B.Com 2nd Year Corporate Laws Definition Of Company Hindi Long Notes

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विस्तृत उत्तरीय प्रश्न 

प्रश्न 1 – एक कम्पनी की परिभाषा दीजिए और इसकी विशेषताएँ समझाइए।

Define a company and explain its characteristics. 

अथवा “कम्पनी एक कृत्रिम व्यक्ति है जिसका निर्माण कानून द्वारा किया जाता है, यह एक पृथक् अस्तित्व रखती है, इसको अविच्छिन्न उत्तराधिकार प्राप्त है तथा इसकी सार्वमुद्रा है।” उक्त कथन की व्याख्या कीजिए तथा कम्पनी की विशेषताएँ बताइए।

“A company is an artificial person created by law, having a separate entity with a perpetual succession and a common seal.” Discuss the above statement and also explain the characteristics of a company. 

उत्तर – कम्पनी का अर्थ . 

(Meaning of A Company) 

कम्पनी से आशय व्यापारिक संगठन के ऐसे प्रारूप से है जिसकी स्थापना कुछ व्यक्तियों द्वारा लाभ कमाने के उद्देश्य से विधान (कानून) के प्रावधानों के अन्तर्गत की जाती है।

सरल शब्दों में, ‘कम्पनी’ से आशय व्यक्तियों के एक ऐसे समूह से है जिनका एक सामान्य उद्देश्य होता है एवं जिसकी पूँजी हस्तान्तरणशील सीमित दायित्व वाले अंशों में विभाजित होती है। कम्पनी का कारोबार एक सार्वमुद्रा (Common Seal) के अधीन संचालित होता है और पंजीकरण के बाद इसका अपना पृथक् स्थायी अस्तित्व हो जाता है। कोई भी व्यक्ति कम्पनी के ऊपर तथा कम्पनी किसी भी व्यक्ति पर अभियोग/मुकदमा (Case) चला सकती है।

कम्पनी की परिभाषाएँ

(Definitions of Company) 

‘कम्पनी’ की विभिन्न परिभाषाओं को सुविधा के दृष्टिकोण से निम्नलिखित दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-I. प्रमुख विद्वानों एवं न्यायाधीशों द्वारा दी गई परिभाषाएँ तथा IL कम्पनी अधिनियम, 2013 में प्रदत्त परिभाषा। 

I. प्रमुख विद्वानों एवं न्यायाधीशों द्वारा दी गई परिभाषाएँ

अमेरिकन प्रमुख न्यायाधीश मार्शल के अनुसार, “संयुक्त पूँजी कम्पनी एक कृत्रिम, अदृश्य तथा अमूर्त संस्था है, जिसका अस्तित्व वैधानिक होता है और जो विधान द्वारा निर्मित होती है।” (यह परिभाषा कम्पनी की मुख्य विशेषताओं को स्पष्ट करती है। अतः इसे सही परिभाषा कहा जा सकता है।) 

II. कम्पनी अधिनियम, 2013 में प्रदत्त परिभाषाकम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 2(20) के अनुसार, “कम्पनी से अशय इस अधिनियम के अधीन अथवा इसके पूर्व के किसी कम्पनी अधिनियम के अधीन समामेलित कम्पनी से है।”

यह परिभाषा पूर्ण एवं उपयुक्त परिभाषा नहीं है क्योंकि यह कम्पनी के प्रमुख लक्षणों व इसकी विशेषताओं को स्पष्ट नहीं करती। इस परिभाषा में वर्णित विद्यमान कम्पनी से आशय पिछले कम्पनी अधिनियमों में से किसी भी अधिनियम के अन्तर्गत निर्मित एवं पंजीकृत कम्पनी से है।

निष्कर्ष (Conclusion)-उपयुक्त परिभाषा-उपर्युक्त परिभाषाओं का अध्ययन करने के बाद हम यह कह सकते हैं कि “कम्पनी एक वैधानिक एवं अदृश्य कृत्रिम व्यक्ति है जिसका समामेलन कम्पनी अधिनियम के अन्तर्गत किसी विशेष उद्देश्य से होता है, जिसका दायित्व सामान्यत: सीमित और अस्तित्व उसके सदस्यों से अलग होता है तथा इसकी एक सार्वमुद्रा होती है।”

कम्पनी की विशेषताएँ या लक्षण 

(Essentials or Characteristics of A Company) 

कम्पनी की उपर्युक्त परिभाषाओं के अध्ययन एवं विश्लेषण से कम्पनी की निम्नलिखित विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं –

1. पंजीकृत स्वैच्छिक संघ (Registered Voluntary Association) – कम्पनी की प्रथम विशेषता यह है कि यह व्यक्तियों का पंजीकृत या समामेलित (Incorporated) स्वैच्छिक संघ है, जिसका निर्माण तभी सम्भव होता है जब कुछ व्यक्ति स्वेच्छा से कम्पनी बनाने के लिए सहमत होते हैं तथा उसका कम्पनी अधिनियम के अधीन पंजीयन कराते हैं।

एक निजी कम्पनी के निर्माण के लिए कम-से-कम दो तथा सार्वजनिक कम्पनी के लिए कम-से-कम सात व्यक्तियों का होना आवश्यक होता है। जो व्यक्ति कम्पनी बनाने के लिए सहमत होते हैं उन्हें सीमानियम के ‘संघ वाक्य’ पर हस्ताक्षर करने होते हैं तथा इन्हें ही कम्पनी के प्रथम सदस्य कहा जाता है।

एक निजी कम्पनी में अधिकतम 200 सदस्य हो सकते हैं, किन्तु एक सार्वजनिक कम्पनी में सदस्यों की संख्या पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है।

2. विधान द्वारा निर्मित कृत्रिम व्यक्ति (An Artificial Person Created by Law)-कम्पनी राजनियम (कानून) द्वारा निर्मित एक कृत्रिम वैधानिक व्यक्ति है। प्राकृतिक व्यक्ति की भाँति एक कम्पनी सभी कार्य कर सकती है, इसलिए इसे व्यक्ति कहा गया है। इसे वैधानिक व्यक्ति इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसकी स्थापना कानूनी प्रक्रियाओं द्वारा होती है। कृत्रिम व्यक्ति इसलिए कहा गया है क्योंकि एक प्राकृतिक व्यक्ति की भाँति इसकी भौतिक उपस्थिति सम्भव नहीं है। अत: कम्पनी विधान के प्रावधानों के अनुरूप निर्मित एक कृत्रिम व्यक्ति है। न्यायमूर्ति मार्शल (Marshall) ने लिखा है कि “कम्पनी अदृश्य, अमूर्त तथा कृत्रिम व्यक्ति है जिसका अस्तित्व केवल कानून की दृष्टि में ही होता है।” लॉर्ड चान्सलर सेलबोर्न (Selborne, L.C.) के अनुसार, “यह कानून की कल्पना मात्र है”

इतना सब कुछ होने के उपरान्त भी यह जाली व्यक्ति नहीं अपित एक वास्ताक व्यक्ति (Real Person) है। इसके अनेक कारण हैं। कम्पनी प्राकतिक मनष्यों की तरह अपने नाम से सम्पत्ति खरीद सकती है, अपने नाम से प्राकृतिक व्यक्तियों के माध्य से

अनुबन्ध कर सकती है तथा अपने ही नाम से अन्य पक्षकारों पर न्यायालय में वाद प्रस्तुत कर सकती है तथा अन्य पक्षकार भी कम्पनी के नाम से वाद प्रस्तुत कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में, कम्पनी के भी उतने ही व्यावसायिक दायित्व तथा अधिकार हो सकते हैं जितने कि एक प्राकृतिक व्यक्ति के। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सभी वैधानिक उद्देश्यों की पूर्ति की दृष्टि से कम्पनी भी ठीक उसी प्रकार का एक व्यक्ति है जिस प्रकार एक प्राकृतिक व्यक्ति होता है।

3. स्थायी अस्तित्व (Perpetual Existence) – कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 9 के अनुसार, कम्पनी का अस्तित्व स्थायी होता है अर्थात् कम्पनी का जीवन इसके सदस्यों के जीवन पर निर्भर नहीं करता। कम्पनी के किसी सदस्य की मृत्यु, दिवालिया या पागल हो जाने या किसी सदस्य द्वारा कम्पनी से अलग होने का कम्पनी के अस्तित्व पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता अर्थात् कम्पनी निरन्तर चलती रहती है। वस्तुत: कम्पनी के सदस्यों में किसी भी प्रकार का कोई भी परिवर्तन हो, कम्पनी का जीवन समाप्त नहीं होता और वह स्थायी रूप से कार्य करती रहती है। इसीलिए यह कहा जाता है कि “Members may go, and members may come, but a company goes on forever.” दूसरे शब्दों, में यदि कम्पनी के सभी पुराने सदस्यों के स्थान पर नये सदस्य आ जाएँ तो भी कम्पनी के अस्तित्व पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। __

ब्लैक्स्टोन (Blackstone) – ने कम्पनी के स्थायी अस्तित्व की तुलना नदी के अस्तित्व से करते हुए लिखा है कि “यद्यपि नदी के निर्माण करने वाले तत्त्व प्रतिक्षण बदलते रहते हैं किन्तु नदी के पाट या किनारे वहीं स्थिर रहते हैं। ठीक उसी प्रकार कम्पनी के सदस्य भी परिवर्तित हो सकते हैं। किन्तु कम्पनी के अस्तित्व पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।”

कम्पनी के अस्तित्व को सरकार भी समाप्त नहीं कर सकती है। यदि सरकार किसी कम्पनी के सम्पूर्ण कारोबार को अधिगृहीत कर ले तो भी कम्पनी का अस्तित्व तब तक बचा रहेगा जब तक कि कम्पनी का विधिवत् समापन नहीं कर दिया जाएगा। [Mookerjee B.Vs. State Bank of India. AIR (1992) Cal. 250]

4. पृथक् वैधानिक अस्तित्व (Separate Legal Entity) – कम्पनी का अपने अंशधारियों (सदस्यों) से पृथक् वैधानिक अस्तित्व होता है, परिणामस्वरूप कम्पनी अपने किसी भी सदस्य के साथ कोई भी अनुबन्ध कर सकती है एवं सदस्य कम्पनी के साथ अनुबन्ध कर सकते हैं। कम्पनी अपने सदस्यों पर मुकद्दमा चला सकती है और सदस्य भी उस पर मुकद्दमा चला सकते हैं। इसके अतिरिक्त कम्पनी द्वारा किए गए कार्यों के लिए अंशधारी यो सदस्य उत्तरदायी नहीं होते हैं। इंग्लैण्ड के हाउस ऑफ लार्ड्स ने सोलोमन बनाम सोलोमन एण्ड कं. लि. के मामले में इसी सिद्धान्त को अपनाया तथा सदस्यों को कम्पनी से पृथक माना था। कलकत्ता तथा मुम्बई उच्च न्यायालयों का भी यही मत रहा है।5. सार्वमुद्रा (Common Seal) – सार्वमुद्रा का आशय कम्पनी के नाम की मुहर से होता है। कृत्रिम व्यक्तित्व होने के कारण कम्पनी स्वयं कोई कार्य नहीं कर सकती क्योंकि इसका कोई भी भौतिक अस्तित्व नहीं होता। कम्पनी का कार्य कम्पनी के संचालक, सचिव व प्रबन्ध संचालकों आदि के द्वारा किया जाता है और ये व्यक्ति कार्य करते समय कम्पनी की

मुहर लगा देते हैं तभी उनके द्वारा किए गए कार्य कम्पनी द्वारा किए गए कार्य माने जाएंगे और कम्पनी उनसे बाध्य होगी। इस प्रकार कम्पनी की मुहर कम्पनी के हस्ताक्षर हैं। जिन पत्रों, प्रपत्रों व प्रसंविदों पर कम्पनी की मुहर नहीं लगी हुई होती, वे कम्पनी के नहीं माने जाते। कम्पनी संशोधन अधिनियम, 2015 की अधिसूचना संख्या 1/6/2015-CL (V) के अनुसार दिनांक 29.5.2015 से सार्वमुद्रा की अनिवार्यता समाप्त कर दी गई है।

6. सीमित दायित्व (Limited Liability) – सीमित दायित्व का अर्थ है”आपको उतना ही भुगतान करना है जितना भुगतान करने की आपने सहमति दी है।” (you have to pay as much as you have agreed to pay)। इसके विपरीत, असीमित दायित्व का अर्थ है-“आपको उतना भुगतान करना है जितना आप कर सकते हैं।” (You have to pay as much as you have)। सीमित दायित्व के सिद्धान्त को भारत में सर्वप्रथम सन् 1857 में लागू किया गया था। कम्पनी के सदस्यों का दायित्व उनके द्वारा क्रय किए गए अंशों की राशि तक ही सीमित होता है। अत: यदि किसी अंशधारी ने अपने अंशों की पूर्ण राशि का भुगतान कर दिया है तो उसका कम्पनी के प्रति कोई दायित्व नहीं रहता। गारण्टी द्वारा सीमित कम्पनी की दशा में सदस्यों का दायित्व उस राशि तक सीमित होता है जो वे (अंशधारी), कम्पनी के समापन की दशा में, कम्पनी की सम्पत्तियों में अंशदान करने को सहमत होते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि सदस्यों का दायित्व सीमित होता है, असीमित नहीं। सारांश रूप में यह कहा जा सकता है कि कम्पनी में हानि होने की दशा में कम्पनी के ऋणदाता, अंशधारियों की निजी सम्पत्ति से कोई रकम वसूल नहीं कर सकते। यदि कम्पनी का व्यवसाय कम्पनी के ऋणदाताओं या अन्य पक्षकारों के साथ धोखाधड़ी करने के उद्देश्य से संचालित किया गया हो तो ऐसे सदस्यों/संचालकों का दायित्व असीमित होगा।

7. कम्पनी का समापन (Winding-up of a Company) – जिस प्रकार एक कम्पनी का निर्माण अधिनियम के द्वारा होता है, उसी प्रकार इसकी समाप्ति भी कम्पनी अधिनियम में वर्णित समापन की विधियों के द्वारा ही हो सकती है।

8. अभियोग चलाने का अधिकार (Right to Sue) – कम्पनी एक वैधानिक व्यक्ति है अर्थात् कम्पनी की सारी कार्यवाही उसके नाम में ही होती है। किसी अनुचित दायित्व से बचने के लिए तथा अपने अधिकार या सम्पत्ति की रक्षा करने के लिए कम्पनी को अपने नाम से दूसरों पर वाद प्रस्तुत करने का अधिकार है।

9. अंशधारी एजेन्ट नहीं (Shareholders are not Agents) – कम्पना का महत्त्वपूर्ण विशेषता यह भी है कि इसके अंशधारी कम्पनी के एजेन्ट के रूप में कार्य नहीं कर सकते अर्थात् अंशधारी अपने कार्यों से कम्पनी को बाध्य नहीं कर सकते।

10. सदस्यों की संख्या (Number of Members) – एक सार्वजनिक कम्प सदस्यों की न्यूनतम संख्या सात होती है तथा अधिकतम संख्या पर कोई प्रतिबन्ध नहीं होता अर्थात यह निर्गमित अंशो का संख्या के बराबर तक हो सकती है। इसके विपरीत, एक व्यक्तिगत या निजी कम्पनी में सदस्यों को न्यूनतम संख्या दो या अधिकतम संख्या दा (200) तक हो सकती है।

11. प्रतिनिधि प्रबन्ध व्यवस्था (Representative Management) – प्रायः कम्पनी के अंशधारियों की संख्या बहुत अधिक होती है तथा वे दूर-दूर भी रहते हैं जिसके कारण प्रत्येक अंशधारी का कम्पनी के प्रबन्ध एवं संचालन में भाग लेना असम्भव होता है। अत: कम्पनी का प्रबन्ध अंशधारियों द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा किया जाता है जिन्हें संचालक (Director) कहते हैं। संचालकों के अधिकार एवं दायित्व कम्पनी के पार्षद अन्तर्नियम के द्वारा निश्चित किए जाते हैं।

12. अंशों की हस्तान्तरणशीलता (Transferability of Shares) – कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 56 के अनुसार, सामान्यत: कम्पनी के अंशधारी अपने अंशों का हस्तान्तरण स्वेच्छा से किसी भी व्यक्ति, फर्म या संस्था के पक्ष में कर सकते हैं जब तक कि कम्पनी के पार्षद अन्तर्नियम में इसके विपरीत कोई अन्य बात न हो। एक निजी कम्पनी की दशा में जब तक अन्तर्नियमों की शर्तों का पालन नहीं किया जाएगा, तब तक अंशों को हस्तान्तरित नहीं किया जा सकता।

13. पृथक् सम्पत्ति (Separate Property) – कम्पनी की सम्पत्ति इसके अंशधारियों की सम्पत्ति नहीं, अपितु कम्पनी की अपनी सम्पत्ति होती है। कृत्रिम व्यक्ति होने के उपरान्त भी कम्पनी एक वास्तविक व्यक्ति (Real person) है। अतः कम्पनी अपने नाम में सम्पत्ति का क्रय-विक्रय कर सकती है, उसे अपने नाम में रख सकती है, उसे बन्धक रख सकती है तथा उसका उपयोग कर सकती है।

जहाँ तक अंशधारियों का प्रश्न है वे कम्पनी की सम्पत्ति के स्वामी या सह-स्वामी नहीं होते। वे कम्पनी के जीवनकाल में ही नहीं अपितु उसके समापन के समय भी कम्पनी की सम्पत्तियों के स्वामी होने का दावा नहीं कर सकते हैं। [Perumal (R.T.) Vs. John Deavin, AIR (1960) Mad. 43] वे कम्पनी की सम्पत्तियों का निजी हित के लिए उपयोग भी नहीं कर सकते हैं। इतना ही नहीं, अंशधारियों का कम्पनी की सम्पत्तियों में बीमायोग्य हित भी नहीं होता है, फलत: वे कम्पनी की सम्पत्तियों का बीमा भी नहीं करवा सकते हैं। [Macaura Vs. Northern Insurance Co. Ltd., (1925) AC 619]

14. कार्यक्षेत्र की सीमाएँ (Limitations of Action) – एक कम्पनी अपने पार्षद सीमानियम तथा पार्षद अनतर्नियमों के बाहर कार्य नहीं कर सकती है। इसका कार्य-क्षेत्र कम्पनीज अधिनियम तथा इसके सीमानियम व अन्तर्नियम द्वारा सीमित होता है।

15. लाभ के लिए ऐच्छिक संघ (Voluntary Association for Profit) – सामान्यत: प्रत्येक कम्पनी की स्थापना लाभ कमाने के उद्देश्य से की जाती है. परन्त यह ऐच्छिक संघ है अर्थात् किसी को जबरदस्ती इसका अंशधारी नहीं बनाया जा सकता। कम्पनी को जो भी प्राप्त होता है, वह निश्चित नियमों के अनुसार अंशधारियों में बाँट दिया जाता है।

प्रश्न 2 – कम्पनी अधिनियम द्वारा निजी कम्पनियों पर लगाए गए वैधानिक पनिबन्धों का विवेचन कीजिए। निजी कम्पनी तथा सार्वजनिक कम्पनी में अन्तर बताइए।

Discuss the statutory obligations imposed upon the private companies by Companies Act. Differentiate between private company and public company,

अथवा निजी कम्पनी की परिभाषा दीजिए।कम्पनी अधिनियम के अन्तर्गत उन्हें कौन-कौन से विशेषाधिकार एवं छूटे प्राप्त हैं?

Define a private company. What privileges and exemptions which such companies may enjoy under the Companies Act ? 

उत्तर – निजी कम्पनी

(Private Company) 

इनको अलोक या व्यक्तिगत कम्पनी भी कहते हैं। कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 2 (68) के अनुसार, निजी कम्पनी का आशय एक ऐसी कम्पनी से है जिसकी प्रदत्त पूँजी कम-से-कम एक लाख रुपये या इससे अधिक निर्धारित की गई राशि की है। [कम्पनी (संशोधन) अधिनियम, 2015 की अधिसूचना संख्या 1/6/2015-CL(V) के अनुसार दिनांक 29.5.2015 से ‘प्रदत्त पूँजी एक लाख रुपये या इससे अधिक शब्द को हटा दिया गया है] तथा जो अपने अन्तर्नियमों द्वारा—(अ) अपने अंशों, यदि कोई हों, के हस्तान्तरण पर प्रतिबन्ध लगाती है। (ब) निम्नलिखित को छोड़कर, अपने सदस्यों की अधिकतम संख्या 200 तक सीमित करती है-(i) ऐसे व्यक्ति जो कि कम्पनी के कर्मचारी हैं तथा (ii) ऐसे व्यक्ति जो कि पहले कम्पनी के कर्मचारी रहते हुए कम्पनी के सदस्य थे और अब कर्मचारी नहीं हैं, लेकिन सदस्य बने हुए हैं तथा (iii) 200 सदस्यों की अधिकतम संख्या की गिनती करने हेतु संयुक्त अंशधारियों (2 या 2 से अधिक व्यक्तियों द्वारा संयुक्त रूप से अंश धारित करने वाले अंशधारी) को एक सदस्य माना जाता है। (iv) निजी कम्पनी की स्थापना केवल दो सदस्यों से हो सकती है, यद्यपि कम्पनी अधिनियम, 2013 के अनुसार, निजी कम्पनी एक व्यक्ति कम्पनी (One Person Company) के रूप में भी समामेलित करायी जा सकती है। 

(स) अपने अंशों तथा ऋण-पत्रों को खरीदने के लिए सार्वजनिक निमन्त्रण नहीं देती।

1.सार्वजनिक कम्पनी (Public Company)-इनको लोक कम्पनी भी कहते हैं। भारतीय कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 2 (71) के अनुसार, “सार्वजनिक कम्पनी का आशय एक ऐसी कम्पनी से है जो कि निजी कम्पनी नहीं है तथा जिसकी प्रदत्त पूँजी कम-सेकम पाँच लाख रुपये अथवा इससे अधिक निर्धारित की गई राशि की है।” इस परिभाषा से सार्वजनिक कम्पनी का अर्थ पूर्णतया स्पष्ट नहीं होता। अधिनियम की विभिन्न व्यवस्थाओं के अन्तर्गत एक सार्वजनिक कम्पनी उसे माना जाता है जिसमें निम्नलिखित विशेषताएँ विद्यमान हों

(i) जिसकी प्रदत्त पूँजी कम-से-कम 5 लाख रुपये अथवा इससे अधिक निर्धारित का गई राशि की है। कम्पनी (संशोधन) अधिनियम 2015 की अधिसूचना संख्या 1/6/2015-CL (V) के अनुसार 29.5.2015 से इस प्रतिबन्ध को हटा दिया गया है।

(ii) सदस्य संख्या न्यूनतम 7 हो, अधिकतम की कोई सीमा नहीं, 

(iii) कम्पनी अपने अंशों के हस्तान्तरण पर किसी प्रकार का कोई प्रतिबन्ध न लगाय, 

(iv) कम्पनी अपने अंशों व ऋणपत्रों के क्रय के लिए जनसाधारण को आमन्त्रित करें।

निगमीय विधि निजी कम्पनी की विशेषताएँ या लक्षण

(Characteristics of Private Company) 

निजी कम्पनी की प्रमुख विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं-

1. न्यूनतम प्रदत्त पूँजी – भारतीय कम्पनी (संशोधन) अधिनियम, 2013 के अनुसार, एक निजी कम्पनी की कम-से-कम एक लाख रुपये की प्रदत्त पूँजी होनी चाहिए। कम्पनी (संशोधन) अधिनियम, 2015 की अधिसूचना संख्या 1/6/2015-CL(V) के अनुसार दिनांक 29.5.2015 से ‘प्रदत्त पूँजी एक लाख रुपये या इससे अधिक’ शब्द को हटा दिया गया है।

2. अंशों के हस्तान्तरण पर प्रतिबन्ध – एक निजी कम्पनी के अंशों को हस्तान्तरित नहीं किया जा सकता। निजी कम्पनी अपने अन्तर्नियमों द्वारा अंशों के हस्तान्तरण पर रोक लगा देती है।

यहाँ यह बात भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है कि यदि कुछ व्यक्ति संयुक्त अंशधारी हैं और सभी संयुक्त अंशधारी मिलकर अपने में से किसी एक अंशधारी को अंशों का हस्तान्तरण करते हैं तो यह हस्तान्तरण अन्तर्नियमों में लगाए गए प्रतिबन्धों के विरुद्ध नहीं है। जरनैल सिंह बनाम बक्षीसिंह [Jarnail Singh Vs. Bakshi Singh, AIR (1960) Punj. 455] के विवाद में इसी तथ्य को स्वीकार किया गया था।

3. सदस्यों की संख्या पर प्रतिबन्ध – एक निजी कम्पनी में कम-से-कम दो सदस्य होने चाहिए लेकिन सदस्यों की अधिकतम संख्या 200 तक हो सकती है। इस अधिकतम संख्या में कम्पनियों के कर्मचारी शामिल नहीं किए जाते। यहाँ यह बात महत्त्वपूर्ण है कि यदि दो या अधिक व्यक्तियों ने मिलकर किसी कम्पनी के अंश खरीदे हैं तो यहाँ सदस्यों की गणना करते समय उन संयुक्त अंशधारियों को एक ही सदस्य माना जाएगा। उदाहरण के लिए, यदि रमेश, महेश तथा सुरेश मिलकर किसी निजी कम्पनी के 200 अंश संयुक्त रूप से खरीदते हैं तो इन्हें निजी कम्पनी के एक सदस्य के रूप में ही माना जाएगा यद्यपि ये तीन अलग-अलग व्यक्ति हैं।

4. अंशों व ऋणपत्रों के क्रय के लिए जनता को आमन्त्रित न करना – एक निजी कम्पनी सार्वजनिक कम्पनी की भाँति अपने अंशों व ऋणपत्रों को क्रय करने के लिए जनता को आमन्त्रित नहीं कर सकती। उसके अंशों व ऋणपत्रों का क्रय स्वयं के सदस्यों द्वारा ही किया जाता है। अत: कम्पनी के संचालक किसी सम्बन्धी को तो अंशों के क्रय के लिए निमन्त्रण दे सकते हैं, किन्तु सामान्य जनता को विज्ञापन अथवा खुले प्रविवरण द्वारा अंशों के क्रय के लिए | आमन्त्रित नहीं कर सकते हैं।

5. सीमित दायित्व – सार्वजनिक कम्पनी की भाँति निजी कम्पनी के सदस्यों का दायित्व भी सामान्यतया सीमित होता है।16. प्राइवेट लिमिटेड शब्द का प्रयोग – निजी कम्पनी के लिए अपने नाम के बाद ‘प्राइवेट लिमिटेड’ शब्द का प्रयोग करना अनिवार्य है।

7. सार्वजनिक जमाओं पर निषेध – एक निजी कम्पनी अपने सदस्यों, संचालकों एवं उनके रिश्तेदारों के अतिरिक्त अन्य व्यक्तियों से जमाएँ आमन्त्रित या स्वीकार नहीं कर सकती।

8. कम-से-कम दो संचालक – निजी कम्पनी में कम-से-कम दो संचालक होने आवश्यक हैं। अधिकतम संख्या अन्तर्नियमों में दी जा सकती है।

निजी कम्पनी के विशेषाधिकार एवं छूटें 

(Special Privileges And Exemptions of A Private Company)

भारतीय कम्पनी अधिनियम निजी और सार्वजनिक कम्पनियों पर सामान्यत: समान रूप से लागू होता है, परन्तु फिर भी निजी कम्पनियों के सम्बन्ध में कुछ उदारता बरती गई है।’ कम्पनी अधिनियम, 2013 के अन्तर्गत एक निजी कम्पनी को सार्वजनिक कम्पनी की तुलना में कुछ विशेषाधिकार एवं छुटे प्राप्त हैं, जिनकी संक्षिप्त विवेचना इस प्रकार है

1. न्यूनतम सदस्य संख्या – निजी कम्पनी के समामेलन हेतु केवल दो सदस्यों की ही आवश्यकता होती है, जबकि सार्वजनिक कम्पनी की स्थापना हेतु कम-से-कम 7 सदस्य हि आवश्यक हैं।

2. प्रविवरण या प्रविवरण का स्थानापन्न प्रविवरण — निजी कम्पनी को प्रविवरण या प्रविवरण का स्थानापन्न विवरण तैयार करने और उसे रजिस्ट्रार के पास जमा कराने की अ आवश्यकता नहीं होती।

3. अंशों का आवंटन – निजी कम्पनी समामेलन के तुरन्त बाद अंशों का आवंटन कर क सकती है। इसके लिए न्यूनतम अभिदान (Minimum Subscription) की कोई शर्त नहीं है।

4. नए अंशों का निर्गमन –  सार्वजनिक कम्पनी की भाँति निजी कम्पनी नए अंशों को ब विद्यमान अंशधारियों को निर्गमित करने के लिए बाध्य नहीं है।

5. अंशों के हस्तान्तरण पर प्रतिबन्ध – यदि निजी कम्पनी के संचालकों ने किस क अंशधारी के अंशों का हस्तान्तरण अस्वीकार कर दिया है तो वह अंशधारी उसके लिए केन्द्रीय सरकार से भी अपील नहीं कर सकता।

6. प्रबन्धकीय पारिश्रमिक – निजी कम्पनी अपने प्रबन्धकों को किसी भी सीमा तकपारिश्रमिक दे सकती है। अधिकतम 11% सीमा का प्रावधान निजी कम्पनी की दशा में ला नहीं होता है।

7. कोरम की पर्याप्तता – यदि कम्पनी के अन्तर्नियमों में विपरीत व्यवस्था नहीं ह एक निजी कम्पनी में अंशधारियों की साधारण सभा में दो सदस्यों की उपस्थिति ही सभा च के लिए पर्याप्त कोरम मानी जाती है। एक सार्वजनिक कम्पनी में इसके लिए 5 सद आवश्यकता पड़ती है।8. लाभ-हानि खाता व चिट्ठा – निजी कम्पनी को अपने लाभ-हानि खात चिट्टे की 3 प्रतियाँ रजिस्ट्रार को भेजना आवश्यक है, परन्त इनकी प्रतिलिपि लेन केवल सदस्यों को ही है। सदस्य के अतिरिक्त अन्य किसी व्यक्ति को इन्हें देख नहीं होता।

9. संचालक सम्बन्धी छूटें – संचालकों के सम्बन्ध में निजी कम्पनी को निम्नलिखित छूटे प्राप्त हैं

(i) निजी कम्पनी के लिए न्यूनतम संचालकों की संख्या दो है।

(ii) निजी कम्पनी के संचालकों की संख्या तथा पारिश्रमिक बढ़ाने के लिए केन्द्रीय सरकार की अनुमति आवश्यक नहीं होती।

(iii) प्रबन्ध संचालक या पूर्णकालिक संचालक की नियुक्ति के लिए तथा उसकी पुन: नियुक्ति की शर्तों में परिवर्तन आदि करने के लिए केन्द्रीय सरकार की अनुमति नहीं लेनी पड़ती।

(iv) निजी कम्पनी के संचालकों पर योग्यता अंश (Qualification Shares) लेने ‘ सम्बन्धी नियम लागू नहीं होते।

(v) निजी कम्पनी के संचालक किसी भी ऐसे अनुबन्ध पर जिसमें उनका व्यक्तिगत हित है, स्वतन्त्रतापूर्वक विचार-विमर्श कर सकते हैं तथा उस पर होने वाले मतदान में भाग ले सकते हैं।

(vi) प्रथम संचालकों की नियुक्ति करते समय किसी भी प्रकार के विज्ञापन की की आवश्यकता नहीं है।

(vii) क्रम से अवकाश ग्रहण (Retirement by Rotation) का सिद्धान्त निजी र कम्पनी में लागू नहीं होता। । 

(viii) इसके सभी संचालक एक साथ एक ही प्रस्ताव द्वारा नियुक्त किए जा सकते हैं।

(ix) इसके संचालकों को अपनी प्रथम नियुक्ति के 30 दिन के अन्दर अपने संचालक की बनने की लिखित स्वीकृति रजिस्ट्रार के यहाँ दाखिल नहीं करनी पड़ती।

(x) हित रखने वाला संचालक, संचालक मण्डल की सभा में बैठ सकता है, उसकी मा कार्यवाहियों में भाग ले सकता है तथा अपने हित वाले प्रस्तावों पर मतदान भी कर सकता है।

  अन्तर का आधार निजी कम्पनी  सार्वजनिक कम्पनी
1 लिमिटेड या प्रइवेट लिमिटेड शब्द का प्रयोग निजी कम्पनी के नाम के अन्त में प्राईवेट लिमिटेड शब्द लगाना आवश्यक है। सार्वजनिक कम्पनी के नाम के अन्त में केवल लिमिटेड शब्ध लगाना पडता है।
2 योग्यता अंश निजी कम्पनी में संचालको के लिए योग्यता अंश लेना अनिवार्य नही है। सार्वजनिक कम्पनी में संचालको के लिए योग्यता अंश लेना अनिवार्य है।

प्रश्न – 3 उल्लेख कीजिए कि किस प्रकार तथा किन-किन आशयों में एक कम्पनी अपने पार्षद सीमानियम में परिवर्तन कर सकती है?

Explain how and in what respect a company can alter its memorandum of association ? 

उत्तर – पार्षद सीमानियम में परिवर्तन

(Alteration in Memorandum of Association) 

सामान्यतः पार्षद सीमानियम कम्पनी का एक अपरिवर्तनशील अधिकार-पत्र (Charter) कहलाता है, परन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि उसमें परिवर्तन किया ही नहीं जा सकता। कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 13 में यह स्पष्ट किया गया है कि कोई भी कम्पनी अपने पार्षद सीमानियम में दी हुई शर्तों में परिवर्तन केवल अधिनियम में दी हुई स्पष्ट दशाओं, निर्धारित तरीकों एवं निर्धारित सीमाओं के अतिरिक्त नहीं कर सकती है। इस प्रकार का परिवर्तन कुछ दशाओं में अंशधारियों के बहुमत से, कुछ दशाओं में कम्पनी विधान मण्डल की अनुमति प्राप्त होने पर, कुछ दशाओं में केन्द्रीय सरकार की सहमति प्राप्त करके और साथ में कम्पनी के सदस्यों की सभा में आवश्यक प्रस्ताव पारित होने पर ही किया जा सकता है। पार्षद सीमानियम के विभिन्न वाक्यों (Clause) को निम्नलिखित प्रकार परिवर्तित किया जा सकता है

1. नाम वाक्य में परिवर्तन (Change in Name Clause)-कम्पनी के नाम में कोई परिवर्तन धारा 4 की उप-धारा (2) और (3) के प्रावधानों के अनुसार होगा एवं केन्द्र सरकार की लिखित अनुमति के बिना प्रभावी नहीं होगा, परन्तु ऐसी अनुमति आवश्यक नहीं होगी जहाँ नाम में केवल उससे ‘निजी’ शब्द को जोड़ने अथवा हटाने के सम्बन्ध में है जो एक कम्पनी को दूसरी कम्पनी में परिवर्तित करने के कारण इस अधिनियम के प्रावधानों के अन्तर्गत हुआ है।

जहाँ उप-धारा (2) के अन्तर्गत नाम में परिवर्तन किया जाता है तो रजिस्ट्रार कम्पनी रजिस्टर में पुराने नाम के स्थान पर नया नाम लिख देगा और नए नाम के साथ एक नया समामेलन का प्रमाण-पत्र जारी करेगा। नाम में परिवर्तन केवल ऐसा प्रमाण-पत्र जारी करने पर पूर्ण एवं प्रभावी होगा।

केन्द्रीय सरकार के निर्देश पर कम्पनी के नाम को ठीक करना (धारा 16) – यदि भूल या अन्य कारण से पहली बार या नए नाम से कम्पनी का पंजीकरण किसी ऐसे नाम से हो जाए जो सरकार की राय में विद्यमान कम्पनी के नाम जैसा है या उससे अधिक मिलता-जुलता है तो केन्द्र सरकार, कम्पनी को नाम में परिवर्तन करने का निर्देश दे सकती है और कम्पनी ऐस। निर्देश के जारी होने के तीन माह में एक साधारण प्रस्ताव पारित करके इसका नाम या नया नाम बदल लेगी, जैसी भी स्थिति हो।

2. रजिस्टर्ड कार्यालय वाक्य में परिवर्तन (Change in Registered Office प्र Clause) [धारा 12]-इस वाक्य में परिवर्तन की निम्नलिखित तीन दशाएँ हो सकती हैं- स(i) एक कम्पनी अपने रजिस्टर्ड कार्यालय को एक ही शहर में एक स्थान से दूसरव स्थान को ले जाती है तो इसे पार्षद सीमानियम को परिवर्तन नहीं माना जाता है। इसके लिए केवल संचालक मण्डल द्वारा प्रस्ताव पास किया जाता है तथा इसकी सूचना 30 दिन के अन्य रजिस्ट्रार को दी जाती है।

(ii) एक ही राज्य में एक स्थान से दूसरे स्थान पर रजिस्टर्ड कार्यालय ले जाना चाहती है तो कम्पनी को इसके बारे में विशेष प्रस्ताव पास करना पड़ेगा एवं ऐसे परिवर्तन हेतु क्षेत्रीय निदेशक द्वारा परिवर्तन की पुष्टि अनिवार्य होगी। इसके लिए कम्पनी निर्धारित प्रारूप में क्षेत्रीय निदेशक (Regional Director) को एक प्रार्थना-पत्र देगी एवं प्रार्थना-पत्र प्राप्त करने की तिथि से 30 दिन (चार सप्ताह) के अन्दर क्षेत्रीय निदेशक द्वारा पष्टिकरण की सचना दी जाएगी।

(iii) एक राज्य से दूसरे राज्य में रजिस्टर्ड कार्यालय ले जाना—यदि कम्पनी अपने | रजिस्टर्ड कार्यालय को एक राज्य से दूसरे राज्य में किसी स्थान पर ले जाना चाहती है तो एक विशेष प्रस्ताव इसके लिए पास कराया जाता है और केन्द्रीय सरकार की स्वीकृति लेनी पड़ती है। केन्द्र सरकार उपधारा (4) के अन्तर्गत प्रार्थना-पत्र का 60 दिन के अन्दर निपटान कर देती है, परन्तु कार्यालय परिवर्तन की आज्ञा देने से पूर्व इस बात की पूर्ण सन्तुष्टि कर लेती है कि प्रस्तावित परिवर्तन का लेनदारों एवं ऋण-पत्रधारियों के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव तो नहीं पड़ेगा तथा लेनदारों एवं ऋण-पत्रधारियों की लिखित सहमति प्राप्त कर ली गई है और सहमति न मिलने पर उनके ऋणों का भुगतान अथवा उन्हें सन्तुष्ट कर दिया गया है।

इसके पश्चात् केन्द्रीय सरकार द्वारा उक्त परिवर्तन को अनुमोदित करने के आदेश की प्रमाणित प्रति एवं विशेष प्रस्ताव की प्रतिलिपि सम्बन्धित कम्पनी द्वारा निर्दिष्ट समय तथा प्रारूप में में दोनों राज्यों के रजिस्ट्रार के पास फाइल की जाती है, जो इसे पंजीकृत करते हैं एवं जिस – राज्य में पंजीकृत कार्यालय स्थानान्तरित किया जा रहा है उस राज्य का रजिस्ट्रार परिवर्तन प्रकट ही करते हुए समामेलन का नया प्रमाण-पत्र जारी करेगा।

अन्त में, रजिस्टर्ड कार्यालय परिवर्तित नए स्थान पर स्थानान्तरित कर दिया जाएगा तथा त स्थान परिवर्तन की सूचना परिवर्तन के 15 दिनों के अन्दर नए पते सहित नए रजिस्ट्रार को । प्रेषित कर दी जाएगी। 

3. उद्देश्य वाक्य में परिवर्तन (Alteration in Object Clause) (धारा 13)या धारा 61 में किए गए प्रावधानों को छोड़ कर कम्पनी विशेष प्रस्ताव पारित करके और इस धारा पर में निर्दिष्ट प्रक्रिया का अनुपालन करके अपने उद्देश्य वाक्य में परिवर्तन कर सकती है।

(i) उद्देश्य वाक्य में परिवर्तन के लिए विशेष प्रस्ताव पारित करना – कम्पनी जिसने दि प्रविवरण के माध्यम से जनता से धन एकत्रित किया है और अभी तक उस धन का उपयोग नहीं हो किया है तो जिस उद्देश्य के लिए कम्पनी ने प्रविवरण के द्वारा धन इकट्ठा किया है तब तक ता उद्देश्य वाक्य में परिवर्तन नहीं कर सकती जब तक कि कम्पनी द्वारा विशेष प्रस्ताव पारित न से किया जाए, एवं 

(ii) विवरण समाचार-पत्रों में प्रकाशित करना – उपर्युक्त पारित विशेष प्रस्ताव के सम्बन्ध में निर्धारित विवरण समाचार-पत्रों (एक अंग्रेजी में और एक स्थानीय भाषा) में प्रकाशित किया जाएगा जो उस स्थान पर परिचारित है जहाँ कम्पनी का पंजीकत कार्यालय स्थापित है एवं कम्पनी की वेबसाइट पर भी, यदि कोई है, ऐसे परिवर्तन के औचित्य को सचित परे करना होगा, एवं

(iii) असन्तुष्ट अंशधारियों को कम्पनी छोड़ने का अवसर प्रदान करना – ऐसे र अंशधारी जो प्रस्तावित परिवर्तन से असहमत हों उन्हें प्रवर्तकों एवं नियन्त्रण रखने वाले

अंशधारियों द्वारा सेबी (SEBI) द्वारा नियमित नियमों के अनुसार कम्पनी छोड़ने का अवस प्रदान किया जाएगा।

(iv) परिवर्तन का रजिस्ट्रार द्वारा पंजीकरण – कम्पनी रजिस्ट्रार पार्षद सीमानियम वेड उद्देश्य वाक्य में हुए किसी भी परिवर्तन को पंजीकृत करेगा एवं विशेष प्रस्ताव फाइल करने के तिथि के 30 दिन के अन्दर पंजीकरण को प्रमाणित करेगा।

(v) परिवर्तन, बिना पंजीकरण के प्रभावी नहीं – इस धारा के अन्तर्गत किया गय कोई भी परिवर्तन तक तब प्रभावी नहीं होगा जब तक कि उसे इस धारा के प्रावधानों के अनुसार पंजीक़त न किया जाए।

(vi) कुछ दशाओं में गारण्टी वाली कम्पनी के उद्देश्य वाक्य में परिवर्तन वैध नहीं – गारण्टी द्वारा सीमित कम्पनी एवं जिस कम्पनी के पास अंश पूँजी नहीं है, उसके सीम नियम के परिवर्तन की दशा में ऐसा परिवर्तन अवैध होगा जो उसे सदस्य के अन्यथा लाभों । हिस्सा देने का अधिकार देता हो।

4. दायित्व वाक्य में परिवर्तन (Alteration in Liability Clause) [धारा 71 धारा 18] -कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 7 के अनुसार कम्पनी के सदस्यों ने दायित्व में परिवर्तन दो प्रकार से किया जा सकता है-(i) अधिकरण के आदेश द्वारा (ii) स्वेच्छा से।

धारा 18 के अनुसार, एक सीमित दायित्व वाली कम्पनी अपना नया पंजीकरण कराने अपना दायित्व असीमित करा सकती है। इसी प्रकार से एक असीमित दायित्व वाली कम्पनी इस अधिनियम के प्रावधानों का अनुपालन करके अपने आपको सीमित कम्पनी के रूप पंजीकृत करा सकती है। रजिस्ट्रार पुराने पंजीकरण को निरस्त करके नया पंजीकरण कर लेग एवं कम्पनी को पंजीकरण का नया प्रमाण-पत्र जारी कर देता है। इस धारा के अन्तर्गत ना पंजीकरण के कारण कम्पनी के पुराने दायित्वों अथवा अधिकारों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेग जैसे कि नया पंजीकरण किया ही न गया हो। असीमित कम्पनी को सीमित कम्पनी में परिवर्तित करने पर धारा 65 के अन्तर्गत सुरक्षित अंश पूँजी का भी प्रावधान करना पड़ता है।

प्रश्न 4 – पार्षद अन्तर्नियम की परिभाषा दीजिए। क्या कम्पनी के पार्षद अन्तर्नियम तैयार करना आवश्यक है? एक पार्षद अन्तर्नियम में दी जाने वाली बातों को संक्षेप में लिखिए।

Define articles of association. Is it necessary for every company to have its own articles of association ? State briefly the contents of a articles of association. 

अथवा पार्षद अन्तर्नियम क्या है? इसकी विषय-सामग्री क्या हैं?

What is articles of association ? What are its contents: 

उत्तर – पार्षद अन्तर्नियम का अर्थ एवं परिभाषाएँ

(Meaning And Definitions of Articles of Association) 

पार्षद अन्तर्नियम कम्पनी का दूसरा महत्त्वपूर्ण प्रलेख है जो समामेलन हेतु रजिस्ट्रार के पास दाखिल किया जाता है। कम्पनी के पार्षद अन्तर्नियम से आशय कम्पनी के उदेेश्यों को प्राप्त

करने एवं उसकी आन्तरिक प्रबन्ध व्यवस्था को संचालित करने के लिए बनाए गए नियमों का उपनियमों से है। कम्पनी की सम्पूर्ण आन्तरिक प्रबन्ध व्यवस्था उसके पार्षद अन्तर्नियमों के अनसार होती है। इसमें इस बात का उल्लेख रहता है कि कम्पनी के कौन-कौन से कार्य किस प्रकार किए जाएंगे तथा उसके पदाधिकारियों के क्या-क्या अधिकार, कर्त्तव्य एवं उत्तरदायित्व होंगे। पार्षद अन्तर्नियम, कम्पनी अधिनियम एवं पार्षद सीमानियम के अधीन होता है। पार्षद अन्तर्नियम की कुछ प्रमुख परिभाषाएँ इस प्रकार हैं –

कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 2 (5) के अनुसार, “पार्षद अन्तर्नियम से आशय एक ऐसे अन्तर्नियम से है जो पिछले कम्पनी अधिनियमों अथवा इस अधिनियम के अधीन मूल रूप से बनाया गया अथवा समय-समय पर परिवर्तित किया गया है।” 

कम्पनी के अन्तर्नियम (i) छपे हुए हों, (ii) पैराग्राफ में विभाजित हों तथा (iii) सीमानियम पर हस्ताक्षर करने वाले प्रत्येक व्यक्ति (अभिदाता) द्वारा हस्ताक्षरित हों। __ अन्तर्नियमों पर हस्ताक्षर करने वाले व्यक्तियों द्वारा उस पर अपना नाम, पता, व्यवसाय व अन्य विवरण दिया जाना चाहिए तथा उनके हस्ताक्षर कम-से-कम एक साक्षी द्वारा प्रमाणित किए जाने चाहिए। साक्षी का नाम, पता व अन्य विवरण भी दिया जाना आवश्यक है। इसके अतिरिक्त इन पर पर्याप्त स्टाम्प भी होना आवश्यक है। पार्षद अन्तर्नियम पर स्टाम्प ड्यूटी प्रत्येक राज्य में अलग-अलग हो सकती है क्योंकि यह राजकीय अधिकार का विषय है। पार्षद अन्तर्नियम, कम्पनी के पार्षद सीमा नियम के साथ कम्पनी के पंजीकरण के लिए रजिस्ट्रार के यहाँ फाइल करना होता है।

पार्षद अन्तर्नियमों की आवश्यकता

(Need of Articles of Association) 

यह कम्पनी का दूसरा महत्त्वपूर्ण प्रलेख है जिसे समामेलन हेतु रजिस्ट्रार के पास प्रस्तुत तकरना होता है। अन्तर्नियमों के महत्त्व को निम्नलिखित बिन्दुओं के द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है 

1. उद्देश्य प्राप्ति में सहायक – सीमानियम उन उद्देश्यों को स्पष्ट करता है जिनके लिए को कम्पनी की स्थापना की गई है, जबकि अन्तर्नियम उन नियमों एवं उपनियमों की व्याख्या करता है जो उन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए आवश्यक हैं। इस प्रकार अन्तर्नियम कम्पनी के उद्देश्य प्राप्ति में सहायक होते हैं। .

2. रजिस्ट्रेशन हेतु आवश्यक – अंशों द्वारा सीमित दायित्व वाली कम्पनी को छोड़कर नत्यक कम्पनी के रजिस्ट्रेशन के लिए अन्तर्नियम तैयार करना व रजिस्ट्रार के पास प्रस्तुत करना आनवार्य है। इसके अभाव में अंशों द्वारा सीमित दायित्व वाली कम्पनी पर ‘Table F’ के नियम लागू होते हैं।

3. सार्वजनिक प्रलेख – पार्षद अन्तर्नियम एक सार्वजनिक प्रलेख है अर्थात् इसे कोई व्यक्ति देख सकता है। इसी आधार पर यह माना जाता है कि कम्पनी के साथ व्यवहार करने नाल प्रत्येक पक्षकार को इस प्रलेख की समुचित जानकारी है।4. पारस्परिक समझौता – पार्षद अन्तर्नियम, कम्पनी एवं सदस्यों के मध्य ठहराव है त जो दोनों पक्षकारों को परस्पर बाध्य करता है।

5. आन्तरिक प्रबन्ध संचालन में सहायक – इससे कम्पनी के आन्तरिक प्रबन्ध संचालन में सुविधा रहती है क्योंकि आन्तरिक प्रबन्ध व्यवस्था से सम्बन्धित नियमों व उपनियमों का उल्लेख अन्तर्नियमों में ही होता है।

पार्षद अन्तर्नियम की विषय-सामग्री या विषय-वस्तु

(Contents of Articles of Association) 

अन्तर्नियम में कम्पनी के आन्तरिक प्रबन्ध से सम्बन्धित नियमों, उपनियमों व प्रावधानों त का उल्लेख होता है। कम्पनी अपने आन्तरिक प्रबन्ध के लिए जो भी चाहे नियम व उपनियम बना सकती है। हाँ, अन्तर्नियम के नियम, उपनियम व अन्य प्रावधान कम्पनी अधिनियम तथा ता सीमानियम के प्रावधानों के विपरीत न हों, कम्पनी के सामान्य कानून जन-नीति के सिद्धान्तों का ता विरोध न करते हों तथा कम्पनी के उद्देश्यों की पूर्ति को सुगम व कार्यों में कुशलता प्रदान करते ना हों। सामान्यतया अन्तर्नियम में निम्नलिखित बातों का समावेश होता है

(1) जहाँ तक सारणी F, G, H, I, J (जो भी लागू हो) लागू होगी, (2) प्रारम्भिक अनुबन्ध, यदि कोई है को अपनाना, (3) विभिन्न प्रकार के अंश और उनके अधिकार, (4) अंशों को जारी करने और उनके आवंटन करने के नियम, (5) अंशों पर याचना माँगने के नियम, (6) अंश प्रमाण-पत्रों के सम्बन्ध में नियम, (7) अंशों के अपहरण, समर्पण और उन्हें पुन: जारी करने के नियम, (8) अंशों के हस्तान्तरण और हस्तांकन (Transmission) के नियम, (9) निदेशक मण्डल के और साधारण सभाओं के नियम, (10) प्रतिपुरुष (Proxy) का मतदान के नियम, (11) प्रबन्ध कर्मचारियों, निदेशकों, प्रबन्धक, प्रबन्ध निदेशक आदि की व नियुक्ति, पारिश्रमिक के सम्बन्ध के नियम, (12) कम्पनी की सार्वमुद्रा के प्रयोग के बारे में नियम, (13) लाभांश और संचय के सम्बन्ध में नियम, (14) लेखों और अंकेक्षण के सम्बन्ध में नियम, (15) अंकेक्षकों की नियुक्ति और उनके पारिश्रमिक के सम्बन्ध में नियम, (16) कम्पनी के समापन के सम्बन्ध में नियम।

क्या प्रत्येक कम्पनी के लिए पार्षद अन्तर्नियम को तैयार करना अनिवार्य है।

(Is it necessary to have its own Articles of Association)

भारतीय कम्पनी अधिनियम, 2013 के अनुसार, प्रत्येक कम्पनी को अपने अन्तनिया तैयार करना अनिवार्य नहीं है। यदि कोई अंशों द्वारा सीमित सार्वजनिक कम्पनी अन्तनियम ता उस पर सारणी ‘एफ’ (Table F) के समस्त नियम लाग होंगे। इस सारणी में 90 नियम दिए गए हैं। यदि पार्षद अन्तर्नियम कम्पनी के समामेलन के समय प्रस्तुत नही किया जाते हैं तो पार्षद सीमानियम के ऊपर ‘बिना अन्तर्नियमों के रजिस्टर्ड’ (her without Articles) लिखा रहना चाहिए।

(i) निजी कम्पनियों, (ii) गारण्टी द्वारा सीमित कम्पनियों तथा (iii) वाली कम्पनियों को अपने अन्तर्नियम प्रस्तुत करना अनिवार्य है। एक व्या अपने अन्तर्नियम फाइल करने के लिए स्वतन्त्र है या सारणी F, G या H म अन्तर्नियम अपना सकती है।

पार्षद अन्तर्नियम के प्रारूप

(Forms of Articles of Association) 

कम्पनी अधिनियम, 2013 की प्रथम अनुसूची में विभिन्न प्रकार की कम्पनियों के लिए स्त होने वाले विभिन्न अन्तर्नियमों के प्रारूप दिए गए हैं, जो अग्रलिखित हैं

तालिका ‘एफ’ (Table F) : अंशों द्वारा सीमित कम्पनी के लिए। तालिका ‘जी (Table G) : गारण्टी द्वारा सीमित कम्पनी के लिए जिसमें अंश पूँजी

तालिका ‘एच’ (Table H) : गारण्टी द्वारा सीमित कम्पनी के लिए जिसमें अंश पूँजी है। 

तालिका ‘आई’ (Table I) : असीमित कम्पनियों के लिए। 

तालिका ‘जे’ (Table J) : असीमित कम्पनियों के लिए जिनमें अंश पूँजी नहीं है।

प्रश्न 5 – प्रवर्तक कौन होते हैं? उनके क्या दायित्व हैं? 

Who are promoters ? What are their liabilities? 

उत्तर – प्रवर्तक का अर्थ एवं परिभाषा

(Meaning and Definitions of Promoter) 

प्रवर्तक से अभिप्राय ऐसे व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह से है जो कम्पनी प्रवर्तन सम्बन्धी – कार्य करते हैं। प्रवर्तक ही वह व्यक्ति है जिसके मस्तिष्क में सर्वप्रथम कम्पनी के निर्माण का ही विचार आता है और जिसे वह क्रियान्वित करते हुए आवश्यक कदम उठाता है। वह व्यापार में सम्बन्धी अनुसन्धान करता है, एक निश्चित योजना के अनुसार कम्पनी का निर्माण करता है, में आवश्यक साधन एकत्रित करता है और प्रारम्भिक व्ययों का भुगतान करता है। वास्तव में, जी प्रवर्तक अपने ऊपर भारी जोखिम लेता है क्योंकि यदि कम्पनी असफल होती है तो समस्त हानि का भार उसे ही वहन करना होता है। संक्षेप में, कम्पनी को अस्तित्व में लाने का श्रेय जिस व्यक्ति को जाता है, उसे ‘प्रवर्तक’ कहते हैं।

‘प्रवर्तक’ शब्द की मुख्य परिभाषाएँ निम्न प्रकार हैं-

कम्पनी अधिनियम 2013 की धारा 2(69) के अनुसार प्रवर्तक एक ऐसा व्यक्ति है

(अ) जिसे प्रविवरण में उस रूप में नामित (named) किया गया है, अथवा जिसकी र पहचान धारा 92 में निर्दिष्ट (refer) वार्षिक-रिटर्न में एक प्रवर्तक के रूप में कम्पनी द्वारा व कराई गई है, अथवा

(ब) जिसका कम्पनी के कामकाज (क्रिया-कलाप) पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से नियन्त्रण हो चाहे वह नियन्त्रण अंशधारी, निदेशक के रूप में हो या अन्यथा हो. अथवा

(स) जिसकी सलाह, निर्देशा या अनुदेशा के अनुसार कम्पनी का निदेशक मण्डल कार्य व करने का अभ्यस्त है।

(स) परन्तु उपधारा की कोई बात ऐसे व्यक्ति पर लागू नहीं होगी जो केवल किसी पशवर हैसियत/क्षमता से कार्य कर रहा है।

न्यायाधीश कॉकबर्न के अनुसार, “प्रवर्तक निश्चित उद्देश्यों के आधार पर कम्पनी का निर्माण करता है और अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए आवश्यक कार्यवाही करता है।”

सर फ्रांसिस पामर के अनुसार, “प्रवर्तक एक ऐसा व्यक्ति है जो एक कम्पनी के निर्माण की योजना बनाता है, पार्षद सीमानियम और अन्तर्नियमों को तैयार करवाता है, उनकी रजिस्टी करवाता है और प्रथम संचालकों को चुनता है, प्रारम्भिक प्रसंविदों की शर्तों को तय करता है या और यदि आवश्यकता हो. तो प्रविवरण बनवाता है और उसे प्रकाशित करने और पुँजी एकत्रो करने का प्रबन्ध करता है।” __

निष्कर्ष – उपर्युक्त परिभाषाओं का अध्ययन करने के पश्चात् निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि “प्रवर्तक वह व्यक्ति है जो कम्पनी की स्थापना के विचार से लेकर कम्पनी क को प्रारम्भ करने की अवस्था तक किए जाने वाले सभी कार्यों को सम्पन्न करता है।”

प्रवर्तकों के दायित्व

(Liabilities of Promoters) 

प्रवर्तकों के महत्त्वपूर्ण दायित्व इस प्रकार हैं-

1.समामेलन से पूर्व किए गए कार्यों के लिए दायित्व – कम्पनी के समामेलन से पर्व किए गए कार्यों के लिए प्रवर्तक व्यक्तिगत रूप से बाध्य होते हैं। यदि समामेलन के बाद कम्पनी प्रवर्तक के कार्यों का अनुमोदन कर दे तो प्रवर्तक अपने दायित्व से मुक्त हो जाते हैं।

2. गुप्त लाभ प्रकट करने का दायित्व – प्रवर्तकों का कम्पनी के साथ विश्वासाश्रित सम्बन्ध होता है। अत: उनसे यह आशा की जाती है कि वह किसी प्रकार का गुप्त लाभ न कमायें। यदि प्रवर्तकों द्वारा कोई गुप्त लाभ कमाया गया है तो उनका उस लाभ को प्रकट करने का दायित्व है और उन्हें उसके हिसाब सहित उसे कम्पनी को वापस कर देना चाहिए। प्रवर्तको द्वारा गुप्त लाभ न लौटाने पर कम्पनी को ज्ञात होने पर कम्पनी लाभ की राशि प्रवर्तकों से वसूल कर सकती है।

इस सम्बन्ध में यह भी जान लेना आवश्यक है कि प्रवर्तकों का लाभ प्रकट करने का नि दायित्व तभी उत्पन्न होना है जबकि कम्पनी अपने अस्तित्व में आ जाए। (Ladywell पन Mining Co. Vs. Brookes, 35 Ch.D.400) किन्तु यदि कम्पनी अस्तित्व में नहीं आ स पाती है तो ऐसी दशा में उन लाभों को प्रकट करने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता है।

3. कम्पनी के साथ कपट या कर्त्तव्य भंग की दशा में उत्तरदायित्व – यदि कम्पनी ने कोई हानि प्रवर्तकों के कपट के कारण या कर्तव्य भंग के कारण उठाई है तो प्रवर्तक इस हानि दश को पूरा करने के लिए उत्तरदायी होते हैं।

4. बिना विवरण दिए हुए सम्पत्ति के क्रय से होने वाली हानि के लिए पर दायित्व – यदि प्रवर्तक कम्पनी को बिना पुरा विवरण दिए हए कम्पनी के लिए किसा सा का क्रय करते हैं, जिससे कम्पनी को नुकसान होता है, तो कम्पनी इन हानिया का पूति उन पर मुकदमा चला सकती है और वे उसके लिए उत्तरदायी होंगे।5. प्रविवरण में कपट के लिए दायित्व – प्रवर्तक जो प्रविवरण के निर्गमन म लेते हैं, प्रविवरण में किए गए कपट के लिए धारा 447 के अन्तर्गत अंशधारियो के प्रति उत्तरदायी होते हैं।

6. विवरण की वैधानिक त्रुटियों के कारण उत्तरदायित्व – यदि कम्पनी के को इसलिए हानि उठानी पड़ती है कि प्रविवरण में वैधानिक त्रुटियाँ थीं और इन लिए प्रवर्तक दोषी थे तो इस हानि के लिए प्रवर्तक उत्तरदायी होते हैं।

7. निस्तारक की रिपोर्ट पर दायित्व – यदि कम्पनी में समापन के समय निस्तारक यालय को ऐसी रिपोर्ट की जाए कि प्रवर्तक द्वारा कम्पनी निर्माण में कपट किया गया है यालय सार्वजनिक जाँच (Public Enquiry) के लिए आदेश दे सकता है। दोषी पाए पर प्रवर्तक ऐसे कपटपूर्ण कार्यों के लिए उत्तरदायी होंगे।

8.  कम्पनी के समापन की दशा में उत्तरदायित्व – यदि कम्पनी के समापन से यह कट होता है कि कम्पनी के प्रवर्तकों ने कम्पनी की किसी भी राशि या सम्पत्ति का दुरुपयोग किया है तो सरकारी निस्तारक, लेनदार अथवा धनदाता के प्रार्थना-पत्र पर न्यायालय इस प्रकार का आदेश दे सकते हैं कि प्रवर्तक उस सब राशि या सम्पत्ति को कम्पनी को लौटा दे।विशेष (Special)—किसी प्रवर्तक की मृत्यु या दिवालिया हो जाने पर भी उसकी सम्पत्ति में से उसके दायित्व की राशि वसूल की जा सकती है।


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