-साध्य लेख-पत्र का निर्माण (draw), पृष्ठांकन, स्वीकृति, परक्रामक (negotiation) या हस्तान्तरण कर सकता है, किन्तु वह इसके लिए व्यक्तिगत रूप से टासा नहीं होगा, परन्तु उसके अतिरिक्त शेष सभी पक्षकार दायी होंगे। विनिमय-साध्य लेख-पत्रों का अधिनियम की धारा 26 उसे विनिमय-साध्य विलेख का एक पक्षकार होने की अनुमति देती है।

ऐसे प्रतिज्ञा-पत्र, विनिमय-विपत्र या चैक के धारक जिनका कोई पक्षकार अवयस्क भी है अवयस्क के अतिरिक्त अन्य पक्षकारों से भुगतान लेने के अधिकारी हैं, लेकिन कानून कौस्ता दृष्टि में अवयस्क कोई बिल स्वीकार नहीं कर सकता है। इसी प्रकार वह प्रतिज्ञा-पत्र भी नहीं से। लिख सकता है।

यद्यपि एक अवयस्क एक विनिमय-साध्य विलेख का पक्षकार बनकर उत्तरदायित्व or ग्रहण नहीं कर सकता, तथापि एक अवयस्क विनिमय-साध्य लेख-पत्र का पक्षकार बनकर अधिकार प्राप्त कर सकता है। अत: कोई अवयस्क विनिमय-विपत्र, प्रतिज्ञा-पत्र या चैक कालख धारक या लेनदार बन सकता है। इसके अतिरिक्त, अन्य पक्षकारों द्वारा किसी अवयस्क के हित सा में, उसकी ओर से विनिमय-साध्य लेख-पत्र के निर्माण, पृष्ठांकन, स्वीकृति इत्यादि किए जकाय सकता हैं, किन्तु अवयस्क स्वयं अपने को प्रतिज्ञा-पत्र, विनिमय-विपत्र या चैक का निर्माण पृष्ठांकन इत्यादि करने के लिए बाध्य नहीं कर सकता। किसी अवयस्क द्वारा जीवन निर्वाह का आवश्यक वस्तुओं के लिए भी विनिमय-साध्य लेख-पत्र का निर्माण करना या उसे स्वीकार करना अवैधानिक समझा जाता है।

2. कॉरपोरेशन (Corporation)-यदि विधान द्वारा किसी कॉरपोरेशन या कन्न को अधिकार नहीं दिया गया है तो कोई कॉरपोरेशन या कम्पनी अनबन्ध करने के योग्य हा भी किसी विनिमय-साध्य लेख-पत्र का निर्माण, पृष्ठांकन, स्वीकति या हस्तान्तरण नही कर सकती है। यदि ऐसे लेख-पत्र का प्रत्यक्ष सम्बन्ध उस व्यापार के उद्देश्य से है, जिसे व लिए कम्पनी स्थापित हुई है तो पार्षद सीमा-नियम द्वारा विशेष रूप से अधिकृत न होन कोई कम्पनी किसी विनिमय-साध्य लेख-पत्र का पक्षकार बन सकती है।

3. एजेन्सी (Agency) – धारा 26 में उल्लिखित नियम के अनुसार, यदि कि में विनिमय-साध्य लेख-पत्र का पक्षकार बनने के लिए अपने को बाध्य करने का या वह किसी एजेन्ट को नियुक्त करके उसे इस आशय का अधिकार प्रदान करके उसके द्वारा :

स्वीकृत या पष्ठांकित विनिमय-साध्य लेख-पत्र के लिए अपने को दायी बना सकता है, लेकिन पण रखना होगा कि व्यापार करने के साधारण अधिकार तथा ऋण के भुगतान एवं वसूली करने के अधिकार मात्र से ही किसी एजेन्ट को विनिमय-विपत्र को स्वीकार या “कित करने का अधिकार प्राप्त नहीं हो जाता और इस प्रकार वह ऐसा करके अपने प्रधान को दायी नहीं ठहरा सकता। इसी प्रकार, यदि किसी एजेन्ट को बिल लिखने (Draw) का धिकार प्राप्त है, तो इसका अर्थ यह नहीं होता कि वह इस पर पृष्ठांकन (endorse) भी कर सकता है।

किसी विनिमय-साध्य लेख-पत्र पर हस्ताक्षर करते समय एजेन्ट का यह कर्तव्य होता है मणक वह इस बात को स्पष्ट कर दे कि वह एजेन्ट की हैसियत से हस्ताक्षर कर रहा है, अन्यथा यीह उसके लिए स्वयं दायी होगा। 

किन्तु जब किसी व्यक्ति ने एजेन्ट को यह विश्वास दिलाया हो कि उसके व्यक्तिगत रूप है। दायी होने पर हस्ताक्षर करने पर भी प्रधान ही उसके लिए व्यक्तिगत रूप से दायी होगा, तो स्क जेन्ट का कोई व्यक्तिगत दायित्व नहीं होता है। अपने को मात्र, एजेन्ट या मैनेजर बताकर कीस्ताक्षर करने पर वह अपने व्यक्तिगत दायित्व से छुटकारा नहीं प्राप्त कर सकता। इसके लिए नहींसे हस्ताक्षर करते समय ऐसे शब्दों का प्रयोग अवश्य करना चाहिए जिससे यह पता चल सके कि हस्ताक्षर करने वाला व्यक्ति एजेन्ट की हैसियत से हस्ताक्षर कर रहा है। इसके लिए प्रायः यत्वor या per pro का प्रयोग किया जाता है। कर एजेन्ट का सीमित अधिकार-जब एजेन्ट ‘Per Production’ या ‘per pro’ कातखकर हस्ताक्षर करते हैं, तो यह ज्ञात होता है कि 

एजेन्ट को सीमित अधिकार प्राप्त हैं तथा हितसी स्थिति में प्रधान तभी बाध्य होता है, जबकि एजेन्ट अपने अधिकार की सीमा के भीतर ही -जाार्य करें।

4. साझेदारी फर्म-सामान्यत: फर्म की ओर से व्यापारिक साझेदारी फर्म के साझेदारों -को विनिमय-साध्य विलेख लिखने, स्वीकार करने व परक्रामित करने का गर्भित अधिकार कारता है, परन्तु जब तक साझेदारों को अव्यापारिक फर्म में स्पष्ट अधिकार न दिए गए हों, वे नहीं कर सकते, परन्तु फर्म व अन्य साझेदारों को बाधित करने के लिए यह कार्य फर्म के म्पनीम पर होना आवश्यक है। पर 

5. वैधानिक प्रतिनिधि – किसी भी मृत व्यक्ति का वैधानिक प्रतिनिधि विनिमय-साध्य कसलेखों के सम्बन्ध में वह सब कार्य करने का अधिकारी है जो मृत व्यक्ति (यदि वह जीवित ने कोता तो) करने का अधिकारी होता। यदि वैधानिक प्रतिनिधि उत्तराधिकार में प्राप्त सम्पत्ति तक भीपने दायित्वों को सीमित करना चाहता है तो वह ‘मेरे व्यक्तिगत दायित्व के बिना’ या ‘दायित्व के बिना जोड़कर सीमित कर सकता है अन्यथा वह व्यक्तिगत रूप से दायी होगा। मध्य प्रदेश यविच्च न्यायालय ने राधाकिशन बनाम नारायणी बाई के वाद में ऐसा निर्णय दिया। है,

6. सम्मिलित हिन्दू परिवार का कर्ता अथवा मैनेजर – सम्मिलित हिन्दू परिवार के द्वारा या मैनेजर को परिवार के सभी सदस्यों का प्रतिनिधित्व करना पड़ता है। अत: वह पारिवारिक कार्य के लिए विनिमय-विपत्र, प्रतिज्ञा-पत्र या चक लिखकर या स्वीकार करके ऋण ले सकता है, किन्तु ऐसे सम्मिलित लेख-पत्र के लिए सयुक्त गहन्द परिवार सदस्य दायी होते हैं। ऐसे पत्र के लिए अवयस्क भी दायी होता है, किन्तु उसका दायित्व हिस्से तक ही सीमित रहता है।

7. दिवालिया – कानून की दृष्टि में दिवालिया व्यक्ति किसी लेख-पत्र की स्वीकार उसका पष्ठांकन नहीं कर सकता। जब कोई दिवालिया व्यक्ति किसा बिल का लनदार हो । यदि वह उस बिल को यथाविधिधारी के नाम पृष्ठांकन करे, तो दिवालिया के अतिरिक्त बिल के दसरे पक्षकार यथाविधिधारी के प्रति दायी होगे। जब कोई व्यक्ति दिवालिया । जाता है, तो किसी बिल के भुगतान लेने का अधिकार राजकीय प्रापक को प्राप्त होता है, दिवालिया किसी बिल के भुगतान के लिए दूसरे पक्षकार पर मुकदमा नहीं चला सकता

प्रश्न 21 – उपभोक्ता संरक्षण का क्या अर्थ है? उपभोक्ता शोषण के विधि करान तरीके कौन-कौन से हैं?

What do you mean by consumer protection ? What are the 440 various types of consumer exploitations ? 

उत्तर – उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम का आशय

(Meaning of Consumer Protection Act)

उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम का बिल 9 दिसम्बर, 1986 को भारतीय संसद के पटल पर रखा गया। यह अधिनियम जम्मू-कश्मीर को छोड़कर सम्पूर्ण भारत में 15 अप्रैल, 1987 में ( लागू है। 1993 तथा 2002 मे अनेक महत्त्वपूर्ण संशोधन किए गए हैं। इस अधिनियम कान व प्रमुख विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं –

(1) यह अधिनियम धर्म निरपेक्ष प्रकृति का है। 

(2) यह अधिनियम सभी वस्तुओं एवं सेवाओं पर लागू होता है। 

(3) यह अधिनियम सभी क्षेत्रों एवं संस्थाओं पर लागू होता है।

(4) इसके अन्तर्गत कोई न्याय शुल्क नहीं देना पड़ता है और न किसी आवेदन माप टिकट ही लगाना पड़ता है। सा देश बन गया को

(5) इस अधिनियम को पारित होने से भारत विश्व का पहला ऐसा देश बन जिसने उपभोक्ताओं के हितों को न्याययिक संरक्षण प्रदान किया है।

(6) इस अधिनियम की व्यवस्थाएँ क्षतिपूरक प्रकृति की हैं, दण्डात्मक प्र नहीं हैं। 

(7) यह अधिनियम शीघ्र एवं त्वरित न्याय दिलाने की व्यवस्था है।

(8) उपभोक्ता को किसी वकील की सेवाएं लेने की आवश्यकता नहीं हो अपने मुकदमे की पैरवी कर सकता है।

उपभोक्ता शोषण के विभिन्न तरीके 

(Various Types of Consumer Exploitations) 

(1) आदेशित माल के स्थान पर किसी अन्य सामान की पूर्ति। 

(2) नाप, तोल, आकार, मात्रा आदि विवरण से कम होना। 

(3) उपयोग की अवधि बीत जाने के बाद विक्रय। 

(4) सामान उस क्वालिटी का न होना जिसका बताकर बेचा जा रहा है। 

(5) निश्चित मूल्य से अधिक मूल्य वसूल करना। 

(6) गैर-पंजीकृत, नकली तथा घटिया सामान का विक्रय। 

(7) वारण्टी तथा गारण्टी की अवधि में सामान का बार-बार खराब होना

(8) विद्यत विभाग से सम्बन्धित (Relating Electricity Deptt.)-नए कनैक्शन के लिए औपचारिकताएँ पूरी करने के बाद भी उचित समय में कनैक्शन उपलब्ध न न कराना।

(9) टेलीफोन विभाग से सम्बन्धित (Relating Telephone Deptt.)-उचित समय में टेलीफोन कनैक्शन उपलब्ध न कराना।

(10) बीमा विभाग से सम्बन्धित (Relating Insurance Deptt.)-प्रीमियम का – भुगतान कट देने पर उचित समय में पॉलिसी निर्गमित न करना।

(11) मात्रा से सम्बन्धित (Relating to Travelling)-निर्धारित किराये से अधिक किराया वसूल करना। टल 

(12) डाक घर तथा कोरियर सेवाओं से सम्बन्धित (Relating to Post offices

& Courier services)–पंजीकृत डाक या अन्य किसी डाक से भेजे गए पत्र को डिलीवर कीन करना या डिलीवरी में अनुचित देरी होना।

(13) बैंक से सम्बन्धित (Relating to Bank)-जमा राशि स्वीकार करने से मना करना।

(14) चिकित्सीय सेवा से सम्बन्धित (Relating to Medicine)-आपरेशन में लापरवाही या असावधानी करना आदि।

(15) शिक्षा संस्थाओं से सम्बन्धित (Relating to Education)-निर्धारित पमापदण्ड पूरा होने पर भी प्रवेश देने से मना करना आदि।

प्रश्न 22-‘सुपुर्दगी’ शब्द की व्याख्या कीजिए।वैध सुपुर्दगी से सम्बन्धित नियमों या को बताइए।

Explain the term ‘Delivery’. State the rules regarding valid delivery of goods. 

उत्तर – सुपुर्दगी से आशय

(Meaning of Delivery) वस्तु विक्रय अधिनियम की धारा 2 (2) के अनुसार, “सुपुर्दगी से तात्पर्य एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति को किसी वस्तु का ऐच्छिक रूप से अधिकार देने से है।”

सुपुर्दगी के प्रकार

(Kinds of Delivery) 

सुपुर्दगी निम्न तीन प्रकार की हो सकती है –

1. वास्तविक सुपुर्दगी (Actual Delivery)-माल का भौतिक रूप से केस उसके प्रतिनिधि के हाथ में चला जाना वास्तविक सुपुर्दगी कहलाता है।

2. रचनात्मक सुपुर्दगी (Constructive Delivery)-जब माल किसी भी व्यक्ति के हाथ में हो और यदि वह क्रेता की तरफ से उसे अपने अधिकार में रखने की दे दे अथवा जब माल क्रेता के अधिकार में हो और विक्रेता उसे माल के स्वामी की भाँति की स्वीकृति प्रदान करे तो इसे माल की रचनात्मक सुपुर्दगी कहते हैं।

3. सांकेतिक सुपुर्दगी (Symbolic Delivery)-यदि वस्तु तौल अथवा आकार में इतनी अधिक है कि विक्रेता क्रेता को उसका अधिकार भौतिक रूप में प्रदान कर सके के संकेत रूप में माल का हस्तान्तरण कर दे तो इसे सांकेतिक सुपुर्दगी कहते हैं। उदाहरण के लि गोदाम में रखे हुए माल की सुपुर्दगी गोदाम की चाबी देकर अथवा वाहन में लदे माल के अधिकार पत्र सौंपकर माल की सांकेतिक सुपुर्दगी दी जा सकती है।

उदाहरण – X की साइकिल Y के कब्जे में है। X यह साइकिल Z को बेच देता है। X, Y को आदेश देता है कि साइकिल Z को सुपुर्द कर दी जाए। Y ओर Z मित्र हैं। Z,Y से साइकिल अपने पास ही रखने के लिए कहता है। विक्रेता X की ओर से यह रचनात्मक सुपुर्दगी मानी जाएगी, यद्यपि साइकिल अभी भी Y के कब्जे में है।

सुपुर्दगी से सम्बन्धित नियम

(Rules Regarding Delivery) 

1. सुपुर्दगी का ढंग (Mode of Delivery)-माल विक्रेता के द्वारा क्रेता को भेजा जाना है अथवा क्रेता को स्वयं जाकर सुपुर्दगी प्राप्त करनी है, यह बात पक्षकारों के अनुबन्ध पर निर्भर करती है जो स्पष्ट अथवा गर्भित हो सकती है।

2. वाहक को सुपुर्दगी (Delivery to Carrier)-इस सम्बन्ध में निम्न व्यवस्था है –

(i) जब विक्रय अनुबन्ध के अनुसार विक्रेता को माल क्रेता के पास भेजना है तो विक्रत इ के द्वारा माल वाहक (रेलवे कम्पनी, जहाजी कम्पनी अथवा टक) को सौंप देने पर माल क्रेता को सुपुर्दगी मानी जाएगी और माल की समस्त जोखिम क्रेता की होगी।

(ii) यदि विक्रेता वाहक को माल देकर माल पर अपना अधिकार बनाए चाहता है।

3. किस्तों में सुपुर्दगी (Delivery in Instalments)-विपरीत अनुबन्ध क में क्रेता किस्तों में सुपुर्दगी लेने के लिए बाध्य नहीं है। जब अनुबन्ध के अनुसार, कि सुपुर्दगी निश्चित किस्तों में दी जानी है और उसका मूल्य अलग-अलग चुकाया जाना है तो ऐसी दशा में यदि विक्रेता एक या एक से अधिक किस्त की सुपर्दगी नहीं करता या गलत सुपुर्दगी करता है अथवा क्रेता किसी किस्त की सुपुर्दगी लेने से इंकार कर देता है या किसी किस्त का भगतान करने से मना कर देता है तो यह निश्चित करना कि पूर्ण अनुबन्ध भंग हुआ है या अनुबन्ध के किसी एक भाग को भंग मानकर उसके लिए हर्जाना वसूल किया जाए, यह अनुबन्ध की शर्तों तथा वाद की परिस्थितियों पर निर्भर करता है।

4. सुपुर्दगी का स्थान (Place of Delivery)-यदि अनुबन्ध में सुपुर्दगी का स्थान दिया हुआ है तो विक्रेता का यह कर्तव्य है कि वह निश्चित स्थान पर ही माल की सुपुर्दगी दे। यदि अनुबन्ध में सुपुर्दगी का स्थान नहीं दिया हुआ है तो बिक्री के समय जिस स्थान पर माल होता है, सुपुर्दगी उसी स्थान पर मानी जाती है।

5. सुपुर्दगी का समय (Time of Delivery)-क्रेता द्वारा सुपुर्दगी की प्रार्थना साधारण व्यापारिक घण्टों में ही की जानी चाहिए। यदि अनुबन्ध के अन्तर्गत सुपुर्दगी देने का दायित्व स्वयं विक्रेता का है तो विक्रेता को माल की सुपुर्दगी का प्रस्ताव उचित समय पर भेजना चाहिए। उचित समय क्या होगा, यह परिस्थितियों पर निर्भर करता है।

6. सुपुर्दगी सम्बन्धी व्यय (Expenses related to Delivery)-विपरीत अनुबन्ध के अभाव में माल को सुपुर्दगी योग्य स्थिति तक लाने के समस्त व्यय विक्रेता को करने होंगे।

7. माल का तीसरे व्यक्ति के अधिकार में होना (Goods in Possession of a Third Person) यदि माल किसी तीसरे पक्ष के नियन्त्रण में है तो माल की सुपुर्दगी उस समय तक नहीं मानी जाती, जब तक वह तीसरा व्यक्ति क्रेता के सम्मुख यह स्वीकार न करे कि वह माल को क्रेता की ओर से रखता है।

8. गलत मात्रा में माल की सुपुर्दगी (Delivery of Wrong Quantity)-इस न सम्बन्ध में निम्न व्यवस्था है –

(i) जब विक्रेता क्रेता के यहाँ अनुबन्धित माल से कम भेजता है तो क्रेता उसे लेने से इन्कार कर सकता है। परन्तु यदि क्रेता उसे स्वीकार करता है तो उसे अनुबन्ध की दर के 51 अनुसार मूल्य का भुगतान करना होगा।

(ii) जब विक्रेता क्रेता के यहाँ अनुबन्धित माल से अधिक माल भेजता है तो क्रेता अनुबन्धित माल को स्वीकार करके शेष माल लेने से इन्कार कर सकता है अथवा वह सम्पूर्ण माल की सुपुर्दगी लेने से इन्कार कर सकता है।

(ii) यदि विक्रेता क्रेता को अनुबन्धित माल के साथ भिन्न माल अथवा मिश्रित माल की पी सुपुर्दगी देता है तो क्रेता अनुबन्धित माल को स्वीकार करके अन्य माल को लेने से इन्कार कर । सकता है अथवा सम्पूर्ण माल को लेने से इन्कार कर सकता है।

प्रश्न 29 – विभिन्न प्रकार की प्रतिभूति को बतलाइए। चालू प्रतिभति कि समाप्त होती है?

What are the different kinds of guarantee ?’How is conti guarantee revoked? .

उत्तर – प्रतिभूति को मुख्यत: दो प्रकार से वर्गित किया जा सकता है- पहले विद्यमान प्रतिभूति तथा भावी प्रतिभूति।

1. पहले से विद्यमान प्रतिभूति (Retrospective Guarantee)-इस प्रकार का प्रतिभूति वह प्रतिभूति होती है, जिसके अन्तर्गत पहले लिए गए ऋण के सम्बन्ध में प्रतिभा जाती है।

उदाहरणार्थ-‘अ’ के पास ‘ब’ का रू. 500 का तीन माह का ऋण है जिसकी अदायगी की तिथि पर ‘अ’ धनराशि देने में असमर्थ रहता है तथा ‘स’ की गारण्टी पर एक की अवधि वृद्धि के लिए निवेदन करता है। ‘स’ द्वारा दी गई इस प्रकार की गारण्टी विद्याप ऋण के लिए है। धारा 129 के अनुसार, “एक ऐसी प्रतिभूति जो कि व्यवहारों की एक श्रृंखला तक विस्तृत होती है चालू प्रतिभूति कहलाती है।”

2. भावी प्रतिभूति (Future or Prospective Guarantee)-जब प्रतिभति किसी ऐसे ऋण के सम्बन्ध में हो जो कि प्रतिभूति के उपरान्त दिया जाना हो तो इस प्रकार की प्रतिभूति को हम भावी प्रतिभूति कहते हैं। उदाहरणार्थ-‘अ’, ‘ब’ की गारण्टी पर ‘स’ को रू.5000 तीन माह के लिए देने को तैयार होता है, तीन माह बाद ‘स’ यदि रुपया देने में असमर्थ रहे तो ‘ब’ उस धनराशि को देगा, यही भावी प्रतिभूति कहलाती है, इस प्रकार प्रतिभूति संविदों को दो भागों में विभक्त किया सकता है

(i) विशिष्ट ऋण की प्रतिभूति (Specific Guarantee)-वह प्रतिभूति जो किसी विशेष ऋण के सम्बन्ध में हो और उस ऋण के भुगतान के उपरान्त यह प्रतिभूति समाप्त हो जाती है तो इसे हम विशिष्ट ऋण की प्रतिभूति कहते हैं। उदाहरणार्थ-मोहन, सोहन स रू. 5000 का ऋण लेता है जिसकी गारण्टी राम देता है, मोहन द्वारा सोहन को रू. 5000 लोटा । देने पर राम की गारण्टी समाप्त हो जाती है।

(ii) चालू प्रतिभूति (Continuing Guarantee) धारा 129 के अनुसार, वह प्रतिभूति जो व्यवहारों की एक श्रृंखला तक विस्तृत हो, चालू प्रतिभूति कहलाती है। इस प्रका चालू प्रतिभूति अनेक विस्तृत भावी ऋणों के लिए दी जाती है जो एक-दूसरे से भिन्न हा ऐसी प्रतिभूति जो व्यवहारों की एक श्रेणी तक फैली होती है, चाल प्रतिभूति कहलात उदाहरणार्थ-एक बैंक के खजांची के रूप में उचित ढंग से काम करने के लिए अ ओर से बैंक को प्रतिभूति देता है। ऐसी स्थिति में ‘अ’ द्वारा दी गई प्रतिभूति चालू कहलाएगी।

चालू प्रतिभूति की मुख्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं –

(क) चालू प्रतिभूति किसी एक ऋण के सम्बन्ध में न होकर एक से आप सम्बन्ध में होती है;

(ख) एक बार प्रतिभति के बराबर ऋण हो जाने पर यह समाप्त नहीं होती है।

(viii) रेखांकित चैक क्या होता है?

What is crossed cheque ? 

(ix) उपभोक्ता संरक्षण की व्याख्या कीजिए।

Explain consumer protection. 

(x) भारत में निवासी व्यक्ति पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। 

Write short note on person resident in India.


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