B.Com 3rd Year Auditing Meaning Objectives And Importance Notes
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अंकेक्षण का अर्थ एवं परिभाषा
(Meaning and Definition of Auditing)
अंकेक्षण, अंग्रेजी के Auditing शब्द का हिन्दी अनुवाद है जो लेटिन भाषा के ‘Audire’ शब्द से बना है जिसका अर्थ है ‘सुनना’ (To Hear)।
प्रारम्भ में अंकेक्षण, केवल रोकड़ पुस्तक (Cash Book) की जाँच तक ही सीमित था। परन्तु वर्तमान समय में अंकेक्षण का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत हो गया है। वर्तमान समय में अंकेक्षण का आशय किसी संस्था की सम्पूर्ण लेखा पुस्तकों की ऐसी जाँच से है, जो एक योग्य एवं निष्पक्ष व्यक्ति द्वारा (प्राय: चार्टर्ड एकाउन्टेन्ट्स द्वारा) संस्था से प्राप्त प्रमाणकों (Vouchers), प्रपत्रों, सूचनाओं तथा स्पष्टीकरणों की सहायता से की जाती है ताकि यह जानकारी प्राप्त हो सके कि (i) सम्बन्धित अवधि के सम्पूर्ण व्यवहारों का लेखा ठीक प्रकार से हो गया है या नहीं, (ii) सम्बन्धित अवधि के लिए तैयार किया गया लाभ-हानि खाता संस्था की लाभ या हानि की वास्तविक स्थिति को प्रकट करता है या नहीं, (iii) तैयार किया गया चिट्ठा एक निश्चित तिथि को संस्था की सही एवं वास्तविक आर्थिक स्थिति को प्रकट करता है या नहीं। (iv) सभी लेखापुस्तकें नियमानुसार तैयार की गई हैं या नहीं एवं लेखापुस्तकें पूर्ण हैं या नहीं। वर्तमान समय में अंकेक्षण के अन्तर्गत संस्था की सम्पत्तियों एवं दायित्वों का सत्यापन एवं मूल्यांकन, लागत अंकेक्षण, अन्तिम खातों का प्रारूप-परीक्षण वित्तीय विवरणों का विश्लेषण आदि अनेक कार्यों का समावेश किया जाता है।
आर० जी० विलियम्स के अनुसार, “अंकेक्षण को एक व्यवसाय की पुस्तकों, खातों एवं प्रमाणकों की जाँच के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, ताकि यह ज्ञात हो सके कि चिट्ठा नियमानुकूल बनाया गया है या नहीं और वह व्यापार की सही एवं उचित स्थिति दर्शाता है या नहीं।”
लारेन्स आर० डिक्सी के अनुसार, “अंकेक्षण, लेखाकर्म सम्बन्धी लेखों की जाँच है, जो यह पता लगाने हेतु की जाती है कि क्या लेखे उन सौदों को, जिनके सम्बन्ध में वे लेखे किए गए हैं, ठीक-ठीक एवं पूर्णतया प्रकट करते हैं। कुछ अवसरों पर यह ज्ञात करना भी आवश्यक होता है कि सौदे उचित अधिकारियों की सहमति से किए गए हैं या नहीं।”
जॉसेफ लंकास्टर के अनुसार, “अंकेक्षण से तात्पर्य जाँच, प्रमाणन व सत्यापन की ऐसी प्रक्रिया से है जिसके द्वारा अंकेक्षक चिट्ठे की शुद्धता या अशुद्धता का पता लगाता है। अत: सुविधापूर्वक यह कहा जा सकता है कि अंकेक्षण प्रपत्रों, प्रमाणकों और हिसाब-किताब की पुस्तकों का एक अनुसंधान है जिनसे पुस्तकें लिखी जाती हैं ताकि अंकेक्षक चिट्ठे तथा अन्य विवरण-पत्रों के सम्बन्ध में, जो इन पुस्तकों से बनाए गये हैं, अपनी रिपोर्ट उन व्यक्तियों को दे सके जिन्होंने उसे रिपोर्ट देने के लिए नियुक्त किया है।’
अंकेक्षण की उत्पत्ति एवं विकास (Origin and Development of Auditing) सन् 1494 में इटली देश के वेनिस शहर के निवासी लुकास पेसिओली (Lucas Pacioli) ने वैज्ञानिक ढंग से हिसाब-किताब रखने की दोहरा लेखा प्रणाली (Double Entry System) को जन्म दिया जिसका प्रचार व्यापारिक क्षेत्र में बहुत ही तीव्र गति से हुआ।
अंकेक्षण के क्षेत्र में सर्वप्रथम क्रान्ति 1844 में आई जबकि इंगलैंड के कम्पनी विधान द्वारा कम्पनियों के लिए चिट्ठा (Balance Sheet) बनाने और उसका अंकेक्षण कराने को वैधानिक तौर पर अनिवार्य कर दिया गया। प्रारम्भ में कम्पनी अपने सदस्यों में से ही किसी व्यक्ति को अंकेक्षक के रूप में नियुक्त कर देती थी जिसके लिए किसी विशेष अंकेक्षण योग्यता की आवश्यकता नहीं होती थी। ऐसी दशा में वह व्यक्ति अपने कार्य में लेखापालों (Accountants) की सहायता लेता था। इससे यह आवश्यकता अनुभव की गई कि अंकेक्षक एक ऐसा व्यक्ति हो जिसको कि हिसाब-किताब के कार्य की पूरी जानकारी हो। इसी बात को ध्यान में रखते हुए इंग्लैंड में 11 मई सन् 1880 को ‘इन्स्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउण्टेण्ट्स ‘ (Institute of Chartered Accountants) की स्थापना की गई जिसका कार्य कुशल लेखापालों (Qualified Accountants) अथवा योग्य अंकेक्षकों (Qualified Auditors) को तैयार करना था।
जनवरी 1923 में ‘ब्रिटिश एसोसिएशन ऑफ एकाउण्टेण्ट्स एण्ड ऑडिटर्स’ (Bi Association of Accountants and Auditors) के नाम से एक अन्य संस्था बनी। इस संस्था से परीक्षा पास कर लेने वाला व्यक्ति भारत में भी अंकेक्षक बन सकता था। भारत में अंकेक्षण का इतिहास अप्रैल, 1914 से प्रारम्भ होता है, जबकि भारतीय कम्पनी अधिनियम, 1913 (Indian Companies Act 1913) लाग हआ। इसके द्वारा कम्पनियों के हिसाब-किताब का अंकेक्षण अनिवार्य हो गया। सन 1913 से पूर्व अंकेक्षण के कार्य के लिए कोई विशेष योग्यता निर्धारित नहीं की गयी थी। प्रान्तीय (अब राज्य) सरकारों में सबसे पहले बम्बई सरकार ने सन् 1918 में लेखाकर्म तथा अंकेक्षण की शिक्षा का प्रबन्ध किया। वह जी०डी०ए० (G.D.A.) डिप्लोमा (Government Diploma in Accountancy) देने लगी। यह डिप्लोमा अंकेक्षक की नियुक्ति के लिए पर्याप्त योग्यता समझी जाती थी तथा यह डिप्लोमा प्राप्त व्यस्ति भारत के किसी भी राज्य में अंकेक्षक के रूप में कार्य कर सकता था।
सन 1932 तक इस शिक्षा (जी०डी०ए०) का प्रबन्ध प्रान्तीय सरकारों के हाथ में था। तत्पश्चात केन्द्रीय सरकार ने इस ओर ध्यान दिया और इसके लिए ऑडिटर्स सर्टिफिकेट रूल्स (Auditors’ Certificate Rules) बनाये। इन नियमों के आधार पर रजिस्टर्ड एकाउण्टेण्ट (Registered Accountant) अर्थात् आर.ए. (R.A.) की उपाधि दिये जाने की व्यवस्था की गयी। अंकेक्षण की शिक्षा के सम्बन्ध में सलाह देने के लिए एक इण्डियन एकाउण्टैन्सी बोर्ड (Indian Accountancy Board) की स्थापना की गयी। इस बोर्ड में प्राय: वे ही व्यक्ति लिये जाते थे, जो लेखाकार्य में अनुभवी तथा दक्ष होते
इसके पश्चात् व्यावसायिक स्वतन्त्रता (Professional Autonomy) की मांग उठी और सरकार ने 1 मई 1948 को एक लेखा विशेषज्ञ समिति की स्थापना की जिसने अपनी रिपोर्ट 4 जुलाई, 1948 को प्रस्तुत की तथा सिफारिश की कि देश में कानून के द्वारा ‘इन्स्टीट्यूट ऑफ एकाउन्टेन्ट्स’ की स्थापना की जाये।
सरकार ने इस समिति की सिफारिशों को स्वीकार करके सन् 1949 में चार्टर्ड एकाउन्टेन्ट्स एक्ट 1949 पारित किया और इसके अनुसार ‘दी इन्स्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउन्टेन्ट्स ऑफ इण्डिया’
में की गई। यह (The Institute of Chartered Accountants of India/ICAI) की स्थापना नई दिल्ली अधिनियम 1 जुलाई 1949 से लागू किया गया। इस अधिनियम के पास हो जाने से इस शिक्षा का संचालन, प्रबन्ध तथा नियन्त्रण केन्द्रीय सरकार से हटकर एक संस्था के हाथ में चला गया जो इन्स्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउन्टेन्ट्स के नाम से इसी अधिनियम के अन्तर्गत बनायी गयी। इन्स्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउन्टेन्ट्स आफ इण्डिया एक स्वायत्त संस्था (Autonomous Body) है। अब अंकेक्षक बनने के लिए इस संस्था के नियमों का पालन करना पड़ता है और नियमानुसार परीक्षा देने के बाद ही कोई व्यक्ति इससे ‘चार्टर्ड एकाउन्टेण्ट’ का प्रमाण-पत्र प्राप्त कर सकता है। अब केवल चार्टर्ड एकाउन्टेन्ट ही अंकेक्षक बन सकता है। चार्टर्ड एकाउन्टेन्ट्स एक्ट के अन्तर्गत अंकेक्षक को पेशे के दुराचरण के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है।
यह इन्स्टीट्यूट अपने सदस्यों का रजिस्टर रखती है। यह सदस्य दो प्रकार के होते हैं:
(i) एसोसिएट्स (Associates): ये इन्स्टीट्यूट के सदस्य होते हैं और इनका नाम इनके रजिस्टर में लिखा होता है। ये अपने नाम के आगे ए.सी. ए. (A.C.A. Associate of the Institute of Chartered Accountants) लिख सकते हैं।
(ii) फैलोज (Fellows): एसोसिएट सदस्य कुछ निर्धारित शर्तों का पालन करने (जैसे कम-से-कम 5 वर्ष भारत में प्रैक्टिस करने, एक निर्धारित फीस देने, आदि) के पश्चात् इन्स्टीट्यूट के फैलो सदस्य (Fellows) बन जाते हैं और अपने नाम के आगे एफ.सी.ए. (E.C.A. Fellows of the Institute of Chartered Accountants) लिख सकते हैं।
1 अप्रैल, 1956 को नया कम्पनी अधिनियम लागू हो गया और कम्पनी अधिनियम, 1913 समाप्त कर दिया गया। इस नये अधिनियम के अनुसार अब सार्वजनिक कम्पनियों के साथ-साथ निजी कम्पनियों के खातों का अंकेक्षण भी अनिवार्य कर दिया गया।
अंकेक्षण के उद्देश्य
एल० आर० डिक्सी के अनुसार – अंकेक्षण के तीन उद्देश्य हो सकते हैं-(1) कपटों को ढूँढ़ना, (2) त्रुटियों को ढूँढ़ना, (3) सैद्धान्तिक त्रुटियों को ढूँढ़ना।
सुविधा की दृष्टि से अंकेक्षण के उद्देश्यों को तीन भागों में बाँटा जा सकता है जो निम्नलिखित चार्ट से स्पष्ट है-
I. मुख्य उद्देश्य (Main Objects): संक्षेप में, अंकेक्षण के मुख्य उद्देश्य के अन्तर्गत निम्नलिखित बातें सम्मिलित की जाती हैं
1. खातों व लेखों की सत्यता की जाँच करना;
2. खातों व लेखों की पूर्णता की जाँच करना; तथा
3. खातों व लेखों की नियमानुकूलता का ज्ञान प्राप्त करना।
II. सहायक उद्देश्य (Subsidiary Objects): अंकेक्षण के सहायक उद्देश्यों से आशय उन उद्देश्यों से है जो मुख्य उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए सहायक होते हैं। अंकेक्षण के सहायक उद्देश्य निम्नलिखित
1. त्रुटियों का पता लगाना (Detection of Errors)-त्रुटियों से आशय ऐसी भूलों से है जो लेखा करने वाले व्यक्तियों की अनभिज्ञता अथवा असावधानी के कारण होती है तथा जिनके परिणामस्वरूप लाभ-हानि खाता एवं आर्थिक चिट्ठा संस्था की सही स्थिति का चित्रण नहीं कर पाते।
अशुद्धियाँ पाँच प्रकार की हो सकती हैं-(i) भूल की अशुद्धियाँ, (ii) लेखे की अशुद्धियाँ, (iii) क्षतिपूरक त्रुटियाँ, (iv) सैद्धान्तिक अशुद्धियाँ एवं (v) दुबारा लिखी जाने वाली त्रुटियाँ।
(i) भूल की अशुद्धियाँ (Errors of Omission) : जब कोई लेखा प्रारम्भिक लेखे की पुस्तकों में पूर्ण (Complete) या आंशिक (Partial) रूप में नहीं लिखा जाता, तो ऐसी अशुद्धि को भूल की अशुद्धि कहते हैं। ऐसी अशुद्धियाँ जो लिखने में बिल्कुल छूट जाती हैं, तलपट पर कोई प्रभाव नहीं डालतीं और अंकेक्षक के लिए भी ऐसी अशुद्धियों का पता लगाना कठिन हो जाता है।
भूल की अशुद्धियों का पता लगाते समय अंकेक्षक को अपनी योग्यता का परिचय देना चाहिए। योग्य अंकेक्षक विभिन्न लेखा-पुस्तकों की अन्तर जाँच (Inter check) करते समय ऐसी अशुद्धियाँ पकड़ सकता है।
(ii) लेखे की अशुद्धियाँ (Errors of Commission): इन्हें ‘हिसाब सम्बन्धी त्रुटियाँ’ भी कहते हैं। इस प्रकार की त्रुटियों के कुछ प्रमुख उदाहरण निम्नलिखित हैं
(i) प्रारम्भिक लेखों में त्रुटियाँ – जैसे कोई विक्रय 65 रू. 87 पैसे का हुआ, परन्तु विक्रय बही में 37 रू. 65 पैसे लिखा गया और खाता बही में भी 37 रू. 65 पैसे ही खतियाये गए। इस प्रकार की भूल तलपट के मिलान पर किसी प्रकार का प्रभाव नहीं डालती।
(ii) खाता बही में खतियाने सम्बन्धी त्रुटियाँ – जैसे विक्रय बही में 60 रू. 50 पैसे के लेखे को ग्राहक के खाते में 60 रू. 5 पैसे से डेबिट करना। ऐसी स्थिति में तलपट का योग 45 पैसे से नहीं मिलेगा।
(iii) सहायक बहियों व खातों में जोड़ने की त्रुटियाँ – जैसे क्रय पुस्तक का जोड़ लगाते समय कुछ रूपयों की भूल करना।
(iv) खातों से बाकी निकालने की त्रुटियाँ – जैसे खातों के शेषों को कम अथवा अधिक निकालना।(v) खातों में से तलपट में ले जाने वाली त्रटियाँ – जैसे खातों में से तलपट में राशि को लिखते समय भूल हो सकती है अथवा यह भी हो सकता है कि कोई राशि कम या अधिक लिख दी जाये या विपरीत पक्ष में लिख दी जाये।
(vi) विविध त्रुटियाँ – उपरोक्त के अलावा निम्न प्रकार की भी त्रुटियाँ हो सकती हैं, जैसे—(क) डेबिट पक्ष की राशि को क्रेडिट पक्ष में लिख देना, (ब) क्रेडिट पक्ष की राशि को डेबिट पक्ष में लिख देना, (ग) किसी डेबिट पक्ष की राशि को उस खाते के डेबिट पक्ष में न लिखकर किसी अन्य खाते के डेबिट पक्ष में लिख देना, (घ) किसी क्रेडिट पक्ष की राशि को उस खाते के क्रेडिट पक्ष में न लिखकर किसी अन्य खाते के क्रेडिट पक्ष में लिखना, (ड) किसी खाते में गलत राशि लिख देना, (च) लेखों के योग को आगे ले जाते समय भूल जाना, (छ) प्रारम्भिक लेखे की पुस्तकों में से किसी लेन-देन को खाता बही में न लिखना, (ज) किसी राशि को केवल एक खाते में ही खतियाना तथा इस प्रकार द्वि-प्रविष्टि प्रणाली को अपूर्ण रखना।
इस प्रकार की त्रुटियों के होने से तलपट का योग मिल भी सकता है और नहीं भी मिल सकता है; अत: उन भूलों का, जिनके हो जाने से तलपट मिल जाता है, पता लगाने के लिए अंकेक्षक को बड़ी सावधानी, सतर्कता व बुद्धिमत्ता से काम करना पड़ता है। नैत्यक जाँच करते समय इस प्रकार की गलतियाँ पकड़ में आ जाती हैं।
(iii) सैद्धान्तिक अशुद्धियाँ (Errors of Principle): जब किसी व्यवहार की प्रविष्टि लेखाकर्म के सिद्धान्तों के अनुसार नहीं की जाती है, तो उसे ‘सैद्धान्तिक त्रुटि’ (Errors of Principle) कहते हैं। सैद्धान्तिक अशुद्धियों के कुछ प्रमुख उदाहरण निम्नलिखित हैं
(i) पूँजी व आय में ठीक प्रकार से अन्तर न करना।
(ii) आयगत-व्यय को पूँजीगत व्यय मान लेना।
(iii) पूँजीगत व्यय को आयगत व्यय मान लेना।
(iv) सम्पत्तियों का मूल्यांकन लेखाकर्म के सिद्धान्तों के विपरीत करना।
(v) व्यक्तिगत खातों में लाभ-हानि सम्बन्धी खातों की राशि को लिखना।
ऐसी गलतियों का तलपट के मिलने पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, परन्तु लाभ-हानि खाते पर प्रभाव पड़ सकता है। इस प्रकार की त्रुटियाँ जाने व अनजाने हो सकती हैं। जब जान-बूझकर इस प्रकार की त्रुटियाँ की जाती हैं तो उनका उद्देश्य खातों में गड़बड़ी करना होता है, जैसे लाभ को बढ़ा कर दिखलाना, अथवा कम दिखलाना। संस्था के स्थिति विवरण पर भी इस प्रकार की गलतियों का प्रभाव पड़ता है। इनका पता लगते ही उन्हें ठीक कर देना चाहिए, क्योंकि अन्तिम खातों के ठीक होने अथवा न होने पर उनका बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। अंकेक्षक को इस प्रकार की अशुद्धियों का पता लगाने के लिए बड़ी सावधानी एवं सतर्कता से जाँच करनी चाहिए।
(iv) क्षतिपूरक अशुद्धियाँ (Compensating Errors): ऐसी त्रुटियाँ जो कि एक-दूसरे को प्रभावहीन कर देती हैं, क्षतिपूरक त्रुटियाँ कहलाती हैं। उदाहरण के लिये ‘अ’ के खाते को 200 रू. से डेबिट करना था परन्तु उसे 20 रू. से डेबिट कर दिया, जबकि ‘ब’ के खाते को 20 रू. से डेबिट करना था, परन्तु उसे 200 रू. से डेबिट कर दिया। इस प्रकार की भूलें तलपट के मिलान पर कोई प्रभाव नहीं डालती हैं।
(v) दोहराव की अशुद्धियाँ (Errors of Duplication): लेखा पुस्तकों में जब कोई व्यवहार दो बार लिखा जाता है तो उसे दोहराव की अशुद्धियाँ कहते हैं। पूर्ण दोहराव की अशुद्धि तलपट द्वारा प्रकट नहीं होती है।
लेखा-पुस्तकों की सत्यता का पता लगाने के लिए लेखा-पुस्तकों में हुई अशुद्धियों को दूढ़ना आवश्यक है। हालांकि गलतियों को ढूँढ़ना अंकेक्षण का प्रमुख उद्देश्य नहीं है किन्तु पर्याप्त सतर्कता बरतना अंकेक्षक का कर्तव्य होता है। विभिन्न प्रकार की अशुद्धियों की जाँच उसे बुद्धिमत्ता के साथ करनी चाहिए।
2. छल-कपटों का पता लगाना (Detection of Frauds) लेखों में जान-बझकर, योजनाबा रीति से तथा दूसरों को धोखा देने के उद्देश्य से की गई त्रुटियों को ‘कपट’ कहते हैं। छल-कपट परिणामस्वरूप संस्था का लाभ-हानि खाता एवं चिट्टा सत्य एवं उचित स्थिति का चित्रण नहीं करता है। छल-कपटों का पता लगाना भी अंकेक्षण का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है। कपट एवं गबन अत्यन्त चालान व्यक्तियों द्वारा सोच-समझकर किये जाते हैं, जिन्हें आसानी से पता नहीं लगाया जा सकता। एक अकक्षर इस कार्य में तभी सफल हो सकता है जबकि वह इस बात को अच्छी तरह समझता हो कि गबन किता प्रकार के होते हैं और उन्हें कैसे-कैसे किया जाता है। इनको ढूँढ़ने के लिए अंकेक्षक को प्रमाणन एव सत्यापन की यथोचित विधियों का प्रयोग करना पड़ता है। छल-कपट मुख्यत: निम्न प्रकार का हो सकता हैं – (i) रोकड का गबन, (ii) माल का गबन, एवं (iii) हिसाब-किताब में गड़बड़ी, (iv) सम्पत्तियों का गबन, (v) सुविधाओं का गबन, (vi) श्रम का गबन।
(i) रोकड़ का गबन (Embezzlement of Cash) किसी भी संस्था में माल के गबन की अपेक्षा रोकड का गबन आसान है। रोकड़ का गबन प्राप्त रोकड़ की रकम पुस्तकों में बिल्कुल न लिखकर अथवा कम रकम लिखकर हो सकता है। इसी प्रकार भुगतान की रकम वास्तविक रकम से अधिक लिखकर या झूठे भुगतान लिखकर आसानी से गबन किया जा सकता है। संक्षेप में, नकद धन का गबन निम्नलिखित तरीकों से किया जाना सम्भव है-
(क) विक्रय सम्बन्धी (Related to Sales)-
1. विक्रय का लेखा न करना; 2. झूठी विक्रय-वापसी दिखाना; 3. छूट दिखाकर विक्रय की कम राशि जमा करना; 4. झूठा अप्राप्य ऋण दिखलाना; 5. वी० पी० पी० से प्राप्त धन का लेखा न करना।
(ख) क्रय सम्बन्धी (Related to Purchases) –
1. झूठा क्रय दिखलाना; 2. क्रय-वापसी का लेखा न करना; 3. क्रय बढ़ा-चढ़ाकर दिखलाना; 4. छूट से प्राप्त राशि पुस्तकों में न दिखलाना।
(ग) नकद प्राप्ति सम्बन्धी (Related to Cash Receipts) –
1.देनदारों से प्राप्त रकम का लेखा न करना; 2. किसी भी मद में प्राप्त रकम पूरी न लिखना: 3. बारदाने की बिक्री से प्राप्त धन रख लेना; 4. पिछले अप्राप्य ऋणों की प्राप्ति राशि का लेखा न करना; 5. विनिमय साध्य विपत्र (Bills Receivable) के भुनाने से रकम को गायब कर लेना।
(घ) नकद भुगतान सम्बन्धी (Related to Cash Payment) –
1. देय बिलों का झूठा भुगतान लिखना; 2. अतिरिक्त मजदूरों के नाम चढ़ाकर मजदूरी स्वयं हड़प लेना; 3. अन्य खर्चे झूठे या फालतू लिखना।
(ii) माल आदि का गबन (Misappropriation of Goods etc.)-प्राय: यह देखा जाता है कि व्यापारिक संस्थाओं के मालिक जितना ध्यान रोकड़ के गबन की ओर देते हैं उतना माल के गबन की ओर नहीं देते। माल का गबन अथवा अनुचित प्रयोग उन संस्थाओं में अधिक होता है जहाँ माल अधिक मूल्यवान तथा आकार में छोटा होता है।
माल के गबन की मुख्य विधियाँ निम्नलिखित हैं-
(1) माल को स्टोर से चुरा लेना।
(ii) कुछ ग्राहकों से मिलकर उनके नाम काल्पनिक क्रेडिट नोट जारी करना।
(iii) क्रय सम्बन्धी प्रविष्टि करने के बाद खरीदे हुए माल को स्टोर या गोदाम में पहुँचाने से पहले ही गायब कर देना।
(iv) माल का निजी कार्यों में प्रयोग करना।
(v) क्रय वापसी के नाम से कुछ माल निकालना तथा बहियों में प्रविष्टि न करना।
(vi) विक्रय वापसी के माल को गायब कर देना तथा पुस्तकों में प्रविष्टि कर देना।।
(iii) हिसाब-किताब में गड़बड़ी (Manipulation of Accounts)- हिसाब-किताब में गड़बड़ी प्राय: व्यवसाय के मालिकों द्वारा ऊँचे पदों पर आसीन अधिकारियों द्वारा की जाती है। कभी-कभी छोटे कर्मचारियों द्वारा भी अपनी भूल छिपाने के लिए अथवा अपने द्वारा किए गए रोकड़ या माल के गबन को छिपाने के लिए हिसाब-किताब में गड़बड़ी कर दी जाती है, लेकिन यह बहुत छोटे स्तर पर होती है और प्राय: इसका प्रभाव भी लाभ-हानि खाते एवं चिट्ठे पर बहुत कम पड़ता है। संस्था के अधिकारियों अथवा मालिकों द्वारा हिसाब-किताब में गड़बड़ी या तो संस्था के लाभ को वास्तविकता से अधिक बताने के लिए या इसे वास्तविकता से कम बताने के लिए की जा सकती है।
(iv) सम्पत्तियों का गबन – सम्पत्तियों के सम्बन्ध में गबन के कई उदाहरण हैं, जैसे व्यवसाय के लिए फर्नीचर खरीदना और इसका प्रयोग घर पर करना, संस्था से नई एवं अच्छी सम्पत्ति घर मॅगा लेना और उसके स्थान पर घर की टूटी-फूटी सम्पत्ति रखवा देना, आदि।
(v) सुविधाओं सम्बन्धी गबन (Misappropriation of Amenities)- सुविधाओं के सम्बन्ध म कई किस्म के गबन प्रचलित हैं और विशेषता यह है कि इनमें से कुछ को तो गबन ही नहीं समझा जाता है। जैसे व्यावसायिक कार का कर्मचारी द्वारा निजी कार्यों में प्रयोग, कार्यालय टेलीफोन का निजी कार्यों में प्रयोग, आदि।
(vi) श्रम का गबन – सम्पत्तियों अथवा सुविधाओं के गबन से भी बढ़कर श्रम का गबन अधिक साहूकाराना माना जाता है, जैसे व्यवसाय या कार्यालय के कर्मचारी से किसी अधिकारी द्वारा अपना निजी कार्य करवाना अथवा कर्मचारी द्वारा तनख्वाह कार्यालय से लेना तथा अधिकारी के निवास स्थान पर उसका घरेलू कार्य करना, आदि।
3. त्रुटियों एवं छल – कपट को रोकना (Prevention of Errors and Frauds)-अंकेक्षण के सहायक उद्देश्यों में अन्तिम उद्देश्य त्रुटियों व छल-कपटों को रोकना है। अंकेक्षक त्रुटियों व छल कपटों को पूरी तरह तो नहीं रोक सकता, परन्तु उसके द्वारा की जाने वाली जाँच से संस्था में एक प्रकार का स्वस्थ भय पैदा हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप छल-कपट न्यूनतम रह जाते हैं। त्रुटियों और छल-कपटों को रोकने के लिए आन्तरिक निरीक्षण प्रणाली अपनानी चाहिए। आन्तरिक निरीक्षण प्रणाली का प्रयोग करने से छल-कपट की सम्भावनाएँ प्रायः समाप्त हो जाती हैं क्योंकि आन्तरिक निरीक्षण प्रणाली अपनाने की स्थिति में छल-कपट तभी हो सकते हैं जबकि सभी कर्मचारी परस्पर मिल जायें एवं सभी कर्मचारियों का परस्पर मिल जाना असम्भव ही है।
III. अन्य उद्देश्य (Other Objects)
1. कर्मचारियों पर नैतिक प्रभाव (Moral Effects on Employees)-अंकेक्षण की व्यवस्था से कर्मचारियों पर नैतिक प्रभाव पड़ता है क्योंकि उनको इस तथ्य की जानकारी रहती है कि उनके द्वारा तैयार किए गए खातों की जाँच एक विशेषज्ञ द्वारा की जायेगी। अत: वह अपना काम पूर्ण ईमानदारी और सतर्कता से करते हैं।
2. सरकारी अधिकारियों को संतुष्ट करना (To Satisfy the Government Authorities)—किसी संस्था के हिसाब-किताब का अंकेक्षण होने के पश्चात् किसी भी सरकारी विभाग का अधिकारी उस हिसाब-किताब पर शीघ्रतापूर्वक विश्वास कर लेता है और अधिक छान-बीन करने का प्रयत्न नहीं करता क्योंकि अंकेक्षक को एक योग्य, निष्पक्ष तथा ईमानदार व्यक्ति समझा जाता है।
3. वैधानिक आवश्यकता की पूर्ति – कुछ संस्थाओं के लिए अंकेक्षण कराना अनिवार्य है, जैसे-कम्पनी, बैंक, वित्त निगम और बीमा कम्पनी आदि। इस प्रकार अंकेक्षण का उद्देश्य इनके संदर्भ में वैधानिक आवश्यकता की पूर्ति करना भी है।
पुस्तपालन, लेखाकर्म, अंकेक्षण एवं अनुसन्धान
(Book-keeping, Accountancy, Auditing and Investigation)
अंकेक्षण को भली प्रकार समझने के लिए आवश्यक है कि अंकेक्षण, पुस्तपालन, लेखाकर्म एवं अनुसन्धान का अन्तर स्पष्ट रूप से समझ लिया जाये।
पुस्तपालन (Book-keeping)
‘पुस्तपालन’, रूपये के लेन-देन, वस्तुओं व सेवाओं, आदि से सम्बन्धित व्यवहारों को प्रारम्भिक लेखे की पुस्तकों में लिखने की कला है। इसके अन्तर्गत चार कार्य आते हैं-(i) प्रारम्भिक लेखे की पुस्तकों (जैसे क्रय या विक्रय डे-बुक) में प्रविष्टियाँ करना अर्थात् जर्नल तैयार करना, (ii) खतौनी या पोस्टिंग करना, (iii) खाता बही के विभिन्न खातों का योग लगाना, और (iv) खातों का शेष निकालना। यह कार्य यान्त्रिक प्रकृति का होता है तथा साधारण योग्यता वाला कोई भी व्यक्ति उसे आसानी से कर सकता है। इस कार्य को करने वाला व्यक्ति ‘पुस्तपालक’ (Book-keeper) कहलाता है। यह कार्य लेखापाल के नियन्त्रण में सामान्य लिपिकों द्वारा किया जाता है। पश्चिमी देशों में यह कार्य मशीनों द्वारा किया जाता है।
स्पाइसर एवं पैगलर के अनुसार, “पुस्तपालन व्यावसायिक तथा अन्य सौदों को मुद्रा के रूप में लिखने (लेखा करने) की कला है।”
रोलैण्ड के अनुसार, “कुछ निश्चित सिद्धान्तों के आधार पर सौदों को लिखना ही पुस्तपालन है।
” लेखाकर्म (Accountancy)
जहाँ पुस्तपालन का कार्य समाप्त होता है, वहाँ से लेखांकन का कार्य प्रारम्भ होता है। लेखाकर्म के अन्तर्गत मुख्यत: निम्नलिखित कार्यों को शामिल किया जाता है-(i) पुस्तपालक द्वारा किए गए काय की जाँच हेतु तलपट बनाना जिससे यह पता लग सके कि समस्त व्यवहारों का लेखा ठीक ढंग से किया गया है, (ii) व्यापार एवं लाभ-हानि खाता तैयार करना, (iii) स्थिति विवरण बनाना जो वित्तीय स्थित प्रदर्शित कर सके, (iv) भूल-सुधार (Rectification entries) तथा समायोजन (Adjustment) के लेखे
करना, तथा (v) एक उपयुक्त लेखांकन पद्धति की संरचना करना जिससे कि व्यावसायिक सम्पत्तियों के दुरूपयोग को रोका जा सके एवं आयकर, विक्रय/वाणिज्य कर, कम्पनी अधिनियम, आदि के प्रावधानों का पालन हो सके। इन कार्यों को सम्पन्न करने वाला व्यक्ति ‘लेखापाल’ (Accountant) कहलाता है जो एक सुशिक्षित व योग्य व्यक्ति होता है। यद्यपि लेखांकन का आधार पुस्तपालन ही है फिर भी लेखांकन का कार्य अधिक जिम्मेदारी, योग्यता एवं बुद्धिमत्ता का है। यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि एक लेखापाल को चार्टर्ड एकाउण्टेण्ट होना आवश्यक नहीं है और न वह अपना कार्य करने के पश्चात् कोई रिपोर्ट ही देता है।
अंकेक्षण (Auditing)
पुस्तपालन एवं लेखाकर्म के अन्तर्गत किये गए कार्यों की विस्तृत तथा आलोचनात्मक जाँच को अंकेक्षण कहते हैं। यह जाँच लेखों की सत्यता, वास्तविकता तथा नियमानुकूलता ज्ञात करने के लिए लेखों, प्रपत्रों प्रमाणकों, सूचनाओं तथा स्पष्टीकरण के आधार पर की जाती है। इसका उद्देश्य संस्था की सही एवं वास्तविक आर्थिक स्थिति ज्ञात करना है। ध्यान रहे कि अंकेक्षक को अपनी रिपोर्ट देनी होती है और यह स्पष्ट करना होता है कि संस्था का लाभ-हानि खाता तथा चिट्ठा उसकी स्थिति का ठीक-ठीक एवं सही रूप प्रस्तुत करता है अथवा नहीं। लेखाकर्म का कार्य समाप्त होने पर ही अंकेक्षण का कार्य प्रारम्भ होता है। लेखाकर्म की अपेक्षा योग्य तथा अंकेक्षण सम्बन्धी तकनीकी ज्ञान रखने वाले व्यक्तियों को ही अंकेक्षण का कार्य सौंपा जाता है। प्राय: अंकेक्षण कार्य चार्टर्ड एकाउण्टेण्ट (C.A.) द्वारा किया जाता है।
पुस्तपालन, लेखाकर्म एवं अंकेक्षण तीनों की विवेचना से स्पष्ट हो जाता है कि जहाँ पुस्तपालन समाप्त होता है, वहाँ लेखाकर्म प्रारम्भ होता है एवं जहाँ पर लेखाकर्म समाप्त होता है, वहाँ पर अंकेक्षण प्रारम्भ होता है। तीनों का कार्य-क्षेत्र अलग-अलग होते हुए भी तीनों में पारस्परिक सम्बन्ध है तथा ये एक के बाद एक आते हैं।
अनुसंधान (Investigation)
अनुसंधान पूर्व-निश्चित उद्देश्यों की पूर्ति हेतु खातों का विशेष एवं गहन परीक्षण है जो परिस्थिति विशेष के अनुसार संस्था के स्वामी या अन्य पक्षों के द्वारा कराया जाता है।
स्पाईसर एवं पैगलर के अनुसार, “किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति हेतु किसी संस्था के खातों का परीक्षण अनुसंधान कहलाता है।”
सामान्यतः अनुसन्धान कुछ विशेष परस्थितियों में ही कराया जाता है, जैसे किसी व्यापार को क्रय करना, किसी फर्म में साझेदार बनना, किसी को ऋण देना, किसी कम्पनी के अंशों का क्रय करना।
अनुसन्धान का कार्य सामान्यत: अंकेक्षण के बाद होता है तथा विगत अनेक वर्षों तक विस्तृत हो सकता है। इस कार्य हेतु C.A. होना अनिवार्य नहीं है। पेशेवर लेखाकार अनुसन्धान के रूप में महत्वपूर्ण सेवा प्रदान करते हैं। अनुसन्धान का सार तत्त्व उस परिकल्पना में निहित है जिसके आधार पर कार्य आरम्भ किया जाता है अथवा जो उद्देश्य के अनुरूप होती है। अनुसन्धान की पद्धति का निर्धारण परिस्थितियों व आवश्यकताओं के अनुसार किया जाता है।
भारत में लेखांकन के क्षेत्र में एकरूपता के प्रयास
(Harmonization Efforts in the Field of Accounting in India)
भारतीय चार्टर्ड एकाउन्टेण्ट्स संस्थान (Institute of Chartered Accountants of India) ने समय-समय पर अनेक मामलों में ‘मार्गदर्शक टिप्पणियाँ’ तथा ‘विवरण पत्र’ प्रसारित किये हैं। लेखा मानक मण्डल (Accounting Standards Board) और अंकेक्षण व्यवहार समिति (Auditing Practices Committee) की स्थापना के पश्चात् इनके द्वारा क्रमशः लेखा मानक (Accounting Standards) और मानक अंकेक्षण व्यवहार (Standard Auditing Practices) प्रसारित किय गये हैं। ‘अंकेक्षण व्यवहार समिति’ का परिवर्तित नाम ‘अंकेक्षण तथा आश्वासन मानक (Auditing and Assurance Standards Board or AASB) है तथा ‘मानक अंकेक्षण वहार’ (SAP) का परिवर्तित नाम ‘अंकेक्षण तथा आश्वासन मानक’ (Auditing and Assurance Standard or AAS) है। अंकेक्षक इन मानकों के अनुसार ही अंकेक्षण कार्य सम्पन्न करते ९। इनका सम्बन्धित प्रपत्र में दी गई तिथि से अथवा काउन्सिल द्वारा अलग से विज्ञप्ति प्रसारित करक किसी तिथि से वैधानिक रूप से अनिवार्य बना दिया गया है।
अंकेक्षण के लाभ व महत्त्व
(Advantages and Importance of Auditing) –
I. सामान्य लाभ (General Advantages)अंकेक्षण से प्राप्त होने वाले सामान्य लाभ निम्नलिखित हैं-
1. व्यवसाय की सही आर्थिक स्थिति का ज्ञान
2. लेखों का विश्वसनीय होना
3. कर्मचारियों की कार्यक्षमता में वृद्धि
4. त्रुटियों व छल-कपटों पर नियंत्रण
5. प्रतिनिधि के द्वारा व्यापार करने में लाभदायक होना
6. व्यापार के विक्रय के समय सहायक होना
7. दिवालिया घोषित कराने में सहायक
8. ऋण प्राप्ति में सुविधा
9. संस्था की साख में वृद्धि
10. क्षतिपूर्ति में सहायक
11. कर निर्धारण में सहायक
12. बहुमूल्य सुझावों की प्राप्ति
II. बड़े एकाकी व्यापारी (Sole Trader) को लाभ-
ऊपर जिन सामान्य लाभों का वर्णन किया गया है, वे सभी लाभ बड़े एकाकी व्यापारी को भी प्राप्त होते हैं। इनके अतिरिक्त अन्य लाभ इस प्रकार हैं-
1. तुलनात्मक अध्ययन में सहायक
2. न्यायालय में प्रमाण माना जाना
3. साझेदार बनाने में सहायक होना
4. आयकर तथा अन्य करों के निर्धारण में सहायक
5. मृत्यु कर निर्धारण में सहायक
III. साझेदारी संस्था को लाभ (Advantages to Partnership Firm)
1. साझेदारों में परस्पर विश्वास
2. नए साझेदार द्वारा प्रवेश के समय अंकेक्षित हिसाब-किताब पर शीघ्र विश्वास
3. साझेदार के अवकाश ग्रहण करने पर
4. साझेदार की मृत्यु पर अंकेक्षित खातों पर अधिक विश्वास
5. साझेदारी की समाप्ति पर बंटवारे में अधिक विश्वास
6. निष्क्रिय साझेदार को विश्वास
IV. कम्पनी को लाभ (Advantages to Company)
उपर्युक्त वर्णित सामान्य लाभों के अतिरिक्त कम्पनी को अंकेक्षण से निम्नलिखित लाभ भी प्राप्त होते हैं
1. अंशधारियों को कम्पनी के कार्य में विश्वास होना
2. जनता का कम्पनी में विश्वास होना
3. पूँजी एकत्र करने में सहायक
4. सम्मिश्रण, संविलियन तथा पुन: निर्माण में सहायक
5. लाभांश वितरण में विश्वास
v. अन्य व्यक्तियों के लिए लाभ (Advantages for Others)
1. बैंकर्स को लाभ – बैंक अथवा ऋण प्रदान करने वाली अन्य वित्तीय संस्थाएँ (जैसे-IFCI, IDBI, आदि) अंकेक्षित हिसाब-किताब की सहायता से ऋण प्रदान करने के विषय में निर्णय ले सकती हैं।
2. सामान्य बीमा निगमों को लाभ – सामान्य बीमा कम्पनियों को जब अग्नि आदि से होने वाला क्षति का अनुमान लगाना पड़ता है, तो अंकेक्षित खाते व विवरण ही उनकी सहायता करते हैं। अंकेक्षण के अभाव में दावों का निपटारा करना कठिन हो जाता है।
3. कर अधिकारियों की दृष्टि से उपयोगिता – आय-कर, विक्रय या वाणिज्य कर, उत्पादन कर सम्पत्ति कर अथवा धन कर लगाते समय अंकेक्षित खाते ही विश्वसनीय माने जाते हैं।
4. न्यायालयीन प्रकरणों में, न्यायाधीश भी अंकेक्षित लेखापुस्तकों पर ही विश्वास करते हैं।
लेखाकर्म एक आवश्यकता है, जबकि अंकेक्षण विलासिता है
(Accountancy is a necessity while Auditing is Luxury)
लेखाकर्म की आवश्यकता के पक्ष में तर्क
(Arguments in Favour of Necessity of Accounting)-
लेखाकर्म की आवश्यकता के पक्ष में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किये जा सकते हैं-
1. स्मरणशक्ति का सीमित होना – आधुनिक युग में प्रतिदिन होने वाले व्यवहारों की संख्या अधिक होने के कारण प्रत्येक व्यवहार को अधिक समय तक याद नहीं रखा जा सकता। अत: व्यापारिक लेन-देनों को लेखा पुस्तकों में लिखना आवश्यक हो जाता है।
2. लाभ-हानि की स्थिति का ज्ञान प्राप्त करने के लिए
3. आर्थिक स्थिति का सही तथा उचित ज्ञान प्राप्त करने के लिए 4. कर-निर्धारण में सुविधा
5. देनदारों तथा लेनदारों का ज्ञान
6. तुलनात्मक अध्ययन में सुविधा
7. चालू व्यापार का विक्रय करने हेतु मूल्यांकन में सुविधा
8. न्यायालय में प्रमाण
9. लाइसेन्स प्राप्त करने में सहायक
10. ख्याति निर्धारण में सहायक
11. ऋण-प्राप्ति में सहायक
12. छल-कपट तथा जालसाजी से सुरक्षा
उपर्युक्त वर्णित तर्कों से यह स्पष्ट हो जाता है कि आधुनिक औद्योगिक युग में व्यापार बड़ा हो अथवा छोटा, लेखाकर्म आवश्यक है।
अंकेक्षण का विलासिता होना (Auditing Become Luxury)-
अंकेक्षण विलासिता है या नहीं, इसके लिए मुख्य रूप से दो दृष्टिकोण हमारे समक्ष हैं— (I) छोटे व्यापारियों का दृष्टिकोण, एवं (II) बड़े व्यापारियों का दृष्टिकोण।
(1) छोटे व्यापारियों का दृष्टिकोण (From Small Businessmen Point of View)—इस दृष्टिकोण से अंकेक्षण किसी भी छोटे पैमाने के व्यवसाय के लिए विलासिता है। इसके पक्ष में निम्नांकित तर्क प्रस्तुत किये जा सकते हैं
1. धन का दुरूपयोग – अंकेक्षक को दिया जाने वाला पारिश्रमिक बहुत अधिक होता है और इससे होने वाला लाभ तुलना में बहुत कम होता है। अत: यह धन का दुरूपयोग है विशेषकर छोटे व्यापारियों के लिए।
2. समय की बर्बादी — यह भी कहा जता है कि अंकेक्षण के कार्य में संस्थाओं का काफी समय नष्ट होता है। अंकेक्षक के आदेशानुसार संस्था के कर्मचारी उसको सूचना तथा स्पष्टीकरण देने, सूचियाँ तैयार करने तथा अन्य कार्यों में व्यस्त हो जाते हैं। अत: संस्था के कर्मचारियों का समय बर्बाद होता है।
3. अंकेक्षण की निरर्थकता – प्राय: देखा जाता है कि अंकेक्षण के बावजूद भी हिसाब-किताब में छल-कपट रह जाते हैं, अत: अंकेक्षण निरर्थक है। _
4. अंकेक्षण के लाभों की प्राप्ति – अंकेक्षण से प्राप्त होने वाले लाभों में प्रमुख है-लेखाकर्म की सत्यता की जाँच। इस दृष्टि से अंकेक्षण की आवश्यकता केवल वहीं होती है, जहाँ स्वामी स्वयं लेखाकर्म का काम नहीं करता। अत: यदि मालिक स्वयं ही प्रबन्ध एवं लेखांकन करता है तो ऐसी दशा में अंकेक्षण विलासितापूर्ण कहा जायेगा।
5. कर्मचारियों की कार्यक्षमता में कमी – संस्था के कर्मचारी अपना कार्य समय पर नहीं कर पाते क्योंकि अंकेक्षक की माँग पर उन्हें अपना दैनिक कार्य छोड़ कर अंकेक्षक को आवश्यक सूचना देनी पड़ती है। अत: अंकेक्षण के परिणामस्वरूप कर्मचारियों की कार्यक्षमता में कमी आती है।
6. प्रतिष्ठा का प्रश्न – कुछ छोटे व्यापारी अपना अंकेक्षण केवल प्रतिष्ठा हेतु ही कराते हैं। वास्तव में उनके लिए अंकेक्षण आवश्यक नहीं होता।
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि छोटे व्यापारियों के लिए अंकेक्षण विलासिता है।
(II) बड़े व्यापारियों के दृष्टिकोण से (From Big Businessmen Point of View) आज के युग में बड़े पैमाने के लाभों के कारण व्यापार का स्वरूप बड़ा होता जा रहा है। जैसे-जैसे व्यापार बढ़ता जाता है, सौदों की मात्रा अधिक होती जाती है तथा मालिक की कर्मचारियों पर निर्भरता बढ़ती जाती है। अत: ऐसी दशा में अंकेक्षण विलासिता न होकर आवश्यकता बन जाता है। बड़े व्यापारियों के दृष्टिकोण से अंकेक्षण विलासिता नहीं है क्योंकि-(1) अंकेक्षण कराने में अशुद्धियाँ एवं अनियमितताएँ प्रकाश में आ जाती हैं तथा उन्हें रोका जा सकता है। (2) छल-कपट पर नियन्त्रण रखा जा सकता है। (3) कर्मचारियों की कार्यक्षमता में वृद्धि होती है तथा स्वस्थ वातावरण सृजित होता है। (4) दिवालिया की दशा में शीघ्र ऋण-मुक्ति प्राप्त हो सकती है। (5) संस्था की ख्याति व प्रतिष्ठा में वृद्धि होती है। (6) व्यवसाय का विक्रय सुविधापूर्वक एवं उचित प्रतिफल पर किया जा सकता है। (7) सर्वत्र नैतिकता का वातावरण रहता है। (8) प्रबन्धकों की कार्यक्षमता में भी वृद्धि होती है तथा वे सही निर्णय लेने में समर्थ होते हैं।
अंकेक्षण की अनिवार्यता
(Necessity of Auditing)
अंकेक्षण के महत्व एवं लाभों को ध्यान में रखते हुए ही सरकार ने कुछ व्यवसायों एवं संस्थाओं में लेखापुस्तकों के अंकेक्षण को अनिवार्य कर दिया है, जैसे-
1. कम्पनियों के लिए – सभी प्रकार की कम्पनियों के लिए अपनी पुस्तकों का अंकेक्षण कराना अनिवार्य है। अंकेक्षण अनिवार्य न होने पर शायद कोई भी विनियोजक अपना धन लगाना पसन्द नहीं करता। अंकेक्षण विनियोजकों को कम्पनी की सही स्थिति बताता है तथा प्रबन्धकों एवं कर्मचारियों को धन के दुरूपयोग से रोकता है।
2. प्रन्यास (Trust) के लिए – ट्रस्टियों द्वारा ट्रस्ट की सम्पत्तियों का उसके उद्देश्यों के अनुसार ठीक ढंग से उपयोग किया गया है या नहीं, यह विश्वास एवं आश्वासन अंकेक्षण करने पर ही प्राप्त हो सकता
3. सहकारी समितियों (संस्थाओं) के लिए-सहकारी समितियों के लिए जरूरी है कि वह सहकारिता के सिद्धान्त के अनुसार चले तथा सदस्यों की जमा राशियों का दुरूपयोग न करे। इसका ज्ञान जनता व सरकार को अंकेक्षण के द्वारा ही हो सकता है।
4. सरकारी निगम व सरकारी विभागों के लिए – अंकेक्षण द्वारा यह स्पष्ट हो जाता है कि कार्य ईमानदारी से हो रहा है और सार्वजनिक धन का उपयोग विकास के लिए किया जा रहा है।
5. बैंकों एवं बीमा कम्पनियों के लिए – बैंकों एवं बीमा कम्पनियों में सरकार एवं जनता का धन विनियोजित होता है जबकि प्रबन्ध, संचालकों एवं कर्मचारियों के हाथ में होता है। अतः बैंकों एवं बीमा कम्पनियों की लेखा पुस्तकों का अंकेक्षण कराया जाना परमावश्यक है।
निष्कर्ष – उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि यह कहना पूर्णतया सत्य नहीं है कि लेखाकर्म एक आवश्यकता है एवं अकेक्षण विलासिता है। यह तो सभी स्वीकार करते हैं कि कुछ अपवाद स्वरूप स्थितियों को छोड़कर लेखाकर्म एक आवश्यकता है, परन्तु अंकेक्षण विलासिता एवं आवश्यकता दोनों ही हो सकता है। वस्तुत: यह व्यापार की परिस्थितियों एवं अंकेक्षण से प्राप्त उपयोगिता एवं अंकेक्षण व्यय के सापेक्षिक सम्बन्ध पर निर्भर करता है। बड़े व्यवसायों के लिए अंकेक्षण उतना ही आवश्यक है जितना कि लेखांकन। इसके अतिरिक्त कम्पनियों, प्रन्यासों, सरकारी विभागों, सार्वजनिक निगम, सहकारी समितियों, एवं बैंकों आदि के लिए तो अंकेक्षण कानूनन अनिवार्य है।
केवल उन दशाओं में ही अंकेक्षण को विलासिता कहा जा सकता है, जबकि व्यापार का स्वरूप छोटा हो, सौदों की मात्रा कम हो तथा मालिक या तो प्रत्यक्षत: स्वयं व्यापार का प्रबन्ध करता हो अथवा कर्मचारियों से अधिक महत्वपूर्ण कार्य न कराता हो।
एक अंकेक्षक के आवश्यक गुण
(Essential Qualities of an Auditor)
1. पुस्तपालन एवं लेखांकन का पूर्ण ज्ञान (Knowledge of Book-keeping and Accountancy) अंकेक्षक के लिए यह आवश्यक है कि उसे पुस्तपालन एवं लेखांकन के सिद्धान्तों का
पर्ण ज्ञान हो। इस ज्ञान के अभाव में अंकेक्षक इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकता कि किसी संस्था के खाते उचित एवं सही हैं।
2. विभिन्न विधानों का ज्ञान (Knowledge of various laws)-अंकेक्षक को समस्त व्यापारिक अधिनियमों जैसे—(i) साझेदारी अधिनियम, (ii) कम्पनी अधिनियम, (iii) आयकर अधिनियम, (iv) कारखाना अधिनियम, (v) बिक्रीकर अधिनियम, (vi) वस्तु विक्रय अधिनियम, (vii) अनुबन्ध अधिनियम, (viii) प्रलेख अधिनियम का ज्ञान होना चाहिए, साथ ही साथ उनमें होने वाले संशोधनों का भी पूर्ण ज्ञान होना चाहिए।
3. अंकेक्षण कार्य में दक्ष होना (Expert in Auditing)—अंकेक्षण वह कला है जिसमें दक्ष होना आवश्यक है तभी व्यवसाय में सफलता प्राप्त की जा सकती है। कार्य में दक्षता, पूर्ण ज्ञान व व्यावहारिकता से प्राप्त की जा सकती है।
4. व्यावसायिक विशेषताओं का ज्ञान (Knowiedge of essentials of business concern)प्रत्येक व्यवसाय अपनी पृथक्-पृथक् विशेषताएँ रखता है। एक अंकेक्षक के लिए यह आवश्यक है कि प्रचलित आर्थिक, व्यापारिक तथा औद्योगिक स्थिति के विषय में भी पूर्ण जानकारी रखे क्योंकि वह विभिन्न प्रकार के व्यवसायों का अंकेक्षण करता है इसलिए उसे इस प्रकार की जानकारी होना आवश्यक है।
5. ईमानदार तथा उच्च चरित्र (Honest)-अंकेक्षक को जिस बात की सत्यता पर विश्वास न हो, उसे प्रमाणित नहीं करना चाहिए। ईमानदार तथा चरित्रवान रहते हुए सही तथ्य अपनी रिपोर्ट में लिखने चाहिए।
6. स्वतन्त्र तथा निडर (Independent and fearless) अंकेक्षक को खातों की सत्यता व औचित्य की जाँच स्वतन्त्रता तथा निष्पक्ष भाव से करनी चाहिए। साथ ही उसे निडर भी होना चाहिए तथा किसी भी प्रकार की अशुद्धियों व कपटों को छिपाना नहीं चाहिए।
7. अनुशासनप्रिय (Discipline Loving)-अंकेक्षक का अनुशासनप्रिय होना अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि अनुशासनप्रिय व्यक्ति ही अपने कार्य को सत्यता व निष्ठा से कर सकता है तथा दूसरों से अनुशासन की आशा रखने वाले को सर्वप्रथम स्वयं अनुशासनप्रिय होना चाहिए।
8. व्यवहार कुशल तथा धैर्यशील – अंकेक्षक को संस्था के कर्मचारियों तथा संचालकों आदि से तरह-तरह की सूचनाएँ एकत्र करनी पड़ती हैं। कभी-कभी छल-कपट करने वाले व्यक्ति इनसे सम्बन्धित सूचनाओं तथा स्पष्टीकरणों को अंकेक्षक को देने में आनाकानी करते हैं। अंकेक्षक को इतना व्यवहार-कुशल होना चाहिए कि वह तरकीब के साथ सब जानकारी धैर्यपूर्वक प्राप्त कर सके।
9. अनावश्यक सन्देहशील न होना (No Unduly Suspicious)-अंकेक्षक को प्रारम्भ से ही यह धारणा रखकर अंकेक्षण कार्य नहीं करना चाहिए कि संस्था के कर्मचारी तथा अन्य सम्बन्धित व्यक्ति बेईमान हैं। उसे उचित सावधानी तथा सतर्कता से अपना कार्य करना चाहिए। संदेह का कोई कारण ज्ञात होने पर ही संदेह का निवारण होना चाहिए। अनावश्यक रूप से सन्देहशील नहीं होना चाहिए। (किंगस्टन कॉटन मिल केस, 1896)। ____
10. परिश्रमी होना – अंकेक्षक को उचित परिश्रम से सावधानीपूर्वक अंकेक्षण कार्य करना चाहिए। अंकेक्षण-सम्बन्धी किसी भी कार्य को करने में आलस करने के कारण यदि कोई अशुद्धि या छलकपट पकड़ने से छूट जाता है तो भविष्य में इस अशुद्धि या छल-कपट का पता चलने पर अंकेक्षक को लापरवाही के लिए दोषी ठहराया जा सकता है। (कन्ट्रोलर ऑफ इन्श्योरेन्स बनाम एच० सी० दास, 1957)।
11. गोपनीयता रखना (Secrecy) अंकेक्षक को संस्था की सभी लेखा-पुस्तकों तक पहुँचने तथा उन्हें जाँचने का अधिकार होता है। अत: अंकेक्षण के दौरान उसे संस्था की बहुत-सी गोपनीय बातों का पता चल जाता है। अंकेक्षक को इन बातों को किसी तीसरे पक्ष के समक्ष व्यक्त नहीं करना चाहिए।
12. स्पष्ट रिपोर्ट लिखने की क्षमता – उसमें इतनी योग्यता होनी चाहिए कि वह अपनी रिपोर्ट सत्य, स्पष्ट, प्रभावपूर्ण तथा संक्षिप्त लिख सके।
अंकेक्षण की सीमाएँ
(Limitations of Auditing)
पूरी कुशलता से जाँच करने के बाद भी अंकेक्षित हिसाब-किताब में अशुद्धियाँ तथा छल-कपट से छूट सकते हैं। अत: अंकेक्षित हिसाब-किताब पर विश्वास करके निर्णय लेने वालों को चाहिए कि अंकेक्षण की सीमाओं को ध्यान में रखें। अंकेक्षण की प्रमुख सीमाएँ निम्नलिखित हैं
1. अंकेक्षण शत – प्रतिशत शुद्धता की गारन्टी नहीं है – साधारणतया अंकेक्षण कार्य बड़ी संस्थाओं के द्वारा ही कराया जाता है, जिनमें काफी अधिक संख्या में व्यवहार होते हैं। इन समस्त व्यवहारों की गहन जाँच करना अंकेक्षक के लिए सम्भव नहीं है और न ही समय तथा धन के व्यय के दृष्टिकोण से व्यावहारिक है। अत: अंकेक्षक परीक्षण जाँच का सहारा लेता है। परीक्षण जाँच में अशुद्धियाँ तथा कपट सामने आने से छूट सकते हैं।
2. साक्ष्य सम्बन्धी दोष – किसी भी संस्था की लेखा पुस्तकों की जाँच करने के लिए अंकेक्षक को प्राय: साक्ष्यों पर निर्भर रहना पड़ता है। यदि किसी लेखे के सम्बन्ध में ठीक प्रकार बनाया गया वैध प्रमाणक (legal voucher) उपलब्ध हो, तो अंकेक्षक खातों में त्रुटियाँ होते हुए भी उन्हें गलत सिद्ध नहीं कर सकता।
3. योजनाबद्ध तरीके से की गई अनियमितताएँ पकड़ में न आना – जिन संस्थाओं में आन्तरिक निरीक्षण प्रणाली संतोषजनक है, वहाँ पर अंकेक्षक परीक्षण जाँच का सहारा लेता है। ऐसी दशा में कर्मचारियों द्वारा योजनाबद्ध तरीके से की गई अनियमितताएँ अंकेक्षक की पकड़ में नहीं आती।।
4. छोटी-छोटी अनियमितताओं पर ध्यान न देना – अंकेक्षक संस्था द्वारा तैयार किये गये लाभ-हानि खाते तथा स्थिति विवरण पर अधिक ध्यान देता है। वह कर्मचारियों द्वारा की जाने वाली छोटी-छोटी अनियमितताओं पर ध्यान नहीं देता है।
5. अंकेक्षक की व्यक्तिगत मर्यादाएँ – अंकेक्षक के कार्य में उसके व्यक्तित्व की छाप स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। प्रत्येक अंकेक्षक अपने अनुभव एवं योग्यता के अनुसार कार्य करता है। इसके अलावा प्रत्येक व्यक्ति के कार्य करने का ढंग भी अलग होता है। अतः अंकेक्षण के स्तर एवं निर्णय में भिन्नताएँ होना स्वाभाविक है।
6. भारत में अंकेक्षक को व्यावहारिक स्वतंत्रता नहीं है – वैसे तो अंकेक्षक के अधिकार, कर्त्तव्य तथा दायित्व कम्पनी विधान के द्वारा निश्चित होते हैं और इनके अनुसार अंकेक्षक को एक स्वतन्त्र व्यक्ति माना गया है। परन्तु व्यवहार में कम्पनी के संचालक उसी अंकेक्षक की नियुक्ति करते हैं, जो उनके प्रभाव में होता है। अत: अंकेक्षक कम्पनी के संचालकों/प्रबन्धकों के प्रभाव में रहता है तथा पूर्णरूप से निष्पक्ष जाँच नहीं कर पाता।
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