Channels Of Distribution B.Com Notes – Principles Of Marketing Notes

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वितरण माध्यम या वितरण वाहिकाओं का अर्थ

(Meaning of Channels of Distribution) 

वितरण वाहिका से आशय ऐसे वितरण माध्यमों से है जिनके द्वारा वस्तुएँ उत्पादक या न हाथ से निकलकर अन्तिम उपभाक्ता या प्रयोगकर्ता के पास तक पहुँचती हैं। दसरे शब्दों म. माध्यम वस्तुओं के स्वामित्व हस्तान्तरण का मार्ग है और इसमें केवल उन्हीं संस्थाओं को शामिल जाता है जो वस्तुओं के स्वामित्व हस्तान्तरण में सहयोग करती हैं तथा बिना कोई परिवर्तन किया को अन्तिम उपभोक्ताओं या औद्यागिक उपयोगकर्ताओं तक पहुँचाती है।

मैकार्थी के अनुसार, “उत्पादक से उपभोक्ता तक संस्थाओं का कोई भी क्रम जिसमें मध्यस्थ या तो बिल्कुल नहीं होते अथवा कितनी भी संख्या में हो सकते हैं, वितरण वाहिका कहलाता है।

” रिचर्ड बुसकिर्क के अनुसार, “वितरण माध्यम आर्थिक संस्थाओं से निर्मित वे मार्ग हैं जिनके माध्यम से उत्पादक अपने उत्पादों को अन्तिम उपभोक्ताओं तक पहुँचाता है। ” वितरण माध्यम स्थान उपयोगिता, समय उपयोगिता एवं अधिकार उपयोगिता का सृजन करते हैं।

वितरण वाहिकाओं के प्रकार

(Types of Channels of Distribution) 

किसी वस्तु या माल को उत्पादकों या निर्माताओं से उपभोक्ताओं तक पहुँचाने के अनेक प्रकार माध्यम होते हैं। आर० एस० डाबर ने वितरण माध्यम के तीन प्रकार तथा फिलिप कोटलर ने चार प्रकार बताए हैं। उपभोक्ता वस्तुओं के लिए निर्माता निम्नलिखित वितरण वाहिकाओं में से किसी का भी प्रयोग कर सकता है – (1) कोई भी निर्माता अपने द्वारा निर्मित वस्तु को अपने उपभोक्ताओं को प्रत्यक्ष रूप से पहुँचा सकता है अर्थात् वह इस कार्य के लिए मध्यस्थों का सहारा नहीं लेता है, जैसे-वह स्वयं फुटकर दुकानें या श्रृंखलाबद्ध दुकानें खोलकर अपने विक्रय प्रतिनिधि नियुक्त कर सकता है या उपभोक्ताओं से डाक द्वारा आदेश प्राप्त करके उनकी पूर्ति कर सकता है। इसे शून्य स्तर श्रृंखला कहते हैं। (2) निर्माता- उपभोक्ता । (Producer -Consumer) (2) निर्माता अपनी वस्तु को उपभोक्ता तक पहुँचाने के लिए एक मध्यस्थ का सहारा ले सकता है जो फुटकर व्यापारी या एजेण्ट हो सकता है। 

निर्माता-→फुटकर व्यापारी या एजेण्ट उपभोक्ता (Producer – Retailer or Agent Consumer)  (3) निर्माता अपनी वस्तु को उपभोक्ता या प्रयोगकर्ता तक पहुँचाने के लिए दो मध्यस्थों की सहायता प्राप्त कर सकता है। ये मध्यस्थ प्रायः थोक व्यापारी एवं फटकर व्यापारी होते हैं। ऐसी वितरण वाहिका का उपयोग प्रायः उस अवस्था में किया जाता है जबकि उत्पादकों की संख्या अधिक हो या उपभोक्ता दूर-दूर तक बिखरे हुए हों और वस्तु को थोड़ी-थोड़ी मात्रा में क्रय करते हों। 

निर्माता→थोक व्यापारी→फुटकर व्यापारी उपभोक्ता (Producer- >Wholesaler- >Retailer – Consumer)  (4) निर्माता अपनी वस्तु को उपभोक्ता तक पहुँचाने के लिये तीन प्रकार के मध्यस्थों का सहारा ले सकता है। 

निर्माता→ एजेण्ट→ थोक व्यापारी→ फुटकर व्यापारी→ उपभोक्ता (Producer→ Agent -Wholesaler–>Retailer -Consumer)  (5) निर्माता अपनी वस्तु को उपभोक्ताओं तक पहुंचाने के लिए विक्रय संघों की सहायता भी ले सकते हैं। ऐसी स्थिति में वितरण वाहिका के निम्नलिखित दो प्रारूप हो सकते हैं

(i) निर्माता-विक्रय संघ उपभोक्ता । (Producer- Selling Association – Consumer) 

(ii) निर्माता→विक्रय संघ→फुटकर व्यापारी→उपभोक्ता (Producer–Selling Association→Retailer->Consumer)

वितरण माध्यमों के कार्य/भूमिका/महत्व

(Functions/Role/Importance of Distribution Channels) 

वितरण माध्यमों का मख्य कार्य उत्पादन एवं उपभोग को परस्पर सम्बन्धित करना है। रिचार्ड कक के अनुसार, “वितरण माध्यम आर्थिक संस्थाओं की वे प्रणालियाँ या पद्धतिया हैं, जिनके माध्यम से एक उत्पादक अपना माल प्रयोगकर्ताओं के हाथ में सौंपता है।” वितरण माध्यमों अथवा पस्था द्वारा निम्नलिखित कार्य किए जाते हैं

  1. वस्तुओं के स्वत्व या स्वामित्व का हस्तान्तरण करना। 
  2. उत्पादकों को साख सुविधा प्रदान करना।
  1. निर्माताओं तथा उपभोक्ताओं के मध्य वस्तुओं, बाजारों, किस्म, फैशन एवं माँग आदि के में सूचनाओं का विनिमय करना। 
  2. निर्माताओं को मूल्य निर्धारण में सहायता करना। 
  3. विक्रय संवर्द्धन क्रियाएँ करना। 
  4. वस्तुओं के बाजार का विस्तार करना। 
  5. उपभोक्ताओं को उनकी अभिरूचियों के अनुरूप वस्तुएँ उपलब्ध कराना। 
  6. उत्पादकों एवं ग्राहकों के मध्य कड़ी के रूप में कार्य करना। 
  7. संग्रह कार्य करना।

वितरण वाहिका के चुनाव को प्रभावित करने वाले तत्त्व

(Factors Affecting the Choice of Channels of Distribution)

वितरण वाहिका के चयन से सम्बन्धित निर्णय को अनेक तत्व प्रभावित करते हैं। अध्ययन सुविधा की दृष्टि से इन तत्वों को निम्न शीर्षकों में वर्गीकृत किया जा सकता है-

  1. उपभोक्ता तथा बाजार सम्बन्धी तत्त्व (Consumer or Market Factors)
  2. उपभोक्ता तथा औद्योगिक बाजार (Consumer and Industrial Market)-यदि वस्त का उपभोक्ता बाजार है तो वितरण वाहिका लम्बी हो सकती है अर्थात् फुटकर व्यापारियों की सहायता ली जा सकती है। इसके विपरीत यदि वस्तु का औद्योगिक बाजार है तो उसके मध्यस्थों की संख्या कम हो सकती है।
  3. उपभोक्ताओं की संख्या (Number of Consumers)-यदि उपभोक्ताओं की संख्या कम है। तो उत्पादक अपने विक्रय प्रतिनिधियों द्वारा उपभोक्ताओं को प्रत्यक्ष रूप से वस्तुएं बेच सकता है। इसके विपरीत यदि उपभोक्ताओं की संख्या अधिक है (जैसे, सिगरेट पीने वाले) तो थोक विक्रेता को फुटकर विक्रेताओं के माध्यम से वस्तुएँ बेचनी चाहिए।
  4. ग्राहकों की क्रय आदतें (Customer’s Buying Habits)-ग्राहकों की क्रय आदतें। वितरण-माध्यम को प्रभावित करती हैं जैसे-यदि उपभोक्ताओं की आदत उधार लेने की है और निर्माता उधार देने की स्थिति में नहीं है तो उसे मध्यस्थों का सहारा लेना होगा जो उधार देने में समर्थ
  5. आदेशों का आकार (Size of Orders)-यदि आदेश बड़ी-बड़ी मात्रा में आते हैं तो निर्माता पूर्ति का उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले लेता है। इसके विपरीत यदि आदेश छोटी-छोटी मात्रा में होता है। तो थोक व्यापारियों की सहायता ली जा सकती है।
  6. क्षेत्रीय केन्द्रीकरण (Regional Concentration)-यदि वस्तु के क्रेता किसी विशेष क्षेत्र, राज्य या स्थान में बसे हैं तो निर्माता द्वारा स्वयं बिक्री का रास्ता अपनाया जा सकता है लेकिन याद क्रेता बिखरे हुए हैं तो मध्यस्थों की सहायता ली जा सकती है। 
  7. वस्तु या उत्पाद सम्बन्धी तत्त्व (Product Factors)
  8. वस्तु की प्रति इकाई कीमत (Per Unit Price of the Goods)- सामान्यत: वस्तु को प्रात इकाई कीमत कम होने पर वितरण वाहिका लम्बी होती है, जैसे-सिगरेट, माचिस आदि। इसके विपरात अधिक कीमत होने पर वितरण वाहिका अपेक्षाकृत छोटी होती है, जैसे-रेडियो, टेलीविजन आदि।
  9. नाशवानता (Perishability)-वे वस्तुएँ जो नाशवान प्रकृति की होती हैं, जैसे-सब्जी, फल, दृध आदि उनको तुरन्त बेचने के लिये मध्यस्थों की आवश्यकता होती है। ये वस्तुएँ निर्माता द्वारा या फुटकर विक्रेताओं द्वारा बेची जा सकती हैं। इसके विपरीत वस्तु नाशवान प्रकृति की नहा है वितरण मार्ग लम्बा हो सकता है।
  10. उत्पाद का भार (Weight of the Product)-उत्पाद का भार भी मध्यस्थों की संख्या प्रभावित करता है। जिन उत्पादों का भार बहुत अधिक होता है उनमें प्रायः मध्यस्थों की संख्या होती है तथा उत्पादक प्रत्यक्ष रूप से उपभोक्ता को माल विक्रय कर देता है।
  11. वस्तु की तकनीकी प्रकृति (Technical Nature of Producti-तकनीकी स्वभाव का व बेचने के लिए विशेष तकनीकी ज्ञान, अनुभव विक्रय के पहले और बाद में सेवाओं की आवश् होती है। अत: निर्माता तकनीकी वस्तुओं को छोटी वितरण वाहिका द्वारा बेच सकता है।

5. प्रतियोगिता (Competition)-निर्माता को अपने प्रतिस्पर्धी द्वारा प्रयोग किये गये वि माध्यमों का विश्लेषण कर उसकी उपयुक्तता पर विचार करके वितरण माध्यम का चुनाव करना चाहिए।

III. निर्माता सम्बन्धी तत्व (Manufacturer’s Factors) 

1.वित्तीय व्यवस्था (Financial Position)-वित्तीय व्यवस्था के दृष्टिकोण से मजबूत कम्पनियों ध्यस्थों की उतनी आवश्यकता नहीं होती है जितनी कि कमजोर कम्पनियों को क्योंकि अच्छी नियाँ अपनी शाखाएँ स्वयं स्थापित कर सकती हैं जबकि कमजोर कम्पनियों को मध्यस्थों पर ही निर्भर रहना पड़ता है।

  1. प्रबन्धकीय योग्यता एवं अनुभव (Managerial Ability and Experience) यदि निर्माता आवश्यक प्रबन्धकीय योग्यता एवं अनुभव की कमी है तो उसको मध्यस्थों पर अधिक निर्भर रहना नये निर्माता साधारणतया प्रारम्भिक अवस्था में मध्यस्थों पर निर्भर रहते हैं।
  2. ख्याति (Goodwill)—वे निर्माता जिनकी ख्याति अच्छी होती है अपनी इच्छा के अनुसार जाहिकाओं का चयन कर सकते हैं क्योंकि ऐसे निर्माताओं की वस्तुओं को प्रत्येक मध्यस्थ बेचना चाहता सके विपरीत कम ख्याति वाला निर्माता मध्यस्थों की ख्याति पर निर्भर रहता है।
  3. माध्यम को नियन्त्रित करने की इच्छा (Desire to Control the Channel) यदि निर्माता वितरण माध्यम को नियन्त्रित करने की इच्छा रखता है तो उसे उपभोक्ता से सीधा सम्बन्ध स्थापित | करना होगा। इसके लिये स्वयं की दुकानें खोली जायेंगी जिससे कि मूल्य व वितरण पर नियन्त्रण किया जा सके।
  4. निर्माता संस्था का आकार (Size of the Manufacturer Concern)-जिन निर्माता संस्थाओं का आकार बहुत बड़ा होता है उनके आर्थिक साधन, ख्याति, प्रबन्धकीय योग्यता आदि साधन भी अच्छे होते हैं। अत: ऐसी संस्थाओं के द्वारा छोटा वितरण-माध्यम अपनाया जाता है। 
  5. मध्यस्थ सम्बन्धी तत्त्व (Middlemen Factors)
  6. मध्यस्थों द्वारा प्रदान की जाने वाली सेवायें (Services provided by Middlemen)–निर्माता को ऐसे मध्यस्थों का चयन करना चाहिए जो कि उन सेवाओं को देने के लिए तैयार हों जिन्हें निर्माता स्वयं प्रदान करने की स्थिते में न हो।
  7. निर्माता की नीतियों के प्रति मध्यस्थों का दृष्टिकोण (Attitude of Middlemen towards manufacturer’s policies)-निर्माता की नीतियों के प्रति मध्यस्थों का दृष्टिकोण भी वितरण वाहिका के चुनाव को प्रभावित करता है। उदाहरण के लिए, कुछ मध्यस्थ अपनी इच्छानुसार वस्तु की कीमत निर्धारित करना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में मध्यस्थ उन निर्माताओं का माल अपने यहाँ नहीं रखना चाहते जो पुनः विक्रय कीमत अनुसरण नीति का प्रयोग करते हैं।
  8. बिक्री की सम्भावनाएँ (Sales possibilities)-जिस वितरण वाहिका से बिक्री बढ़ने की सम्भावना सबसे अधिक होती है, उस साधन को ही चुनना चाहिए। परन्तु इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वितरण वाहिका महँगी न हो जाये और मध्यस्थों पर निर्माता का आवश्यक नियन्त्रण बना रहे।
  9. लागत (Cost)–वितरण वाहिका के जिन माध्यमों से वितरण लागत कम आती है, उनका ही चुनाव किया जाना चाहिए, परन्तु इसके साथ-साथ मध्यस्थों द्वारा प्रदान की जाने वाली सेवाओं व सुविधाओं को भी ध्यान रखना चाहिए।
  10. नीति-अनुसरण (Adoptation of Policies)-मध्यस्थों की नियुक्ति में उत्पादक को यह भी पान रखना चाहिए कि मध्यस्थ उनकी नीतियों में विश्वास रखता है अथवा नहीं। 
  11. वातावरण सम्बन्धी तत्व (Environmental Factors)

वितरण स्रोतों का चुनाव करते समय बाह्य तत्वों, जैसे-आर्थिक, सामाजिक एवं वैधानिक आदि ” का भी ध्यान में रखना चाहिए। उदाहरण के लिये, मन्दी के समय में ऐसे वितरण स्रोतों को ना चाहिए जिनके द्वारा न्यूनतम कीमत पर अन्तिम उपभोक्ताओं तक वस्तु पहुँचायी जा सके। था के प्रति समाज का क्या दृष्टिकोण है यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए। कभी-कभी वितरण ” के चयन को कानूनी प्रतिबन्ध भी प्रभावित करते हैं, जैसे—नियन्त्रित वस्तुएँ, शराब आदि के वितरण स्त्रोंतों का चुनाव सरकारी नीति के अनुकूल ही किया जाता है। 

  1. सरकारी नीतियाँ (Government Policies) 

वितरण वाहिका का चयन करते समय सरकारी नीति को भी ध्यान में रखना चाहिए। उदाहरण के लिए हमारे देश में दवाइयों को बेचने वाले मध्यस्थों को सरकार से लाइसेंस लेना अनिवार्य है। अत: दवाइयों के निर्माताओं को वितरण वाहिका का चुनाव करते समय इस बात को ध्यान में रखना चाहिए ” लाइसेंसधारी विक्रेताओं के माध्यम से ही हो अन्यथा कम्पनी तथा विक्रेता के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही की जा सकती है। इसी प्रकार शराब भी लाइसेंसधारी ठेकेदार मध्यस्थों के माध्यम से जा सकती है।

वितरण प्रणालियाँ एवं मध्यस्थों के प्रकार (Distribution Systems and Types of Middleman)  वितरण की शायद ही अन्य कोई समस्या इतनी महत्वपूर्ण हो जितनी कि वितरण प्रणालियों पद्धतियों के निर्धारण की। वितरण प्रणालियों में यह निर्धारित किया जाता है कि उत्पादित वस्तार किन-किन प्रणालियों से अन्तिम उपभोक्ता तक पहुँचेगी ? इसके प्रत्युत्तर में वितरण प्रणालियाँ निम्नलिखित प्रकार की हो सकती हैं – I.प्रत्यक्ष वितरण प्रणालियाँ, 

  1. अप्रत्यक्ष वितरण प्रणालियाँ।

प्रत्येक वितरण प्रणाली एवं इनमें संलग्न मध्यस्थों का विवेचन इस प्रकार है-

  1. प्रत्यक्ष वितरण प्रणालियाँ (Direct Distribution Systems)

जब उत्पादक अपनी वस्तुओं का वितरण स्वयं के संगठन एवं साधनों के द्वारा करता है तो उसे प्रत्यक्ष वितरण प्रणाली कहते हैं। इस प्रणाली में उत्पादक स्वयं वस्तुएँ उत्पादित करता है एवं वितरण भी करता है। इसके लिए वह स्वयं की दुकानें खोलकर उनमें वस्तुएँ बेचता है अथवा स्वयं के विक्रेता रखता है जो घर-घर जाकर उसकी वस्तुओं का विक्रय करते हैं। प्रत्यक्ष वितरण प्रणालियों के मुख्य साधन निम्नलिखित हैं

  1. उत्पादक के फुटकर विक्रय भण्डार (Own Sales Depots), 
  2. डाक द्वारा व्यापार (DirectMailOrder), 
  3. टेलीफोन एवं मोबाइल विक्रय (Telephone and MobileSelling), 
  4. घर-घर विक्रय (DoortoDoor Selling), 
  5. विक्रय मशीन (Vending Machines), 
  6. विशेषाधिकार दुकानें (Franchise Shops), 
  7. बहु-विक्रयशालाएँ (Multiple Shops)।

प्रत्यक्ष वितरण प्रणाली में उत्पादक को उपभोक्ताओं की रूचि की जानकारी रहती है, वस्तुओं में मिलावट की सम्भावना नहीं रहती है, उपभोक्ताओं को उचित मूल्य पर वस्तुएँ उपलब्ध हो जाती हैं, उत्पादन विक्रय के अनुसार होता है, सेवाओं की उचित व्यवस्था रहती है, निर्धारित मूल्य पर वस्तु प्राप्त हो जाती है तथा उत्पादक द्वारा मूल्य नियन्त्रण करना सहज हो जाता है। इस प्रणाली में कई लाभ मिलने के बावजूद भी कुछ कठिनाइयाँ (हानियाँ) अवश्य रहती हैं, जैसे-उत्पादन कार्य में अकुशलता तथा गिरावट आने की सम्भावना, संगठन के उत्तरदायित्व में वृद्धि, वितरण व्ययों में वृद्धि, सीमित विक्रय, कार्यों में समन्वय की समस्या एवं वृहत् उत्पादन एवं विक्रय संगठन को नियन्त्रित करना आदि। 

  1. अप्रत्यक्ष वितरण प्रणालियाँ (Indirect Distribution System)

जब उत्पादक द्वारा वस्तुओं का वितरण मध्यस्थों के माध्यम से किया जाता है तो वितरण की यह अप्रत्यक्ष प्रणाली कहलाती है। इसमें सम्मिलित मध्यस्थ दो प्रकार के होते हैं – (A)क्रियात्मक मध्यस्थ, एवं  (B)व्यापारिक मध्यस्था ।

(A) क्रियात्मक मध्यस्थ (Functional Middlemen)-ऐसे मध्यस्थ जो क्रेता-विक्रेता के मध्य सम्बन्ध स्थापित करते हैं या उनकी ओर से व्यापारिक कार्य करते हैं, क्रियात्मक मध्यस्थ कहलाते है। इन्हें ‘व्यापारिक एजेन्ट’ (Mercantile agent) भी कहते हैं क्योंकि ये न तो वस्तुएँ अपने अधिकार म लेते हैं और न ही मूल्य परिवर्तन की जोखिम उठाते हैं, बल्कि केवल सौदा तय कराते हैं एवं उसक बदले कमीशन प्राप्त करते हैं। ये व्यक्ति अपने प्रधान या नियोक्ता की ओर से कार्य करते हैं। क्रियात्मक मध्यस्थ या व्यापारिक एजेन्टों के दो प्रकार होते हैं-सामान्य एवं विशिष्ट।

(B) व्यापारिक मध्यस्थ (Merchant Middlemen)-व्यापारिक मध्यस्थ का अर्थ उस मध्य से होता है जो उत्पादक से उपभोक्ता तक माल पहुँचाने में, अपने ही नाम से माल का क्रयकरते हैं, यह मूल्य परिवर्तन के फलस्वरूप होने वाली हानि सहन करता है अथवा लाभ प्राप्त कर तथा अपना पारिश्रमिक प्राप्त करने हेतु मूल्य बढ़ाता है। इन्हें अग्रांकित रेखा चित्र द्वारा प्रदर्शित । किया जा सकता है-

फुटकर व्यापार का आशय एवं परिभाषा

(Meaning and Definition of Retailing) 

फुटकर व्यापारी वह व्यापारी है जो निर्माता या थोक व्यापारियों से थोड़ी-थोड़ी मात्रा में माल क्रय करके उपभोक्ताओं को उनकी आवश्यकता या माँग के अनुसार विक्रय करते हैं। फुटकर व्यापारी ऐसे मध्यस्थ हैं जो कि निर्माता या थोक व्यापारी एवं उपभोक्ताओं को अपने बहुमूल्य सुझाव एवं सेवायें प्रदान करते हैं जिसके आधार पर निर्माता, उपभोक्ताओं की इच्छानुसार वस्तु का निर्माण करके व्यावसायिक एवं प्रतिस्पर्धा के युग में सफलता प्राप्त करते हैं। फुटकर व्यापार को कुछ विद्वानों ने निम्न प्रकार परिभाषित किया है –

विलियम जे० स्टेण्टन के अनुसार, “एक फुटकर व्यापारी या फुटकर भण्डार एक ऐसा व्यावसायिक उपक्रम है जो वैयक्तिक गैर व्यावसायिक प्रयोग के लिए वस्तुएँ एवं सेवायें अन्तिम उपभोक्ता को बेचने से प्रत्यक्ष रूप से सम्बन्धित है।

”  अमेरिकन मार्केटिंग एसोसियेशन के अनुसार, “फुटकर व्यापारी एक ऐसा व्यवसायी है या मा-कभी एजेण्ट होता है, जिसका मुख्य व्यवसाय अन्तिम उपभोक्ताओं को प्रत्यक्ष रूप से विक्रय करना हैं।

कोटलर के अनुसार, “फुटकर व्यापारी या फुटकर स्टोर कोई ऐसा व्यावसायिक उपक्रम है, जसका विक्रय मूलत: फुटकर व्यापार से होता है। बुएल के अनुसार, “फुटकर मध्यस्थ वह व्यावसायिक इकाई है, जो उपभोक्ता को माल बेचता है।

क्लार्क एवं क्लार्क के अनुसार, “फुटकर व्यापार में अन्तिम उपभोक्ताओं को किए जाने वाले मा प्रकार के विक्रय सम्मिलित हैं।”

विशेषताएँ (Characteristics) 

फुटकर व्यापारी की प्रमुख विशेषताएँ निम्नानुसार हैं-

  1. यह प्राय: छोटे पैमाने पर व्यापार करता है।
  1. यह विभिन्न प्रकार की वस्तुओं की विभिन्न किस्मों में व्यापार करता है। 
  2. यह दुकान की सजावट पर विशेष ध्यान देता है। 
  3. यह प्राय: माल उधार ही क्रय करता है। 
  4. यह माल प्राय: थोक व्यापारियों से ही खरीदता है। 
  5. यह ग्राहकों को उधार एवं नगद दोनों प्रकार से माल का विक्रय करता है। 
  6. यह ग्राहकों से व्यक्तिगत सम्पर्क बनाये रखता है। 
  7. यह सामान्यतः अन्तिम उपभोक्ताओं को ही माल का विक्रय करता है। 9. इसे कम पूँजी से प्रारम्भ किया जा सकता है।
  8. फुटकर व्यापारी, थोक व्यापारी एवं उपभोक्ताओं के बीच की अन्तिम कड़ी है। 
  9. बड़े पैमाने के फुटकर व्यापारी (Large Scale Retailers)

इसके अन्तर्गत वे फुटकर विक्रेता सम्मिलित किये जाते हैं जो सामान्य फुटकर विक्रेताओं की अपेक्षा बड़े पैमाने पर माल खरीदते हैं और विशिष्ट विक्रय पद्धति द्वारा माल बेचते हैं। इसके अन्तर्गत निम्नलिखित को सम्मिलित किया जाता है-

(i) विभागीय भण्डार (Departmental Store) विभागीय भण्डार से आशय बड़े पैमाने पर फुटकर विक्रेता की दुकान से है जिसमें एक ही भवन के अन्तर्गत कई विभाग होते हैं और प्रत्येक विभाग एक विशेष प्रकार की वस्तु का ही विक्रय करता है। इन विभागों का नियन्त्रण एक ही व्यक्ति अथवा संस्था के हाथ में होता है। इन विभागों में विभिन्न प्रकार की वस्तुओं (सुई से लेकर हवाई जहाज तक) का विक्रय होता है। केन्द्रित विक्रय के साथ अकेन्द्रित क्रय विभागीय भण्डार का प्रमुख लक्षण है।

कण्डिफ एवं स्टिल के अनुसार, “विभागीय भण्डार बड़ी फुटकर व्यापार करने वाली संस्था है जो विभिन्न प्रकार के विशिष्ट एवं कीमती माल का विक्रय करती है तथा जो संवर्द्धन सेवा तथा वितरण के उद्देश्य से विभिन्न विभागों में संगठित की जाती है।” इसके अतिरिक्त इन विभागों में ग्राहकों के लिए आमोद-प्रमोद के साधन भी उपलब्ध होते हैं, जैसे-जलपानगृह, हेयर कटिंग सैलून, वाचनालय, विश्राम-घर, पार्किंग, बच्चों के खेल-कूद, शौचालय, मनोरंजन आदि।

विभागीय भण्डार के लाभ (Advantages of Departmental Stores)- विभागीय भण्डार के लाभों को दो भागों में बाँटा जा सकता है- (अ) व्यवसायियों को लाभ, (ब) उपभोक्ताओं को लाभ। 

(अ) व्यवसायियों को लाभ

  1. विभागीय भण्डार स्थापित करने से व्यवसायियों को माल सस्ते मूल्य पर उपलब्ध हो जाता है। 
  2. विभागीय भण्डार में बड़ी मात्रा में विक्रय के कारण प्रत्येक विभाग में विशिष्टीकरण सरल हो जाता है। 
  3. विभागीय भण्डारों की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होती है। एक विभाग के घाटे पर चलने पर भी संस्था की आर्थिक स्थिति पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है। 
  4. विभागीय भण्डार में सभी विभागों का विज्ञापन एक साथ किया जाता है। इसमें विभिन्न विज्ञापन माध्यमों का प्रयोग करने पर भी विशेष खर्च नहीं पड़ता है। 
  5. विभागीय भण्डारों में आधुनिक विक्रय मशीनों तथा अन्य वैज्ञानिक तकनीकों का उपयोग किया जा सकता है। 

(ब) उपभोक्ताओं तथा समाज को लाभ

  1. विभागीय भण्डार में विभिन्न वस्तुओं की विभिन्न किस्में उपलब्ध होती हैं। अत: ग्राहकों को । चयन की सुविधा मिल जाती है। 
  2. विभागीय भण्डार शहर के मध्य स्थित होते हैं, अत: शहर के प्रत्येक भाग से ग्राहक आसानी से पहुंच सकते हैं। 
  3. विशिष्टीकरण की वजह से ग्राहकों को अच्छा माल उपलब्ध हो जाता है। 
  4. विभागीय भण्डार विशिष्ट ग्राहकों को उधार क्रय की सुविधाएँ प्रदान करते हैं। 
  5. विभागीय भण्डार में प्रत्येक विभाग पर वस्तुएँ प्राय: नई व ताजा ही उपलब्ध हो जाती हैं। 
  6. समाज के लोगों को अपना भौतिक जीवन स्तर ऊँचा उठाने का अवसर मिलता है।

विभागीय भण्डारों के दोष (Dicidvantages of Departmental Stores)-विभागीय भण्डार के अनेक लाभ हैं तो दूसरी ओर इनमें कुछ दोष भी हैं। (अ) व्यवसायियों की दृष्टि से दोष-

  1. अत्यधिक परिचालन व्यय 
  2. निरीक्षण में कठिनाई 
  3. कुशल कर्मचारियों की प्राप्ति में कठिनाई 
  4. व्यक्तिगत सम्पर्क का अभाव 
  5. अत्याधिक पूँजी की आवश्यकता
  6. अनार्थिक विक्रय विभागों का पाया जाना 
  7. कर्मचारियों में पर्याप्त रुचि का अभाव। 

(ब) ग्राहकों की दृष्टि से दोष-

  1. तुलनात्मक अधिक कीमतें 
  2. साख-सुविधाओं का अभाव 
  3. अपनत्व की भावना का अभाव 
  4. निम्न एवं मध्यम आय वर्ग के लिये अनुपयुक्त।

(ii) बहु-विक्रयशालाएँ अथवा श्रृंखलाबद्ध भण्डार अथवा बहु-संख्यक दुकानें (Chain-store Multiple Shops)—बहु-विक्रयशालाएँ अथवा श्रृंखलाबद्ध दुकानें उस प्रकार की फुटकर व्यापार पति को कहते हैं जिसमें एक ही स्वामित्व में अनेक फुटकर व्यापार की दुकानें एक ही शहर के विभिन्न स्थानों पर अथवा विभिन्न शहरों में एक ही प्रकार की वस्तुओं की दुकानें रहती हैं अर्थात् उत्पादक या किसी वस्तु का थोक विक्रेता अपनी वस्तुओं की बिक्री बढ़ाने के लिए अनेक स्थानों पर अपनी व्यवस्था के अन्तर्गत दुकानें खोल देता है जिससे उपभोक्ताओं को वह अपने घरों के अत्यन्त निकट प्राप्त हो सकें। कंडिफ एवं स्टिल के अनुसार, “श्रृंखला भण्डार पद्धति फुटकर भण्डारों का समूह है, जो मुख्यतः समान प्रकार की वस्तुओं में व्यापार करते हैं तथा जिनका केन्द्रीय स्वामित्व तथा कुछ अंशों में संचालन पर केन्द्रीय नियन्त्रण होता है। इस प्रकार इन दुकानों पर केवल वही वस्तुएँ बिकती हैं जो इनका सूत्रधार उत्पादक बनाता है। ग्राहक को आकर्षित करने के लिए अन्य वस्तुएँ भी रखी जाती हैं, जैसे-बाटा शू कम्पनी, देहली क्लोथ मिल्स स्टोर।” अकेन्द्रित विक्रय के साथ केन्द्रित क्रय इनका प्रमुख गुण है। जेम्स स्टीफेन्सन के शब्दों में, “एक बहुसंख्यक दुकान में समान प्रकार की अनेक दुकानें होती हैं, जो एक ही व्यावसायिक फर्म के स्वामित्व में होती हैं।

नाइस्ट्रोम के अनुसार, “श्रृंखला भण्डार दो या दो से अधिक फुटकर भण्डारों का बना संगठन है, जिसका स्वामित्व एवं प्रबन्ध एवं प्रबन्धक द्वारा होता है।” बहुसंख्यक दुकानों की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-

  1. बहुसंख्यक दुकानें एक ही स्वामित्व के अन्तर्गत एक ही शहर में विभिन्न स्थानों पर अथवा विभिन्न शहरों में स्थित होती हैं। 
  2. सभी दुकानों पर विक्रय किया जाने वाला माल एक-सा होता है। 
  3. ये दुकानें एक स्वतन्त्र इकाई के रूप में कार्य करती है, लेकिन स्वामित्व, प्रबन्ध एवं नियन्त्रणका समस्त कार्य केन्द्रित होता है। 
  4. बहुसंख्यक दुकानों पर विक्रय किया जाने वाला माल प्रमापित एवं एक रूप ही होता है। इनकी सजावट, बनावट, यहाँ तक कि अलमारियों एवं इनकी व्यवस्था का तरीका भी एक-सा होता है।
  1. इन दुकानों पर सामान्यत: उसी वस्तु का व्यापार किया जाता है जो उपभोक्ताओं के दैनिक उपयोग की होती है। 
  2. बहुसंख्यक दकानें अधिकतर अपना माल नकद ही बेचती हैं, उधार नहीं। – 
  3. इस प्रकार की सभी दुकानों पर वस्तु समान मूल्य पर बेची जाती है।

श्रृंखलाबद्ध भण्डार पद्धति के लाभ- (Advantages of Chain Store System)-

  1. व्यवसायियों की दृष्टि से लाभ-
  2. श्रृंखला भण्डार में अनेक विशेषज्ञों की नियुक्ति की जा सकती है तथा साधनों का पूरा उपयोग किया जा सकता है। 
  3. खलाबद्ध दुकानों की स्थापना के कारण कई अनावश्यक मध्यस्थों का अन्त हो जाता है।
  1. केन्द्रीय कार्यालय के गोदाम में स्टाक के संग्रह की अच्छी विधियों एवं साधनों का प्रयोग किया जा सकता है। 
  2. श्रृंखला भण्डार पद्धति में प्रत्येक दुकान पर अधिक स्टॉक रखने की आवश्यकता पड़ती। 
  3. माल का विक्रय अधिक होने के कारण माल का क्रय भारी मात्रा में करना पड़ता है जिस क्रय सम्बन्धी अनेक बचतें प्राप्त होती हैं। 
  4. विशिष्टीकरण, श्रम विभाजन, सामूहिक विज्ञापन, भारी मात्रा में क्रय, उत्पादन इत्यादि कागत से श्रृंखला भण्डारों की औसत संचालन लागत कम हो जाती है। 
  5. भण्डार काफी आकर्षक होते हैं। अत: ग्राहक इनसे आकर्षित होकर इन भण्डारों पर चले – आते हैं। 
  6. बाजार अनुसंधान या तकनीकी दृष्टि से महत्वपूर्ण कोई भी अनुसंधान करना ऐसे भण्डारों के लिए कठिन नहीं होता है। 
  7. केन्द्रीय कार्यालय में वैज्ञानिक एवं आधुनिक साधनों का प्रयोग करना सरल होता है। 

(ii) ग्राहकों की दृष्टि से लाभ-

  1. श्रृंखला भण्डारों में ग्राहकों को माल प्राय: कम कीमत पर उपलब्ध होता है। 2. श्रृंखला भण्डारों पर प्राप्त माल प्रायः प्रमापित होता है। 
  2. श्रृंखला भण्डार ग्राहकों की सुविधानुसार स्थापित किया जा सकता है। 
  3. ग्राहकों में इन दुकानों के प्रति दृढ़ विश्वास हो जाता है।

श्रृंखलाबद्ध भण्डार प्रणाली के दोष या सीमाएँ (Disadvantages of Chain Store System)—

(1) व्यवसायियों की दृष्टि से दोष-

  1. श्रृंखला भण्डारों में बिकने वाली वस्तुओं का प्रमापित होना आवश्यक है। अतः प्रमापीकरण पर ही पूर्ण रूप से निर्भर हो जाना पड़ता है। 
  2. कर्मचारियों का ग्राहकों से व्यक्तिगत सम्पर्क नहीं हो पाता, वास्तव में उनका सम्बन्ध एक औपचारिक सम्बन्ध होता है। 
  3. श्रृंखला भण्डारों को अन्य व्यावसायिक संस्थानों से प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता है। 
  4. केन्द्रीय कार्यालय को निरीक्षण एवं नियंत्रण की नई समस्या का सामना करना पड़ता है। 
  5. श्रृंखला भण्डारों के निर्माण एवं विकास में भारी पूँजी की आवश्यकता होती है। 

(ii) ग्राहकों की दृष्टि से दोष

  1. ग्राहकों को विभिन्न निर्माताओं द्वारा निर्मित माल में से चुनाव का अवसर नहीं मिल पाता है। 
  2. इसमें साख-सुविधाओं का प्रायः अभाव ही होता है। 
  3. ये ग्राहकों को उनके घर तक माल पहुँचाने की सुविधा भी नहीं देते हैं।
  4. डाक द्वारा व्यापार (Mail order Business)-इसमें वस्तुओं का विक्रय माध्यम विक्रेता न होकर डाकघर होता है। सामान्य अर्थों में विक्रेता द्वारा बिना ग्राहक को देखे विज्ञापन और डाकघर के माध्यम से किये जाने वाले व्यापार को डाक द्वारा व्यापार के नाम से जाना जाता है। विक्रय की इस प्रणाली में ग्राहक द्वारा किसी माल को मॅगाने का आदेश डाक द्वारा दिया जाता है और विक्रेता माल को डाक द्वारा ही क्रेता के पास भेज देता है। इस प्रकार इसमें क्रय-विक्रय होने में विज्ञापन का विशष महत्व है। प्रत्येक विक्रेता समाचार-पत्रों, सूची-पत्रों एवं विज्ञापन के अन्य साधनों, भुगतान आदि सब कछ डाक द्वारा ही किया जाता है। क्रेता अपनी आवश्यकतानुसार विक्रेता के पास पत्र द्वारा आदेश देता है। विक्रेता सामान को ठीक ढंग से बाँधकर डाकखाने द्वारा वी०पी०पी० प्रणाली से भेज दता जब वस्तु ग्राहक के पास पहुंच जाती है तो उस पर लिखे हुए मूल्य को अनिवार्य रूप से चुकार पडता है। यदि वह (क्रेता) उस वस्तु को स्वीकार करने से मना करता है तो डाकिया उसको डाकखा में जमा कर देता है और बाद में वह वस्तु विक्रेता के पास भेज दी जाती है। इस प्रणाली का मुख्य उद्देश्य मध्यस्थों की कड़ी को समाप्त करना है।

क्लार्क एवं क्लार्क के अनुसार, “डाक आदेश गृह एक फुटकर संस्थान है जो डाक से आद” प्राप्त करता है तथा डाक, पार्सल आदि द्वारा माल की सुपुर्दगी देता है।

III. सुपर बाजार (Super Bazaar)-‘सुपर बाजार’ शब्द अंग्रेजी भाषा के दो शब्दों के योग बना है-‘सुपर’ (Super) + ‘बाजार’ (Bazaar)। व्यावसायिक तथा वित्त शब्दकोष के अनुसार, “सुपर बाजार एक वहत फुटकर भण्डार है जो विभिन्न प्रकार के उपभोक्ता माल का विशेष रूप से “ह आवश्यकताओं की छोटी वस्तुओं का विक्रय करता है।

सुपर बाजारों के लाभ (Advantages of Super Market)-

(i) ग्राहकों को लाभ-ग्राहकों को सुपर बाजार से निम्नलिखित लाभ हो सकते हैं-

  1. ग्राहकों को सभी घरेलू आवश्यकता की वस्तुएँ एक ही स्थान पर उपलब्ध हो जाती हैं। 
  2. सुपरबाजार में ग्राहकों को कम मूल्य देना पड़ता है। 

3 ग्राहक अपनी स्वेच्छा से स्वतन्त्रतापूर्वक वस्तुओं का चयन कर सकते हैं। 

  1. सुपर बाजार में वस्तुओं का एक ही मूल्य होता है। 
  2. सपर बाजार से क्रय करने पर समय की बचत होती है। 

(ii) व्यवसायियों को लाभ (Advantages to Businessmen)

  1. सुपर बाजार की संचालन लागत अन्य प्रकार के भण्डारों की तुलना में बहुत कम रहती है। 
  2. कम संचालन लागत के कारण वस्तुओं का मूल्य भी प्रायः कम होता है। 
  3. प्रति इकाई कम लाभ द्वारा अधिक विक्रय करके कुल लाभ को अधिक किया जा सकता है। 
  4. सुपर बाजार में कई वस्तुओं का एक साथ विक्रय सम्भव है। 
  5. सुपर बाजार में प्राय: नगद व्यापार ही होता है।

सुपर बाजार की हानियाँ (Disadvantages of Super Market)-सुपर बाजार के जहाँ अनेक लाभ हैं वहीं कुछ हानियाँ भी हैं जिन्हें सुविधा की दृष्टि से निम्नलिखित दो भागों में बाँटा जा सकता

(i) ग्राहकों को हानियाँ (Disadvaitages to Customers)

  1. सुपर बाजार प्राय: उपभोक्ताओं के घर से दूर स्थित होते हैं। 
  2. सुपर बाजार में ग्राहकों को क्रय में सहायता करने के लिये विक्रयकर्ता उपलब्ध नहीं होते। 
  3. इन बाजारों में ग्राहकों को प्रायः साख-सुविधाओं का अभाव होता है। 
  4. सुपर बाजार सभी प्रकार के ग्राहकों को सन्तुष्ट करने में असमर्थ रहते हैं। 

(ii) व्यवसायियों को हानियाँ(Disadvantages to Businessmen) 

  1. व्यवसायी को सुपर बाजार द्वारा फुटकर व्यापार करने में भारी विनियोग करना पड़ता है। 
  2. सुपर बाजार के लिये उपयुक्त स्थान मिलना कठिन होता है। 
  3. सुपर बाजार में अधिक मात्रा में वस्तुयें रखने से वस्तुओं के खराब होने का भय बना रहता है। 
  4. सुपर बाजार में ग्राहकों को अतिरिक्त क्रय के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता। 
  5. सुपर बाजार में तकनीकी एवं भारी वस्तुओं का विक्रय नहीं किया जा सकता।
  6. किराया-क्रय पद्धति (Hire-purchase System) क्रय-विक्रय पद्धति मध्यम वर्ग के लिए मूल्यवान वस्तुएँ खरीदने की सुविधा तथा साख सुविधा देने का उत्तम साधन है। इसमें क्रेता तथा विक्रेता दानों को ही लाभ होता है। इस पद्धति में क्रेता एवं विक्रेता के बीच किसी वस्तु का विक्रय सम्बन्धी अनुबन्ध होता है। वस्तु का क्रय करते समय क्रेता केवल मूल्य का थोड़ा-सा भाग देता है और शेष सामयिक (अर्थात् मासिक, तिमाही, छमाही अथवा वार्षिक) किश्तों में चुकाया जाता है। इस प्रणाली के अनुसार ज्यों ही पहली किश्त चुकाई जाती है, वस्तु क्रेता को सौंप दी जाती है किन्तु उसका मामत्व तब तक विक्रेता के पास रहता है जब तक कि अन्तिम किश्त न चुकाई जाय। जैसे ही क्रेता न्तम किश्त का भुगतान कर देता है, वह तुरन्त ही उस वस्तु का स्वामी बन जाता है। यदि क्रेता शेष रता को चुकाने में असमर्थ रहता है तो उसको वस्तु वापस कर देनी पड़ती है और जो कुछ रुपया ला का पहले प्राप्त हो चुका है, वह वस्तु के किराये के रूप में काट लिया जाता है। 

V. किस्त/प्रभाग-भगतान पद्धति (Instalment Payment System)-प्रभाग भुगतान पद्धति किराया – क्रय पद्धति का ही संशोधित रूप है। इसके अनुसार ग्राहक माल की प्रथम किश्त देने पर ही निका स्वामित्व प्राप्त कर लेता है और फिर उसको वापस करने का प्रश्न नहीं रहता। यदि ग्राहक किसी कारणवश प्रभागों का भगतान नहीं कर पाता है तो वह उस माल को बेचकर प्रभाग की राशि का भुगतान कर सकता है। यह छूट क्रय-विक्रय पद्धति में नहीं मिलती। जे० आर० “प के अनुसार, “प्रभाग भुगतान पद्धति के अन्तर्गत माल क्रय किये जाने पर क्रेता की सम्पत्ति बन जाती है, जबकि उसे (क्रेता को) माल की सुपुर्दगी मिलती है।”

  1. उपभोक्ता सहकारी भण्डार (Consumer’s Co-operative Stores)- इस पद्धति । अन्तर्गत उपभोक्ता, सहकारी समितियों में संगठित होकर थोक व्यापारियों अथवा फुटकर विक्रेता अपने उपभोग की वस्तएँ न खरीदकर सीधे उत्पादकों से ही खरीदते हैं। इस पद्धति का मूल पल मध्यस्थों का अन्त करके उपभोक्ताओं को अच्छी एवं सस्ते दामों पर वस्तुएं उपलब्ध कराना है। प्रकार इनका निर्माण तथा संचालन उपभोक्ताओं के द्वारा ही होता है। प्रत्येक सदस्य एक वोट देने अधिकारी होता है, चाहे उसने कितने ही अंश क्यों न खरीदे हों। सदस्यता के लिए कम से कम अंश खरीदना आवश्यक है। जो कछ लाभ होता है, वह सदस्यों के बीच बाँट दिया जाता है। इस प्रकार सदस्य उपभोक्ता अपनी खरीदी हुई वस्तुओं पर स्वयं लाभ कमाते हैं। भण्डार के हिसाब-किताब योग्य अंकेक्षक के द्वारा अंकेक्षण कराना आवश्’

थोक व्यापारी का आशय एवं परिभाषा (Meaning and Definition of Wholesalers)  थोक व्यापारी वितरण वाहिका की एक महत्वपूर्ण कड़ी होती है, क्योंकि वे निर्माता एवं फटका व्यापारी के बीच मध्यस्थ का कार्य करते हैं। थोक व्यापारी से आशय ऐसे व्यापारी से है जो उत्पादकों से भारी मात्रा में माल क्रय करके फुटकर व्यापारियों को उनकी आवश्यकता के अनुरूप थोड़ी-थोड़ी मात्रा में विक्रय करता रहता है। थोक व्यापारी उत्पादक एवं फुटकर व्यापारी के बीच की कडी है। संग्रहकर्ता, वितरक, क्रियात्मक मध्यस्थ इसी श्रेणी में आते हैं।

थोक व्यापारी की विशेषताएँ (Characteristics of Wholesalers)  थोक व्यापारी की विशेषतायें निम्नलिखित हैं- (i) थोक व्यापारी उत्पादकों या निर्माताओं से बड़ी मात्रा में माल खरीदते हैं।  (ii) थोक व्यापारी फुटकर विक्रेताओं या औद्योगिक संस्थाओं को वस्तुएँ बेचते हैं।  (iii) थोक व्यापारी प्राय: बहुत-सी वस्तुओं में व्यापार नहीं करते हैं अपितु केवल कुछ ही वस्तुओं में व्यापार करते हैं। (iv) थोक व्यापारियों के आर्थिक साधन अच्छे होते हैं। ये प्राय: उत्पादकों से माल नकद खरीदते हैं और फुटकर व्यापारियों को उधार माल बेचते हैं।  (v) थोक व्यापारियों का लाभ प्रतिशत बहुत कम होता है।  (vi) थोक व्यापारी वस्तुओं के संग्रह के साथ-साथ उनका श्रेणीयन भी करते हैं।  (vii) थोक व्यापारी के लिए दुकान की स्थिति और सजावट का विशेष महत्व नहीं होता।  (vii) थोक व्यापारी बाजार में माँग और पूर्ति में उचित सन्तुलन बनाये रखते हैं।  (ix) थोक व्यापारी उत्पादक और फुटकर व्यापारियों के बीच महत्वपूर्ण कड़ी है।

थोक विक्रेता के कार्य (Functions of Wholesaler)  व्यापारिक क्षेत्र में थोक विक्रेता के मुख्य रूप से निम्नलिखित कार्य हैं

  1. वस्तुओं का केन्द्रीकरण (Concentration of Goods)-भिन्न-भिन्न उत्पादकों से विशिष्ट वस्तुओं को मॅगाकर उनका केन्द्रीकरण करना।
  2. वस्तुओं का विकेन्द्रीकरण (Dispersion of Goods) केन्द्रित की गई वस्तुओं की भिन्न-भिन्न फुटकर व्यापारियों को उनकी आवश्यकता के अनुसार थोड़ी-थोड़ी मात्रा में बेचना।
  3. अर्थ-प्रबन्ध (Financing)-उत्पादकों को अग्रिम धनराशि भेजकर तथा फुटकर व्यापारियों का उधार माल बेचकर आर्थिक सहायता प्रदान करना।

4.श्रेणीयन (Grading) वस्तुओं को भिन्न-भिन्न वर्गों में बाँटना। 

5.संग्रह करना (Storing) बाज़ार की मांग के अनुसार वस्तुओं को पहले से ही संग्रह करना।

  1. जोखिम उठाना (Risk Taking) सोध उत्पादक अथवा निर्माता से भारी मात्रा में माल क्रय करके जोखिम उठाने के कार्य करना।
  2. परिवहन (Transport)-वस्तुओं को निर्माताओं से प्राप्त करके विक्रेताओं तक पहुंचान सुविधा प्रदान करना।

8. मूल्यों के उतार-चढ़ाव से सुरक्षा (Safety against Fluctuations in the Price-level)-भावी उतार-चढ़ावा पर नियन्त्रण करके मूल्यों में स्थायित्व लाने का प्रयल क्योंकि इनके पास माल का भारी मात्रा में संग्रह रहता है।

  1. सूचनाएँ पहुँचाना (Providing Informations)-थोक व्यापारी रुचि, फैशन तथा अन्य ओं को उत्पादकों तथा फुटकर व्यापारियों तक पहुँचाने का कार्य भी करता है। 
  2. मूल्य निश्चित करना (Pricing)-बाजार में वस्तुओं का अन्तिम मूल्य थोक विक्रेताओं द्वारा ही निश्चित किया जाता है।

11. बाजार सर्वेक्षण (Market Survey)-थोक विक्रेता वस्तु की माँग और पूर्ति के सम्बन्ध में जानकारी एकत्रित करते हैं।


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