B.Com 1st Year Business Regulatory Framework Short Notes In Hindi

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Business Regulatory Framework
Business Regulatory Framework

प्रश्न – कपट तथा मिथ्यावर्णन में अन्तर स्पष्ट कीजिए। 

Differentiate between Fraud and Misrepresentation. 

उत्तर- कपट एवं मिथ्यावर्णन में अन्तर 

(Differences between Fraud and Misrepresentation)

प्रश्न – उत्पीड़न एवं अनुचित प्रभाव में अन्तर स्पष्ट कीजिए। 

Differentiate between Coercion and Undue Influence 

उत्तर – उत्पीड़न एवं अनुचित प्रभाव में अन्तर 

(Differences between Coercion and Undue Influence)

प्रश्न – विक्रय अनुबन्ध क्या है? विक्रय अनुबन्ध के लक्षणों का वर्णन कीजिए।

What is Contract of Sale ? Describe the characteristics of a contract of sale.

उत्तर – वस्तु-विक्रय अनुबन्ध भी एक विशेष प्रकार का व्यापारिक अनुबन्ध है। इस अनुबन्ध से सम्बन्धित व्यवस्थाएँ वस्तु-विक्रय अधिनियम में सम्मिलित हैं। इस अधिनियम की धारा 2 के अनुसार, यह अधिनियम वस्तु-विक्रय अधिनियम, 1930′ कहलाता है। यह | जम्मू एवं कश्मीर राज्यों को छोड़कर सम्पूर्ण भारत के लिए होता है। यह अधिनियम 1 जुलाई, | 1930 से कार्यान्वित हुआ।

सन् 1930 से पहले वस्तु-विक्रय से सम्बन्धित व्यवस्थाएँ भारतीय अनुबन्ध | अधिनियम, 1872 की धारा 76-123 में सन्निहित थीं, परन्तु ये व्यवस्थाएँ वस्तु-विक्रय अनुबन्ध के सम्बन्ध में उत्पन्न हुए बहुत से प्रश्नों पर प्रकाश नहीं डालती थीं। इस कारण भारतीय संसद ने सन् 1930 में इन व्यवस्थाओं को मूल अनुबन्ध में निरस्त कर दिया, और उनके स्थान पर एक नवीन अधिनियम ‘वस्तु-विक्रय अधिनियम, 1930’ व्यवस्थापित किया। | जिसके द्वारा वस्तु-विक्रय से सम्बन्धित राजनियम को पूर्ण एवं वैज्ञानिक कर दिया गया।

वस्तु-विक्रय संविदा का अर्थ एवं परिभाषा

(Meaning and Definition of Contract of Sale) 

वस्तु-विक्रय अधिनियम की धारा 4 (1) के अनुसार, “वस्तु-विक्रय की संविदा है, जिसके द्वारा विक्रेता एक निश्चित मूल्य के बदल वस्तु का स्वामित्व करता है अथवा हस्तान्तरित करने का समझौता करता है।

विक्रय अनुबन्ध के लक्षण –

(Characteristics of Contract of Sale) 

1. वैध संविदा के तत्त्व (Main Elements of a Valid Contract) विक्रय, संविदा अधिनियम का ही एक भाग है, लेकिन 1960 में इसको पृथक से पारित का मूल उद्देश्य इसे अधिक विस्तृत बनाना था। अत: वस्तु-विक्रय संविदों में वे सभी आर लक्षण होने चाहिए, जो एक वैध संविदा में होते हैं; जैसे-योग्य पक्षकारों का होना 3 स्वतन्त्र सहमति का पाया जाना, उचित प्रतिफल होना आदि।

2. क्रेता तथा विक्रेता का होना (Existance of both Purchaser and Seller)-अन्य संविदा की भाँति इसमें भी पक्षकार होते हैं। ये पक्षकार वस्तु-विक्रय संविटा, में क्रमश: क्रेता तथा विक्रेता कहलाते हैं। क्रेता वह व्यक्ति है, जो कि वस्तु को निर्धारित मल्य पर खरीदने के लिए सहमत होता है तथा विक्रेता वह है, जो वस्तु का निर्धारित मूल्य लेने के लिए सहमत होता है।

3. माल का होना (Existance of Goods)-विक्रेता संविदों में विषय-सामग्री माल ही होती है। माल का अभिप्राय (मुद्रा तथा अभियोग के योग्य किन्तु दोनों के अतिरिक्त) प्रत्येक प्रकार की चल सम्पत्ति से है। माल निश्चित अथवा अनिश्चित प्रकृति का हो सकता है, अचल सम्पत्तियों (भूमि, भवन, तालाब आदि) का विक्रय इस श्रेणी में नहीं आता। __

4. मूल्य का होना (Determined Price)-माल की बिक्री का प्रतिफल उसका मूल्य होता है। वस्तु के प्रतिफल के रूप में विक्रेता को उसका मूल्य दिया जाता है। इस दृष्टिकोण से यह दान (Gift) तथा वस्तु विनिमय की अदल-बदल (Barter) प्रणाली से भिन्न है।

5. स्वामित्व का हस्तान्तरण (Transfer of Ownership)-धारा 4(3)क अनुसार, वस्तु के स्वामित्व का हस्तान्तरण तत्काल हो सकता है अथवा समय के उपरान्त हा सकता है। यदि विक्रेता से क्रेता को वस्तु का हस्तान्तरण तत्काल हो जाता है तो यह ‘विक्रय और यदि भविष्य में होने का वचन हो तो ‘विक्रय का समझौता’ कहलाता है। धारा 4(4) असार विक्रय का समझौता’ उस समय विक्रय कहलाएगा जब वद समय बीत गया । अथवा उन शर्तों की पूर्ति हो गई हो, जिनके अधीन वस्तु का हस्तान्तरण होना था।

6.एक अंश स्वामी तथा दूसरे अंश स्वामी के बीच विक्रय का संविदा हा सका (Contract of sale may be between one part of owner and other)-विक्रय का संविदा एक अंश स्वामी तथा दूसरे अंश स्वामी के बीच हो सकता हैं।7. विक्रय संविदापूर्ण अथवा शर्त के साथ होना (Contract of sale Ds absolute or conditional)-धारा 4 (2) के अनुसार, विक्रय संविदा पर्ण (Absolute) अथवा शर्त के साथ (Conditional) हो सकता है।

प्रश्न – सांयोगिक संविदे (अनुबन्ध) पर टिप्पणी लिखिए। 

Write a note on Contingent Contract. 

उत्तर – सांयोगिक संविदे (अनुबन्ध) का अर्थ एवं परिभाषा

(Meaning and Definition of Contingent Contracts) 

सांयोगिक संविदा; ऐसी संविदा की आनुषंगिक (collateral) किसी घटना के होने या न होने पर किसी बात को करने या न करने की संविदा है। उदाहरणार्थ-सामान्य बीमा कम्पनी ‘अ’ के मकान पर चोरी के खिलाफ (Insurance against Theft) बीमा करती है, अर्थात् बीमा कम्पनी द्वारा ‘अ’ को राशि देने का प्रश्न उसी दशा में उत्पन्न होता है, जबकि ‘अ’ के मकान में चोरी हो जाए। इस प्रकार सांयोगिक संविदे किसी अनिश्चित भावी घटना के किसी नियत समय में होने अथवा न होने पर ही निर्भर करते हैं, और इस शर्त के पूरा होने पर ही उन्हें प्रवर्तित कराया जा सकता है। ऐसे सांयोगिक संविदे जो किसी असम्भव घटना के घटित होने पर निर्भर करें वे ‘व्यर्थ’ कहलाते हैं। धारा 31 के अनुसार, “सांयोगिक अनुबन्ध किसी कार्य को करने अथवा न करने का एक ऐसा अनुबन्ध है, जो कि किसी ऐसी घटना के होने या न होने पर निर्भर है जो कि अनुबन्ध के समपाश्विक है।”

इस प्रकार सांयोगिक अनुबन्ध-(i) किसी घटना के होने पर किसी कार्य को करने अथवा न करने के लिए अथवा (ii) किसी घटना के न होने पर किसी कार्य को करने अथवा न करने के लिए हो सकता है। ऐसे अनुबन्धों को ‘शर्तयुक्त अनुबन्ध’ कहा जाता है क्योंकि ऐसे अनुबन्धों में दायित्व किसी घटना के होने या न होने की शर्त पर निर्भर करता है। उदाहरणार्थ’अ’, ‘ब’ को उसके मकान में आग लग जाने की शर्त पर ₹ 1,00,000 देने का अनुबन्ध करता है। यहाँ किसी घटना के होने पर किसी कार्य को करने का ‘सांयोगिक अनुबन्ध है।

प्रश्न – शून्य तथा शून्यकरणीय अनुबन्ध में अन्तर स्पष्ट कीजिए।

Distinguish between Void and Voidable Contract. 

अथवा व्यर्थ तथा व्यर्थनीय संविदा में अन्तर स्पष्ट कीजिए।

Distinguish between Void and Voidable Contract. 

उत्तर – व्यर्थ तथा व्यर्थनीय संविदा में अन्तर 

(Differences between Void and Voidable Contract)

प्रश्न – ‘क्रेता सावधान नियम’ की व्याख्या कीजिए। इसके क्या अपवाद हैं?

Explain “The Doctrine of Caveat Emptor’. What are its exceptions?

उत्तर – क्रेता सावधान नियम 

(Caveat Emptor) 

साधारणत: विक्रय संविदों में माल की किस्म तथा उपयोगिता के सम्बन्ध में कोई गर्भित शर्त नहीं होती है, और यह आवश्यक नहीं है कि विक्रेता उसी वस्तु को दे जिसकी इच्छा क्रेता करता है। यह विक्रेता का दायित्व नहीं है कि क्रेता को अपेक्षित वस्तु ही दे, यह तो स्वयं क्रेता का कर्त्तव्य है कि वह वस्तु को खूब देखभाल कर तथा ठोक-बजाकर खरीदे। यह सिद्धान्त इंग्लैण्ड के खुले बाजार के सिद्धान्त पर आधारित है जिसके अन्तर्गत विक्रेता अपनी वस्तु को प्रदर्शित करते हैं तथा क्रेता का यह कर्त्तव्य है कि वह वस्तु का चयन सोच-विचार कर करे। यदि वह वस्तु का चयन सोच-विचार कर करने में असमर्थ रहता है, या बाद में इस निष्कर्ष पर पहँचे कि वस्तु में उन गुणों की उपेक्षा है, जो वह आवश्यक समझता है तो वह इस आधार पर वस्तु को वापस नहीं कर सकता। इसी सिद्धान्त को क्रेता सावधान का नियम (Caveat Emptor) कहते हैं। विभिन्न उपभोक्ताओं के लिए भिन्न-भिन्न वस्तुओं के द्वारा भिन्न-भिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति हो सकती है। यह स्वयं क्रेता का ही कर्त्तव्य है कि वह ऐसी वस्तुओं का चयन करे, जो उसके लिए उपयोगी हों। उदाहरणार्थ-यदि ‘अ’, ‘ब’ से एक मारकीन का थान खरीदता है तथा बाद में उसके पायजामे बनाते समय वह यह समझ पाता है कि पायजामे के लिए मारकीन प्रयोग न किया जाकर लटे का प्रयोग किया जाना चाहिए तो वह इस आधार पर

विक्रय की गई वस्तु को वापस करने का अधिकारी नहीं है। अन्य शब्दों में, विक्रेता वस्त एक बार विक्रय करने के उपरान्त उसे वापस लेने के लिए उत्तरदायी नहीं है, क्रेता को स्वयं ही वस्तु की भली-भाँति देखभाल कर लेनी चाहिए। विक्रेता के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह क्रेता को वस्तु के अवगुण या कमियाँ बताए।

क्रेता सावधान सिद्धान्त के अपवाद 

(Exceptions to The Doctrine of Caveat Emptor) 

निम्नलिखित दशाओं में विक्रेता का मूल दायित्व बढ़ जाता है –

1. क्रेता द्वारा विक्रेता को अपनी आवश्यकता बता देना (In Case Purchaser Speaks his Requirements)-धारा 16 (1) के अनुसार, जब क्रेता ने स्पष्ट रूप से विक्रेता को अपनी आवश्यकता बता दी हो और वस्तु के चयन के लिए विक्रेता के निर्णय पर निर्भर करता हो तो ऐसी स्थिति में विक्रेता का यह कर्त्तव्य है कि वह क्रेता के लिए ऐसी वस्तु का चयन करे जिसमें उत्तम गुण हों तथा वह क्रेता की आवश्यकताओं की पूर्ति करती हो। इस सम्बन्ध में Preist Vs. Last का निर्णय महत्त्वपूर्ण है जिसके अन्तर्गत दवा बेचने वाले से एक बोतल ली गई जिसमें कि गरम पानी डालने के उपरान्त बोतल फट गई और मरीज को नुकसान पहुँचा जिसकी क्षतिपूर्ति का उत्तरदायित्व बोतल बेचने वाले पर डाला गया।

2. माल विशिष्ट विक्रेता से खरीदना (Purchase Goods from Specific Dealer)-जब माल ऐसे व्यक्ति से क्रय किया गया हो, जो कि विशिष्ट रूप से उसी का विक्रय करता हो तो माल सामान्य व्यापार गुण का होना चाहिए। क्रेता सावधान के नियम का यह दूसरा अपवाद है, इस सम्बन्ध में Johns Vs. Just का निर्णय महत्त्वपूर्ण है जिसमें एक सामान जहाज पर निरन्तर लदे रहने के कारण इतना खराब हो गया था कि व्यापार योग्य नहीं रहा था।

3. विक्रेता के प्रदर्शन पर विक्रय (Sale of Goods by Display)-यदि माल विक्रेता के प्रदर्शन पर विश्वास करके लिया गया है तो धारा 16(3) के अनुसार, गर्भित शर्त होगी कि माल प्रदर्शन के अनुसार ही होगा।

4. छिपाव द्वारा दोष (Latent Defect)-धारा 16 (4) के अनुसार, यदि विक्रेता अपनी विक्रय-योग्य वस्तु के दोष इस प्रकार छिपा लेता है कि साधारण निरीक्षण से यह ज्ञात न हो सके तो इसके लिए विक्रेता उत्तरदायी होगा।

इसी नियम का अन्यत्र उल्लेख भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 17 में मिलता है जिसके विश्लेषण के अनुसार एक पक्ष द्वारा महत्त्वपूर्ण तथ्य के ज्ञात होने पर उसके द्वारा क्रेता को बताना कपट नहीं माना जाएगा। 

प्रश्न – पक्षकारों की स्वतन्त्र सहमति पर टिप्पणी लिखिए।

Write a note on Free Consent of Parties. 

उत्तर – स्वतन्त्र सहमति का अर्थ

(Meaning of Free Consent) 

भारतीय संविदा अधिनियम के अनुसार, वैध संविदा होने के लिए यह आवश्यक है कि पक्षों की स्वतन्त्र सहमति हो। धारा 10 के अनुसार, “वे सभी समझौते जो संविदा के योग्य पक्षकारों की स्वतन्त्र सहमति से किए गए हों ……….”। अत: अधिनियम में पक्षकारों की

स्वतन्त्र सहमति’ होनी आवश्यक है। पक्षों की स्वतन्त्र सहमति तब कहलाती है जब दो व्यक्ति एक बात पर एक ही अर्थ में राजी हो जाते हैं, तब कहा जाता है कि उन्होंने सहमति दी है। सहमति तब स्वतन्त्र मानी जाती है जब वह उत्पीड़न (Coercion), अनुचित प्रभाव (Undue Influence), कपट (Fraud), मिथ्यावर्णन (Misrepresentation) अथवा गलती (Mistake) के कारण न दी गई हो।

प्रश्न – प्रस्ताव एवं स्वीकृति पर टिप्पणी लिखिए। 

Rrite a note on Proposal and Acceptance.

उत्तर – किसी समझौते के लिए प्रस्ताव (Proposal) तथा उसकी स्वीकृति (Acceptance) होनी आवश्यक है। धारा 2 (a) के अनुसार, जब कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति से किसी कार्य को करने अथवा न करने के विषय में अपनी इच्छा को इस आशय से प्रकट करे कि दूसरा व्यक्ति उसके कार्य को करने अथवा न करने के लिए अपनी सहमति प्रदान करे तो इस इच्छा को प्रस्ताव कहते हैं। प्रस्ताव रखने वाले को वचनदाता या प्रस्तावक कहा जाता है, जबकि जिसके समक्ष प्रस्ताव रखा जाता है उसे वचनगृहीता कहते हैं।

किसी भी समझौते को वैधानिक रूप (संविदा) देने के लिए आवश्यक है कि एक पक्ष द्वारा प्रस्ताव किया जाए जिसकी स्वीकृति दूसरा पक्ष (वचनगृहीता) दे। स्वीकृति से तात्पर्य प्रस्ताव की शर्तरहित स्वीकृति से है। जब वह व्यक्ति जिससे प्रस्ताव किया गया है प्रस्ताव पर अपनी सहमति दे देता है तब प्रस्ताव स्वीकृत किया हुआ माना जाता है। स्वीकार किया हुआ प्रस्ताव वचन या समझौता कहलाता है। धारा 2(b) के अनुसार, “जब वह व्यक्ति जिसके समक्ष प्रस्ताव रखा गया हो, अपनी सहमति दे देता है तो कहेंगे कि प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया।”

प्रश्न – एजेन्ट कौन बन सकता है? 

Who can become an Agent ?

उत्तर-एजेन्ट कोई भी व्यक्ति हो सकता है। एजेन्ट बनने के लिए अनुबन्ध करने की क्षमता होना आवश्यक नहीं है क्योंकि तृतीय पक्षकारों के प्रति एजेन्ट के द्वारा किए गए कार्यों के लिए प्रधान (नियोक्ता) स्वयं उत्तरदायी होता है। इसलिए एक अवयस्क अथवा अस्वस्थ मस्तिष्क वाला व्यक्ति भी एजेन्ट बन सकता है, परन्तु ऐसा व्यक्ति नियोक्ता के प्रति अपने कार्यों के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता। दूसरे शब्दों में, एजेन्ट को नियोक्ता के प्रति उत्तरदायी ठहराने के लिए आवश्यक है कि वह वयस्क हो तथा स्वस्थ मस्तिष्क वाला हो। (धारा 184) सिख

प्रश्न – नीलामी द्वारा विक्रय की व्याख्या कीजिए। 

Explain Sale by Auction ? 

उत्तर – नीलामी द्वारा विक्रय

(Sale by Auction) 

नीलाम द्वारा विक्रय वह विक्रय है जिसके अन्तर्गत आवाज लगाकर क्रेताओं को वस्तु के मल्य का अधिकार दिया जाता है, अर्थात् आवाज लगाकर लोगों को क्रय करने के लिए आमन्त्रित किया जाता है और जो भी व्यक्ति उस वस्तु के लिए सर्वाधिक मूल्य लगाता है उसे वह वस्त दे दी जाती है। नीलाम विक्रय के सम्बन्ध में धारा 64 (1-6) तक के प्रावधानों में उल्लेख किया गया है जो इस प्रकार है –

1. भिन्न-भिन्न ढेरियाँ भिन्न-भिन्न संविदे की वस्तुएँ मानी जाएगी-धारा 64 (1) असार यदि माल अनेक ढेरियों में रखा जाता है तो प्रत्येक ढेर का विषय एक पृथक् संविदा मानी जाएगी।

2. विक्रय संविदे की समाप्ति-धारा 64 (2) के अनुसार, इस विक्रय की समाप्ति तब मानी जाएगी जब विक्रेता डंके की चोट पर अथवा अन्य प्रचलित रीति से ‘एक ………..दो ………. तीन’ कहकर नीलामी बन्द कर दे। जब तक बोली समाप्त न कर दी जाए तब तक बोलने वाला अपनी बोली वापस ले सकता है।

3. विक्रय का अधिकार-धारा 64 (3) के अनुसार, विक्रय का अधिकार स्पष्टत: विक्रेता के द्वारा अथवा उसके द्वारा अधिकृत अन्य किसी व्यक्ति के द्वारा हो सकता है अर्थात् स्वयं या उसका अधिकृत व्यक्ति निम्न व्यवस्थाओं के अनुसार बोली बोल सकता है

(i) नीलामी की पूर्व सूचना–धारा 64 (4) के अनुसार, कार्य न किए जाने पर विक्रय कपटपूर्ण माना जाएगा।

(ii) न्यूनतम मूल्य का निर्धारण-धारा 64 (5) के अनुसार, बिक्री के लिए कोई सुरक्षित मूल्य नियत किया जा सकता है, जिससे विक्रेता के हितों की रक्षा हो सके।

(iii) बनावटी बोली (Pretending Bidding)-धारा 64 (6) के अनुसार, यदि विक्रेता मूल्य बढ़ाने के उद्देश्य से कुछ बनावटी बोली बोलता है तो विक्रय क्रेता की इच्छा पर व्यर्थनीय माना जाएगा।

प्रश्न – उचित पारिश्रमिक के सिद्धान्त से आप क्या समझते हैं ? इसका प्रवर्तन कब और कैसे होता है?

What do you understand by the Doctrine of Quantum Merit ? When and how does it come into operation ? 

उत्तर – उचित पारिश्रमिक के सिद्धान्त से आशय

(Meaning of Doctrine of Quantum Merit) 

उचित पारिश्रमिक का अभिप्राय किसी व्यक्ति को उतना धन देना है जितना कि इसने अर्जित किया है। यदि कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की प्रार्थना पर उसके लिए कोई कार्य करता है अथवा उसकी प्रार्थना पर किसी वस्तु की पूर्ति करता है, जिसके लिए पारिश्रमिक का निर्धारण पहले से नहीं किया गया है तो वह उस कार्य के लिए उचित पारिश्रमिक पाने का अधिकारी है। यह सिद्धान्त संविदा खण्डन की दशा में भी महत्त्वपूर्ण है जिसके अनुसार पीड़ित पक्षकार अपने द्वारा किए गए कार्य के लिए उचित पारिश्रमिक पाने का अधिकारी होता है। उदाहरणार्थ-‘अ’ ‘ब’ से एक बगीचा लगाने के लिए 30,000 में संविदा करता है जो 3 वर्ष में लग जाना चाहिए। ‘ब’ उसके वचन के अनुसार कार्य प्रारम्भ कर देता है। दो वर्ष उपरान्त ‘अ’ अपनी ओर से कार्य करने के लिए मना कर देता है तो ‘ब’ दो वर्ष का उचित पारिश्रमिक पाने का अधिकारी है, परन्तु यदि कार्य ऐसा हो जिसे पृथक् न किया जा सके और वह पूर्ण न हो पाया हो तो धनराशि के लिए विवाद प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। उदाहरणार्थः-‘अ’ ‘ब’ से एक तस्वीर बनाने का संविदा करता है। तस्वीर पूरी होने से पूर्व ही चित्रकार की मृत्यु हो जाती है तो चित्रकार का उत्तराधिकारी उचित पारिश्रमिक प्राप्त नहीं कर सकता।

उचित पारिश्रमिक प्राप्ति का आधार

(Right of Quantum Merit) 

उचित पारिश्रमिक के सम्बन्ध में मुख्य प्रावधान इस प्रकार हैं-(i) अनुबन्ध भंग करने की परिस्थिति में पीड़ित पक्षकार ने जितना कार्य किया है उसका पारिश्रमिक प्राप्त कर सकता उदाहरणार्थ – मेरठ कॉलिज में Teachers Quarters बनाने के लिए ‘अ को ठेका दिया गया। यू०जी०सी० द्वारा अनुदान न मिलने के कारण वह ठेका बीच में रोक दिया गया तो ठेकेटा किए गए कार्य के लिए उचित पारिश्रमिक पाने का अधिकारी है। (ii) जब तकनीकी त्रुटि के कारण अनुबन्ध अप्रवर्तनीय पाया जाए तो जिस व्यक्ति ने अनुबन्ध के अधीन कुछ कार्य किया है. उसे उस कार्य के लिए उचित पारिश्रमिक पाने का अधिकार है। उदाहरणार्थ-कम्पनी के संचालक मण्डल द्वारा ‘रमन’ की नियुक्ति मैनेजर के रूप में कर दी गई। ‘रमन’ ने कार्य आरम्भ कर दिया, परन्तु कुछ समय उपरान्त संचालक मण्डल का गठन अवैधानिक पाया गया जिसके लिए ‘रमन’ को उसके पद से निरस्त कर दिया गया। ‘रमन’ कम्पनी से अपने कार्यकाल का उचित पारिश्रमिक पाने का अधिकारी है। (iii) यदि कोई व्यक्ति किसी ऐसे कार्य या सेवा का लाभ उठाता है, जिसको बिना पारिश्रमिक के करने का दूसरे पक्षकार का कोई अभिप्राय नहीं था तो पहले पक्षकार को उस कार्य या सेवा के लिए दूसरे पक्षकार को पारिश्रमिक देना होगा। उदाहरणार्थ-‘कमल’, ‘दीपक’ के यहाँ अपनी वस्तु भूल से छोड़ जाता है, जिसे ‘दीपक’ अपने हित के लिए प्रयोग कर लेता है, ‘कमल’ उस वस्तु का मूल्य पाने का अधिकारी है।

प्रश्न – अदत्त विक्रेता के क्रेता के विरुद्ध क्या अधिकार हैं? 

What are the unpaid seller’s rights against the buyer ?

 उत्तर – अदत्त विक्रेता के अधिकार

(Rights of Unpaid Seller) 

अदत्त विक्रेता के अधिकारों को मुख्य रूप से दो भागों में विभक्त किया जा सकता है

1. क्रेता के विरुद्ध अधिकार तथा 2. माल के विरुद्ध अधिकार।

1.क्रेता के विरुद्ध अधिकार (Rights of unpaid seller against buyer) धारा 32, 36 तथा 61 के अनुसार, विपरीत समझौते के अभाव में माल का विक्रेता माल की सपर्दगी के समय ही मूल्य पाने का अधिकारी है। यदि क्रेता मूल्य चुकाने में त्रुटि करता है तो विता मल्य के लिए वाद प्रस्तुत कर सकता है, यदि क्रेता बिके हुए माल की सुपुर्दगी लेने से दनकार करता है तो विक्रता क्षतिपूर्ति का अधिकार रखता है तथा उस तिथि तक जब तक भगतान न किया जाए यथोचित दर से ब्याज पाने का अधिकारी है।

2. माल के विरुद्ध अधिकार (Right of unpaid seller against the goods) _धारा 46 के अनुसार, जब विक्रेता को पूर्ण रूप से या आंशिक रूप से मूल्य का गतान न किया गया हो तो विक्रेता को माल के विरुद्ध मुख्य अधिकार इस प्रकार प्राप्त हैं –

(i) माल पर विशेषाधिकार (Right of Lien) यदि माल उसी के पास हो, (ii) माल को मार्ग में रोकने का अधिकार (Right of Stoppage in Transit) यदि माल उसके अधिकार से निकल गया हो तो, (iii) माल क पुनः विक्रय का अधिकार (Right of Resale) जबकि स्वामित्व के अधिकार का हस्तान्तरण केता को नहीं हुआ है तो अदत्त विक्रेता को अन्य उपचारों के अतिरिक्त स्वामित्व का भी अधिकार होगा।

प्रश्न – स्वतन्त्र सहमति से क्या आशय है? सहमति स्वतन्त्र कब नहीं होती है? अनुबन्यों में इसके महत्व की विवेचना कीजिए।

What is meant by free consent ? When is consent not free ? Discuss its importance in contracts.

उत्तर – स्वतन्त्र सहमति का अर्थ

(Meaning of Free Consent) 

स्वतन्त्र सहमति न होने के परिणाम या स्वतन्त्र सहमति का महत्त्व (Consequences of agreement without free consent) स्वतन्त्र सहमति तथा अन्य तथ्यों के पूरा होने पर एक समझौता संविदा का स्वरूप ले लेता है। अन्य शब्दों में, जब न्यायोचित प्रतिफल तथा उद्देश्य के लिए संविदा करने के योग्य पक्षकारों की स्वतन्त्र सहमति हो तो वह संविदा होता है। पक्षकारों की स्वतन्त्र सहमति न हो तो संविदा व्यर्थ तथा व्यर्थनीय दोनों – ही हो सकते है। इस सम्बन्ध में धारा 19, 19 (a) तथा 20 में वर्णित नियम महत्त्वपूर्ण हैं।

1. धारा 19 के अनुसार, उत्पीड़न, कपट अथवा मिथ्यावर्णन से प्रेरित सहमति की दशा में संविदा उस पक्षकार द्वारा समाप्त किया जा सकता है जिसने इसके प्रभाव में आकर अपनी सहमति प्रदान की है। परन्तु यदि उसकी सहमति ऐसे कपट अथवा मिथ्यावर्णन से प्रेरित होकर दी गई है जिसका वह आसानी से पता चला सकता था तो वह संविदा व्यर्थनीय नहीं होगा।

2. धारा 19 के अनुसार, कपट अथवा मिथ्यावर्णन से पीड़ित पक्षकार यदि चाहे तो दूसरे पक्ष को उस संविदा को पूरा करने के लिए बाध्य कर सकता है यदि वह इसमें अपना हित समझता हो।

3. कपट से पीड़ित पक्षकार क्षति को पूरा कराने का भी अधिकारी है। परन्तु मिथ्यावर्णन से प्रेरित पक्षकार क्षतिपूर्ति का अधिकारी नहीं है।

4. धारा 20 के अनुसार, किसी गलती के आधार पर किया गया संविदा पूर्णत: व्यर्थ तथा अप्रवर्तनीय होता है।

5. धारा 19 (a) के अनुसार, अनुचित प्रभाव से प्रभावित पक्षकार संविदा को समाप्त कर सकता है, परन्तु यदि उसने संविदा के अन्तर्गत कुछ लाभ प्राप्त किए हैं तो न्यायालय संविदा की समाप्ति से पूर्व उचित शर्त निर्धारित कर सकता है।

प्रश्न – हानि रक्षा (क्षतिपूर्ति) अधिनियम की व्याख्या कीजिए। 

Explain Contract of Indemnity.उत्तर – भारतीय संविदा अधिनियम 1872 की धारा 124 के अनुसार, “हानि रक्षा (क्षति पूर्ति) संविदा ऐसा समझौता है जिसके द्वारा एक पक्ष दूसरे पक्ष को उन सब हानियों से बचाने का वचन देता है, जो स्वयं वचनदाता अथवा अन्य किसी व्यक्ति द्वारा वचन पाने वाले को पहुँचे। जो व्यक्ति हानि से बचाने का वचन देता है उसे क्षतिपूर्तिकर्ता (Indemnifier) कहते हैं और जिसको वचन दिया जाता है उसको क्षतिपूर्तिधारी (Indemnified) कहते हैं।” उदाहरणार्थ-‘अ’, ‘ब’ को ₹ 5000 के एक ऋण के सम्बन्ध में ‘स’ के व्यवहार से होने वाली

हानि को पूरा करने का करार करता है। भारतीय संविदा अधिनियम के अनुसार, यह क्षतिपूर्ति की संविदा है। भारतीय न्यायालय ने इस परिभाषा को संकुचित माना है। इस सम्बन्ध में Gajanan Vs. Moreshar (1942) का निर्णय महत्त्वपूर्ण है जिसमें न्यायालय ने क्षतिपूर्ति (हानि रक्षा) की इस परिभाषा को ठीक नहीं माना है। अंग्रेजी राजनियम के अनुसार, “क्षतिपूर्ति (हानि रक्षा) संविदा एक ऐसी संविदा है जिसके अनुसार किसी दूसरे व्यक्ति को होने वाली किसी ऐसी हानि से रक्षा का वचन दिया जाता है जो वचनदाता के कहने पर किए गए व्यवहार की परिणति हो।”

क्षतिपूर्ति संविदाएँ दो प्रकार की हो सकती हैं-स्पष्ट तथा गर्भित। गर्भित अनुबन्ध मामले की परिस्थितियों से ज्ञात हो जाता है; जैसे—(1) ‘अ’ की इच्छा पर ‘ब’ द्वारा किए कार्यों अथवा (ii) पक्षकारों के सम्बन्धों से उत्पन्न हुए दायित्वों पर आधारित हो सकता है, जैसे अपने एजेन्ट द्वारा किए गए सभी अधिकृत कार्यों के लिए नियोक्ता द्वारा क्षतिपूर्ति (हानि रक्षा) का गर्भित अनुबन्ध होता है।

सामान्य नियमों का उल्लंघन मान्य नहीं – क्षतिपूर्ति (हानि रक्षा) का अनुबन्ध भी अनुबन्ध का ही एक रूप है और इसलिए इसमें भी अनुबन्ध के सामान्य नियमों का उल्लंघन नहीं होना चाहिए, अर्थात् पक्षकारों में अनुबन्ध करने की क्षमता, उनकी स्वतन्त्र सहमति व वैध उद्देश्य आदि। इनके बिना क्षतिपूर्ति (हानि रक्षा) अनुबन्ध वैधानिक दृष्टि से अमान्य हो जाएगा।

इसलिए कपट द्वारा प्राप्त किया गया हानि-रक्षा का कोई भी वचन विधि में कभी भी मान्य नहीं होगा। इसी प्रकार यदि ‘अ’, ‘ब’ से ‘स’ को पीटने के लिए कहता है, और यह वचन देता है कि वह उसके परिणामों से होने वाली हानि से रक्षा करेगा। ‘ब’, ‘स’ को पीटता है और उस पर ₹ 500 जुर्माना होता है। ‘ब’ इस धन को ‘अ’ से प्रतिपूर्ति नहीं करा सकता।

क्षतिपूर्ति (हानि रक्षा) संविदा वास्तव में संविदा का ही एक भाग है और इसमें संविदा के सभी लक्षण विद्यमान होने के कारण यह आवश्यक है कि संविदा के सामान्य नियमों का उल्लंघन न किया जाए। कपट, मिथ्यावर्णन, अनुचित प्रभाव के द्वारा, संविदा के अयोग्य पक्षकारों द्वारा की गयी संविदाएँ वैधानिक रूप से दोनों पक्षकारों द्वारा प्रवर्तनीय नहीं हो सकती।

यदि भारतीय संविदा अधिनियम की परिभाषा को पूर्ण माना जाए तो हानि रक्षा संविदा में केवल मानवीय व्यवहार से होने वाली हानि की रक्षा का वचन होता है जो स्वयं वचनदाता के आचरण से हो सकती है, परन्तु हानि किसी प्राकृतिक घटना के घटित होने से भी हो सकती है। जैसे-भूकम्प से होने वाली हानि आदि। इस प्रकार की घटना से उत्पन्न होने वाली क्षतिपूर्ति का वचन बीमा के समझौतों में निहित होता है। अत: विस्तृत परिभाषा के अन्तर्गत बीमा के समझौते ही क्षतिपर्ति (हानि रक्षा) संविदाएँ हैं। उदाहरणार्थ-एक सामान्य बीमा कम्पनी ‘अ’ के मकान का बीमा चोरी तथा अग्नि से हानि वाली क्षति के लिए रू. 50,000 का एक वर्ष का केरो यदि ‘अ’ के घर में उसी अवधि में चोरी हो जाए तो ‘अ’ बीमा कम्पनी से रू. 50.000 तक की क्षतिपूर्ति का दावा कर सकता है।

प्रश्न – विशिष्ट निर्देशक (अपील) के अधिकार एवं प्रक्रिया पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।

Write a short note on Procedure and Power of Special Director (Appeal)

उत्तर- विशिष्ट निदेशक (अपील) के अधिकार

[Powers of Special Director (Appeals)] 

फेमा की धारा 28 के अनुसार विशेष निदेशक (अपील) की प्रमुख शक्तियाँ निम्न प्रकार हैं

1. कार्य प्रक्रिया के नियमन की शक्ति – धारा 23 के अनुसार, अपीलीय अभिकरण तथा विशेष निदेशक अपील नागरिक दण्ड प्रक्रिया संहिता 1908 की प्रक्रिया का पालन करने के लिए बाध्य नहीं है, किन्तु धारा 28 (1) उन्हें अपनी कार्य प्रक्रिया का न्याय के नैसर्गिक सिद्धान्त तथा अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार नियमन करने की शक्ति प्रदान करती है।

2. दीवानी न्यायालय की शक्तियाँ – इन्हें अपने सामने लाए गए किसी मामले पर विचार करते समय दीवानी न्यायालय की समस्त शक्तियाँ प्राप्त होगी। धारा 28 (2) के अनुसार ये शक्तियाँ इस प्रकार हैं –

(1) ये शपथ-पत्र के आधार पर साक्ष्य प्राप्त करने की शक्ति रखते हैं।

(ii) इन्हें किसी भी गवाह को बुलाने, पूछताछ करने तथा उपस्थित होने के लिए बाध्य करने का अधिकार है।

(iii) यह धारा इन्हें अपने निर्णयों पर पुनःविचार का अधिकार भी प्रदान करती है। 

(iv) ये किसी अभिलेख को प्रस्तुत करने, खोजने या जब्त करने का आदेश दे सकती है।

(v) साक्ष्य अधिनियम की धारा 123 व 124 के अन्तर्गत किसी भी सरकारी, गैरसरकारी कार्यालय या व्यक्ति के अभिलेख मँगा सकती है।

(vi) इन्हें किसी भी स्पष्टीकरण को स्वीकार अथवा अस्वीकार करने, एकपक्षीय निर्णय लेने तथा अपने इस प्रकार के निर्णय को निरस्त करने का अधिकार है।

(vii) यह अपने गवाह के परीक्षण का आदेश पारित कर सकता है।

3. आदेशों का पालन करवाने की शक्ति – धारा 28 (3) के अनुसार, अपीलीय अभिकरण तथा विशेष निदेशक अपील के आदेशों का पालन दीवानी न्यायालय की डिक्री के समान किया जाएगा।

4. आदेश को दीवानी न्यायालय को सौंपना – अभिकरण तथा विशेष निदेशक (अपील) अपने क्षेत्राधिकार के किसी निर्णय को परिपालन हेतु दीवानी न्यायालय को सौंप सकते हैं। धारा 28 (4) के अनुसार, इस प्रकार सौंपे गए आदेश का पालन दीवानी न्यायालय द्वारा स्वयं दिए गए आदेश की तरह करवाया जाएगा।

5. न्यायायिक कार्यवाही – धारा 28 (5) के अनुसार, अपीलीय अभिकरण तथा विशेष निदेशक अपील के समक्ष समस्त कार्यवाहियों को वैधानिक कार्यवाहियाँ तथा इन्हें दीवानी न्यायालय माना जाएगा।

विशिष्ट निदेशक की प्रक्रिया

(Procedure of Special Director) 

विशिष्ट निदेशक से सम्बन्धित प्रमुख प्रावधान या प्रक्रिया निम्न प्रकार है –1. कार्य वितरण – धारा 29 के अनुसार, अभिकरण की प्रत्येक पीठ के क्षेत्राधिकार तथा उसके द्वारा सम्पादित किए जाने वाले कार्यों का निर्धारण अध्यक्ष द्वारा समय-समय पर अधिसूचना के माध्यम से किया जाएगा।

2. मामलों का अन्तरण धारा 30 के अनुसार, अध्यक्ष आवश्यकतानुसार किसी भी मामलो को एक पीठ को अन्तरित कर सकता हैं।

3.  बहुमत के निर्णय – 

धारा 31 के अनुसार, दो सदस्यीय पीठ के सदस्यों में मतभेद हा पर मापने का निर्णय बहुमत के आधार पर किया जाएगा। ऐसे मामले में मतभेट बिन्दुओ को अध्यक्ष को प्रेषित किया जाएगा जो या तो उन बिन्दुओं पर स्वयं सनवाई कर अथवा अन्य किसी सदस्य को इसके लिए अधिकृत करेगा। तत्पश्चात् बहमत के आधार मामले का निर्णय किया जाएगा।

4. अपोलकत्ता का अधिकार – 

धारा 32 के अन्तर्गत अपीलकर्ता को यह अधिकार कि वह स्वयं या अपने वकील अथवा चार्टर्ड एकाउण्टेण्ट के माध्यम से अपना पक्ष प्रस्तुत करे।

5. लोक स्पेवक – 

धारा 39 के प्रभाव से अपीलीय अभिकरण के अध्यक्ष, उसके सदस्यों को लोक सेवक माना जाएगा।

6 दीवानी न्यायालय के अधीन नहीं – 

धारा 34 के अनुसार, अपीलीय अभिकरण के सम्मुख मामले दीवानी न्यायालय के क्षेत्राधिकार में शामिल नहीं होगे। अत: दीवानी न्यायालय ऐसे मामलों में कोई आदेश या निषेधाज्ञा जारी नहीं कर सकता है।

7. उच्च न्यायालय में अपील – 

धारा 35 के अनुसार, अपीलीय प्राधिकरण के आदेश से उत्पन्न किसी कानूनी पहलू के सन्दर्भ में उच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है। यह अपील आदेश की तिथि से 60 दिन के अन्दर की जानी चाहिए, किन्तु सन्तोषजनक कारण होने पर उच्च न्यायालय 60 दिन की अवधि के पश्चात् भी अपील स्वीकार कर सकता है।

प्रश्न – जिला उपभोक्ता मंच का गठन किस प्रकार किया जाता है? How is district consumer forum constituted ? 

उत्तर – जिला उपभोक्ता मंच का गठन 

(Composition of District Consumer Forum) 

जिला उपभोक्ता मंच का गठन निम्नलिखित प्रकार से किया जाएगा

(i) एक व्यक्ति इसका सभापति होगा।

(i) दो अन्य व्यक्ति सदस्य होंगे, जिनमें से एक महिला भी होगी। 2002 में संशोधित धारा 10(1)]

योग्यताएँ – जिला उपभोक्ता मंच के सभापति तथा सदस्यों की योग्यताएँ निम्नलिखित हैं।

(i) सभापति ऐसा व्यक्ति होगा जो जिला न्यायाधीश हो अथवा जिला न्यायाधीश बनन को योग्यताएँ रखता हो।

(ii) अन्य सदस्यों को योग्यताएँ निम्नलिखित होगी

(a) वे पैतीस वर्ष से कम आयु के नहीं होगे। 

(b) उनके पास किसी मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालय की स्नातक उपाधि होगा।

(c) वे योग्यता, विश्वसनीयता एवं ख्याति वाले व्यक्ति होंगे तथा उन्हें आधिक, वाणिज्यिक, लेखाकर्म, उद्योग, सार्वजनिक मामलों अथवा प्रशासन से सम्बन्धित समस्या निपटाने का कम-से-कम दस वर्षों का अनुभव होगा। [2002 में जोडी गयी धारा 10(1)]

अयोग्यताएँ – निम्नांकित में से किसी भी अयोग्यता वाले व्यक्ति को जिला उपभोक्ता मंच का सदस्य नियुक्त नहीं किया जा सकेगा

(i) यदि उसे किसी अपराध के लिए सजा मिली हो तथा जेल भेजा गया हो तथा वह अपराध राज्य सरकार की राय में नैतिक दराचरण से सम्बन्धित हो।

(ii) यदि वह अमुक्त दिवालिया हो। 

(iii) यदि वह सक्षम न्यायालय द्वारा घोषित अस्वस्थ मस्तिष्क का व्यक्ति हो।

(iv) यदि वह सरकारी सेवा या सरकारी स्वामित्व या नियन्त्रण वाली समामेलित संस्था की सेवा से हटाया या पदच्युत किया गया हो।

(v) यदि राज्य सरकार की राय में, उसका ऐसा वित्तीय या अन्य हित हो जो सदस्य के रूप में उसके कर्त्तव्यों के निष्पक्ष निर्वाह को प्रतिकल रूप से प्रभावित कर सकता हो।

(vi) यदि उसमें राज्य सरकार द्वारा निर्धारित की जाने वाली अन्य कोई अयोग्यताएँ हों। धारा 10(1) का परन्तुक]

प्रश्न -विनिमय विपत्र क्या है? 

Korhat is Bill of Exchange ?

उत्तर – निगोशिएबिल इंस्ट्रमेंट एक्ट (परक्राम्य लिखत अधिनियम), 1881 की धारा 5 | के अनुसार, “विनिमय-विपत्र” एक लिखित प्रपत्र है जिसमें लेखक अपने हस्ताक्षर करके किसी व्यक्ति विशेष को यह आज्ञा देता है कि वह किसी निश्चित व्यक्ति को या उसके आदेशानुसार अथवा उसके वाहक को उसमें लिखित नियत धनराशि का भुगतान करे।” इस प्रकार धारा 7 के अनुसार, विनिमय-विपत्र में तीन पक्षकार होते है-लिखने वाला (Drawer), देनदार (Drawee) तथा लेनदार या प्राप्तकर्ता (Payee)। विनिमय-विपत्र की मुख्य विशेषताएँ हैं(i) यह लिखित प्रपत्र होता है जिसे लेनदार देनदार के लिए लिखता है, (ii) निश्चित धनराशि के भुगतान का आदेश होता है, (iii) लेखक एवं आहर्ता के हस्ताक्षर होते हैं, (iv) भुगतान का आदेश बिना शर्त होता है, (v) प्राप्तकर्ता कोई निश्चित व्यक्ति होता है, (vi) लिखित धनराशि का भुगतान निश्चित समय के अन्तर्गत देश में प्रचलित मुद्रा में किया जाता है, (vii) यह नियमानुसार मुद्रांकित होता है, और (viii) देनदार की इस पर स्वीकृति होती है।

विनिमय-विपत्र का नमूना 

(Specimen of a Bill of Exchange)

मेरठ

15 जनवरी, 2017 

रू. 25,000

स्टाम्प

आज से तीन माह पश्चात् डॉ० एस० एन० मित्तल को अथवा उनके आदेशानुसार ₹ पच्चीस हजार दे देना, जिसका प्रतिफल मिल चुका है।

अजय रस्तोगी

मैयर्स चित्रा प्रकाशन (इण्डिया) प्रा 0 लि 0 मेरठ।

प्रश्न – चालू प्रतिभूति पर एक टिप्पणी लिखिए। 

Write a note on Continuing Guarantee.

उत्तर – चाल प्रतिभूति (Continuing Guarantee)

धारा 129 के अनुसार, “वह प्रतिभूति जो व्यवहारों की एक श्रृंखला तक विस्तृत हो, चालू प्रतिभूति कहलाती है।” इस प्रकार चालू प्रतिभूति अनेक विस्तृत भावी ऋणों के लिए दी जाती है जो एक-दूसरे से भिन्न होते हैं। ऐसी प्रतिभूति जो व्यवहारों की एक श्रेणी तक फैली होती है, चालू प्रतिभूति कहलाती है।

उदाहरणार्थ – एक बैंक के खजांची के रूप में उचित ढंग से काम करने के लिए ‘अ’ब’ की ओर से बैंक को प्रतिभूति देता है। ऐसी स्थिति में ‘अ’ द्वारा दी गई प्रतिभूति चालू प्रतिभूति कहलाएगी।

चालू प्रतिभूति की मुख्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं-(क) चालू प्रतिभूति किसी एक ऋण के सम्बन्ध में न होकर एक से अधिक ऋणों के सम्बन्ध में होती है; (ख) एक बार प्रतिभूति के बराबर ऋण हो जाने पर यह समाप्त नहीं होती है।

प्रश्न  – नि:शुल्क निक्षेप पर एक टिप्पणी लिखिए। Write note on Gratuitous Bailment.

उत्तर – शुल्करहित निक्षेप (Gratuitous bailment) – यदि निक्षेप की शर्तों में शुल्क की व्यवस्था नहीं है तो निक्षेप शुल्क रहित माना जाएगा, शुल्क किसको मिले यह निक्षेप की शर्तों पर निर्भर करता है। यदि निक्षेपी वस्तु को दूसरे की सुपुर्दगी में रखें तो निक्षेपगृहीता को शुल्क मिलना चाहिए और यदि निक्षेपगृहीता वस्तु के प्रयोग के लिए वस्तु को ले तो शुल्क निक्षेपी को मिलना चाहिए। जब दोनों ओर से ही शुल्क न दिया या न लिया जाना हो तो उसे शुल्क रहित निक्षेप कहते हैं। उदाहरणार्थ – राम, मोहन की साइकिल बाजार जाने तक के लिए ले ले तो ऐसी स्थिति में यह शुल्क रहित निक्षेप संविदा माना जाएगा। इसी प्रकार, ‘अ’ का ट्रांसफर मेरठ से देहरादून हो जाए, और ‘अ’ अपना सामान ‘ब’ के यहाँ छोड़ जाए तो यह शुल्क रहित निक्षेप संविदा है। इस प्रकार के संविदों के सम्बन्ध में मुख्य नियम इस प्रकार हैंधारा 158 के अनुसार, निक्षेपगृहीता द्वारा किए गए आवश्यक व्ययों को चुकाना चाहिए, धारा 151 के अनुसार, यदि प्रयोग का निक्षेप हो तो निक्षेपी का यह अधिकार है कि वह निक्षेप ज को तय किए हुए समय से पूर्व ही समाप्त कर सके; निक्षेपगृहीता को माल वापस करना होगा। धारा 162 के अनुसार, शुल्करहित निक्षेप में निक्षेपी अथवा निक्षेपगहीता की मृत्यु हो जाने पर स निक्षेप समाप्त हो जाता है।

प्रश्न  – गिरवी से क्या आशय है? वैध गिरवी के आवश्यक लक्षणों की व्याख्या कीजिए।

What is Pledge? Explain the characteristics of a valid pledge 

उत्तर – गिरवी का अर्थ एवं परिभाषा 

(Meaning and Definition of Pledge)धारा 172 के अनुसार, किसी ऋण क भुगतान अथवा किसी वचन के निष्पादन का जमानत के रूप में माल के निक्षेप को गिरवी (Pledge) कहते हैं। इसमें निक्षेपाग वाला (Pawner or Pledger) तथा निक्षेपगृहीता गिरवी रख लेने वाला (Pawnee or

Pledgee) कहलाता है। इसके अन्तर्गत माल की हस्तान्तरणशीलता की प्रकृति होनी चाहिए, अर्थात् चल वस्तुओं को गिरवी रखा जाता है, अचल वस्तुओं को नहीं [इनको रहन (mortgage) रखा जाता है। डॉ० नसीम ए० आजाद गिरवी की परिभाषा देते हुए लिखते हैं, “अपनी सम्पत्ति के बदले विवशतावश जमानत के रूप में महाजन या बैंक के पास धरोहर ही गिरवी कहलाती है।

उदाहरणार्थ – ‘अ’, ‘ब’ से रू. 100 उधार ले और इसके बदले में अपनी घड़ी गिरवी रख दे तो हम इसे गिरवी का संविदा कहेंगे तथा इसमें ‘अ’ गिरवी रखने वाला तथा ‘ब’ गिरवी रख लेने वाला कहलाएगा । वैध गिरवी के आवश्यक लक्षण

(Characteristics of a Valid Pledge) 

वैध गिरवी के निम्नलिखित आवश्यक लक्षण हैं –

1. गिरवी रखने वाले के पास वैधानिक अधिकार होना – जो व्यक्ति अपनी वस्तु को गिरवी रख रहा हो, उसके पास वस्तु का वैधानिक अधिकार होना चाहिए। उदाहरणार्थ-‘राम’ ‘मोहन’ के पास अपनी साइकिल रख जाता है, मोहन यदि उस साइकिल को ‘सोहन’ के पास गिरवी रख दे तो वह वस्तु को गिरवी रखने का वैधानिक अधिकारी नहीं होगा क्योंकि ‘मोहन’ साइकिल का वास्तविक स्वामी नहीं है।

2. चल सम्पत्ति का होना – गिरवी की वस्तु चल होनी चाहिए, अचल वस्तुओं को गिरवी नहीं रखा जाता, सम्पत्तियों (मकान, जायदाद) आदि को बन्धक (Mortgage) रखा जाता है।

3. माल का हस्तान्तरण ऋण देने से पूर्व अथवा ऋण लेते समय तक हो जाना चाहिए – ऋण देने से पूर्व सम्पत्ति का हस्तान्तरण गिरवी रखने वाले से गिरवीदार पर हो जाना चाहिए। ऋण देने के उपरान्त चल सम्पत्ति का हस्तान्तरण गिरवी नहीं कहलाया जा सकता।

4. गिरवी संविदा के अनुसार गिरवी किसी ऋण के लिए जमानत के रूप में रखा जाना – यदि निश्चित समय के उपरान्त ऋण चुका दिया जाए अथवा वचन की पूर्ति कर दी जाए तो जमानत गिरवी से मुक्त हो जाती है।

5. वचन पूर्ति के उपरान्त वापस होना – ऋण चुकता हो जाने के उपरान्त जमानत की सम्पत्ति वापस हो जाती है।

प्रश्न  – एक विक्रय अनुबन्ध में गर्भित आश्वासनों की व्याख्या कीजिए। 

Explain the implied warranties in a Contract of Sale.

उत्तर – माल विक्रय अधिनियम 1930 के अनुसार, वस्तु विक्रय के सम्बन्ध में निम्नलिखित गर्भित आश्वासन होते हैं1. वस्तु पर शान्तिपूर्ण अधिकार एवं उपयोग का गर्भित आश्वासन (As to Good Possession and Employment)-धारा 14 (b) के अनुसार, प्रत्येक विक्रय के संविदे में जब तक कि कोई विपरीत संविदा न हो विक्रेता का यह गर्भित आश्वासन है कि वह वस्तु का वास्तविक स्वामी होगा तथा क्रेता वस्तु का प्रयोग पूरे अधिकार के साथ शान्तिपूर्वक कर सकेगा। अत: वस्तु के स्वामित्व के सम्बन्ध में होने वाली हानि की पूर्ति करना विक्रेता की जिम्मेदारी होगी।

2. वस्तु भार से मुक्त होने का गर्भित आश्वासन (As against Incum. berances)-माल विक्रय अधिनियम की धारा 14 (c) के अनुसार यदि विक्रेता ने कोर्ड वस्तु बेची है तो विपरीत संविदा न होने की दशा में यह गर्भित आश्वासन होना कि वस्तु पर किसी तीसरे पक्षकार का कोई अधिकार नहीं होगा। यदि कोई इस प्रकार का भार हो जिसे क्रेता ने चुकाया है तो यह विक्रेता का अधिकार है।

3. माल के गुण अथवा उपयुक्तता सम्बन्धी गर्भित आश्वासन (As to Quality or Fitness)-धारा 16(3) के अनुसार, व्यापार की प्रथा के अनुगामी माल के गुण अथवा उपयुक्तता गर्भित आश्वासन है। इस सम्बन्ध में Jones V. Padgett (1890) का निर्णय महत्त्वपूर्ण है। जब क्रेता किसी विशिष्ट वस्तु का क्रय करता है तो Caveat Emptor का नियम लागू होगा अर्थात् जिम्मेदारी क्रेता की होगी।

प्रश्न – माल के पाने वाले से आपका क्या अभिप्राय है? खोए हुए माल के पाने वाले के अधिकारों तथा कर्त्तव्यों की व्याख्या कीजिए।

Who is Finder of Goods ? State the rights and duties of a finder of lost goods? 

उत्तर- माल पाने वाले का अर्थ और वैधानिक अस्तित्व

(Meaning of Finder of Goods and Legal Existence) 

माल पाने वाला वह व्यक्ति है, जिसे किसी व्यक्ति का माल पड़ा मिल जाए और वह उसे उठाकर अपने पास रख ले।

धारा 71 स्पष्ट रूप से उल्लेख करती है कि माल पाने वाला व्यक्ति तथा माल के वास्तविक स्वामी के बीच निक्षेप के ही सम्बन्ध हो जाते हैं और वह सम्पूर्ण कर्त्तव्य तथा अधिकारों के लिए उसी प्रकार उत्तरदायी या अधिकारी है, जिस प्रकार कि एक निक्षेपगृहीता होता है, अत: उसके निक्षेपगृहीता की ही भाँति निम्नलिखित कर्त्तव्य होंगे

(1) पाए हुए सामान की उचित देखभाल व सुरक्षा की व्यवस्था करना। 

(2) पायी हुई वस्तु का अनुचित प्रयोग न करना। 

(3) उसे अपने निजी माल से पृथक् रखना। 

(4) वास्तविक स्वामी का पता लगाना। 

(5) वास्तविक स्वामी के ज्ञात हो जाने पर वस्तु की सुपुर्दगी वास्तविक स्वामी को कर देना। 

(6) इस अवधिकाल में पाए हुए माल में वृद्धि हो जाने पर सामान को वृद्धि सहित लौटाना।

खोया हुआ माल पाने वाले व्यक्ति के अधिकार

(Rights of Finder of Lost Goods) 

1. पाए हुए माल पर उसका पूर्वाधिकार (Lien on Goods Found)-माल के विक्रय का अधिकार-माल पाने वाला माल के स्वामी से उन सभी व्ययों को पाने का अधिकारी है, जो उसने उन वस्तुओं की देखभाल, सुरक्षा तथा वास्तविक स्वामी को ढूँढने में किए हैं। ऐस

2.घोषित पुरस्कार की प्राप्ति का अधिकार (Right to Receive Award)-धारा उद 168 के अनुसार यदि वास्तविक स्वामी ने माल को लौटाने के लिए कुछ इनाम की घोषणा -168 की है तो माल पाने वाले को इनाम प्राप्त करने का अधिकार है।

3. माल के विक्रय का अधिकार (Right to Sell Goods)-धारा 169 के अनुसार, यदि माल पाने वाला माल के स्वामी को ढूँढने के लिए निरन्तर प्रयत्न करने पर भी स्वामी को प्राप्त न कर पाया हो तो उसे माल बेच देने का अधिकार है।

प्रश्न  – ‘प्रत्याशित अनुबन्ध भंग’ से आप क्या समझते हैं? प्रत्याशित अनुबन्ध भंग की दशा में पक्षकारों के अधिकारों का वर्णन कीजिए।

What do you understand by ‘anticipatory breach of contract’ ? State the rights of parties in case of an anticipatory breach of contract. 

उत्तर- प्रत्याशित अनुबन्ध भंग का अर्थ

(Meaning of Anticipatory Breach of Contract) 

निष्पादन के सम्बन्ध में सबसे पहला प्रश्न यह है कि निष्पादन के लिए पक्षकारों का क्या दायित्व है? निष्पादन के लिए पक्षकारों का दायित्व यह है कि उन्हें अपने-अपने वचनों का वास्तविक निष्पादन करना चाहिए अथवा निष्पादन का प्रस्ताव करना चाहिए परन्तु यदि उस अधिनियम की व्यवस्थाओं के अन्तर्गत अथवा किसी अन्य राजनियम के प्रभाव से ऐसा निष्पादन त्याग या मुक्त कर दिया गया है, तो पक्षकारों को ऐसा निष्पादन करने की आवश्यकता नहीं रहती।

प्रत्याशित अनुबन्ध भंग होने पर पीड़ित पक्षकारों के अधिकार 

(Rights of Parties in case of An Anticipatory Breach of Contract)

1. क्षतिपूर्ति का अधिकार (Right of Compensation)-पीड़ित पक्षकार को यह अधिकार है कि प्रत्याशित भंग को ही अन्तिम भंग मान ले तथा वचनदाता से क्षतिपूर्ति की माँग करे। उपर्युक्त वाद में ही (Hochester Vs. De La Tour) एक कर्मचारी को उसकी सेवाओं से समय से पूर्व ही निरस्त कर दिया गया था, उसके द्वारा वाद प्रस्तुत किए जाने पर न्यायालय ने यह निर्णय किया कि वह संविदा की अन्तिम तिथि तक इन्तजार न करके बीच में क्षतिपूर्ति का दावा कर सकता है।

2. संविदा भंग से उत्पन्न होने वाले अधिकार (Right on Breach of Contract) – वचनगृहीता का यह अधिकार है कि वह अन्तिम तिथि तक इन्तजार करे और तिथि की पूर्ति पर संविदा को भंग माना जाए। यदि वचनगृहीता निश्चित तिथि तक इन्तजार करता है तो उसे निम्नलिखित अधिकार और प्राप्त हो जाते हैं

(i) वचन की पूर्ति के लिए बाध्य करना – वचनगृहीता वचनदाता को उस संविदा की पूर्ति के लिए बाध्य कर सकता है। उदाहरणार्थ-‘अ’ ने ‘ब’ से 20 अप्रैल, 2016 को अपनी गाय ₹ 6000 में बेचने का संविदा किया। 20 अप्रैल, 2016 तक इन्तजार करने के उपरान्त ‘ब’, ‘अ’ से गाय लेने के लिए अधिकारी है तथा ‘अ’ को गाय देने के लिए बाध्य किया जा सकता है।

(ii) ऐसी घटना का लाभ उठाना जिसके कारण संविदा व्यर्थ होता – वचनगृहीता ऐसी घटना का लाभ उठा सकता है जिसके आधार पर संविदा व्यर्थ हो जाता है। उदाहरणार्थ-उपर्युक्त गाय ‘अ’ के द्वारा ‘स’ को 15 अप्रैल, 2016 को बेच दी जाती है, तथा 18 अप्रैल को इस गाय की मृत्यु हो जाती है तो ‘अ’ गाय की मृत्यु के आधार पर संविदा को व्यर्थ नहीं कर सकता क्योंकि ‘ब’ ने 20 अप्रैल, 2016 तक इन्तजार किया।

प्रश्न  – किन दशाओं में फेमा के प्रावधानों का उल्लंघन माना जाएगा?

Under what conditions it will be treated as contravention of provisions of FEMA?

उत्तर – निम्नलिखित दशाओं में ‘फेमा’ के प्रावधानों का उल्लंघन माना जाएगा

(1) विदेशी विनिमय की घोषणा में दी गई निर्धारित तिथि तक प्रयोग न करना। 

(2) निर्धारित तिथि तक विदेशी विनिमय को अधिकृत व्यक्ति को वापस न करना। 

(3) अधिनियम में दिए गए उद्देश्यों के विपरीत विदेशी विनिमय का प्रयोग करना।

प्रश्न – उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 से आप क्या समझते हैं? भारत में उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की आवश्यकता को समझाइए।

What do you mean by Consumer Protection Act, 1986 ? Explain the need for Consumer Protection Act in India.

उत्तर – भारत में एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना की गई है, अत: सरकार द्वारा आर्थिक उत्पादन के साधनों का नियन्त्रण इस प्रकार होना चाहिए जिससे उपभोक्ता के शोषण को समाप्त करके उसको संरक्षण प्रदान किया जा सके। प्रत्येक नागरिक चाहे वह किसान हो या जवान, व्यवसायी हो या पेशेवर, स्वामी हो या सेवक, कर्मचारी हो या प्रबन्धक, वह उपभोक्ता अवश्य है। चूंकि प्रत्येक नागरिक संगठित नहीं हो सकता है, अत: उसे व्यक्तिगत संरक्षण की आवश्यकता होती है। उपभोक्ता संरक्षण से आशय है-उपभोक्ताओं का व्यवसायी की अनुचित, अस्वस्थ असामाजिक, अवैधानिक गतिविधियों से सुरक्षित होना। यह सुरक्षा संगठन के

बल पर तो तुरन्त प्राप्त हो जाती है, परन्तु असंगठित उपभोक्ताओं को सदैव संरक्षण की आवश्यकता होती है। इस दिशा में सभी आवश्यक कानून बनाए गए। उपभोक्ता संरक्षण से आशय उपभोक्ता के सामाजिक, राजनैतिक, वैधानिक, व्यावसायिक, नैतिक व पर्यावरणीय संरक्षण से है अर्थात् असामाजिक, अवैधानिक, अनैतिक, हानिप्रद पर्यावरण को प्रदूषित करने उद्दे वाली वस्तुओं और सेवाओं से उपभोक्ता को संरक्षण दिया जाए।

दिन व्यावसायिक सन्दर्भ में प्राय: उपभोक्ता संरक्षण का प्रयोग उपभोक्ता को व्यवसायी की की एकाधिकारी व अनुचित गतिविधियों से बचाए रखना है। उपभोक्ता संरक्षण का एकमात्र उद्देश्य उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा करना है।

उपभोक्ता को संरक्षण की आवश्यकता क्यों

(Why is Consumer Protection Essential) 

निम्नलिखित कारणों से उपभोक्ता को संरक्षण की आवश्यकता समझी गई है –

(1) प्राय: उपभोक्ता वर्ग असंगठित होता है।

(2) उपभोक्ता को भ्रामक जाल में फँसाना सरल होता है। 

(3) प्रत्येक उपभोक्ता क्रय के सम्बन्ध में पूर्ण जागरूक नहीं होता है।

(4) उपभोक्ता की क्रय-शक्ति सीमित होती है व उसकी आवश्यकताएँ अनन्त होती हैं।

(5) संगठित व दुराचारी व्यवसायी भोले उपभोक्ताओं को शीघ्रता से अपने चंगुली फँसा लेता है।

(6) एकाधिकारी व अनुचित व्यापारिक व्यवहारों से उपभोक्ता का शोषण होता है, स्वास्थ्य खराब होता है तथा पर्यावरण दूषित होता है।

(7) उपभोक्ता के जीवन, स्वास्थ्य व आर्थिक क्षमता से ही व्यवसाय, समाज व राष्ट्र का जीवन सन्तुलित रहता है।

प्रश्न – “लोकनीति के विरुद्ध समझौतों” को स्पष्ट कीजिए। 

Explain Agreements opposed to Public Policy.

उत्तर – ऐसे कार्य जो जनसाधारण तथा देश के विरुद्ध हों “लोकनीति के विरुद्ध समझौते’ कहे जाते हैं। लोकनीति के विरुद्ध समझौते इस प्रकार हैं-(1) विदेशी शत्रु के साथ व्यापार, (2) वैधानिक कार्यवाही में रुकावट डालने वाले समझौते, (3) विवाह में रुकावट डालने वाले समझौते, (4) शादी के लिए दलाली के समझौते, (5) लोक सेवाओं का विक्रय, (6) दण्डनीय अपराध सम्बन्धी विवादों को रोकना, (7) एकाधिकार उत्पन्न करने का समझौता, (8) सीमा अधिनियम द्वारा निश्चित समय में परिवर्तन करने के समझौते तथा (9) चेम्पट्री तथा मेन्टीनेंस के समझौते।

प्रश्न – उचित पारिश्रमिक से क्या आशय है? 

What is Quantum Merit ?

उत्तर – यदि कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की प्रार्थना पर उसके लिए कोई कार्य करता है, अथवा उसकी प्रार्थना पर किसी वस्तु की पूर्ति करता है, जिसके लिए पारिश्रमिक का निर्धारण पहले से नहीं किया गया है तो वह उस कार्य के लिए उचित पारिश्रमिक पाने का अधिकारी है।

प्रश्न  – निक्षेप क्या है?

What is Bailment? .

उत्तर – धारा 148 के अनुसार, “निक्षेप एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को किसी विशेष उद्देश्य के साथ माल की सुपुर्दगी देने को कहते हैं कि जब उद्देश्य पूर्ण हो जाएगा तब माल लौटा दिया जाएगा या सुपुर्दगी देने वाले व्यक्ति के आदेशानुसार बेच दिया जाएगा। जो व्यक्ति माल की सुपुर्दगी देता है वह निक्षेपी कहलाता है।

प्रश्न  – पुष्टीकरण से क्या आशय है? एक वैध पुष्टीकरण के आवश्यक तत्त्वों की व्याख्या कीजिए।

What is meant by Ratification? Explain the essentials of a valid ratification.

उत्तर – एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति की जानकारी के बिना किए गए कार्य को स्वीकार कर लेना पृष्टीकरण कहलाता है। आवश्यक नियम-(1) पुष्टीकरण केवल प्रधान द्वारा होना, (2) पुष्टीकरण विद्यमान व्यक्ति के द्वारा ही हो सकता है, (3) पुष्टीकरण का यदि नियत समय हो तो उसके अन्तर्गत ही होना चाहिए, (4) प्रधान में संविदा करने की क्षमता का होना, (5) कार्य एजेन्ट के हित में नहीं होना चाहिए, (6) व्यर्थ संविदा की पुष्टि नहीं की जा सकती, (पष्टीकरण केवल वैध कार्य का ही हो सकता है, (8) पुष्टीकरण करने वाले पक्ष को सभी महत्त्वपूर्ण घटनाओं की जानकारी होनी चाहिए, (9) एक भाग की पुष्टि सम्पूर्ण भाग की

पुष्टि मानी जाएगी तथा (10) ऐसे कार्यों की पुष्टि नहीं की जा सकती जो दूसरों को हानि पहुँच के सम्बन्ध में हों।

प्रश्न  – यथाविधिधारी को परिभाषित कीजिए। 

Define Holder-in-due Course.

उत्तर – धारा 9 के अनुसार, “यथाविधिधारी का आशय ऐसे व्यक्ति से है, जो प्रतिफल के बदले विलेख में लिखित धन के देय होने से पूर्व तथा इस विश्वास के लिए पर्याप्त कारण रखते हुए कि जिस व्यक्ति से उसने अधिकार प्राप्त किया था, उसके अधिकार में कोई दो। विद्यमान था, किसी प्रतिज्ञा-पत्र, विनिमय-पत्र अथवा चैक को प्राप्त करता है, यदि वह वाहब को देय है अथवा उसका आदाता पृष्ठांकिकी हो जाता है यदि वह आज्ञा पर देय है।”

प्रश्न – उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अन्तर्गत दण्ड सम्बन्धी क्या प्रावधान हैं?

What are the provisions of penalties under Consumer Protection Act?

उत्तर – जिला फोरम, राज्य आयोग अथवा राष्ट्रीय आयोग द्वारा विरोधी पक्षकार या परिवादी के विरुद्ध पारित आदेशों का उनके द्वारा पालन करने में असफल रहने या उन्हें मानने से इनकार कर देने की दशा में कम-से-कम एक माह तथा अधिकतम तीन वर्ष तक का कारावास होगा या कम-से-कम रू. 2,000 तथा अधिकतम रू.10,000 का जुर्माना होगा य उपर्युक्त दोनों होंगे।

प्रश्न  – अस्वस्थ मस्तिष्क का व्यक्ति कौन होता है? 

Who is a person of unsound mind?

उत्तर – भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 12 के अनुसार, “स्वस्थ मस्तिष्क क व्यक्ति वह व्यक्ति है, जो संविदा करते समय यह समझ सके कि वह क्या संविदा कर रहा। और उसका उसके हित पर क्या प्रभाव पड़ेगा। एक पागल, मूर्ख अथवा नशे में चूर बेसुध व्यक्ति स्वस्थ मस्तिष्क का नहीं कहा जा सकता है।”

प्रश्न  – माल पाने पर पाने वाले का क्या कर्त्तव्य है? 

What is the responsibility of finding of goods ?

उत्तर – धारा 71 के अनुसार, एक व्यक्ति जिसे किसी दूसरे व्यक्ति का सामान पर मिल जाता है तो उसका कर्त्तव्य निक्षेपगृहीता की भाँति हो जाता है, अर्थात (1) माल की उचि देखरेख करना, (2) माल का उपयोग न करना, (3) अपने माल में न मिलाना, (4) मालिक ढूँढना, (5) मालिक के मिलने पर माल वापस करना।

प्रश्न – विशेष हर्जाना क्या है? What is special damage ?उत्तर – विशेष हानि विशेष परिस्थितियों में ही उत्पन्न होती है यदि दोनों पक्षकार ऐविशेष हानि का अनुमान पूर्व में ही लगा लेते हैं तो अनबन्ध खण्डन की स्थिति में पान पक्षकार को मिलने वाला प्रतिफल ही विशेष हर्जाना है।

प्रश्न – अवैधानिक ठहराव क्या है? 

What is Illegal Agreement ?

उत्तर – अवैधानिक ठहराव (समझौता) (Illegal Agreement) – वे समझौते (ठहराव) जो सामान्य नियम के विपरीत हों अथवा किसी कानून द्वारा निषिद्ध हों, उन्हें ला अवैधानिक ठहराव (समझौते) कहा जाता है। अनैतिक कार्य करने के लिए किया गया ठहराव न (समझौता) अवैधानिक ठहराव (समझौता) है। उदाहरणार्थ-‘अ’, ‘ब’ से ‘स’ के बच्चे को प गायब करने पर रू. 5,00,000 देने का वचन देता है, तो ऐसा ठहराव (समझौता) अवैधानिक का ठहराव (समझौता) है। इस प्रकार, ‘एक अवैधानिक ठहराव (समझौता) वह है जिसमें समस्त

समान्तर समझौते व्यर्थ हैं।’ परन्तु सभी व्यर्थ समझौते अवैधानिक नहीं होते, केवल वे ही मा अवैधानिक होते हैं, जो किसी राजनियम द्वारा वर्जित हैं। 

प्रश्न  – विक्रय तथा विक्रय करने के ठहराव में अन्तर कीजिए। Differentiate between sale and agreement to sell. 

उत्तर – ‘विक्रय’ तथा ‘विक्रय के समझौते’ में अन्तर

(Difference between Sale and Agreement to Sale)

1. स्वामित्व के हस्तान्तरण का आधार (Basis of Right of का Transferability) – विक्रय संविदा में माल का हस्तान्तरण तत्काल ही विक्रेता से क्रेता को या हो जाता है। इसके विपरीत, विक्रय के समझौतों में वस्तुओं का हस्तान्तरण उसी समय न होकर कुछ अवधि बाद होता है। अर्थात् विक्रय एक निष्पादन संविदा है। इसके विपरीत, विक्रय समझौते का निष्पादन भविष्य में होता है, अर्थात् यह एक निष्पादनीय संविदा है।

2. अधिकारों का आधार (Basis of Rights) – विक्रय के संविदों में वस्तु का सर्वव्यापी अधिकार मिल जाता है और वह वस्तु का प्रयोग समस्त विश्व के समक्ष मनमाने ढंग से कर सकता है। इसके विपरीत, विक्रय के समझौते में दोनों पक्षों के पारस्परिक अधिकार उत्पन्न होते हैं, जिसमें क्रेता तथा विक्रेता एक दूसरे पर वाद प्रस्तुत कर सकते हैं।

3.निष्पादन का आधार (Basis of Execution) – विक्रय संविदों में निष्पादन प्रा हो जाता है।

4.जोखिम का आधार (Basis of Risk) – विक्रय संविदे में माल का जोखिम क्रेता पर होती है। इसके विपरीत, विक्रय के समझौते में जोखिम विक्रेता पर ही रहती है।

5. माल न दिया जाने का आधार (Basis of Non-delivery of Goods) – विक्रय संविदा में यदि विक्रेता माल देने में त्रुटि करता है तो क्रेता का यह अधिकार है कि वह उस व्यक्ति से जिसके पास सामान हो, उसके मूल स्वामी के रूप में माल प्राप्त कर सके। इसके विपरीत, विक्रय के समझौते में वह केवल क्षति के लिए वाद प्रस्तुत कर सकता है।

6. भुगतान न करने का आधार (Basis of Non-payment) – विक्रय में यदि क्रेता बमाल के मूल्य को चुकाने में त्रुटि करता है तो विक्रेता मूल्य प्राप्ति के लिए वाद प्रस्तुत कर सकता है। इसके विपरीत, यदि क्रेता वस्तु प्राप्त करने अथवा मूल्य चुकाने में असमर्थ रहता है ता विक्रेता अपने हर्जाने के लिए वाद प्रस्तुत कर सकता है।

7. विक्रेता के दिवालिया होने का आधार (Basis of Insolvence Seller)-यदि विक्रेता दिवालिया हो जाता है तो क्रेता को विक्रेता के ‘Official Receiver’  से माल प्राप्त करने का अधिकार है। इसके विपरीत, विक्रय के समझौतों में क्रेता माल पाने का अधिकारी नहीं है, केवल अपनी क्षति के भाग के लिए वाद प्रस्तुत करने का अधिकारी हैं।

8. केता के दिवालिया होने का आधार (Basis of Insolvency of Purchaser)-क्रेता के दिवालिया होने पर विक्रेता को क्रेता का माल Official Receiver के हवाले करना पड़ेगा। इसके विपरीत, विक्रय के समझौतों में विक्रेता, क्रेता को माल देने में इनकार कर सकता है।

प्रश्न  – क्या धारक ही यथाविधिधारक है? 

Is holder a Holder-in-due course ?

उत्तर – धारा 118 के अनुसार, “जब तक यह सिद्ध न कर दिया जाए कि लेखपत्रक का धारक यथाविधिधारक नहीं है, न्यायालय की दृष्टि में यथाविधिधारी ही माना जाता है। यदि कोई लेखपत्र किसी अपराध, कपट, अवैधानिक प्रतिफल के बदले प्राप्त किया गया हो तो यह सिद्ध करने का भार कि धारक ही यथाविधिधारी है, उसी के ऊपर है।”

प्रश्न – उपभोक्ता शोषण के प्रकार पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।

Witte short note on Types of Consumer Exploitation. 

उत्तर – उत्पादक एवं विक्रेता उपभोक्ताओं का अनेक प्रकार से शोषण करते है।

न्यायालयों में जाने वाले विभिन्न वादों के आधार पर इनके मुख्य उदाहरण हैं

(1) नापतौल, आकार, मात्रा आदि विवरण से कम होना। 

(2) आदेशित माल के स्थान पर किसी अन्य सामान की पूर्ति।

(3) बुक किए गए सामान की निर्धारित समय में डिलीवरी न देना, कम डिलीवरी दे अथवा लापरवाही के कारण रास्ते में सामान खराब हो जाना।

(4) सामान उस प्रकार का न होना जिसको बताकर बेचा जा रहा है। 

(5) निश्चित मूल्य से अधिक मूल्य वसूल करना। 

(6) घटिया, नकली, गैर-पंजीकृत सामान का विक्रय। 

(7) उपयोग की अवधि बीत जाने के बाद विक्रय। 

(8) गारण्टी, वारण्टी की अवधि में सामान का बार-बार खराब होना। 

प्रश्न  – उपएजेन्ट की अनधिकृत नियुक्ति की दशा में क्या प्रावधान हैं? 

What are the provisions of subagent appointed wrongfully? Pot

उत्तर – धारा 123 के अनुसार, “यदि उपएजेन्ट की नियुक्ति अनधिकृत ढंग से गई है तो मूल एजेन्ट ऐसी दशा में एक ओर तो नियोक्ता के लिए उत्तरदायी है और दूसरी अ उपएजेन्ट के लिए उत्तरदायी है। न तो नियोक्ता उपएजेन्ट के द्वारा किए गए कार्यों के लि उत्तरदायी होगा और न ही उपएजेन्ट नियोक्ता के प्रति उत्तरदायी होगा।”

प्रश्न  – अनिश्चित माल की दशा में स्वामित्व का हस्तान्तरण कब होता है ? 

When the passing of proprietary in uncertain goods?

उत्तर – अनिश्चित माल अथवा भावी माल के स्वामित्व के हस्तान्तरण के सम्बन्ध में निम्नलिखित नियम लागू होते हैं

(1) माल के निश्चित किए जाने पर, (2) अनिश्चित माल के विक्रय एवं नियोजन होने की दशा में, (3) वाहक को सुपुर्दगी की दशा में।

प्रश्न  – संविदा करने की योग्यता का क्या अभिप्राय है? 

What is meant by Capacity to Contract ?

उत्तर – धारा 11 के अनुसार, “प्रत्येक व्यक्ति संविदा करने के योग्य है, जो राजनियम | के अनुसार जिसके अन्तर्गत वह आता है, वयस्क है, स्वस्थ मस्तिष्क का है और सम्बन्धित राजनियम के द्वारा अयोग्य घोषित नहीं किया गया है।”

प्रश्न  – अवयस्क कौन है? 

Who is a Minor ?

उत्तर – भारतीय वयस्कता अधिनियम के अन्तर्गत “जो व्यक्ति 18 वर्ष की आयु पूरी कर ले वह वयस्क कहलाता है तथा यदि उसकी सम्पत्ति का किसी व्यक्ति को संरक्षक नियुक्त किया गया है तो वह 21 वर्ष की आयु पूरी करने पर वयस्क होगा।”

प्रश्न  – मिथ्यावर्णन का क्या अर्थ है? 

What is meant by Misrepresentation ?

उत्तर – मिथ्यावर्णन शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त किया गया है-एक ऐसा मिथ्यावर्णन जो कि जानबूझकर धोखा देने के दृष्टिकोण से किया जाए, दूसरा अज्ञानवश किया जाए। इस प्रकार मिथ्यावर्णन या तो कपटमय मिथ्यावर्णन हो सकता है अथवा निर्दोषपूर्ण मिथ्यावर्णन।

प्रश्न  – विदेशी विनिमय से क्या आशय है ? 

What is Foreign Exchange ? 

उत्तर – धारा 2 (n) के अनुसार विदेशी विनिमय से आशय निम्नलिखित से है(1) ऐसी जमाएँ तथा साख जो किसी भी विदेशी मुद्रा में हैं।

(2) भारत के बाहर लिखे ड्राफ्ट, यात्रा-चैक, साख-पत्र या विनिमय-विपत्र जो भारतीय द्रा में देय हैं तथा

(3) भारत में लिखे गए ड्राफ्ट, यात्रा-चैक या साख-पत्र जो विदेशी मुद्रा में देय हैं। 

प्रश्न – यथाविधिधारी के विशेष अधिकार क्या हैं?

What are the special privileges granted to Holder-in-due ourse?

उत्तर – यथाविधिधारी को निम्नलिखित विशेष अधिकार प्राप्त हैं

(1) संदिग्ध लेखपत्रों की दशा में, (2) अपूर्ण स्टाम्पयुक्त लेखपत्र की दशा में, (3) पूर्व पक्षकारों के दायित्व, (4) कल्पित अथवा झूठे नाम में बिल का स्वीकर्ता, (5) विनिमय साध्यता द्वारा, (6) धारक से अच्छा अधिकार, (7) अवैधानिक प्रतिफल के बदले प्राप्त लेखपत्र वैधता से इनकार करने पर, (9) पृष्ठांकन की क्षमता को अस्वीकार करने पर तथा (10, धारक का यथाविधिधारी होना।

प्रश्न  – अपने द्वारा किए गए संविदों के लिए एजेन्ट व्यक्तिगत रूप से दशाओं में उत्तरदायी है?

When is an agent personally liable for contracts brought abo by him?

उत्तर – धारा 236 के अनुसार, “यदि किसी व्यक्ति ने एजेन्ट की भाँति संविदा किया है, जबकि वह वास्तव में एजेन्ट की भाँति नहीं वरन् स्वयं अपने लिए संविदा कर रहा तो वह ऐसे संविदा के लिए प्रधान को उत्तरदायी नहीं ठहरा सकता है।”

प्रश्न – चैक के रेखांकन से क्या आशय है? 

What is meant by Crossing of a Cheque ?

उत्तर – जब किसी चैक के मुख (Face) पर दो समान्तर तिरछी रेखाएँ (उनके बीच में कुछ लिखा हो अथवा नहीं) खींच दी जाती हैं तो इस प्रकार के चैक को रेखांकित चौक कहते हैं। जिस चैक पर रेखाएँ नहीं होती हैं उसे ‘खुला चैक’ (Open Cheque) कहते हैं। जिसका भुगतान उसके धारक अथवा आदेशित व्यक्ति को बैंक के काउण्टर पर हो सकता हैं परन्तु रेखांकित करने का उद्देश्य यह है कि चैक का भुगतान बैंक की खिड़की पर न होकर । किसी अन्य बैंक के माध्यम से हो। इस प्रकार रेखांकन करने से चैक अधिक सुरक्षित हो 

जाता है जिसके चोरी हो जाने अथवा खो जाने पर कोई नुकसान नहीं होता है, और चैक वास्तविक लेनदार का पता चल जाता है।

प्रश्न  – क्या एक हिन्दू विवाहित महिला वैध अनुबन्ध कर सकती है? एकप को किस सीमा तक अपने पति की साख पर ऋण लेने का अधिकार है?

Can a married Hindu woman enter into a valid contract ?

 what extent wife can take loans at her husband’s credit ?

उत्तर – एक विवाहित स्त्री केवल व्यक्तिगत सम्पत्ति या स्त्रीधन के लिए ही अलग अनुबन्ध कर सकती है। यदि पति अपनी पत्नी का पालन-पोषण करने से इन्कार कर देता है तो सभी सम्प्रदायों की विवाहित स्त्रियाँ जीवन की आवश्यक वस्तुओं के लिए अनुबन्ध कर पर सकती हैं और ऐसे अनुबन्ध के लिए उनके पति उत्तरदायी होते हैं। इसके लिए पति अपनी स्थिति के अनुसार ही अपनी पत्नी की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए दायी होता हैं। किन्तु जब कोई स्त्री अपनी इच्छा से अपने पति से पृथक् होकर उसका सहारा छोड़ देती। तो ऐसी दशा में उसका पति उसके जीवन की आवश्यकताओं के अनुबन्ध के लिए उत्तरदायी नहीं होता।

प्रश्न  – बनावटी एजेन्ट पर एक टिप्पणी लिखिए। 

Write a note on Pretended agent.

उत्तर – जब कोई व्यक्ति किसी तृतीय पक्षकार के सामने झूठ-मूठ ही अपने आरव किसी दूसरे व्यक्ति का एजेन्ट बताता है और उस तीसरे पक्षकार को अनुबन्ध करने कस्ता प्रेरित करता है तो उसे बनावटी एजेन्ट कहते हैं। ऐसे एजेन्ट का कोई प्रधान नहीं होता है,

वह झूठ बोलकर अपने आपको एजेन्ट बनाने का प्रयास करता है। पर ध्यान किस स्थिति ये से वह व्यक्ति ही अपने आपको एजेन्ट बताता है कि कोई दूसरा व्यतित वरीलपमेन्ट के रूप में स्वीकार करता है।

प्रश्न  – उपभोक्ता पर संक्षिप्त टिपणी लिखिए। 

Write a short note on Consumer 

उत्तर – उपभोक्ता (Consumer) 

ऐसा व्यक्ति जिसने मूल्य चुकाकर या गल्य चुकाने का वादा करके या आंशिक रूप मूल्य का भुगतान कर और शेष मूल्य को अदा करने का वादा करके या किसी अन्य रूप से मूल्य की अदायगी को स्थगित करके, कोई माल खरीदा हो तो ऐसा व्यक्ति उपभोक्ता कहलाएगा। इसके अतिरिक्त ऐसा कोई अन्य व्यक्ति भी उपभोक्ता की श्रेणी में आएगा जिसने उक्त माल को खरीददार के अनुमोदन से प्रयोग किया हो, परन्तु कोई ऐसा व्यक्ति जिसने उक्त माल दुबारा बेचने या किसी वाणिज्यिक प्रयोजन (Commercial Purpose) के तालिए क्रय किया हो, उपभोक्ता की श्रेणी में नहीं आएगा। 

ऐसा व्यक्ति जिसने मूल्य चुकाकर या मूल्य चुकाने का वादा करके या आंशिक रूप से त मूल्य का भुगतान करके और आंशिक मूल्य को अदा करने का वादा करके, या किसी अन्य रूप कसे मूल्य की अदायगी को स्थगित करके, कोई सेवाएँ किराए पर प्राप्त की हो या उपभोग की हों, उपभोक्ता कहलाएगा। उक्त व्यक्ति के अतिरिक्त, ऐसा कोई अन्य व्यक्ति जो उक्त पसेवाओं का उक्त उपभोक्ता के अनुमोदन से लाभार्थी हो, भी उपभोक्ता की परिभाषा में

आएगा। लेकिन इसमें ऐसा व्यक्ति सम्मिलित नहीं है जो ऐसी सेवाओं को किसी वाणिज्यिक प्रयोजन के लिए उपयोग में लाता है। नग वाणिज्यिक प्रयोजन के अन्तर्गत स्वरोजगार के साधन द्वारा आजीविका उपार्जन के हएकमात्र उद्देश्य के लिए माल का क्रय करने वाला और उपयोग करने वाला और सेवाओं का उपयोग करने वाला व्यक्ति शामिल नहीं है।

प्रश्न 61 – परक्रामण पर एक टिप्पणी लिखिए। 

Write a note on Negotiation

उत्तर – जब कोई प्रतिज्ञा पत्र, विनिमय विपत्र अथवा चैक किसी व्यक्ति को उसका धारक बनाने के उद्देश्य से हस्तान्तरित कर दिया जाता है तो यह कहा जाएगा कि विलेख का क्रामण हो गया है। इस परिभाषा के आधार पर परक्रामण के लिए आवश्यक है कि (i) विलेख का हस्तान्तरण एक व्यक्ति से दूसरे को हो तथा (1) हस्तान्तरण, हस्तान्तरीको आधारक बनाने के उद्देश्य से किया जाए। यहाँ पर दूसरी शतं काफी महत्वपूर्ण है क्योकि यदि कप्तान्तरण केवल विलेख की सुरक्षा के लिए अथवा अन्य किसी विशेष उद्देश्य से किया जाए

तो उसे परक्रामण नहीं कह सकते। उदाहरणार्थ-यदि राम, श्याम को एक चैक उदेश्य से सुपुर्द करे कि श्याम उस चैक को अपने पास सुरक्षित रखे तो श्याम को चैक का परक्रामण नही माना जाएगा क्योंकि यहाँ पर श्याम को चैक की सुपुर्दगी निक्षेपगृहीता के रूप में की गई हैं न कि धारक के रूप में।

विलेख के धारक से आशय उस व्यक्ति से है जो विलेख को अपने नाम से अपने पास रखने तथा विलेख में लिखित धनराशि को विलेख से सम्बन्धित पक्षकारों से प्राप्त करने का अधिकारी होता है। इस प्रकार परक्रामण का उद्देश्य हस्तान्तरिती को विलेख का कानूनी कब्जा दिलाना है और इसके द्वारा विद्यमान धारक के अधिकार, उसका स्वामित्व तथा विलेख में निहित सभी हित हस्तान्तरिती को प्राप्त हो जाते हैं और वह स्वयं विलेख का धारका जाता है। इसके अतिरिक्त परक्रामण में हस्तान्तरी को हस्तान्तरक से अच्छा स्वामित्व प्राप्त होता हैं।

प्रश्न – फेरा तथा फेमा में अन्तर कीजिए। 

Differentiate between FERA and FEMA


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