International Marketing B.Com 3rd Year Books Notes – Principles Of Marketing Study Material

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अन्तराष्ट्रीय का अर्थ विभिन्न देशों से है व विपणन से आशय उन मानवीय क्रियाओं और विनिमय प्रक्रियाओं के द्वारा आवश्यकताओं एवं इच्छाओं को संतुष्टि की ओर निर्देशित करती है विपणन एक देश की सीमाओं के बाहर किया जाता है। यद्यपि अन्तर्राष्ट्रीय विपणन को निर्यात विपणन की संज्ञा भी दी गई लेकिन यह निर्यात विपणन से अधिक व्यापक होता है क्योंकि अन्तर्राष्टीय में निर्यात विपणन के अतिरिक्त अन्य कई विपणन क्रियाओं को भी सम्मिलित किया जाता भौतिक वस्तुओं का विक्रय, ग्राहकों को संतुष्ट करना, सेवा उपलब्धि, विदेशी सहायकों की नियति आदि।

टपेस्ट्रावन के अनुसार, “अन्तर्राष्ट्रीय विपणन राष्ट्रीय सीमाओं के बाहर किया जाने वाला विपणन है।”

अन्तर्राष्ट्रीय विपणन की विशेषताएँ 

  1. राष्ट्रीय सीमाओं से बाहर विपणन-अन्तर्राष्ट्रीय विपणन में वस्तुओं या सेवाओं का निर्यात विदेशों में किया जाता है। यह भी हो सकता है कि एक देश का व्यापारी माल का उत्पादन दूसरे देश में करे और वहाँ से उसका निर्यात करे।
  2. बहुराष्ट्रीय प्रक्रिया-अन्तर्राष्ट्रीय विपणन में वस्तुएँ या सेवाएँ एक खास देश को नहीं बल्कि अनेक देशों को निर्यात की जाती है, अत: यह एक बहुराष्ट्रीय प्रक्रिया है। _ 
  3. विपणन का एक अंग–अन्तर्राष्ट्रीय विपणन, विपणन का एक अंग है अर्थात् विपणन में (ब राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय विपणन दोनों ही शामिल हैं। 4. वस्तुओं एवं सेवाओं का विपणन-अन्तर्राष्ट्रीय विपणन के अंतर्गत न केवल उत्पादों का बल्कि सेवाओं का भी विपणन किया जाता है।
  4. नियमन-अन्तर्राष्ट्रीय विपणन का विधिवत् नियमन एवं नियंत्रण विपनणनकर्ता के देश के कानूनों के साथ-साथ सम्बन्धित बाजार के राष्ट्रीय कानूनों के आधार पर भी किया जाता है।
  5. राष्ट्रीय विपणन की सभी गतिविधियाँ-राष्ट्रीय या स्थानीय व्यापार में होने वाली सभी गतिविधियाँ जैसे कि मूल्य निर्धारण, उत्पाद विकास व संवर्द्धन, माल वितरण का प्रबन्ध अन्तर्राष्ट्रीय विपणन में भी की जानी होती हैं। __
  6. समूचे व्यापार तन्त्र का एक अंग-अन्तर्राष्ट्रीय विपणन समूचे व्यापार तन्त्र का एक अंग होता है तथा इसमें भी माल या सेवाओं का क्रय-विक्रय होता है, हाँ यह होता देश से बाहर है।

अन्तर्राष्ट्रीय विपणन की प्रकृति 

  1. बहुराष्ट्रीय विपणन प्रबंध-अन्तर्राष्ट्रीय विपणन बहुराष्ट्रीय विपणन प्रबंध प्रयासों का योग है।
  2. नियंत्रणीय एवं अनियंत्रणीय घटक-स्वदेशी विपणन में आन्तरिक घटकों का प्रबंध करते हुए फर्म के वातावरण में विद्यमान अनियन्त्रणीय घटकों का प्रत्युत्तर देने का प्रयास किया जाता है।
  3. विशिष्ट चातुर्य-स्वदेशी विपणन के विपरीत, अन्तर्राष्ट्रीय विपणन हेतु प्रबंधक में विशिष्ट चातुर्य वांछित है।
  4. संरक्षणवादी प्रकृति-अन्तर्राष्ट्रीय विपणन की प्रकृति काफी सीमा तक संरक्षणवादी होती है। प्राय: प्रत्येक देश अपने निर्यात को बढ़ाना चाहता है तथा आयातों को कम करना चाहता है।
  5. राजनीतिक प्रवृत्ति-अन्तर्राष्ट्रीय विपणन में विभिन्न राष्ट्रों के मध्य राजनीतिक सम्बन्धों का भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
  6. प्रभतापूर्ण प्रकृति-नए एवं आधुनिक उत्पादों के उत्पादन के कारण अन्तर्राष्ट्रीय विपणन अधिकांश भाग पर विकसित देशों ने अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया है।
  7. कड़ी प्रतियोगिता -अन्तर्राष्ट्रीय विपणन कड़ी प्रतियोगी प्रकृति का होता है। अन्तराष्ट्र बाजार में विपनणनकर्ताओं को त्रि-स्तरीय प्रतियोगिता का सामना करना पड़ता है।
  1. जोखिम की अधिकता – अन्तर्राष्ट्रीय विपणन कई प्रकार के जोखिमों से घिरा होता है क्योंकि व्यापारिक लेन-देन को पूरा करने में काफी समय लगता है।
  2. साख अभिमुखी-प्रायः अधिकांश आयातक देश उन देशों से माल खरीदना पसंद करते हैं, अवधि लम्बी हो तथा ब्याज की दर कम से कम हो।
  3. विभिन्न कानून तथा मौद्रिक प्रणालियाँ-प्रत्येक देश के कानून अलग-अलग होते हैं तथा देश में अलग-अलग मौद्रिक प्रणालियाँ लागू हेती हैं।

अन्तर्राष्ट्रीय विपणन की आवश्यकता अथवा महत्व

(अ) राष्ट्र के दृष्टिकोण से लाभ

1.अतिरिक्त माल का निर्यात तथा आवश्यक माल का आयात । 

  1. श्रेष्ठ जीवन स्तर प्राप्त करना 

3.विदेशी बाजारों में बढ़ोत्तरी  4.आर्थिक प्रगति में सहायता  5.प्रतिस्पर्धा के कारण उत्पादों में सुधार 6. रोजगार के अधिक अवसर 7.आयातों का भुगतान  8.प्रौद्योगिकीय विकास 9.आपातकाल में सहायक |  10.प्राकृतिक साधनों का पूर्ण उपयोग में

(ब) निर्यात करने वाली फर्म के दृष्टिकोण से लाभ

1.बड़े पैमाने पर उत्पादन की सम्भावना 

  1. उत्पाद के अप्रचलित हो जाने से बचाव 

3.प्रोत्साहनों व सरकारी सहायता का लाभ उठाने के लिए  4.लाभों में वृद्धि 

  1. कच्चे माल की प्राप्ति
  2. उपभोक्ता सन्तुष्टि में वृद्धि 

(ग) सामाजिक दृष्टिकोण से लाभ

  1. अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग में बढ़ावा 
  2. सांस्कृतिक सम्बन्धों में सुधार 
  3. अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति व तालमेल में सहायता

अन्तर्राष्ट्रीय विपणन वातावरण का अर्थ

(Meaning of International Marketing Environment) 

विपणन वातावरण से आशय उन घटकों एवं शक्तियों से है, जो प्रत्येक विपणन फर्म के कार्य संचालन को प्रभावित करते हैं। प्रत्येक फर्म का अपना आन्तरिक विपणन वातावरण होता है, उसी प्रकार सह बाह्य वातावरण से भी प्रभावित होती है। अन्तर्राष्ट्रीय विपणन वातावरण उन सभी घटकों का योग है, जो एक व्यवसाय को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रभावित करते हैं। देशी विपणन की तुलना में अन्तर्राष्ट्रीय पणन का वातावरण भिन्नताओं एवं विविधताओं के कारण अत्यन्त चुनौतीपूर्ण होता है, क्योंकि इसमें ग्न फमें सामान्यतया विश्व के अनेक देशों में उत्पादों एवं सेवाओं का विपणन करती हैं। अन्तर्राष्ट्रीय न में वही फर्म सफल हो सकती है, जो न केवल अपने विपणन वातावरण का बारीकी से न कर, वरन् उसी के अनुरूप अपनी विपणन नीतियाँ एवं व्यूह रचनाएँ बनाये। 

  1. पारस्परिक निर्भरता-विपणन एवं वातावरण परस्पर रूप से सम्बन्धित एवं अन्त: क्रियाशील हैं।
  2. आन्तरिक एवं बाह्य वातावरण-प्रत्येक संस्था का वातावरण दो प्रकार का होता रक एवं बाह्य। संस्था का अपने आन्तरिक विपणन वातावरण पर तो नियन्त्रण होता है, किन्तु वातावरण पर उसका कोई नियन्त्रण नहीं होता है।
  3. भौगोलिक सीमा-प्रत्येक व्यवसाय के बाह्य वातावरण की एक भौगोलिक सीमा होती है।
  1. साधन व सूचनाओं का स्रोत- प्रत्येक फर्म वातावरण से अपने लिए आवश्यक संपाव जैसे-कच्चा माल, श्रम, पूँजी, तकनीक, मशीनें आदि प्राप्त करती है। वातावरण से ही समंक सूचनायें भी प्राप्त की जाती हैं।
  2. गतिशीलता-विपणन का समस्त वातावरण, गतिशील है। वातावरण के सभी घटकों में निरन परिवर्तन होते रहते हैं। अत: इन परिवर्तनों के साथ-साथ विपणन की समस्याएँ कार्य पद्धति, उद्देश्य एवं व्यूहरचनाएँ भी बदलती रहती हैं।
  3. जटिलता-व्यवसायी के लिए वातावरण का सही से अध्ययन कर पाना, बाह्य प्रभावों का उचित ढंग से मूल्यांकन कर पाना अत्यन्त कठिन होता है।
  4. अनियन्त्रित घटक-वातावरण के अनेक ऐसे घटक भी हैं जो व्यवसाय के नियन्त्रण के बाहर होते हैं, जैसे-राजकीय नीतियाँ, वैधानिक नियन्त्रण, वैज्ञानिक तकनीकें, सामाजिक दशाएँ देश का राजनीतिक ढाँचा, विदेशी सहयोग आदि। अत: व्यवसाय को सजगता पूर्वक इनके दुष्परिणामों से बचना होता है।
  5. कौशल-वातावरण के दुष्परिणामों से बचने के लिए एक व्यावसायिक उपक्रम में अनुकूलनशीलता (Adaptability) एवं अभिग्रहणशीलता (Adoptability) का गुण होना चाहिए।
  6. सीमाएँ-वातावरण व्यवसाय के कार्य करने की सीमा रेखायें, नियन्त्रणकारी घटकों, दबावों एवं प्रतिबन्धों को स्पष्ट करता है जिनके भीतर फर्म को कार्य करना होता है।

अन्तर्राष्ट्रीय विपणन वातावरण के अध्ययन की आवश्यकता एवं महत्त्व 

  1. दीर्घकालीन व्यूहरचना-वातावरण के समग्र घटकों का वर्णन करके एक फर्म अपनी दीर्घकालीन विपणन नीतियाँ, विकास की योजनाएँ एवं व्यूहरचना तैयार कर सकती है। ।

2.क्रिया-योजनाओं का निर्माण-तकनीकी प्रगति, नये सामाजिक मूल्यों, सामुदायिक समस्याओं, क्रय प्रारूपों, विनियोग संरचना एवं विभिन्न राजनीतिक धारणाओं का अध्ययन करके ही व्यवसाय की विपणन क्रिया योजनाओं का निर्माण किया जा सकता है।

  1. अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं के प्रभावों का आंकलन–प्रत्येक व्यावसायिक उपक्रम राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के साथ-साथ अप्रत्यक्ष रूप से अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं में भी जुड़ा रहता है। फर्म के स्थायित्व, लाभप्रदता एवं प्रभावी कार्यप्रणाली के लिए इन व्यापक घटनाओं के प्रभावों का विश्लेषण कर लेना आवश्यक होता है।
  2. प्रतिस्पर्धा से सुरक्षा-प्रतिद्वन्द्वियों के उत्पादों, तकनीक, लागत संरचना, बाजार-व्यूहरचना, वितरण श्रृंखलाओं व विक्रय विधियों का अध्ययन करके अपनी बिक्री की सम्भावनाओं को स्थायी रखा जा सकता है।
  3. खतरों के प्रति सतर्कता-आर्थिक नीतियों एवं तथ्यों, जैसे-आय, उपभोग स्तर, क्रय प्राथमिकता, माँग, प्रतिस्पर्धा आदि में होने वाले परिवर्तन व्यवसाय के लिए कई चुनौतियाँ खड़ी कर देते हैं। इन सब का सामना करने के लिए वातावरण का मूल्यांकन करते रहना आवश्यक होता है।
  4. नव प्रवर्तन-नये उत्पादों, नयी डिजाइनों एवं उत्पादन की नवीन तकनीकों को अपनाने के लिए नये-नये प्रौद्योगिकीय विकासों एवं वैधानिक प्रगति की जानकारी रखना आवश्यक होता है।
  5. लाभ के अवसर-व्यवसाय में लाभ के अवसरों का उपयोग वातावरण के प्रति सजग रहकर ही किया जा सकता है।

अन्तर्राष्ट्रीय विपणन वातावरण के अंग 

(Components of International Marketing Environment)

अन्तर्राष्ट्रीय विपणन वातावरण को मोटे तौर पर दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-आन्तरिक वातावरण व बाह्य वातावरण। आन्तरिक वातावरण विपणन फर्म के द्वारा नियन्त्रण या होता है। फर्म यदि चाहे तो आन्तरिक वातावरण के घटकों का प्रबन्ध एवं नियन्त्रण कर सकती है पर बाह्य वातावरण के घटकों पर व्यक्तिगत फर्म का नियन्त्रण नहीं होता है। अन्तर्राष्ट्रीय विपणन वातावरण के विभिन्न घटकों को अग्र चार्ट की सहायता से भली प्रकार समझा जा सकता है-

(A) आन्तरिक वातावरण

(Internal Environment) 

हर एक अंतर्राष्ट्रीय विपणन संस्था का स्वयं का निजी आन्तरिक वातावरण होता है। आंतरिक बतावरण के अन्तर्गत उन तत्वों को शामिल किया जाता है जिन पर कम्पनी का नियंत्रण होता है। यदि कम्पनी का प्रबन्ध चाहे तो आंतरिक वातावरण के घटकों पर प्रभावी नियमन एवं नियंत्रण स्थापित कर सकता है। इस प्रकार आन्तरिक वातावरण, प्रबन्ध योग्य एवं नियन्त्रण योग्य होता है। आन्तरिक वातावरण में इ घटकों को शामिल किया जा सकता है, उनमें से प्रमुख घटकों का वर्णन निम्नानुसार है-

  1. मानवीय संसाधन-किसी भी अन्तर्राष्ट्रीय विपणन फर्म की सफलता में उसके मानवीय संसाधनों की महत्वपूर्ण भूमिका है। मानव संसाधन जितना कुशल एवं अभिप्रेरित होगा, उतनी ही संस्था ही कार्यकुशलता एवं ग्राहक संतुष्टि बढ़ेगी उत्पादन लागत कम होगी।
  2. अनुसंधान एवं विकास-अनुसन्धान करके एक कम्पनी यह जान सकती है कि ग्राहक किस कार के उत्पाद पसंद करते हैं और किस प्रकार के नहीं।
  3. आर्थिक संसाधन-यदि कम्पनी में वित्तीय संसाधन कुशल एवं नियोजित हैं तो वह अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सफलता प्राप्त कर सकती है।
  4. कम्पनी की ख्याति-यदि किसी कम्पनी का नाम एवं छवि एक बार ग्राहकों के दिमाग में जम जाए तो ग्राहक उसी कम्पनी के उत्पाद एवं सेवाएँ क्रय करते हैं।
  5. क्षमता का उपयोग–अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में सफलता प्राप्त करने के लिए व्यवसाय को पूर्ण उत्पादन क्षमता का प्रयोग करना चाहिए।
  6. प्रबन्ध-यदि व्यवसाय का प्रबन्ध अच्छा एवं दूरदर्शी है तो ऐसा व्यवसाय अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में अपना स्थान बनाने में सफल हो सकता है।
  7. विपणन-मिश्रण-प्रसिद्ध विपणन विद्वान मेकार्थी ने विपणन-मिश्रण में “चार पी’ (Four Ps) बताये थे। ये चार पी क्रमशः प्रोडक्ट, प्राइस, प्लेस एवं प्रमोशन है। परन्तु अब विपणन वातावरण में आमूलचूल परिवर्तन होने के कारण मेकार्थी द्वारा प्रतिपादित ‘चार पी’ अपनी प्रासंगिकता खो चुके हैं। वर्तमान में विपणन अवधारणा को निम्नलिखित प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है-

विपणन अवधारणा 

(Marketing Concept)

अत: स्पष्ट है, कि मेकार्थी के “चार पी” बाजार अभिमुखी (Market oriented) हैं. . रॉबर्ट के “चार सी” ग्राहक अभिभखी (Customer oriented) हैं। वास्तव म उत्पाद, उत्पादन है यह ग्राहक की आवश्यकता है। मल्य मल्य नहीं है-यह ग्राहक की लागत हा प्लस, प्लेस है-यह ग्राहक द्वारा क्रय को सविधाजनक बनाना है। प्रमोशन, प्रमोशन नहीं है वरन् ग्राहक सन्देशवाहन है, चाहे वह विज्ञापन से हो, चाहे व्यक्तिगत विक्रय से अथवा विक्रय संवर्द्धन से। चार पी” से “चार सी” एवं “चार ए” में परिवर्तन एक विपणन फर्म की परी सो मानसिकता में परिवर्तन है। वर्तमान में अन्तर्राष्ट्रीय विपणन भूमण्डलीकरण के प्रभाव से प्रा चुनौतीपूर्ण हो गया है। इसमें सफलता वे ही कम्पनियाँ प्राप्त कर पाएगी, जो हर चीज को ग्राहकाव दृष्टिकोण से देखेंगी। इस बदलाव के बाद स्वेटर, स्वेटर नहीं होगा-“सर्दी की गर्माहट हो किताब, किताब नहीं होगी-“ज्ञान का स्रोत” होगी। इस प्रकार उपरोक्त सभी घटकों पर कम्पनी प्रबन्ध चाहे, तो प्रभावी नियमन एवं नियन्त्रण का सकता है।

  1. बाह्य वातावरण

(External Environment) 

अन्तर्राष्ट्रीय विपणन में बाह्य वातावरण में घटकों के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण बात यह है कि फा का इन पर कोई नियंत्रण नहीं होता है। बाह्य वातावरण के घटकों का वर्णन इस प्रकार है__ 

  1. आर्थिक तत्व-आर्थिक वातावरण में अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियाँ, विदेशी सहायता, विदेशी नीति, व्यापार और भुगतान संतुलन, विनिमय दर आदि को शामिल किया जाता है। अत: आर्थिक वातावरण उन समस्त बाह्य शक्तियों का योग है जो किसी व्यावसायिक संस्था की कार्यप्रणाली एवं सफलता को आर्थिक रूप से प्रभावित करती है।
  2. जनसांख्यिकीय वातावरण-जनसांख्यिकी तत्वों से अभिप्राय है देश की आबादी, उसकी बढ़ोत्तरी की दर, आयुवार संरचना (1 से 5 वर्ष के कितने, 60 से 70 वर्ष के कितने इत्यादि), परिवार का आकार, परिवार की प्रकृति (एक या संयुक्त), आय के स्तर इत्यादि जनसांख्यिकी तत्वों का विभिन्न प्रकार की वस्तुओं व सेवाओं की खपत पर बहुत प्रभाव पड़ता है। यदि किसी देश की जनसंख्या अधिक होगी तो वहाँ वस्तुओं की माँग भी अधिक होगी।
  3. राजनीतिक वातावरण-अन्तर्राष्ट्रीय विपणन में केवल वे ही कम्पनियाँ सफलता प्राप्त कर सकती हैं जो राजनीतिक जोखिम का सावधानीपूर्वक मूल्यांकन कर उचित निर्णय लेती हैं। इसलिए अन्तर्राष्ट्रीय विपणनकर्ता को न केवल वर्तमान बल्कि भावी राजनीतिक वातावरण को भी ध्यान में रखना चाहिए।
  4. वैधानिक वातावरण-विदेशों में व्यापार कर रही कम्पनियों को उन देशों के व्यापारिक कानूनों का पूरा ज्ञान होना चाहिये। कम्पनी को उस देश के कानूनों का, जो उसकी सहायता करते हैं, का भरपूर लाभ उठाना चाहिये तथा जो कानून उसके हितों के विपरीत हैं, उनका प्रभाव कम करने का प्रयास करना चाहिये।
  5. तकनीकी वातावरण-एक उत्पादक को अपने कार्यक्षेत्र में हो रही तकनीकी प्रगति के विषय में ध्यान रखना अति आवश्यक है।
  6. प्रतिस्पर्धा वातावरण-अन्तर्राष्ट्रीय विपणन में निर्यातकों को त्रिस्तरीय प्रतिस्पर्धा का सामना करना होता है-(i) अपने ही देश के अन्य प्रतिस्पर्धा करने वालों से, (ii) माल आयात करने वाले देश के उत्पादकों से, तथा (iii) अन्य देशों के निर्यातकर्ताओं से। अन्तर्राष्ट्रीय बाजारों में प्रतिस्पर्धा गलाकाट होती है। वहाँ केवल वे ही निर्यातक बचे रह सकते हैं जो तकनीकी रूप से उन्नत माल कम मूल्य पर बेच सकते हैं।

विदेशी बाजारों में निर्यातक को ब्राण्ड प्रतिस्पर्धा का भी सामना करना पड़ता है। कुछ कम्पानमा अपने ब्राण्ड की प्रतिष्ठा के आधार पर ही माल बेच सकने की स्थिति में होती हैं।

7.सांस्कृतिक वातावरण-अन्तर्राष्ट्रीय विपणन के क्षेत्र में संस्कति शब्द का अर्थ कला, समा एवं साहित्य से न लेकर मनुष्य के सामाजिक जीवन, रहने की दशा, उसकी सोच. आदतें एवं व्यवहार से लिया जाता है। संस्कृति समाज में रह रहे लोगों के सोचने व आपसी व्यवहार के ढंग का करती है। यह रीति-रिवाज, आदतों, मूल्यों तथा जीवन-शैली को प्रभावित करती है। एक नियतिक जिस देश में विपणन कर रहा है उस देश की संस्कृति का पूर्व अध्ययन कर लेना चाहिए तथा वस्तुओं का विपणन करना चाहिए जो उस देश के सांस्कृतिक वातावरण के अनुरूप तथा अनुकूल हो।

  1. सामाजिक वातावरण-प्रत्येक समाज अपने सामाजिक मापदण्ड निर्धारित करता है। इन मल्यों एवं मापदण्डों में समय-समय पर परिवर्तन होते रहते हैं इसलिए अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में कार्यरत कम्पनी को उचित समय अंतराल पर अपने विदेशी बाजार के सामाजिक मूल्यों में आए बदलाव को समझना पड़ता है एवं उसी के अनुरूप अपने विपणन कार्यक्रमों एवं नीतियों में भी उपयुक्त परिवर्तन करने पड़ते हैं।

इस प्रकार एक व्यवसाय का आंतरिक एवं बाहरी वातावरण दोनों ही अन्तर्राष्ट्रीय विपणन को प्रभावित करते हैं। एक व्यावसायिक संस्था अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में तभी सफल हो सकती है यदि वह इन मागीय घटकों को ध्यान में रखकर व्यावसायिक नीतियों एवं नियमों का निर्धारण करती है।

विदेशी बाजारों के चयन का आधार

(Criteria for Selecting Foreign Markets) 

अन्तर्राष्ट्रीय विपणन करने वाले उपक्रम का पहला कार्य होता है-विदेशी बाजार का चयन। बाजार चयन का उद्देश्य उन विदेशी बाजारों को पहचानना व उनकी एक लघु सूची बनाना है पर माल बिकने की सम्भावना अधिक है। विदेशी बाजार का चयन कुछ मापदण्डों के आधार पर विभिन्न बाजारों के मूल्यांकन पर आधारित होता है तथा यह कम्पनी के संसाधनों व उद्देश्यों को ध्यान में रखकर किया जाता है। बाजारों के मल्यांकन के लिये आँकड़े प्राप्त करने के लिये बाजार अनुसन्धान आवश्यक हो जाता है। 

1. सामान्य बाजार विश्लेषण (General Market Analysis) – सामान्य बाजार विश्लेषण का उद्देश्य निर्यात बाजार के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण सूचनाओं को प्राप्त करना होता है। इसमें विदेशी ग्राहकों की आय, रुचियों, जनसंख्या का वर्गीकरण आदि अनेक विषयों के बारे में सूचनाएँ प्राप्त करके उनका विश्लेषण किया जाता है। सामान्य बाजार विश्लेषण के अन्तर्गत निम्नलिखित सूचनाएँ प्राप्त की जाती हैं-

  1. जनसंख्या-इसमें यह अध्ययन किया जाता है कि संभावित विदेशी बाजार की जनसंख्या कितनी है ? कितनी जनसंख्या ग्रामीण व कितनी शहरी है ? शहरों की संख्या, उनकी स्थिति, आकार, निवास करने वाली जनसंख्या कितनी है ? उनकी आदतें, रीति-रिवाज, व्यवहार एवं परम्पराएँ क्या हैं ?
  2. शिक्षा-अन्तर्राष्ट्रीय बाजार के चुनाव को सम्भावित देश की शिक्षा का स्तर भी प्रभावित करता है। अत: विपणनकर्ता को यह देखना चाहिए कि सम्भावित विदेशी बाजार में शिक्षा का विस्तार किस सीमा तक है?
  3. जीवन स्तर–विदेशी ग्राहकों का जीवन स्तर किस प्रकार का है ? रेडियो, टेलीविजन, रेफ्रीजरेटर, एयर कण्डीशनिंग, क्लब, मोटरगाडियाँ, सिनेमा हॉल, होटल, वस्त्रों का प्रयोग किस सीमा तक है. इनके बारे में सूचनाएँ प्राप्त करके जीवन स्तर का निर्धारण किया जा सकता है।

4. सन्देश वाहन के साधन-व्यावसायिक सन्देश वाहन के साधन किस प्रकार, स्तर व संख्या में उपलब्ध हैं ? डाक-तार सेवाएँ, टेलीफोन, टेलेक्स व टेलीप्रिन्टर, वायरलेस आदि की सुविधाएँ कितनी उपलब्ध हैं, इसके बारे में भी पूरी सूचनाएँ प्राप्त की जानी चाहिए।

  1. व्यापारिक परम्पराएँ एवं व्यवहार-निर्यात बाजार की परम्पराएँ एवं व्यवहार किस प्रकार के हैं? उनकी किस सीमा तक समानता भारतीय व्यापारिक परम्पराओं एवं व्यवहारों से है?
  2. बन्दरगाह सुविधाएँ-जिस देश को वस्तुओं का संभावित निर्यात किये जाने की निर्यातक सोच रहा है, उस देश में बन्दरगाह किस प्रकार के उपलब्ध हैं?

7.प्रतिस्पर्धा-स्थानीय इकाइयों व अन्य देशों के उद्योगों द्वारा उत्पादित व निर्यात किये गये माल से हमारे उत्पाद को किस सीमा तक प्रतिस्पर्धा करनी होगी।

  1. राजनैतिक तन्त्र-किस प्रकार की राजनैतिक विचारधारा का प्रभुत्व उस देश पर है ? राजनैतिक स्थायित्व की क्या स्थिति है ? विदेशी विनियोगों के बारे में सरकारी रूख व नीतियाँ क्या हैं?
  2. भौगोलिक स्थिति-जिस देश को निर्यात किये जाने का विचार है, उसकी भौगोलिक स्थिति क्या है ? उसकी सीमाएँ किन-किन देशों से मिलती हैं, उसकी समुद्री सीमा कितनी है, उस देश में नदियों, पहाड़ों, मैदानों की स्थिति कैसी है ? उस भौगोलिक स्थिति का माल के परिवहन पर क्या प्रभाव पड़ने की संभावना है ?
  3. मुद्रा एवं करारोपण-निर्यात के बदले जो मुद्रा उस देश से प्राप्त होगी, उसकी विनिमय दर ह? विनिमय दरों में स्थायित्व किस सीमा तक ह? 
  4. आय का स्तर-संभावित विदेशी बाजार के ग्राहकों की आय की संरचना किस प्रकार की है. प्रति व्यक्ति आय कितनी है ? विभिन्न समूहों की आय में किस प्रकार के परिवर्तन हो रहे हैं, व उनका कितना प्रभाव उनके क्रय-व्यवहारों पर पड़ रहा है।

उपरोक्त विषयों के बारे में निर्यातक को बाजार अनुसन्धान के द्वारा उचित रूप से सचना कर, उनका विश्लेषण कर अन्तर्राष्ट्रीय विपणन की अनुकूलता या प्रतिकूलता को निर्धारित करने प्रयास करना चाहिए।

II. विशिष्ट विश्लेषण (Specific Analysis)

विशिष्ट विश्लेषण के लिये निम्नलिखित तत्वों पर ध्यान किया जाता है

  1. उपभोक्ता सर्वेक्षण-उपभोक्ता सर्वेक्षण से पता चल सकता है कि ग्राहक हमारे माल स्वीकार करेंगे या नहीं। इससे यह भी पता चल जायेगा कि हमारे भावी ग्राहक कोन हो सकते हैं वे किस आयु-वर्ग के हैं, वे स्त्रियाँ या पुरुष, उनकी शिक्षा व आय क्या है, कितनी बारम्बारता खरादत है, वे ग्रामीण हैं या शहरी ? माल की गुणवत्ता, रंग, पेंकिग व विक्रय-पश्चात् सेवा के जिला में उनकी क्या प्राथमिकताएँ हैं?
  2. प्रतिस्पर्द्धा की प्रकति–एक निर्यातक को अपने प्रतिस्पर्धाकर्ताओं की शक्ति व कमजोकि उनकी रणनीति एवं व्यवहार का विश्लेषण करना चाहिये और अन्त में यह अनुमान लगाना चाहिये किस बाजार का कितना अंश (Market share) उसे मिल पायेगा। 3. लागत विश्लेषण-एक निर्यातक को यह अनुमान भी लगाना पड़ेगा कि विदेश में माल भेजने व वहाँ उसका वितरण करने में क्या लागत आयेगी? _
  3. प्रवर्तन लागत-प्रवर्तन या संवर्धन के लिये विज्ञापन के माध्यमों, जैसे-टेलीविजन | समाचार-पत्र इत्यादि की उपलब्धता व प्रभावों के विषय में भी जानकारी एकत्रित की जानी होगी।
  4. मूल्य विश्लेषण-मूल्य विश्लेषण द्वारा पता लगाया जाता है कि किसी वस्तु का प्रचलित बाजार मूल्य व लाभ की दर क्या है, मूल्यों का रुझान किस ओर है, माँग की लोच कितनी है तथा मूल्यों पर नियन्त्रण के प्रति सरकार के नियम क्या हैं?
  5. वितरण प्रणालियों का मूल्यांकन-यह देखना होगा कि क्या उस देश में पर्याप्त वितरण बाजार प्रणालियाँ उपलब्ध हैं जिनके जरिये माल उपभोक्ता तक पहुँचाया जा सकता है।
  6. वैधानिक प्रतिबन्ध-यह देखना होगा कि आयात करने वाले देश में वहाँ की सरकार ने, किन्हीं वस्तुओं के आयात पर या उनकी गुणवत्ता पर या वातावरण प्रदूषण सम्बन्धी कोई प्रतिबन्ध तो नहीं लगा रखे।
  7. परीक्षण विपणन-निर्यात विपणन के जोखिमों को कम-से-कम करने का सबसे अच्छा तरीका है-बाजार परीक्षण, जिसका अर्थ है पहले छोटे से हिस्से में जहाँ सम्भावनाएँ अधिक हो, माल को बेचकर परिणामों की समीक्षा करना।

भारतीय निर्यातकों के लिए निर्यात सूचनाएँ प्राप्त करने के स्रोत

(Sources of Receiving Export Informations for Indian Exporters) 

भारतीय निर्यातकों को निर्यात सूचनाएँ निम्नलिखित स्रोतों से प्राप्त हो सकती हैं

  1. आयात-निर्यात बैंक (Import-ExportBank)। 
  2. विदेशी दूतावासों के सूचना केन्द्र (Information Centre of Indian Foreig” ___Embassies)। 
  3. निर्यात साख एवं गारण्टी नियम (ExportCredit and Guarantee Corporation)। 4. भारतीय विदेशी व्यापार संस्थान (Indian Institute of Foreign Trade)। 
  4. भारतीय रिजर्व बैंक (Reserve Bank of India)। 
  5. व्यापारिक बैंक (Commercial Bank)। 
  6. निर्यात संवर्द्धन परिषदें (Export Promotion Councils)। 
  7. विश्व व्यापार संघ (W.T.O.) द्वारा प्रकाशित पत्रिकाएँ एवं सूचनाएँ इत्यादि।

अत: उपर्युक्त जानकारी प्राप्त करने के पश्चात् ही निर्यातकों को अपनी वस्तएँ बाजार में बेचा लिए आवश्यक प्रक्रिया अपनानी चाहिए।

बाजार चयन प्रक्रिया

(Market Selection Process) 

बाजार चयन प्रक्रिया के प्रमुख चरण निम्नलिखित हैं-

1.अन्तर्राष्ट्रीय विपणन के उद्देश्यों को निर्धारित करना-अन्तर्राष्टीय विपणन हेतु बाजार के सन्दर्भ में प्रथम महत्वपूर्ण चरण अन्तर्राष्ट्रीय विपणन के उद्देश्यों को निर्धारित करना है।

2. चयन हेतु मापदण्ड – अन्तर्राष्ट्रीय विपणन के उद्देश्यों को निर्धारित करने के बाद बाजार के उचित मूल्यांकन एवं चयन हेतु स्पष्ट परिभाषित मापों तथा मूल्यांकन घटकों का निर्धारण आवश्यक है। मिल्यांकन मैट्रिक्स का प्रयोग किया जाता है- मूल्यांकन तालिका इसलिये बनाई जाती है कि बहुत सारे विदेशी बाजारों में से निर्यातक किसी सुने। इस प्रक्रिया में विदेशी बाजारों की आपस में तुलना की जाती है तथा आकर्षकता के आधार पर क्रमवार सूची बनाई जाती है। मूल्यांकन तालिका में सामान्य विश्लेषण व विशिष्ट विश्लेषण दोनों प्रकार के तत्वों को शामिल किया जाता है। इन तत्वों को ऐसे स्पष्ट मापदण्डों में वर्णन किया कि उन्हें संख्यात्मक मूल्यों में वर्गीकृत किया जा सके।

3. प्रारंभिक छानबीन-बाजार चयन के घटकों को निर्धारित करने के बाद अगला महत्वपूर्ण बाजारों का प्रारंभिक विश्लेषण या छानबीन करना है। इस छानबीन का लक्ष्य उन बाजारों की पापेक्षा करना है जहाँ पर सरसरी तौर पर तथा स्पष्ट रूप से लाभप्रद विपणन संभावनाएँ नहीं हैं।

  1. बाजारों की संक्षिप्त सूची-बाजारों की संक्षिप्त सूची तैयार करने का मुख्य उद्देश्य उन सीमित बाजारों की संख्या ज्ञात करना है जो बाजार चयन के लिए कम्पनी की दृष्टि से संतोषप्रद ज्ञात के तथा जिन पर अंतिम निर्णय हेतु विस्तृत विश्लेषण आवश्यक है।
  2. मूल्यांकन एवं चयन-अन्त में, बाजारों की संक्षिप्त सूची के विस्तृत विश्लेषण के द्वारा नाभिन्न घटकों के मद्देनजर, बाजारों के समग्र आकर्षण को ध्यान में रखते हुए चयनित बाजारों का श्रेणीयन (ranked) किया जा सकता है।

प्रत्यक्ष निर्यात

(Direct Exporting). 

जब एक निर्माता विदेशी बाजारों में विक्रय करना चाहता है तो उसके समक्ष कई विकल्प होते हैं जिनके माध्यम से वह निर्यात कर लाभ कमा सकता है। मोटे तौर पर निर्माता दो विधियों से विदेशी बाजार में प्रवेश कर सकता है। प्रत्यक्ष निर्यात वह विधि है जिसके अंतर्गत निर्यातक मध्यस्थों की सहायता न लेकर सारा कार्य स्वयं करता है अर्थात् निर्यातक द्वारा स्वयं ही वस्तुओं का निर्यात किया जाता है। उसके द्वारा ही सभी कार्यों का निरीक्षण किया जाता है। जब एक उत्पादक द्वारा सारा कार्य स्वयं किया जाता है तो जोखिम की मात्रा में वृद्धि हो जाती है और साथ ही लाभ बढ़ने की सम्भावना भी अधिक हो जाती है। बाजार सूचनाएँ प्रत्यक्ष रूप से मिलने के कारण ग्राहक की आशाओं के अनुरूप वस्तु का निर्यात होता है, जिसके फलस्वरूप उपभोक्ता संतुष्टि में वृद्धि होती है।

प्रत्यक्ष निर्यात के लाभ-प्रत्यक्ष निर्यात से आयातकर्ता व निर्यातकर्ता दोनों को अनेक लाभ मिलते हैं जिनका वर्णन इस प्रकार है-

1. छोटी वितरण व्यवस्था-प्रत्यक्ष निर्यात में मध्यस्थों का अभाव होने के कारण वितरण की कड़ी छोटी होती है जिसके फलस्वरूप अन्तिम उपभोक्ता को वस्तुओं का हस्तांतरण शीघ्र व उचित मूल्य पर हो जाता है।

2.माँग का अनुमान-प्रत्यक्ष निर्यात की सहायता से माँग का सही अनुमान लगाया जा सकता है तथा उसी के अनरूप माल का निर्यात किया जा सकता है।

3.ग्राहकों का ज्ञान-प्रत्यक्ष निर्यात के अन्तर्गत निर्यातकर्ता का ग्राहकों से प्रत्यक्ष सम्पर्क होने के कारण उनकी आवश्यकताओं, इच्छाओं तथा वरीयताओं को समझने में आसानी होती है।

4. पूर्ण नियन्त्रण-प्रत्यक्ष निर्यात के अन्तर्गत उत्पादक का सम्पूर्ण उत्पादन क्रियाओं व कीमतों रनियंत्रण बना रहता है तथा वह साख शर्तों को आसानी से निर्धारित कर सकते हैं-

5. ख्याति का निर्माया-प्रत्यक्ष निर्यात की सहायता से विपणनकर्ता विदेशी बाजारों में अपनी पा अपने उत्पादों की ख्याति का निर्माण कर सकता है।

6. विक्रय व लाभों में वद्धि-प्रत्यक्ष निर्यात के अन्तर्गत निर्यातक का सम्पूर्ण बाजार पर नियंत्रण होने के कारण उसे अपनी वस्तुओं की बिक्री से पूर्ण प्रतिफल मिल जाता है जिससे उसके विक्रय व लाभों में वृद्धि होती है।

प्रत्यक्ष निर्यात के दोष-

1. जोखिमपूर्ण-प्रत्यक्ष निर्यात के अंतर्गत निर्यातक द्वारा सभी कार्य प करने के कारण जोखिम की मात्रा में वृद्धि होती है।

2. पूंजी की अधिक आवश्यकता-प्रत्यक्ष निर्यात के लिए फर्म को अत्यधिक पूँजी की पहाता है जो एक सामान्य निर्यातक द्वारा एकत्रित करना सम्भव नहीं होता।

3. प्रबन्धकीय योग्यता-प्रत्यक्ष निर्यात के लिए निर्यातकर्ता में प्रबन्धकीय क्षमता का होना अति आवश्यक है।

4.एकाधिकारी मूल्य – प्रत्यक्ष निर्यात में एकाधिकारी प्रवृत्ति पाई जाती है।

5. वितरण लागतों में वद्धि-प्रत्यक्ष निर्यात के अंतर्गत स्टॉक को बनाए रखने के आवश्यक है कि विदेशी बाजारों में वितरण केन्द्रों की स्थापना की जाए ताकि स्टॉक में कमी न यह काफी खर्चीली पद्धति है तथा इससे वितरण लागतों में भी वृद्धि होती है।

अप्रत्यक्ष निर्यात

(Indirect Exporting) 

अप्रत्यक्ष निर्यात के अन्तर्गत वस्तओं का निर्यात मध्यस्थों के माध्यम से किया जाता है। दो व्यवस्था में फर्म अपनी वस्तएँ अपने ही देश में किसी अन्य संस्था या व्यक्ति को बेचती है जो हर वस्तुओं को आगे विदेशों में विक्रय करती है।

अप्रत्यक्ष निर्यात के लाभ-अप्रत्यक्ष निर्यात के मुख्य लाभ निम्नलिखित हैं-

  1. मितव्ययी-प्रत्यक्ष निर्यात की अपेक्षा अप्रत्यक्ष निर्यात विधि मितव्ययी है क्योंकि इसके अंतर्गत निर्यातकर्ता को बिक्री सम्बन्धी क्रियाएँ जैसे बाजार सर्वेक्षण व विज्ञापन इत्यादि नहीं करनी पड़ती।
  2. विदेशी शाखा की आवश्यकता न होना-अप्रत्यक्ष निर्यात के अन्तर्गत सम्पूर्ण कार्य मध्यस्थों की सहायता से किया जाता है जिसके कारण विदेश में न तो कोई शाखा खोलनी पड़ती है और न ही वितरण की कोई श्रृंखला बनानी पड़ती है।
  3. कार्यभार में कमी-मध्यस्थ ही निर्यात सम्बन्धी सभी कागजी तथा कानूनी कार्यवाही परी करने हैं जिससे निर्माता के कार्यभार में कमी आती है।
  4. मध्यस्थों की ख्याति का लाभ-ऐसे मध्यस्थ जिनकी साख अच्छी होती है तथा जो विभिन्न देशों से अधिक मात्रा में आदेश प्राप्त करते हैं उनकी ख्याति का लाभ उठाकर निर्यातक अपनी वस्तओं की बिक्री में वृद्धि कर सकते हैं।
  5. छोटी व नई फर्मों के लिए उपयुक्त-मध्यस्थों को विभिन्न बाजारों तथा विपणन सम्बन्धी स्थितियों का पूर्ण ज्ञान होता है। फलस्वरूप नवीन तथा छोटे उत्पादक/निर्माता इन मध्यस्थों की सहायता से विदेशी बाजार में प्रवेश कर सकते हैं।
  6. कम पूँजी की आवश्यकता-प्रत्यक्ष निर्यात की अपेक्षा अप्रत्यक्ष निर्यात में कम पूँजी की आवश्यकता होती है। ___

अप्रत्यक्ष निर्यात के दोष या सीमाएँ-1. उपभोक्ताओं की सम्पूर्ण जानकारी का अभाव-निर्यात व्यापार सम्बन्धी सभी कार्य मध्यस्थों की सहायता से किए जाने के कारण निर्माता का आयातकर्ता से कोई सम्बन्ध नहीं होता जिसके कारण उसे उपभोक्ताओं की सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त नहीं हो पाती।

2. अस्थिर व्यवसाय-अप्रत्यक्ष निर्यात को प्रायः अस्थिर व्यवसाय भी कहा जाता है क्योंकि इसमें मध्यस्थ उन्हीं निर्यातकर्ता के साथ कार्य करते हैं जो उन्हें अधिक कमीशन देते हैं। अतः नए उत्पादकों से अधिक कमीशन के लालच में मध्यस्थ पुराने उत्पादकों को छोड़ भी सकते हैं। 3.मध्यस्थों की उपलब्धता-अप्रत्यक्ष निर्यात व्यापार के लिए मध्यस्थों की आवश्यकता पड़ती है परन्तु सभी बाजारों में ये मध्यस्थ उपलब्ध नहीं होते जिससे वितरण सम्बन्धी अनेक समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।

4.मध्यस्थों पर निर्भरता-मध्यस्थ प्रायः तभी माल क्रय करते हैं जब उन्हें बाहर से आदेश प्राप्त होते हैं। ऐसे में अप्रत्यक्ष निर्यात करने वाले विपणनकर्ताओं को मध्यस्थों पर ही निर्भर रहना पड़ता है।

5. छटों का लाभ प्राप्त न होना-अप्रत्यक्ष निर्यात के अन्तर्गत विपणनकर्ता को निर्यातक का स्थिति प्राप्त नहीं हो पाती जिसके परिणामस्वरूप उसे सरकार द्वारा घोषित प्रोत्साहनों एवं छूटो का लाम भी नहीं मिल पाता है।

प्रत्यक्ष निर्यात के रूप 

प्रत्यक्ष निर्यात के विभिन्न रूप हैं जिनका वर्णन इस प्रकार है-

1.विदेशों में शाखाओं की स्थापना (Establishment of Branches in Abroad)-ये शाखार निर्यातकर्ता द्वारा उन देशों में खोली जाती है जहां उसके उत्पादों की माँग अधिक होती है। इस प्रकार की विदेशी शाखाएँ उन देशों में विद्यमान प्रतियोगिता का मुकाबला प्रभावपूर्ण ढंग से कर सकती हैं।

लाभ (Advantages)-इस प्रकार के संगठन का निर्यातक काफी लाभ उठा सकता है। वह स्वय विदेशी बाजार के क्रेताओं से सांधा सम्बन्ध स्थापित कर सकता है। उत्तम ग्राहक सेवाएँ प्रदान निर्यातक अपनी अच्छी छवि व प्रतिष्ठा विदेशी उपभोक्ताओं के मन मे बना सकता है।  दोष (Diadvantages)-इस संगठन के जहा उपरोक्त लाभ हैं, वहीं इसकी हानियाँ भी कम हैं। इससे निर्यातक के उपरिव्यया म काफा वृद्धि हा जाता है। विदेशी बाजारों के प्रबन्ध के लिए विकयकर्ताओं का चयन करना पड़ता हा गादामा, विक्रय कन्द्री, सेवा केन्द्रों आदि की व्यवस्था कर’ जहाँ विशाल मात्रा में पूँजीगत साधनों की आवश्यकता होती है, वहीं व्ययों में भी वद्धि होती है।

2. संयुक्त उपक्रम (Joint Ventures) संयुक्त उपक्रम वह होते हैं जिसमें दो या अधिक देश कामको संयुक्त स्वामित्व व प्रबन्ध के अन्तर्गत करते हैं। प्राय: विकसित देशों की वित्त का कुछ भाग प्रदान करती हैं तथा आयात करने वाले देश की फर्म का वित्त में योगदान रहता हैं। उदाहरणत: भारत में कार बनाने का कारखाना मारूति उद्योग जापान की फर्म सुजुकी व भारतीय अन्य निवेशकों का संयुक्त उपक्रम है। संयुक्त उपक्रम दूसरे नम्बर का विदेशी बाजार में ‘महत्वपूर्ण साधन है। यदि कोई फर्म विदेशी बाजार में माल निर्यात करने की स्थिति से आगे है तो संयुक्त उपक्रमों का सहारा लेती है। संयुक्त उपक्रम दो देशों के व्यापारियों के बीच पूँजी व जोखिम बाँटने का अनुबन्ध होता है तथा देश का तकनीकी ज्ञान दूसरे देश में पहुँच जाता है। 

संयुक्त उपक्रम के लाभ-संयुक्त उपक्रम के लाभ निम्नलिखित हैं-

(i) अधिक कमाई-इस व्यवस्था से निर्यातक देश रॉयल्टी के रूप में अपने विनियोजित धन पर ऊंची दर से कमाई कर लेता है। यह विदेशी बाजार में प्रवेश का लाभदायक ढंग है, विशेषकर टेक्नेलाँजी बेचने के लिये।

(ii) कम जोखिम-बजाय इसके कि सारा जोखिम निर्यातक को उठाना पड़े, संयुक्त उपक्रम से जोखिम आयातक पर भी आ जाता है। स्थानीय व्यक्ति की साझेदारी होने के कारण उस देश की प्रीयकरण की नीतियों से भी बचा जा सकता है।

(iii) कम पूँजी निवेश-बिना बहुत अधिक पूँजी निवेश के एक निर्यातक विदेश में कारखाने लगाकर उस पर प्रभावी नियन्त्रण रख सकता है। | (iv) बाजार प्रवेश का विकल्प-यदि कोई देश विदेशियों को अपने देश में निर्यात व्यापार करने की आज्ञा न दे तो वहाँ घुसने का यह एक विकल्प हो सकता है।

संयुक्त उपक्रमों की सीमाएँ (Limitations of Joint Ventures)-संयुक्त उपक्रमों की सीमाएँ निम्नलिखित हैं

(i) विवाद-संयुक्त उपक्रमों की आधारभूत समस्या प्रबन्ध में दो देशों के व्यक्तियों की भागीदारी के कारण उत्पन्न होती है। विवादों के कारण फर्म को चलाना कठिन हो जाता है।

(ii) अधिक वित्त व जोखिम-विदेश बाजार में प्रवेश करने के अन्य ढंगों, जैसे कि वितरक या एजेण्ट नियुक्त करने की तुलना में, इस प्रणाली में अधिक वित्त की आवश्यकता पड़ती है तथा इसमें जोखिम भी अधिक है।

3. अनुज्ञप्ति प्रदान करना (लाइसेन्सिंग) एवं फ्रेंचाइजिंग (Licensing and Franchising)अनुज्ञप्तिकरण अथवा लाइसेन्सिंग के अन्तर्गत निर्यात करने वाली कम्पनी, दूसरे देश की कम्पनी से कुछ शुल्क (Royalty) वसूल करके उसे अपने नाम अथवा ट्रेडमार्क से माल निर्मित करने की आज्ञा दे देती है। व्यवहार में यह होता है कि निर्यातक देश की कम्पनी आयातक देश की कम्पनी को अपना ब्राण्ड नाम, पेटेण्ट अधिकार, व्यापार चिन्ह, कॉपीराइट प्रयोग करने की आज्ञा दे देती है तथा उसे माल बनाने का तकनीकी जानकारी प्रदान भी करती है। जिस क्षेत्र में इन अधिकारों का प्रयोग किया जा सकता है सका उल्लेख अनुज्ञप्ति अनुबन्ध में कर दिया जाता है। यह अधिकार प्रदान करने के बदले में विदेशी पना को विक्रय के आधार पर शुल्क (Royalty) मिलता है।

फ्रेन्चाइजिंग (Franchising)-इसे विशेष विक्रय अधिकार भी कहते हैं। यह लाइसेन्सिंग का वह है जिसमें मूल कम्पनी (अनुज्ञप्तिदाता) किसी अन्य व्यक्ति को अपना माल बेचने या उत्पादन व न करने या व्यापार की अपनी सामान्य पद्धति प्रयोग करने का अधिकार प्रदान करती है। कभी फ्रेन्चाइजदाता, फ्रेन्चाइजी पाने वाले व्यक्ति को उत्पादन के लिये किसी आवश्यक वस्तु की पूर्ति भी करता है। उदाहरणत: अमरीकी कम्पनी कोका कोला कई भारतीय सोडावाटर कम्पनियों कोका कोला का मूल मिश्रण (concentrate) प्रदान कर रही है तथा ये भारतीय उत्पादक कोका कोला के नाम से अपना शीतल पेय बेच रहे हैं। 

लाइसन्सिग व फ्रेन्चाइजिंग के लाभ-लाइसेन्सिंग व फ्रेन्चाइजिंग के लाभ निम्नलिखित हैं- 

  1. इस व्यवस्था में निर्यात करने वाली कम्पनी को कोई निवेश भी नहीं करना पड़ता और न ही कोई जोखिम उठाना पडता हैं। परन्तु लाभ काफी हो जाते हैं।
  2. इस व्यवस्था से विदेशी बाजारों में शीध्र तथा सरलता से प्रवेश किया जा सकता है। विकसित देशों के बाजारों में पहुँच का यह एकमात्र रास्ता है।
  3. लाइसेन्सिंग विदेश में उत्पादन करने का श्रेष्ठ विकल्प है। विशेषकर उन देशों में जहाँ महँगाई ज्यादा है तथा बहुत से सरकारी नियम व प्रिबन्ध लागू है।
  1. लाइसेन्सिंग में रॉयल्टी मिलने की गारण्टी रहती है तथा वह समय पर भी मिल जाती हैं परन्तु प्रत्यक्ष निवेश से उत्पन्न आय अनिश्चित व जोखिमपूर्ण हो सकती है।
  2. आयात करने वाली फर्म को बिना कोई अनसन्धान किये विदेशी टेक्नोलॉजी व तकनीक प्राप्त हो जाता है।
  1. लाइसेन्सिग से यातायात की लागत घटती है। यदि सारा का सारा निर्मित माल एक देश से दूसरे देश में लाया जाये तो माल की ढलाई पर काफी लागत आ सकती है जिससे वह माल विदेश में प्रतिस्पर्धा करने में असमर्थ हो सकता है।

लाइसेन्सिंग व फ्रेन्चाइजिंग की हानियाँ-लाइसेन्सिंग एवं फ्रेन्चाइजिग से निम्नलिखित हानियां हैं-

  1. अनुज्ञापी अर्थात् लाइसेन्सधारी द्वारा निर्मित माल की गुणवत्ता पर नियन्त्रण रखना कठिन होता हैं। माल को घटिया क्वालिटी के कारण निर्यात कम्पनी की प्रतिष्ठा खराब हो सकती है। 
  2. यह भी हो सकता है कि लाइसेन्सधारी विदेशों या उस ही देश में निर्यातक के माल में प्रतिस्पर्धा करने लगे। लाइसेन्सधारी आसानी से क्षेत्रीय समझौतों की उल्लंघना कर सकता है। 
  3. लाइसेन्स प्रदान करने पर मिलने वाली रकम (Royalty) प्रत्यक्ष निवेश से उत्पन्न आय से बहुत कम होती है। प्राय: रॉयल्टी की दर कुल विक्रय की 5 प्रतिशत से अधिक नहीं होती इस पर सरकारी नियन्त्रण भी रहता है।

4. यदि लाइसेन्स देने वाला अपने उत्पादन की टैक्नोलॉजी में समयानुसार सुधार नहीं लाता है या उसमें नवीनता नहीं लाता है तो लाइसेन्सधारक लाइसेन्स के नवीकरण या उसे जारी रखने में रुचि खो सकता है।

4. विदेशी दलाल (Foreign Broker)-ये दलाल भी उसी प्रकार कार्य करते हैं, जिस प्रकार से अन्य दलाल कार्य करते हैं। दलाल वह व्यक्ति होता है, जो विक्रेता व क्रेता को मिला देता है; वह उन दोनों के बीच सेतु का कार्य करता है। उसी प्रकार से निर्यात विपणन में विदेशी दलालों की सेवाएँ भी काफी उपयोगी होती हैं। ये विदेशी दलाल मुख्य रूप से खाद्यान्नों आदि में व्यवहार करते हैं। वे निर्यातक के माल को निर्यात बाजारों में मान्यता प्राप्त स्कन्ध विपणियों के द्वारा या खुली नीलामी से बेचते हैं। जो विक्रय मूल्य निर्यातक ने तय कर रखा है, व विक्रय की जो शर्ते व दशाएँ निर्यातक ने तय की हैं, उसी के आधार पर विदेशी दलाल वस्तुओं का विक्रय निर्यातक बाजारों में करता है। ___ उसे अपनी सेवाओं के बदले में निश्चित प्रतिशत से कमीशन विक्रय मूल्य पर मिलता है कमीशन की दर बाजार की दशाओं व वस्तुओं की प्रकृति पर निर्भर करती है।

लाभ (Advantages)-इस विधि से अनेक लाभ उठाये जा सकते हैं। निर्यातक अपने द्वारा निर्धारित शर्तों व दशाओं पर विक्रय कार्य कर सकता है। इन दलालों को निर्यात बाजार की प्रकृति व विशेषताओं की बारीकी से जानकारी होती है, इसलिए इनको विक्रय करने में सहायता रहती है। प्रतिष्ठित दलालों की सेवाओं का उपयोग किया जा सकता है। ग्राहक को पटाने व सौदा बनाने में यह माहिर होते हैं, इससे बिक्री शीघ्र हो जाती है।

हानियाँ (Disadvantages)-जहाँ इस विधि से उपरोक्त लाभ हैं, वहीं दोष भी हैं। दलाल निर्यातक से वह न्यनतम मूल्य ले लेते हैं, जिस पर वह निर्यात करने को तैयार है। दलाल क्रता का निर्यातक का मूल्य तो बताते नहीं हैं, इससे यदि कभी क्रेता निर्यातक द्वारा तय मल्य से अधिक मूल्य भी दलाल को देते हैं तो उसे वे डकार जाते हैं। इसके साथ ही दलाल निर्यातक के साथ जोखिम में भा हिस्सा नहीं निभाता।

  1. विदेश में स्थित वितरक व एजेण्ट-प्रत्यक्ष निर्यात, विदेश में स्थित वितरकों या अभिकत्ता अर्थात एजेण्टों के माध्यम से भी किया जा सकता है। विदेशी वितरक जो उस कम्पनी के माल क एकमात्र आयातक होते हैं, निर्यातक से माल खरीदकर उस देश में बेचते हैं। वे एक नियोक्ता Princinal) के रूप में कार्य करत है अथात् अपन नाम से माल बेचते व खरीटते हैं। उनकी उस द बाराका सामना हो सकता ह तथा व विक्रय-पश्चात वितरक माल को वहाँ के थोक व फुटकर व्यापारियों व उपभोक्ताओं को बेचते हैं।

एजेण्ट निर्यातक व आयातकता को जोड़ने वाली कड़ी का कार्य करते हैं तथा अपनी सेवाआ लिय कमाशन वसल करत हा व अपन नाम स काम नहीं करते केवळ निर्यातक का प्रतिनिधित्व करते हैं। एकमात्र एजेण्ट भी हर प्रकार स एजण्ट हा होता है परन्तु वह माल आयात करने वाले दश निर्यातक का एकमात्र प्रतिनिधि होता है।

वितरकों व एजेण्टों के लाभ-वितरकों व एजेण्टों के लाभ निम्नलिखित हैं-

(i) बाजार की जानकारी-वितरक क्योंकि एक स्थानीय व्यक्ति होता है, अत: उसे स्थानीय बाजार की प्रतिस्पर्द्धा व वहाँ के लोगों की पसन्द, प्राथमिकताओं इत्यादि की पूरी जानकारी होती है। 

(ii) सम्पर्क-वितरकों व एजेण्टों के अपने देश की सरकारी एजेन्सियों के राजनीतिज्ञों व निर्णय लेने वालों से सम्पर्क होते हैं जो बड़े-बडे अनुबन्ध प्राप्त करने के लिये सहायक सिद्ध होते हैं 

(iii) कारोबारी ढाँचा-वितरकों या एजेण्टों का अपने देश में सुव्यवस्थित कारोबारी ढाँचा हो जैसे उनके विभिन्न व्यापारिक केन्द्रों में शाखाएँ या प्रतिनिधि हो सकते हैं, उनके अपने हो सकते हैं जो निर्यातक का व्यापार फैलाने में सहायक हो सकते हैं। 

(iv) विदेश में कार्यालय खोलने के खर्चे से बचत-एजेण्टों को उनके द्वारा प्राप्त ऑर्डरों के पर कमीशन दी जाती है, अत: विदेश में शाखाएँ या कार्यालय रखने के स्थाई खर्च करने की आवश्यकता नहीं होती।

(v) विक्रय-पश्चात् सेवा-वितरकों या एजेण्टों को विक्रय-पश्चात् सेवा प्रदान करने का कार्य भी सौंपा जा सकता है।

वितरकों व एजेण्टों के दोष (Drawbacks of Distributors and Agents)- इस व्यवस्था में नितिक को पूर्णत: वितरकों या एजेण्टों पर निर्भर रहना पड़ता है, हो सकता है वे उसके उत्पादों में विशेष रुचि न लें, क्योंकि वे उसी निर्यातक का नहीं, बल्कि अनेक निर्यातकों का माल बेच रहे होते हैं।

6.प्लान्ट की स्थापना (Establishment of Plant)-जिन कम्पनियों का विदेशों में काफी बड़ा बाजार होता है वे वहाँ पूर्ण स्वामित्व वाली निर्माण इकाइयाँ स्थापित कर लेती हैं। पीटर ड्रकर के | अनसार, “एक महत्वपूर्ण क्षेत्र में पर्याप्त विपणन स्थिति बनाये रखना, तब तक सम्भव नहीं है जब तक कि वहाँ कम्पनी का निर्माता के रूप में अपनी कोई भौतिक उपस्थिति न हो।” __

बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ विदेशी बाजारों में निर्माण या पुर्जे जोड़ने के कार्य में प्रत्यक्ष निवेश द्वारा ही अपने आपको वहाँ स्थापित कर पाई हैं।

7. असेंबलिंग (Assembling) असेम्बलिंग का अर्थ है किसी उत्पाद को बनाने के लिये विभिन्न पुों को जोड़ना। उदाहरणत: टेलीविजन बनाने के लिये कन्डेनसर, चिप, पिक्चर ट्यूब इत्यादि को जोड़ना पड़ता है, इसे असेम्बली या पुर्जे जोड़ने का कार्य कहते हैं। पुर्जे जोड़ने में शारीरिक श्रम की आवश्यकता पड़ती है। कुछ कम्पनियाँ पुर्जे तो अपने देश में बनाती हैं परन्तु उनको जोड़ने का कार्य ऐसे विकासशील देश में करवाती हैं जहाँ मजदूरी सस्ती है। यह भी होता है कि पुों का निर्माण तो स्वदेश में किया जाता है परन्तु उन्हें जोड़ने की प्रक्रिया के लिये विदेश भेज दिया जाता है तथा जुड़ने के पश्चात् फिर से उसे स्वदेश वापिस ले आया जाता है। सारांश में स्वदेश में बिकने वाले माल के पुर्जी को विदेश में जुड़वाया जाता है।

8.विलय एवं अधिग्रहण (Merger and Acquisition)-विदेशी बाजारों में प्रवेश तथा विस्तार व्यूहरचना के रूप में विलय एवं अधिग्रहण का प्रयोग लम्बे समय से किया जा रहा है। इसके द्वारा विदेशी बाजार की वितरण व्यवस्था में तेजी से पहुंचा जा सकता है। वर्तमान में भारतीय कम्पनियों ने भी इसी व्यहरचना का प्रयोग करके विदेशी बाजारों में प्रवेश करना आरम्भ कर दिया है। विलय एवं अधिग्रहण परस्पर भिन्न होते हैं। विलय की दशा में, एक फर्म दूसरी फर्म की सम्पत्तियों एवं दायित्वों का एक निश्चित भगतान के बदले में खरीद कर उसे अपनी कम्पनी में मिला लेती है। इसके विपरीत, आधिग्रहण की दशा में एक कम्पनी दूसरी कम्पनी को खरीद कर उसका प्रबंध अपने अधिकार में ले लती है। इस प्रकार की रीति-नीति से प्रतिस्पर्धा को कम किया जा सकता है। विलय एवं अधिग्रहण का एक प्रमुख उद्देश्य नई तकनीक या पेटेंट एकाधिकार का प्रयोग करना है।

अप्रत्यक्ष निर्यात संगठन 

जब उत्पादक प्रत्यक्ष रूप से निर्यात बाजार में भाग न लेकर मध्यस्थों के माध्यम से अपनी गुआ का निर्यात करता है तो इसे अप्रत्यक्ष निर्यात कहते हैं। अप्रत्यक्ष निर्यात संगठन के दो रूप हैं जिनका वर्णन इस प्रकार हैं-

(1) निर्यात विपणन मध्यस्थ (Export Marketing Middlemen)-इसके अंतर्गत देश में उपलब्ध विपणन मध्यस्थों में से किसी एक को चुन लिया जाता है जोकि विदेशी व्यापार करते हैं। ये न मध्यस्थ निम्नलिखित प्रकार के हा सकते हैं-

1. निर्यात कमीशन गृह (Export Commission House)-निर्यात कमीशन गृहों की स्थापना “क देशों में की जाती है जो आयातकर्ता के प्रतिनिधित्व के रूप में कार्यान्वित होते हैं। इनका मुख्य कार्य विदेशी क्रेताओं की आवश्यकता का माल निर्यातक देश से क्रय करना होता है जिसके फलस्वरूप इन्हें क्रय मूल्य पर निश्चित दर से कमीशन प्राप्त होता है। ये निर्यातक के देश, मंगवाने सम्बन्धी समस्त व्यय जैसे जहाजी भाडा माल उतारने व चढ़ान कय आदि विदशी वसूल करते हैं।

  1. नियात गृह (Export House)-निर्यात ग्रहों की स्थापना निर्यातक के देश में ही इनका मुख्य कार्य विदेशी बाजारों का अनसंधान एवं विश्लेषण करके उत्पाद की विदेशी मॉग के सूचनाए प्राप्त करना होता है। ये निर्यात गह कम मुल्यों पर निर्माताओं से उत्पाद क्रय करके अधिक मूल्य पर निर्यात बाजारों में बेचने का प्रयत्न करते हैं। क्रय तथा विक्रय मूल्य के मध्य रस होने वाला अंतर ही इनका लाभ होता है। ये निर्यात की जाने वाली वस्तुओं पर अपने ब्राण्ड, चिट ट्रेडमार्क आदि का प्रयोग कर सकते हैं।
  2. निर्यात के लिए निजी क्रेता (Private Buyer for Exports)-इसके अंतर्गत उन व्यक्तियों को सम्मिलित किया जाता है जिन्हें आयातक देश की संस्थाओं द्वारा निर्यातक देशों में नियक्त जाता है। इनका कार्य निर्यात देश से माल क्रय करके अपने देश में भेजना होता है। आयातक देश संस्था द्वारा इन्हें पहले से ही उत्पाद तथा भुगतान सम्बन्धी शर्तों के बारे में पूर्ण जानकारी दे दी जाती है। इसी के आधार पर व्यक्ति, निर्यातक के देश में कार्यरत विभिन्न संस्थाओं से सम्पर्क करके माल की भेजने की व्यवस्था करते हैं।

4. निर्यात के लिए सरकारी क्रेता एजेन्सी (Government Buying Agency for Export)-इस विधि के अंतर्गत निर्यातक अपने देश के उत्पादकों से उचित मूल्य पर माल क्रय करने के लिए अपने ही देश में एक एजेन्सी की स्थापना करता है ताकि अपने उत्पादों का विदेशी बाजारों की आवश्यकताओं के अनुरूप निर्यात किया जा सके। इस एजेन्सी पर सरकार का पूर्ण नियंत्रण होता है। ये एजेन्सियाँ निर्यात गृहों (Export Houses) की तरह ही कार्य करती हैं। भारत में भी इस प्रकार की कुछ एजेन्सियाँ कार्यरत हैं जैसे राज्य व्यापार निगम, खनिज तथा धातु व्यापार निगम। इस प्रकार, इन एजेन्सियों का कार्य उत्पादकों से माल क्रय करके उन्हें विदेशों में विक्रय करना है। _

  1. निर्यात दलाल (Export Brokers)-निर्यात दलाल अनुभवी तथा विशिष्ट व्यक्ति होते हैं। इनका मुख्य कार्य निर्यातकर्ता के लिए विदेशी बाजारों में ग्राहक ढूँढ़ना होता है। ये दलाल निर्यातकर्ता की शर्तों पर कार्य करते हैं। इन्हें अपनी सेवाओं के बदले में निर्यातक से सेवा शुल्क या दलाली प्राप्त होती है। इनका मुख्य उद्देश्य क्रेता तथा विक्रेता को मिलाना होता है। ये उत्पादकों से वस्तुएँ खरीदकर उनका निर्यात नहीं करते बल्कि क्रेता तथा विक्रेता को एक-दूसरे के समक्ष लाते हैं। ये ठेके पर दिए जाने वाले कार्यों में विशेषज्ञ होते हैं तथा विशेष किस्म की वस्तुओं में ही व्यापार करते हैं।
  2. निर्यात एजेन्ट (Export Agent)-निर्यातक देश में नियुक्त किए जाने वाले उत्पादक के एजेन्ट को निर्यात एजेन्ट कहते हैं। इनके द्वारा सम्पूर्ण व्यावसायिक गतिविधियाँ अपने नाम से ही सम्पन्न की जाती हैं। ये निर्यातकों से वस्तुएँ खरीदते हैं तथा उन वस्तुओं के आयातकों से आदेश प्राप्त होने पर उनकी पूर्ति करते हैं। इस प्रकार ये कई बार आयातक के क्रेता एजेन्ट के रूप में भी कार्य करते हैं। इनके द्वारा उत्पादकों को कई महत्वपूर्ण सूचनाएँ जैसे साख, वित्त, विदेशी रीति-रिवाज, फैशन, कीमत सम्बन्धी प्रतियोगिता इत्यादि उपलब्ध करवाई जाती हैं। इन्हें अपना पारिश्रमिक निर्माता द्वारा दिया जाता है।

(II) सहकारी-निर्यात व्यापार संगठन Organisation)-अप्रत्यक्ष निर्यात की उपर्युक्त् विधि के दोषों को दूर करने के लिए एक नई विधि का (Co-operative Export Trading विकास किया गया जिसे सहकारी-निर्यात व्यापार संगठन कहते हैं। यह निर्यात संगठन या तो सरकार आदेश के आधार पर या फिर सहकारी संस्थाओं की इच्छा के अनुसार गठित होता है। इसके अल कई फमें जो आर्थिक तौर पर स्वतंत्र हैं तथा वित्तीय रूप से सुदृढ़ हैं, मिलकर संयुक्त सगठन निर्माण करती हैं तथा सहकारिता की भावना से कार्य करते हुए अपने उत्पादों को विदेशी बाजारा बेचती है। इस प्रकार के निर्यात व्यापार संगठन बनाने का उद्देश्य अपने सदस्यों को उनके द्वारा उत्पापि वस्तु का उचित मूल्य दिलाना होता है।


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