B.Com 2nd Year Corporate Laws Definition Of Company Hindi Short Notes
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Table of Contents
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1- सरकारी कम्पनी का अर्थ बताइए।
Explain the meaning of government company ?
उत्तर – सरकारी कम्पनी
कम्पनी अधिनियम की धारा 2(18) के अनुसार, सरकारी कम्पनी का आशय ऐसी सरकारी कम्पनी से है जो धारा 617 के अन्तर्गत आती है। इस धारा का वर्णन निम्नवत् है –
इस अधिनियम के लिए सरकारी कम्पनी का आशय एक ऐसी कम्पनी से है जिसकी चुकता अंश पूँजी (Paid up share capital) का कम-से-कम 51 प्रतिशत (Fifty one per cent) भाग केन्द्रीय सरकार या किसी राज्य सरकार या सरकारों या अंशतः केन्द्रीय सरकार और अंशत: एक या अधिक राज्य सरकारों के पास हो और इसमें वह कम्पनी भी शामिल की जाती है जो सरकारी कम्पनी की सहायक कम्पनी हो।
एक राष्ट्रीयकृत बैंक धारा 617 के अधीन सरकारी कम्पनी है। कम्पनी अधिनियम के अधीन निगमित कम्पनी ही इस धारा के अन्तर्गत आती है इसलिए भारतीय जीवन बीमा निगम सरकारी कम्पनी नहीं है।
एक सरकारी कम्पनी राज्य सरकार की अभिकर्ता (agent) तब तक नहीं मानी जाती है जब तक कि वह सरकारी कार्य न करती हो।
प्रश्न 2 – सार्वजनिक कम्पनी से क्या आशय है?
What is meant by public company?
अथवा कम्पनी को परिभाषित कीजिए।
Define Company.
उत्तर – कम्पनी का अर्थ
(Meaning of A Company)
कम्पनी से आशय व्यापारिक संगठन के ऐसे प्रारूप से है जिसकी स्थापना कुछ व्यक्तिया द्वारा लाभ कमाने के उद्देश्य से विधान (कानून) के उद्देश्य से विधान (कानून) के प्रावधानों के अन्तर्गत की जाती है।
सरल शब्दों में, ‘कम्पनी’ से आशय व्यक्तियों के एक ऐसे समह से है जिनका एक सामान्य उद्देश्य होता है एवं जिसकी पूँजी हस्तान्तरण विभाजित होती है। कम्पनी का कारोबार एक सार्वमुद्रा ( common Seal) के अधीन संचालित होता है और पंजीकरण के बाद इसका अपना पृथक् स्थायी अस्तित्व हो जाता है। कोई भी व्यक्ति कम्पनी के ऊपर तथा कम्पनी किसी भी व्यक्ति पर अभियोग/मुकदमा (Case) चला सकती है।
कम्पनी की परिभाषाएँ
(Definitions of Company)
(1) न्यायाधीश जेम्स के अनुसार, “कम्पनी का आशय व्यक्तियों के ऐसे संघ से है जो एक सामान्य उद्देश्य के लिए संगठित हुए हों।” (यह परिभाषा ‘कम्पनी’ शब्द की सही व्याख्या नहीं करती है।)
(2) लार्ड लिण्डले के अनुसार, “कम्पनी व्यक्तियों का समूह है, जो कि द्रव्य या द्रव्य के बराबर का अंशदान एक संयुक्त कोष में जमा करते हैं और इसका प्रयोग एक निश्चित उद्देश्य के लिए करते हैं।”
(3) अमेरिकन प्रमुख न्यायाधीश मार्शल के अनुसार, “संयुक्त पूँजी कम्पनी एक कृत्रिम, अदृश्य तथा अमूर्त संस्था है, जिसका अस्तित्व वैधानिक होता है और जो विधान द्वारा निर्मित होती है।” (यह परिभाषा कम्पनी की मुख्य विशेषताओं को स्पष्ट करती है। अतः इसे सही परिभाषा कहा जा सकता है।)
(4) कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 2 (20) के अनुसार, “कम्पनी से आशय इस अधिनियम के अधीन तथा इसके पूर्व के किसी कम्पनी अधिनियम के अधीन समामेलित कम्पनी से है।”
उपयुक्त परिभाषा – उपर्युक्त परिभाषाओं का अध्ययन करने के बाद हम यह कह सकते हैं कि “कम्पनी एक वैधानिक एवं अदृश्य कृत्रिम व्यक्ति है जिसका समामेलन कम्पनी अधिनियम के अन्तर्गत किसी विशेष उद्देश्य से होता है, जिसका दायित्व सामान्यत: सीमित और अस्तित्व उसके सदस्यों से अलग होता है तथा इसकी एक सार्वमुद्रा होती है।”
प्रश्न 3 – निजी कम्पनी किसे कहते हैं?
What is private company ?
उत्तर – निजी कम्पनी (Private Company) – इनको अलोक या व्यक्तिगत कम्पनी भी कहते हैं। कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 2 (68) के अनुसार, निजी कम्पनी का आशय एक ऐसी कम्पनी से है जिसकी प्रदत्त (चुकता) अंश पूँजी कम-से-कम एक लाख रुपये या इससे अधिक निर्धारित की गई राशि है। [कम्पनी (संशोधन) अधिनियम, 2015 की अधिसूचना संख्या 1/6/2015-CL(V) के अनुसार दिनांक 29.5.2015 से ‘प्रदत्त पँजी एक लाख रुपये या इससे अधिक’ शब्द को हटा दिया गया है तथा जो अपने अन्तर्नियमों द्वारा-(अ) अपने अंशों, यदि कोई हों, के हस्तान्तरण पर प्रतिबन्ध लगाती है। (ब) निम्नलिखित को छोड़कर, अपने सदस्यों की अधिकतम संख्या 200 तक (कम्पनी अधिनियम, 1956 में 50 तक) सीमित करती है-i) ऐसे व्यक्ति जो कि कम्पनी के कर्मचारी हैं तथा (ii) ऐसे व्यक्ति जो कि पहले कम्पनी के कर्मचारी रहते हुए कम्पनी के सदस्य थे और अब कर्मचारी नहीं हैं, लेकिन सदस्य बने हए हैं तथा (iii) 200 सदस्यों की अधिकतम संख्या की गिनती करने हेतु संयुक्त अंशधारियों (2 या 2 से अधिक व्यक्तियों द्वारा संयुक्त रूप से अंश धारित करने वाले अंशधारी) को एक सदस्य माना जाता है। (iv) निजी कम्पनी की स्थापना केवल दो सदस्यों से हो सकती है, यद्यपि कम्पनी अधिनियम, 2013 के अनुसार, निजी कम्पनी एक व्यक्ति कम्पनी (One Person Company) के रूप में भी समामेलित करायी जा सकती है। (स) अपने अंशों तथा ऋण-पत्रों को खरीदने के लिए सार्वजनिक निमन्त्रण नहीं देती।
प्रश्न 4 – समामेलन का पर्दा क्या है?
What is corporate veil ?
उत्तर – कम्पनी की स्थापना समामेलन (Incorporation) द्वारा होती है। इसके समामेलन का प्रभाव यह होता है कि कम्पनी और उसके सदस्यों के बीच एक आवरण अथवा पर्दा खड़ा हो जाता है जो कम्पनी को उसके सदस्यों से पृथक् करता है एवं उसके पृथक् अस्तित्व को वैधानिक रूप प्रदान करता है। कम्पनी का अपना नाम होता है और उसके नाम की पृथक् सार्वमुद्रा होती है जो उसके अस्तित्व का प्रतीक होती है। कम्पनी अपने सदस्यों के विरुद्ध वाद प्रस्तुत कर सकती है और सदस्य कम्पनी के विरुद्ध वाद प्रस्तुत कर सकते हैं।
प्रश्न 5 – एक व्यक्ति वाली कम्पनी पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
Write a short note on One Person Company.
उत्तर – कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 2 (62) के अन्तर्गत एक व्यक्ति वाली कम्पनी की अवधारणा को शुरू किया गया। इस कम्पनी का निर्माण प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी के रूप में किया जा सकता है। जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है कि एक व्यक्ति वाली कम्पनी में एक ही सदस्य होता है। पार्षद सीमा नियम द्वारा ऐसी कम्पनी का पंजीकरण कराते समय एक व्यक्ति को उसकी लिखित सहमति के साथ मनोनीत करना अनिवार्य है, जो उस सदस्य की मृत्यु या अयोग्यता होने पर एक व्यक्ति वाली कम्पनी का सदस्य होगा। कम्पनी का अकेला सदस्य अपने द्वारा मनोनीत किए गए व्यक्ति का नाम हटाकर दूसरे व्यक्ति का नाम सम्मिलित कर सकता है। कम्पनी का पंजीकरण कराते समय कम्पनी के पार्षद सीमा नियम एवं अन्तर्नियमों के साथ ऐसे व्यक्ति की लिखित सहमति रजिस्ट्रार के पास पंजीकृत कराई जाती है।
प्रश्न 6 – सहायक कम्पनी से आप क्या समझते हैं?
What do you mean by subsidiary company ?
उत्तर – कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 2(87) के अनुसार, “किसी अन्य कम्पनी के सम्बन्ध में (जिसे सूत्रधारी कम्पनी कहा जाता है) सहायक कम्पनी का आशय ऐसी कम्पनी से है जिसमें सूत्रधारी कम्पनी–(i) इसके (सहायक कम्पनी के) संचालक मण्डल के गठन पर नियन्त्रण रखती है; या (ii) इसकी स्वयं की या इसकी एक से अधिक सहायक कम्पनियों को मिलाकर कुल अंश पूँजी के आधे से अधिक भाग पर नियन्त्रण रखती है।”
प्रश्न 7 – एक व्यवसाय प्रारम्भ करने का प्रमाण-पत्र क्या है?
What is certificate of commencement of business?
उत्तर – कम्पनी रजिस्ट्रार द्वारा कम्पनी का व्यापार आरम्भ करने के लिए निर्गमित प्रमाण-पत्र ‘व्यापार आरम्भ करने का प्रमाण-पत्र’ कहलाता है। कम्पनी अधिनियम, 1956 के अन्तर्गत एक निजी कम्पनी समामेलन का प्रमाण-पत्र प्राप्त करने के तुरन्त बाद अपना व्यवसाय प्रारम्भ कर सकती थी, लेकिन सार्वजनिक कम्पनी को व्यवसाय प्रारम्भ करने से पूर्व रजिस्ट्रार से इस आशय का प्रमाण-पत्र प्राप्त करना होता है।
परन्तु कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 11 के अनुसार, अंश पूँजी वाली एक सार्वजनिक कम्पनी एवं एक निजी कम्पनी तब तक अपना व्यवसाय आरम्भ नहीं कर सकती तथा ऋण लेने की शक्तियों का प्रयोग भी नहीं कर सकती जब तक कि
(i) निदेशकों द्वारा निर्धारित प्रारूप और ढंग से एक घोषणा रजिस्ट्रार के पास फाइल न कर दी गई हो कि पार्षद सीमा नियम के प्रत्येक अभिदांता ने अपने द्वारा लिए जाने वाले अंशों के मूल्य का भुगतान कर दिया है एवं घोषणा करने की तिथि को सार्वजनिक कम्पनी की चुकता पूँजी 5 लाख रुपये से कम नहीं है एवं निजी कम्पनी की दशा में एक लाख रुपये से कम नहीं है तथा, (ii) कम्पनी ने अपने पंजीकृत कार्यालय के पते का धारा 12 उपधारा के अनुसार सत्यापन नहीं करा लिया है।
कम्पनी संशोधन अधिनियम, 2015 की अधिसूचना संख्या 1/6/2015-CL(V) के अनुसार दिनांक 29.5.2015 से व्यवसाय प्रारम्भ करने के प्रमाण-पत्र का निर्गमन बन्द कर दिया गया है अर्थात् अब किसी भी कम्पनी को व्यवसाय प्रारम्भ करने का प्रमाण-पत्र प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं है। समामेलन का प्रमाण-पत्र प्राप्त करने के बाद ही व्यापार प्रारम्भ किया जा सकता है।
प्रश्न 8 – प्रवर्तक कितने प्रकार के होते हैं?
How many types of promoters are there?
उत्तर – प्रवर्तकों के प्रकार –
(Types of Promoters)
प्रवर्तक निम्न प्रकार के होते हैं –
- व्यावसायिक प्रवर्तक (Professional Promoters) – ऐसे प्रवर्तकों का मुख्य व्यवसाय नई कम्पनियों का प्रवर्तन करना होता है। ये प्रवर्तन सम्बन्धी कार्यों में कुशल होते हैं और पारिश्रमिक लेकर अपनी विशेषज्ञ सेवाओं द्वारा कम्पनी का निर्माण करते हैं।
- सामयिक प्रवर्तक (Occasional Promoters) – इनका मुख्य व्यवसाय कम्पनियों का प्रवर्तन न होकर कुछ और होता है। कभी-कभी किसी अवसर पर ये प्रवर्तन का काम करते हैं और कम्पनी के निर्माण में रुचि लेते हैं।
- वित्तीय प्रवर्तक (Financial Promoters) – ऐसे प्रवर्तक जो वित्तीय लाभ प्राप्त करने के लिए प्रवर्तन कार्य में वित्तीय सहायता देते हैं। वित्तीय प्रवर्तक कहलाते हैं।
- तकनीकी प्रवर्तक (Technical Promoters) – तकनीकी ज्ञान के कारण ऐसे व्यक्ति कम्पनी में प्रवर्तक हो जाते हैं।
- विशिष्ट संस्थाएँ (Specialised Institutions) – ऐसी विशिष्ट संस्थाएं जो कम्पनियों के प्रवर्तक का काम करने के लिए स्थापित की जाती हैं, विशिष्ट संस्थाएँ कहलाती हैं।
प्रश्न 9 – कम्पनी के अविच्छिन्न उत्तराधिकार से आप क्या समझते हैं?
What do you mean by perpetual success in a company ?
उत्तर – कम्पनी का अस्तित्व स्थायी होता है अर्थात् कम्पनी का जीवन इसके सदस्यों के जीवन पर निर्भर नहीं करता। कम्पनी के किसी सदस्य की मृत्यु, दिवालिया या पागल हो जाने या किसी सदस्य द्वारा कम्पनी से अलग होने का कम्पनी के अस्तित्व पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता अर्थात् कम्पनी निरन्तर चलती रहती है। वस्तुत: कम्पनी के सदस्यों में किसी भी प्रकार का कोई भी परिवर्तन हो, कम्पनी का जीवन समाप्त नहीं होता और वह स्थायी रूप से कार्य करती रहती है।
प्रश्न 10 – आन्तरिक प्रबन्ध के सिद्धान्त को समझाइए।
Explain the doctrine of internal management ?
उत्तर – आन्तरिक प्रबन्ध का सिद्धान्त
(Doctrine of Internal Management)
यह रचनात्मक सूचना के सिद्धान्त का एक अपवाद है। इस सिद्धान्त के अनुसार, “प्रत्येक बाहरी व्यक्ति, जो कम्पनी से व्यवहार करता है, यह मानकर व्यवहार करता है कि जहाँ तक कम्पनी की आन्तरिक कार्यवाहियों का सम्बन्ध है, प्रत्येक कार्य नियमित रूप से किया गया है।” उसे केवल यही देखना पड़ता है कि उसका व्यवहार सीमानियम तथा अन्तर्नियमों की व्यवस्थाओं के विपरीत व उनसे असंगत नहीं है। यदि उनके द्वारा किए जाने वाला व्यवहार सीमानियम व अन्तर्नियमों के अधिकार क्षेत्र के अन्तर्गत है तो कम्पनी उन व्यवहारों से बाध्य होगी भले ही कम्पनी ने उन व्यवहारों के सम्बन्ध में कुछ आन्तरिक अनियमितताएँ बरती हैं।
प्रश्न 11 – अधिकार के बाहर के सिद्धान्त को स्पष्ट कीजिए।
Explain the doctrine of ultra-vires ?
अथवा कम्पनी की शक्ति के परे’ व्यवहारों से आप क्या समझते हैं?
What do you mean by doctrine of ultra vires ?
उत्तर – कम्पनी का ऐसा कोई भी कार्य जो कम्पनी अधिनियम, पार्षद सीमानियम अथवा पार्षद अन्तर्नियम के क्षेत्र के बाहर होता है, ‘अधिकारों के बाहर’ का कार्य कहलाता है। “फलत: ऐसे सभी व्यवहार जो कि कम्पनी अधिनियम अथवा पार्षद सीमानियम के क्षेत्र के बाहर हों, जहाँ तक कम्पनी का सम्बन्ध है, पूर्णतः प्रभावहीन एवं व्यर्थ होते हैं और बाद में भी कभी उनकी पुष्टि नहीं की जा सकती है ओर न ही उन्हें वैधानिक किया जा सकता है चाहे एस व्यवहारों पर सहमति अथवा पुष्टि सभी अंशधारियों के द्वारा क्यों न हो।” इस प्रकार संक्षेप म, अधिकारों के बाहर कार्य का आशय कम्पनी की अधिकार सीमा से बाहर के कार्य से है। उदाहरण के लिए, यदि कोई कम्पनी ऐसा कार्य करती है जो उसके पार्षद सीमानियम के उद्देश्य वाक्य में दिए गए उद्देश्यों से परे (बाहर) है तो यह माना जाएगा कि कम्पनी ने अपनी वैधानिक अधिकार शक्ति का उल्लंघन किया है और इस प्रकार कम्पनी के द्वारा किया गया वह कार्य प्रभावहीन एवं व्यर्थ माना जाएगा अर्थात् उस कार्य को न तो कार्यशील ही कराया जा सकेगा और न उस कार्य के परिणामस्वरूप होने वाले किसी कार्य के लिए कम्पनी को उत्तरदायी ठहराया जा सकेगा। इस सिद्धान्त को ‘अधिकारों से बाहर का’ सिद्धान्त कहते हैं।
प्रश्न 12 – पार्षद सीमानियम क्या है?
What is memorandum of association?
उत्तर – पार्षद सीमानियम कम्पनी का एक ऐसा महत्त्वपूर्ण प्रलेख है जो कम्पनी का समामेलन कराते समय अनिवार्य रूप से रजिस्ट्रार को प्रस्तुत करना पड़ता है। इसके बिना किसी भी कम्पनी का समामेलन नहीं हो सकता। अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होने के कारण इसे कम्पनी का चार्टर अथवा विधान भी कहते हैं। इसे ‘स्मृति पत्र’, ‘स्मृति ज्ञापन’, ‘स्मारक पत्र’ अथवा ‘ज्ञापन पत्र’ के नाम से भी पुकारते हैं। इस प्रलेख में कम्पनी के कार्य-क्षेत्र, उद्देश्य, पूँजी व दायित्वों एवं अधिकारों की सीमाओं का उल्लेख होता है। इसके बाहर किया गया कोई भी कार्य व्यर्थ माना जाता है। अत: इसे पर्याप्त सावधानी के साथ तैयार करना चाहिए।
कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 2(56) के अनुसार, “सीमा नियम का आशय किसी कम्पनी के उस पार्षद सीमा नियम से है जो पिछले कम्पनी कानून या इस अधिनियम के अन्तर्गत मूल रूप से तैयार किया गया हो या समय-समय पर परिवर्तित किया गया हो।” ___
कम्पनी के पार्षद सीमा नियम का प्रारूप कम्पनी अधिनियम, 2013 की अनुसूची। में दी गई सारणी A, B, C, D अथवा E के निर्दिष्ट प्रारूप में होगा, जैसा कि सम्बन्धित कम्पनी की दशा में लागू हो।
प्रश्न 13 – पार्षद सीमानियम में परिवर्तन पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
Write a short note on Change of Memorandum of Association ?
उत्तर – सामान्यत: पार्षद सीमानियम कम्पनी का एक अपरिवर्तनशील अधिकार पत्र (Charter) कहलाता है, परन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि उसमें परिवर्तन किया ही नहीं जा सकता। कम्पनी अधिनियम 2013 की धारा 13 के अनुसार, धारा 61 के प्रावधानों को छोड़कर एक कम्पनी एक विशेष प्रस्ताव द्वारा इस धारा में निर्दिष्ट प्रक्रिया के अनुसार अपने पार्षद सीमा नियम में परिवर्तन कर सकती है। इस प्रकार का परिवर्तन कुछ दशाओं में अंशधारियों के बहुमत से, कुछ दशाओं में कम्पनी विधान मण्डल की अनुमति प्राप्त होने पर, कछ दशाओं में केन्द्रीय सरकार की सहमति प्राप्त करके और साथ में कम्पनी के सदस्यों की सभा में आवश्यक प्रस्ताव पारित होने पर ही किया जा सकता है।
प्रश्न 14 – कम्पनी के रजिस्ट्रेशन हेतु रजिस्ट्रार के यहाँ कौन-कौन से प्रपत्र प्रस्तुत किए जाते हैं?
What documents are presented by a company to registrar for the registration of company ?
उत्तर – कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 7 के अनुसार, कम्पनी के रजिस्ट्रेशन हेत रजिस्ट्रार के यहाँ निम्नलिखित प्रपत्र व सूचना प्रस्तुत करते हैं –
(i) सीमा नियम के अभिदाताओं द्वारा हस्ताक्षरित कम्पनी के पार्षद सीमा नियम व अन्तर्नियम।
(ii) अधिवक्ता, चार्टर्ड एकाउण्टेन्ट, लागत लेखाकार या पेशेवर कम्पनी सचिव द्वारा निर्धारित प्रारूप में घोषणा।
(iii) अभिदाताओं द्वारा शपथ-पत्र।
(iv) पत्र व्यवहार के लिए कम्पनी का पता।
(v) पार्षद सीमा नियम के अभिदाताओं के नाम का विवरण।
(vi) प्रथम निदेशकों/संचालकों के नाम व पते।
(vii) अन्य फर्मों या निगमित निकायों में उन व्यक्तियों के हित का विवरण जिनके नाम कम्पनी के अन्तर्नियम में प्रथम निदेशकों के रूप में दिए हुए हैं।
प्रश्न 15 – पार्षद सीमानियम के उद्देश्य वाक्य को किस प्रकार परिवर्तित किया जा सकता है? स्पष्ट कीजिए।
How to change the object clause of memorandum of association ?
उत्तर – धारा 61 के प्रावधानों को छोड़कर उद्देश्य वाक्य में परिवर्तन के लिए कम्पनी अधिनियम की धारा 13 के अनुसार निम्नलिखित प्रक्रिया अपनायी जाती है
(i) सर्वप्रथम उद्देश्य वाक्य में परिवर्तन के लिए एक ‘विशेष प्रस्ताव पारित किया जाता है।
(ii) ऐसे प्रस्ताव के सम्बन्ध में निर्धारित विवरण एक अंग्रेजी और एक स्थानीय भाषा के समाचार-पत्र में प्रकाशित किया जाएगा।
(iii) असन्तुष्ट अंशधारियों को कम्पनी छोड़ने का अवसर प्रदान किया जाएगा।
(iv) उद्देश्य वाक्य में परिवर्तन का रजिस्ट्रार द्वारा पंजीकरण।
(v) उद्देश्य वाक्य में किया गया परिवर्तन बिना पंजीकरण के प्रभावी नहीं होगा।
(vi) गारन्टी द्वारा सीमित कम्पनी की दशा में उद्देश्य वाक्य में परिवर्तन वैध नहीं माना जाता।
प्रश्न 16 – पार्षद अन्तर्नियम क्या है?
What is articles of association ?
उत्तर – पार्षद अन्तनियम कम्पनी का दूसरा महत्त्वपूर्ण प्रलेख है जो समामेलन हेतु जिस्ट्रार के पास दाखिल किया जाता है। कम्पनी के पार्षद अन्तर्नियम से आशय कम्पनी के उद्देश्यों को प्राप्त करने एवं उसकी आन्तरिक प्रबन्ध व्यवस्था को संचालित करने के लिए बनाए बए नियमों तथा उपनियमों से है। कम्पनी की सम्पूर्ण आन्तरिक प्रबन्ध व्यवस्था उसके पाचन अन्तर्नियमों के अनुसार होती है। इसमें इस बात का उल्लेख रहता है कि कम्पनी के कौन-कान * कार्य किस प्रकार किए जाएंगे तथा उसके पदाधिकारियों के व्या-ज्या अधिकार. कर्त्तव्य एव त्तिरदायित्व होंगे। कम्पनी और उसके सदस्यों के पारस्परिक सम्बन्ध पार्षद अन्तर्नियम द्वारा हा अश्चित होते हैं। पार्षद अन्तर्नियम, कम्पनी अधिनियम एवं पार्षद सीमानियम के अधीन होता है।
अन्तर्नियम, सीमा नियम या कम्पनी अधिनियम के विरोध में नहीं होने चाहिए। पार्षद अन्तर्नियम की कुछ प्रमुख परिभाषाएँ इस प्रकार हैं –
1. कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 2 (5) के अनुसार, “पार्षद अन्तर्नियम से आशय एक ऐसे अन्तर्नियम से है जो पिछले कम्पनी अधिनियमों अथवा इस अधिनियम के अधीन मूल रूप से बनाया गया अथवा समय-समय पर परिवर्तित किया गया है।
2. न्यायाधीश बोवेन के अनुसार, “पार्षद सीमानियम में वे आधारभूत शर्ते होती हैं जिनके आधार पर कम्पनी का समामेलन होता है, अन्तर्नियम कम्पनी के आन्तरिक नियम होते हैं।”
निष्कर्ष – उपयुक्त परिभाषा-पार्षद अन्तर्नियम की उपर्युक्त परिभाषाओं का अध्ययन करने के पश्चात् निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि “पार्षद अन्तर्नियम कम्पनी के पार्षद सीमानियम के अधीन बनाए गए नियमों व उपनियमों की व्याख्या करता है जिनसे कम्पनी के आन्तरिक मामलों को नियन्त्रित एवं नियमित किया जाता है।”
प्रश्न 17 – अंश कितने प्रकार के होते हैं?
What are the kinds of share ?
उत्तर – कम्पनी की पूँजी विभिन्न प्रकार के अंशों में विभाजित होती है। अंश निम्नलिखित दो प्रकार के होते हैं
(i) पूर्वाधिकार या अधिमान अंश (Preference shares) एवं
(ii) साधारण या समता अंश (Ordinary or Equity shares)
प्रश्न 18 – प्रविवरण क्यों निर्गमित किया जाता है?
Why prospectus are issued ?
अथवा प्रविवरण का आशय लिखिए।
Write the meaning of prospectus.
उत्तर – प्रविवरण से आशय कम्पनी द्वारा निर्गमित ऐसे प्रलेख से है जिसके माध्यम से जनता को कम्पनी के अंश या ऋण-पत्र क्रय करने अथवा निक्षेप (Deposits) जमा करने के लिए आमन्त्रित किया जाता है। संक्षेप में, प्रविवरण जनता से पूँजी जुटाने हेतु निर्गमित किया गया प्रलेख है।
कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 2 (70) के अनुसार, “प्रविवरण से आशय किसी ऐसे दस्तावेज से है, जिसे प्रविवरण के रूप में वर्णित या निर्गमित किया गया है और जिसमें धारा 32 में संदर्भित रेड हैरिंग (Red Herring) प्रविवरण या धारा 31 में संदर्भित शैल्फ प्रविवरण (Shelf Prospectus) या कोई सूचना-पत्र, गश्ती-पत्र, विज्ञापन या अन्य दस्तावेज शामिल है जिसके द्वारा कोई निगमित निकाय (कम्पनी) अपनी प्रतिभूतियों के अभिदान या क्रय के लिए जनता को आमन्त्रित करती है।
कम्पनी द्वारा प्रविवरण आम जनता को अंश या अन्य कोई प्रतिभूति क्रय करने के लिए प्रेरित करने हेतु निर्गमित किया जाता है।
प्रश्न 19 – जी०एस०टी० (GST) क्या है?
What is GST?
उत्तर – वस्तु एवं सेवा कर
Good and Service Tax (GST)
जी०एस०टी० एक ऐसा कर है, जो राष्ट्रीय स्तर पर किसी भी वस्तु या सेवा के निर्माण, बिक्री और प्रयोग पर लगाया जाता है। इस कर व्यवस्था के लागू होने के पश्चात् उत्पाद शुल्क, केन्द्रीय बिक्री कर, सेवा कर जैसे केन्द्रीय कर तथा राज्य स्तर के बिक्री कर या वैट, एण्ट्री टैक्स, लॉटरी टैक्स, स्टाम्प ड्यूटी, टैलीकॉम लाइसेन्स फीस, टर्नओवर टैक्स और वस्तु स्थानान्तरण पर लगने वाले टैक्स इत्यादि समाप्त हो जाएंगे। इस कर व्यवस्था में वस्तु एवं सेवा की खरीद पर दिए गए कर को उनकी सप्लाई के समय दिए जाने वाले कर के मुकाबले समायोजित कर दिया जाता है। हालाँकि यह कर अन्त में ग्राहक को ही देना होता है क्योंकि वही सप्लाई चेन में खड़ा अन्तिम व्यक्ति होता है।
प्रश्न 20 – जी०एस०टी० के लाभों पर टिप्पणी लिखिए।
Write note on Advantages of GST.
उत्तर – जी०एस०टी० के लाभ
जी०एस०टी० वर्तमान में प्रचलित कर ढाँचे के समान कई स्थानों पर न लगकर केवल गन्तव्य (Destination Point) पर लगेगा, वर्तमान व्यवस्था के अनुसार किसी सामान पर फैक्टरी से निकलते समय टैक्स लगता है, और फिर खुदरा स्थान पर भी जब वह बिकता है तो वहाँ भी उस पर टैक्स जोड़ा जाता है। जानकारों का मानना है कि इस नई व्यवस्था से जहाँ भ्रष्टाचार में कमी आएगी, वहीं लाल फीताशाही भी कम होगी और पारदर्शिता बढ़ेगी, पूरा देश एक साझा व्यापार बढ़ाने में सहायक होगा।
1. सरकार को लाभ – जी०एस०टी० के अन्तर्गत कर संरचना आसान होगी और ‘कर-आधार’ बढ़ेगा। इसके दायरे से बहुत कम सामान और सेवाएँ बच पाएँगे। एक अनुमान के अनुसार, जी०एस०टी० व्यवस्थ लागू होने के बाद निर्यात, रोजगार और आर्थिक विकास में वृद्धि होगी, इससे देश को प्रतिवर्ष 15 अरब रुपये की अतिरिक्त आय होगी।
2. कम्पनियों को लाभ – वस्तुओं और सेवाओं के दाम कम होने से उनकी खपत बढ़ेगी. इससे कम्पनियों का लाभ बढ़ेगा, इसके अतिरिक्त उन पर टैक्स का औसत बोझ कम होगा, कर केवल बिक्री के स्थान पर लगने से उत्पादन लागत (प्रोडक्शन कॉस्ट) कम होगा, जिससे निर्यात बाजार में कम्पनियों की प्रतिस्पर्धी बढ़ेगी।
जनता को लाभ (Advantages to Public)
इस कर व्यवस्था में केन्द्र और राज्यों दोनों के कर केवल बिक्री के समय वसूले जाएग, साथ ही ये दोनों ही कर निर्माण लागत (मैन्यूफैक्चरिंग कॉस्ट) के आधार पर निर्धारित होग, इससे वस्तु और सेवाओं के दाम कम होंगे और सामान्य उपभोक्ताओं को लाभ होगा।
गरीबों के लिए जरूरी चीजों को जी०एस०टी० के दायरे से बाहर रखा गया है, गरीबी दूर करने में भी सहायता मिलेगी, बैंकों में भी पारदर्शिता आएगी, वे गरीबों को क में आनाकानी नहीं करेंगे। छोटे उद्यमियों को भी उनके रिकॉर्ड के हिसाब से आसानी स मिलेगा क्योंकि अब सब कुछ ऑनलाइन होगा।
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