B.Com 2nd Year Introduction Long Notes In Hindi

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विस्तृत उत्तरीय प्रश्न 

प्रश्न 1- प्रबन्ध का अर्थ स्पष्ट कीजिए। प्रबन्ध की परिभाषा दीजिए और प्रबन्ध का महत्त्व बताइए।

State the meaning of management. Define the definition of management and importance of management. 

उत्तर – प्रबन्ध का अर्थ

(Meaning of Management) 

प्रबन्ध से तात्पर्य “अन्य व्यक्तियों से कार्य कराने की युक्ति या विधि है।” कोई भी व्यावसायिक संस्था एक समूहबद्ध संस्था होती है जो स्वयं कार्य नहीं कर सकती है। उसे चलाने के लिए एक उद्दीपन की आवश्यकता होती है। यही उद्दीपन ‘प्रबन्ध’ कहलाता है। विस्तृत अर्थ में, प्रबन्ध एक कला है।

प्रबन्ध की विभिन्न विचारधाराएँ हैं। एक विचारधारा के अनुसार प्रबन्ध मुख्यत: उद्देश्यों का निर्धारण और उन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए निर्णय लेने से सम्बन्धित होता है। एक अन्य विचारधारा के अनुसार प्रबन्ध का आशय किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए मनुष्यों, मुद्रा, उपकरणों, सामग्री एवं विधियों के प्रभावपूर्ण उपयोग से है।

प्रबन्ध की परिभाषाएँ

(Definitions of Management

1. एफडब्ल्यू. टेलर के अनुसार, “प्रबन्ध यह जानने की कला है कि आप क्या करना चाहते हैं और इसके पश्चात् यह देखना कि आप इसे सर्वोत्तम एवं मितव्ययितापूर्ण ढंग से करते हैं।”

2. हेनरी फेयोल के अनुसार, “प्रबन्ध से आशय पूर्वानुमान लगाना, योजना बनाना, संगठन करना, निर्देशन करना, समन्वय करना तथा नियन्त्रण करना है।”

3. हेरॉल्ड कण्ट्ज एवं ओ’डोनेल के अनुसार, “प्रबन्ध औपचारिक रूप से संगठित दलों में व्यक्तियों के द्वारा तथा उनके साथ मिलकर काम करने व कराने की कला है।’

4. डॉ० किम्बाल एवं किम्बाल के अनुसार, “विस्तृत रूप में प्रबन्ध उस कला को कहते हैं जिसके द्वारा किसी उपक्रम में मनुष्यों एवं पदार्थों को नियन्त्रित करने के लिए आर्थिक सिद्धान्तों को प्रयोग में लाया जाता है।”

प्रबन्ध का महत्त्व

(Importance of Management)

औद्योगिक क्रान्ति के फलस्वरूप उत्पादन कार्य भारी मशीनों की सहायता से बहुत बड़े पैमाने पर किया जाने लगा है। कम्पनी के रूप में संगठन के एक नए स्वरूप का विकास हुआ। फलस्वरूप प्रबन्ध के कार्य में तेज गति से वृद्धि हुई। वह सामान्य से विशिष्ट और विशिष्ट से

तकनीकी (technical) हो गया है। प्रबन्ध जगत में महत्त्वपूर्ण क्रान्ति हुई। वर्तमान समय प्रबन्ध का महत्त्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। प्रबन्ध के बढ़ते हुए महत्त्व को निम्न बिन्दुओं द्वारा और अधिक स्पष्ट किया जा सकता है

1. उद्देश्यों तथा नीतियों का निर्धारण (To Determine Objects and Policies)-प्रत्येक संस्था के जीवन में उद्देश्य का बड़ा महत्त्व होता है। लक्ष्यविहीन संस्था पथभ्रष्ट राही के समान निरर्थक प्रयास करती है। प्रबन्ध द्वारा इकाई का लक्ष्य निर्धारित किया जाता है। उसी के द्वारा इकाई की मूलभूत नीतियों का निर्माण किया जाता है।

2. वृहत्ताकार इकाइयों का संचालन (To Carry on Large Scale Units)बड़े आकार की व्यावसायिक इकाइयों की स्थापना को प्राथमिकता दी जाती है। ऐसी स्थिति में उनके संगठन का स्वरूप प्राय: कम्पनी संगठन होता है। इन वृहत्ताकार इकाइयों को सुचारु रूप से चलाने हेतु कुशल प्रबन्ध का बड़ा महत्त्व है।

3. प्रतिस्पर्धा का सामना (To Face the Competition)-वर्तमान समय में बाजार के विस्तार के साथ-साथ प्रतिस्पर्धा का क्षेत्र भी अन्तर्राष्ट्रीय हो गया है। बड़ी तथा सुदृढ़ इकाइयों द्वारा छोटी तथा कमजोर इकाइयों को बाजार से हटा देने की होड़ सी लगी है।

4. आन्तरिक एवं बाह्य पक्षों में समन्वय (To Co-ordinate among Internals and Externals)-संस्था के आन्तरिक पक्ष में वे कर्मचारी तथा अधिकारी सम्मिलित होते हैं जो संस्था के विभिन्न पदों पर कार्य करते हैं। संस्था के बाह्य पक्ष से आशय अंशधारियों, विनियोक्ताओं, श्रम संघों, ऋणपत्रधारियों तथा सरकार से होता है।

5. औद्योगिक समाज के एक प्रभावी समूह के रूप में (An Effective Group of Industrial Society)-वर्तमान समय में प्रबन्ध एक प्रभावी समूह के रूप में कार्य कर रहा है जिसके कारण इसका महत्त्व बढ़ता जा रहा है। प्रबन्ध व्यवसाय एवं उद्योग से सम्बन्धित सभी वर्गों के हितों का संरक्षण करता है तथा प्रभावी समूह के रूप में सामान्य लक्ष्यों की प्राप्ति करने में सफल होता है।

6. नवीन आविष्कारों तथा प्रचलित प्राविधिकी में समन्वय (Co-ordination in Invention and its Execution)-आज के परिवर्तनशील युग में प्रत्येक क्षेत्र में द्रुत गति से परिवर्तन होते रहते हैं और जो नए आविष्कार होते हैं, उनका औद्योगिक इकाइयों में प्रचलित मशीनों, संयन्त्रों व प्राविधिकी पर गहरा प्रभाव पड़ता है।

7. जीवन-स्तर में वृद्धि (Improvement in Standard of Living)-कुशल प्रबन्ध चूँकि उपलब्ध साधनों का अधिकाधिक मितव्ययिता एवं कुशलता के साथ अधिकतम उपयोग करके श्रेष्ठ किस्म की वस्तुएँ न्यूनतम मूल्य पर समाज को उपलब्ध कराता है, अतः लोगों के जीवन-स्तर में वृद्धि होती है, निर्धनता दूर होती है और देश समृद्धिशाली बनता है।

8. रोजगार के अवसरों में वृद्धि (Increase in Employment Opportunities)-बड़ी इकाइयों में आज सैकड़ों हजारों लोग कार्यरत हैं। नित्य-प्रति अनेक बड़ी इकाइयाँ जन्म लेती हैं, जिनके कारण रोजगार के अवसर बढ़ते हैं। चूंकि बड़ी इकाइयों का अस्तित्व प्रबन्ध के कारण सुरक्षित रहता है।

9. निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति (Achievement of Objectives)-प्रबन्ध नेतृत्वकारी कार्यों द्वारा इकाई के समस्त साधनों, कर्मचारियों और क्रियाओं को इस प्रकार सम्बन्धित एवं नियन्त्रित करता है जिससे निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए वे सब एक साथ मिलकर प्रयत्नशील हो जाते हैं।

10. व्यक्तियों की योग्यता का विकास (Development of Industrial Ability)-प्रबन्ध की अधिकांश क्रियाएँ मानवीय व्यवहार से सम्बन्धित होती हैं। प्रबन्ध व्यक्तियों की कार्यकुशलता एवं कार्यक्षमता में वृद्धि करता है और उनका सर्वतोमुखी विकास करता है।

11. औद्योगिक संघर्षों में कमी (To Reduce the Industrial Disputes)वर्तमान उद्योगों में आये दिन हड़ताल, तालाबन्दी, घेराव तथा काम धीरे करो आदि एक सामान्य घटना है। संघर्षों को कम करने का तरीका मानसिक परिवर्तन है। कुशल प्रबन्धक अपना मानवीय दृष्टिकोण बदलकर इन संघर्षों को कम करने में सफल हो सकते हैं।

12. साधनों का अधिकतम उपयोग (To Maximize the Resource Utilization)-कुशल प्रबन्ध के द्वारा ही एक-एक इकाई के उपलब्ध साधनों का अधिकाधिक सदुपयोग किया जा सकता है। डगलस डब्ल्यू० फोस्टर (Douglas W. Foster) के शब्दों में, “प्रबन्ध ऐसी परिस्थितियों एवं ऐसे सम्बन्धों को उत्पन्न करने से सम्बन्धित है जो एक उपक्रम के सभी साधनों का पूर्ण प्रयोग करते हैं।”

प्रबन्ध के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए अमेरिका के भूतपूर्व राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने कहा था, “अच्छे प्रबन्ध के बिना एक सरकार भी रेत पर बने मकान के समान है।”

प्रश्न 2 – “प्रबन्ध कला है अथवा विज्ञान अथवा दोनों।इस कथन को स्पष्ट कीजिए।

“Management is an art or science or both.” Explain this statement. 

उत्तर – प्रबन्ध कला के रूप में

(Management as an Art) 

जोसेफ एल० मैसी के अनुसार, “कोई भी क्रिया जिसमें दक्षता एवं ज्ञान (skills and knowledge) के उपयोग पर जोर दिया जाता है तथा जिसमें सोचे-समझे हुए प्रयासों द्वारा लक्ष्य को प्राप्त किया जाता है, कला (art) कही जाती है। यदि यह मानदण्ड प्रबन्ध पर भी लागू होता है तो उसे भी कला की संज्ञा दी जा सकती है। सामान्यत: निम्न तथ्य प्रबन्ध को कला के रूप में माने जाने पर जोर देते हैं

1. व्यक्तिगत दक्षता का प्रभुत्व (Dominance of Personal Skill)-यद्यपि प्रबन्धकीय सिद्धान्त तथा तकनीकें समान होती हैं फिर भी समान परिस्थितियों में प्रत्येक प्रबन्धक द्वारा प्राप्त परिणाम (results) समान नहीं होते, क्योंकि परिणामों पर या कार्य को सम्पन्न कराने में प्रबन्धक की व्यक्तिगत दक्षता का भारी प्रभाव पड़ता है। एक प्रबन्धक अपने अधीनस्थों को उचित रूप से प्रेरित करके तथा कुशल नेतृत्व प्रदान करके लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है, जबकि दूसरा प्रबन्धक इसमें असफल हो सकता है। इस रूप में हम प्रबन्ध की तुलना अन्य कलाओं से भी कर सकते हैं। जैसे गायन व संगीत में सभी को समान उपकरण (instruments) उपलब्ध होने पर भी प्रत्येक गायक ‘लता मंगेशकर’ अथवा प्रत्येक संगीतकार ‘शंकर जयकिशन’ का मुकाबला नहीं कर सकता, क्योंकि गायन व संगीत विशुद्ध कलाएँ हैं जिनमें व्यक्तिगत निपुणता एवं लगन की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।

2. ऐतिहासिक तथ्य (Historical facts)-विश्व में प्रबन्ध के वैज्ञानिक सिद्धान्तों का उदय मुख्यतया बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में हुआ है, जबकि मध्यम एवं वृहत् आकार के उद्योग व व्यवसाय अठारहवीं व उन्नीसवीं शताब्दी में भी विद्यमान थे। अत: उस समय के उद्योगों का प्रबन्ध किन्हीं वैज्ञानिक सिद्धान्तों पर आधारित न होकर पूर्णतया प्रबन्धकों की दक्षता तथा अनुभव पर ही आधारित होता था और वह पूर्णरूपेण कला के रूप में था, अत: आज भी प्रबन्ध एक कला है।

3. अभ्यास या अनुभव द्वारा सुधार (Improvement through practice or experience)-जिस प्रकार गायन, वादन व संगीत जैसी कलाओं में सतत अभ्यास एक व्यक्ति को कला में पारंगत (perfect) बनाता है उसी प्रकार कारखानों व अन्य संस्थानों में किया गया प्रबन्धकीय अनुभव एक व्यक्ति को सफल प्रबन्धक बनाने में सहायता करता है। अत: इस दृष्टि से प्रबन्ध को ‘कला’ माना जाना न्यायसंगत है।

4.कल्पना-शक्ति व दूरदर्शिता का महत्त्व (Importance of imagination and farsightedness)-जिस प्रकार एक कलाकार अपनी कल्पना-शक्ति के आधार पर अपनी कृति को सजीवता प्रदान करता है, उसी प्रकार एक प्रबन्धक भी उत्पादन के विभिन्न साधनों (पूँजी, श्रम, कच्चा माल व भूमि) का उचित समन्वय (co-ordination) करके अधिकतम उत्पादन को सम्भव बनाता है। समन्वय कार्य में उसे अपनी कल्पना-शक्ति, दूरदर्शिता व सूझ-बूझ का ऐसा परिचय देना होता है जिससे कि उत्पादन के विभिन्न साधनों के मध्य कोई संघर्ष या आपसी टकराव पैदा न हो और कार्य सुचारु ढंग से सम्पन्न हो सके। वास्तव में, इस रूप में प्रबन्ध को कृति कला (Creative art) माना जा सकता है।

5. परिस्थिति के अनुसार निर्णयन (Decision making as per situation)प्रो० कण्ट्ज एवं ओ’डोनेल के अनुसार, “अपनी विशिष्ट प्रकृति के कारण प्रबन्धकीय व्यवहार में इस बात की आवश्यकता होती है कि जब भी प्रबन्धक सिद्धान्तों तथा तकनीकों का प्रयोग करे, उससे पूर्व वहाँ की वस्तुस्थिति को भली-भाँति समझ ले अन्यथा निर्णय प्रभावपूर्ण

सिद्ध नहीं होंगे।” उदाहरण के लिए, एक श्रमिक या कर्मचारी से कार्य सम्पन्न कराने के लिए इनाम (reward) अथवा दण्ड (punishment) दोनों ही सिद्धान्त हैं, परन्तु व्यवहार में किसे लाया जाए, यह कारखाने के वातावरण तथा कार्य की परिस्थितियों पर निर्भर करेगा। इस प्रकार का निर्णय लेना और उसे सफलतापूर्वक लागू करना ही प्रबन्ध को कला का रूप प्रदान करता है।

प्रबन्ध विज्ञान के रूप में

(Management as a Science) 

किसी भी क्षेत्र में उसके क्रमबद्ध एवं संगठित ज्ञान को ही विज्ञान कहा जाता है। इसके तीन प्रमुख तत्त्व हैं

(i) यह ज्ञान भली-भाँति जाँची हुई विभिन्न परिकल्पनाओं पर आधारित होता है। यह जाँच एक क्षेत्र विशेष से एकत्रित किए गए आँकड़ों के विश्लेषण तथा विभिन्न प्रयोगों (experiments) द्वारा की जाती है।

(ii) यह ज्ञान सार्वभौमिक होता है अर्थात् सिद्धान्त व तकनीकों के रूप में इसे विश्व भर में समान रूप से लागू किया जा सकता है।

(iii) सिद्धान्तों के रूप में यह ज्ञान विभिन्न घटकों के मध्य कारण और प्रभाव सम्बन्ध (cause-effect relationship) स्थापित करता है।

प्रबन्ध के क्षेत्र में उपर्युक्त तीन तत्त्वों का निरीक्षण करने पर ही हम इस प्रश्न का उत्तर दे पाने में समर्थ हो सकेंगे कि क्या प्रबन्ध भी विज्ञान है।

1. कारण-प्रभाव सम्बन्ध का पाया जाना (There being cause-effect relationship)-मौलिक विज्ञानों की भाँति प्रबन्ध के सिद्धान्त की कुछ निश्चित घटकों के कारण और प्रभाव के सम्बन्ध की व्याख्या करते हैं। उदाहरण के लिए रसायन विज्ञान (Chemistry) के सूत्रानुसार सोडियम और क्लोरीन की क्रिया के परिणामस्वरूप नमक की उत्पत्ति होती है। इसी प्रकार अधिकार अन्तरण (delegation of authority) का प्रबन्ध सिद्धान्त यह बताता है कि दायित्वों के साथ-साथ पर्याप्त अधिकारों का अन्तरण करने पर ही कोई सहायक प्रबन्धक कार्य को सफलतापूर्वक सम्पन्न करा सकता है। विशिष्टीकरण का प्रबन्ध सिद्धान्त यह बताता है कि विशिष्टीकरण के कारण वस्तु की गुणवत्ता में सुधार होता है।

2. जाँची हुई कल्पनाओं द्वारा सिद्धान्तों का प्रतिपादन (Development of principles through tested hypothesis)-जिस प्रकार मौलिक विज्ञानों में नियमों तथा फॉर्मूला आदि का विकास लेबोरेटरी में किए गए असंख्य प्रयोगों पर आधारित होता है उसी प्रकार से अब प्रबन्ध सिद्धान्तों का प्रतिपादन भी विभिन्न औद्योगिक एवं गैर-औद्योगिक इकाइयों से प्राप्त आँकड़ों व तथ्यों के विश्लेषण व प्रयोगों (experiments) द्वारा किया जाता है और ये सिद्धान्त निश्चित रूप से प्रबन्ध में सुधार पैदा करते हैं। यह अवश्य है कि प्रबन्धकीय सिद्धान्त उतने शुद्ध नहीं होते जितने मौलिक विज्ञानों के सिद्धान्त, क्योंकि प्रबन्ध सिद्धान्त मानवीय पहलू स सम्बन्ध रखते हैं, अत: वातावरण या कार्य की दशाओं में परिवर्तन होने से सिद्धान्तों की

प्रभावशीलता में अन्तर आ जाता है। उदाहरण के लिए रसायन विज्ञान का यह फॉर्मूला कि कार्बन (C) + ऑक्सीजन (O,) मिलकर कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) का निर्माण करते हैं हमेशा इसी रूप में लागू होगा, परन्तु प्रबन्ध का यह सिद्धान्त कि ‘वित्तीय प्रेरणाएँ श्रमिक उत्पादकता में वृद्धि करती हैं’ उस दशा में प्रभावपूर्ण तरीके से लागू नहीं होगा जहाँ विभाग में श्रमिकों से कराने के लिए काम का अभाव है और श्रमिक यह सोचते हैं कि उत्पादकता बढ़ाने पर उनमें से कुछ की छंटनी (retrenchment) भी हो सकती है। अन्य दशाओं में यह सिद्धान्त वैज्ञानिक सिद्धान्त की भाँति क्रियाशील होगा।

3. प्रबन्ध के सिद्धान्त एवं नियमों की सार्वभौमिकता (Universality of the principles and laws of management)-जिस प्रकार मौलिक विज्ञानों के सिद्धान्त व फॉर्मूले विश्व भर में समान रूप से लागू होते हैं, उसी प्रकार प्रबन्ध के सिद्धान्त व नियम भी विश्व भर में सभी संस्थाओं में समान रूप से लागू होते हैं; बशर्ते कि लागू होने वाली दशाएँ समान हों। उदाहरण के लिए ‘आदेश की एकता’ (unity of command) का सिद्धान्त यह बताता है कि एक संस्था के कर्मचारी को किसी कार्य के बारे में आदेश देने का अधिकार किसी एक व्यक्ति (one superior only) को ही होना चाहिए, तभी नियन्त्रण व नियोजन प्रभावपूर्ण होगा। इस प्रकार सार्वभौमिकता की दृष्टि से ‘प्रबन्ध’ एक विज्ञान माना जा सकता है।

प्रबन्ध कला भी है और विज्ञान भी 

(Management is an Art as well as a Science) 

प्रबन्ध के कला पक्ष और विज्ञान पक्ष की विशेषताओं का अध्ययन करने के उपरान्त हम स्वयं को एक अजीब स्थिति में पाते हैं और यह निश्चय नहीं कर पाते कि प्रबन्ध कला है या विज्ञान। इस स्थिति से उबरने के लिए यह आवश्यक है कि हम प्रबन्ध की तुलना चिकित्सा विज्ञान या इंजीनियरी से करें जो जीव विज्ञान तथा भौतिक विज्ञान व गणित जैसे विशुद्ध विज्ञानों के सिद्धान्तों पर आधारित व्यावहारिक विज्ञान (applied science) है। एक डॉक्टर बगैर चिकित्सा विज्ञान के ज्ञान के ‘जालसाज’ कहा जाएगा और केवल चिकित्सा विज्ञान या किताबी ज्ञान उसे अच्छा डॉक्टर नहीं बना देगा बल्कि डॉक्टर बनने के लिए उसे चिकित्सा विज्ञान के अध्ययन के अतिरिक्त अत्यधिक अभ्यास, अनुभव तथा लगन की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार एक प्रबन्धक को भी सफल प्रबन्ध के लिए न केवल प्रबन्ध के सिद्धान्त व नियम का ही अध्ययन करना होता है बल्कि भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में अधीनस्थों से कार्य सम्पन्न कराने के लिए विवेकपूर्ण निर्णय लेने व नेतृत्व प्रदान करने सम्बन्धी कला का भी अभ्यास करना पड़ता है।

वास्तव में, प्रबन्धशास्त्र जहाँ एक ओर विभिन्न सामाजिक विज्ञानों, जैसे अर्थशास्त्र समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, सांख्यिकी, लेखाशास्त्र आदि के सिद्धान्तों पर आधारित है वहाँ यह. श्रमिक और कर्मचारियों से कार्य लेने के रूप में मानवीय पहलू से भी सम्बन्धित है, अत: यह भी एक व्यावहारिक विज्ञान है जिसमें कला और विज्ञान पक्ष दोनों की ही प्रधानता होती है और वे एक-दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी न होकर पूरक होते हैं।

निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि प्रबन्ध विज्ञान भी है और कला भी। विज्ञान के कप में इसने विशिष्ट प्रबन्धकीय समस्याओं के समाधान के लिए प्रबन्धकों के मार्गदर्शन हेतु कळ निश्चित नियम व सिद्धान्त प्रतिपादित किए हैं और अभी भी भावी समस्याओं का सामना करने के लिए नवीन परिस्थितियों में नित नवीन सिद्धान्त प्रतिपादित किए जा रहे हैं, परन्तु प्रबन्धकीय समस्याओं के समाधान हेतु मात्र नियमों व सिद्धान्तों का प्रतिपादन ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि परिस्थितियों के अनुसार इन सिद्धान्तों को व्यावहारिक रूप से प्रयोग में लाने की कुशलता व निर्णयन शक्ति का विकास करने की भी आवश्यकता है जो अनुभव व अभ्यास से प्राप्त की जा सकती है। यही प्रबन्ध का कलात्मक पहलू है।

प्रश्न 3 – “प्रबन्ध के सिद्धान्त लचीले हैं न कि सम्पूर्ण, लेकिन उनका उपयोग बदलती हुई और विशिष्ट परिस्थितियों में ही किया जाना चाहिए।हेनरी फेयोल के इस कथन पर टिप्पणी कीजिए और उनके द्वारा प्रतिपादित प्रबन्ध के चौदह सिद्धान्तों का संक्षिप्त विवरण दीजिए।

“Principles of management are flexible and not absolute, but must be utilized in the light of changing and specialized conditions.” (Fayol) Comment. Summarize the 14 principles of management as explained by Henry Fayol. 

उत्तर – प्रबन्ध के सिद्धान्त

(Principles of Management) 

कुशल प्रबन्ध व्यावसायिक एवं औद्योगिक प्रगति तथा समृद्धि का आधार है। अत: अपने प्रबन्ध को कुशल एवं वैज्ञानिक बनाने के लिए आवश्यक है कि प्रबन्धक प्रबन्ध के नियमों एवं सिद्धान्तों से पूर्णतया परिचित हो तथा परिस्थितियों के अनुसार उनका अनुसरण करे। यद्यपि एफडब्ल्यू. टेलर, एल० उर्विक, ई०एफ०एल० ब्रीच, कूण्ट्ज एवं ओ’डोनेल आदि विद्वानों ने प्रबन्ध के भिन्न-भिन्न सिद्धान्त प्रतिपादित किए हैं, किन्तु वे सभी लगभग समान भाव लिए हुए हैं। हेनरी फेयोल, जिन्हें ‘प्रबन्ध सिद्धान्तों का जनक’ माना जाता है, ने सबसे अधिक व्यावहारिक, तर्कपूर्ण तथा विस्तृत सिद्धान्त दिए हैं। हेनरी फेयोल द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों का संक्षिप्त विवेचन निम्न प्रकार है

1. कार्य का विभाजन (Division of Work)-विशिष्टीकरण के लाभों को प्राप्त करने के लिए कार्यों का विभाजन आवश्यक है। इसका उद्देश्य कम प्रयासों से अधिक एवं अच्छा उत्पादन करना है। हेनरी फेयोल के अनुसार, “प्रत्येक व्यक्ति प्रत्येक कार्य को करने योग्य नहीं होता, अत: जो व्यक्ति जिस कार्य को करने योग्य है, उसे वही कार्य करने के लिए दिया जाना चाहिए।”

2. अधिकार एवं उत्तरदायित्व (Authority and Responsibility)-अधिकार और दायित्व दोनों घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं। अपने दायित्वों को निभाने के लिए अधिकारी का अधिकार प्रदान किए जाते हैं। ये अधिकार उसे ‘पद’ और ‘व्यक्तित्व’ से मिलते हैं।

3. अनुशासन (Discipline)-अनुशासन के अभाव में कोई भी प्रतिष्ठान सफर नहीं हो सकता। अनुशासन अच्छे नेतृत्व पर निर्भर करता है। हेनरी फेयोल ने ठीक ही कहा। “बुरा अनुशासन एक बुराई है जो प्राय: बुरे नेतृत्व के कारण उत्पन्न होता है।” अनुशासन के बनाए रखने के लिए इन तीन बातों का होना आवश्यक है-(i) सभी स्तरों पर अच पर्यवेक्षक, (ii) कर्मचारियों के बीच उचित समझौते, (iii) दण्ड की व्यवस्था।

4. आदेश की एकता (Unity of Command)-आदेश में एकता होनी चाहिए इसके लिए यह आवश्यक है कि प्रत्येक कार्य के लिए कर्मचारी को केवल एक अधिकारी से है। आदेश मिलना चाहिए। अनेक अधिकारियों से आदेश मिलने पर कर्मचारी भ्रमित हो जाता है। वह अपने उत्तरदायित्व का ठीक प्रकार से निर्वाह नहीं कर पाता, अनुशासन खतरे में पड़ जाता है तथा उपक्रम में शान्ति एवं स्थिरता के लिए खतरा पैदा हो जाता है।

5. निर्देश की एकता (Unity of Direction)-निर्देश की एकता से आशय है कि एक उद्देश्य से सम्बन्धित क्रियाएँ एक समूह में होनी चाहिए तथा एक समूह का एक ही अधिकारी होना चाहिए। इससे कार्यों में समन्वय तथा एकरूपता आएगी और इसके अभाव में आदेश की एकता भी सम्भव नहीं हो सकेगी।

6. व्यक्तिगत हितों की सामान्य हित के प्रति अधीनता (Subordination of Individual Interests to General Interest)-इस सिद्धान्त के अनुसार सामान्य हित व्यक्तिगत हित से ऊपर है। अत: व्यक्तिगत हित की तुलना में सामान्य हित की ओर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए। जहाँ तक सम्भव हो, व्यक्तिगत हित सामान्य हित के अनुरूप होना चाहिए।

7. कर्मचारियों का पुरस्कार (Remuneration of Personnel)-कर्मचारिय को उनकी सेवाओं के बदले पुरस्कार दिया जाता है। यह पुरस्कार उचित एवं सन्तोषजनक होन चाहिए। मजदूरी पद्धति ऐसी होनी चाहिए जिसमें उचित पारिश्रमिक की व्यवस्था हो, अधिव कार्य के लिए अधिक पुरस्कार की व्यवस्था हो तथा एक निश्चित सीमा से ऊपर भुगतान न हो।

8. केन्द्रीकरण (Centralization)-हेनरी फेयोल के अनुसार, “सभी चीजें, जे सहायकों के महत्त्व को बढ़ाती हैं, विकेन्द्रीकरण हैं तथा सभी चीजें, जो सहायकों के महत्त्व के कम करती हैं, केन्द्रीकरण हैं।” अधिकार की व्यवस्था के सम्बन्ध में ये दो चरम सीमाएँ है दोनों के मध्य, परिस्थितियों के अनुसार इस प्रकार सन्तुलन बनाए रखना चाहिए कि संस्था के कर्मचारियों के गुणों का अधिकतम उपयोग हो सके।

9. पदाधिकारियों में सम्पर्क (Scalar Chain)-यह सिद्धान्त इस बात पर बल देता है कि सभी पदाधिकारियों के बीच सीधा सम्पर्क होना चाहिए। किसी भी सूचना का संचा सभी सम्बन्धित प्रबन्धकीय पदाधिकारियों के स्तर से होना चाहिए। किसी भी सम्बन्धि प्रबन्धकीय स्तर की अवहेलना नहीं की जानी चाहिए। आज्ञा देने व आज्ञा प्राप्त करने के मा बिल्कुल स्पष्ट होने चाहिए।

10. व्यवस्था (Order)-यह सिद्धान्त वस्तुओं व व्यक्तियों से सम्बन्धित है। हेनरी फेयोल ने इस आधार पर निम्नलिखित दो प्रकार की व्यवस्थाएँ बतायी हैं

(i) सामग्री व्यवस्था (Material Order)—इसके अनुसार प्रत्येक वस्तु के लिए एक निश्चित स्थान एवं प्रत्येक वस्तु अपने निश्चित स्थान पर होनी चाहिए।

(iii) सामाजिक व्यवस्था (Social Order)-इसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के लिए एक निश्चित स्थान एवं प्रत्येक व्यक्ति अपने स्थान पर होना चाहिए। ऐसा होने के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति स्थान के अनुरूप हो और स्थान व्यक्ति के अनुरूप हो।

11. समानता (Equality)-प्रत्येक अधिकारी को अपने सभी कर्मचारियों के साथ समानता का व्यवहार करना चाहिए। ऐसा करते समय प्रबन्धक को बुद्धिमान, अनुभवी एवं अच्छी प्रकृति का होना चाहिए।

12. कर्मचारियों की सेवाओं की स्थिरता (Stability of Tenure of Personnel)-इस सिद्धान्त के अनुसार कार्य-विशेष पर कर्मचारियों की सेवा में स्थिरता रहनी चाहिए। दूसरे शब्दों में, जहाँ तक सम्भव हो सके कर्मचारियों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानान्तरित नहीं किया जाना चाहिए। जल्दी-जल्दी स्थानान्तरण से व्यवसाय के सफल संचालन में बाधा उत्पन्न होती है, कार्य की प्रगति धीमी रहती है तथा कर्मचारियों में असन्तोष की भावना बलवती होती है।

13. प्रेरणा की पहल (Initiative)-प्रेरणा से अभिप्राय किसी योजना को सोचने, प्रस्तावित करने तथा उसे क्रियान्वित करने की स्वतन्त्रता से है। सभी कर्मचारियों को समान रूप से ‘प्रेरणा के अवसर’ उपलब्ध होने चाहिए।

14. सहयोग-भावना (Esprit-de-corps)-व्यवसाय की सफलता कर्मचारियों में परस्पर सहयोग की भावना पर निर्भर करती है। ‘आदेश की एकता’, ‘वार्तालाप’, ‘समान व्यवहार’ आदि सिद्धान्तों का पालन करके सहयोग की भावना को विकसित किया जा सकता है।

हेनरी फेयोल के पश्चात् भी प्रबन्ध के कुछ सिद्धान्त विकसित किए गए हैं, जो निम्नलिखित हैं

1. प्रयोग (Experiment)-वर्तमान समय में प्रयोग एवं अनुसन्धान’ प्रबन्धक की सफलता के प्रमुख अंग हैं। कार्य का ठीक-ठीक मूल्यांकन करने के लिए ये प्रयोग किए जाते हैं। टेलर के अनुसार ये प्रयोग तीन प्रकार के होते हैं-(i) समय अध्ययन, ii) गति अध्ययन, (iii) थकान अध्ययन।

2. नियोजन (Planning)-नियोजन प्रबन्ध की प्रमुख विशेषता है। इसके अन्तर्गत प्रत्येक कार्य एक पूर्व-नियोजन के अनुसार होता है।

3. वस्तुओं का उचित चुनाव एवं उपयोग (Proper Selection and Use of Materials)-श्रमिक को अपने कार्य के लिए वांछित वस्तुएँ, यन्त्र व सुविधाएँ कार्यक्रम के अनुसार पहले ही मिल जानी चाहिए। इससे उन वस्तुओं का उपयोग सरलता से हो सकेगा. किस्म नियन्त्रण में सुविधा रहेगी और समय भी नष्ट नहीं होगा।

4. प्रमापीकरण (Standardization)-प्रमापीकरण के अन्तर्गत एक निश्चित आकार, प्रकार, गुण, भार एवं विशेषता की ही वस्तुओं एवं सेवाओं का उत्पादन किया जाता है। इसके लिए यह आवश्यक है कि प्रमापित प्रकार के यन्त्र, उपकरण व सामग्री का प्रयोग किया जाए और सभी साधनों का चयन वैज्ञानिक आधार पर किया जाए।

5. स्वस्थ कार्य-दशाएँ (Healthy Working Conditions)-कर्मचारियों के कार्य करने की दशाएँ अच्छी व स्वास्थ्यकर होनी चाहिए। इससे कर्मचारियों का स्वास्थ्य अच्छा रहेगा, उनकी कार्यक्षमता में वृद्धि होगी तथा उन्हें स्वयं अधिक कार्य करने की प्रेरणा मिलेगी।

6. आधुनिक दृष्टिकोण (Modern Outlook)-आधुनिक दृष्टिकोण से आशय तर्कपूर्ण एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण से है। प्रबन्धक को प्रबन्ध करते समय परम्परागत मान्यताओं को त्यागकर आधुनिक एवं तर्कसंगत दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। 6. इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि “प्रबन्ध के सिद्धान्त लचीले हैं न कि सम्पूर्ण, लेकिन उनका उपयोग बदलती हुई और विशिष्ट परिस्थितियों में ही किया जाना चाहिए।”

प्रश्न 4 – थियो हैमन के द्वारा प्रतिपादित तीन अवधारणाओं का उल्लेख कीजिए।

Explain the three concepts of management as propagated by Theo Haimann.

उत्तर प्रत्येक उपक्रम या संस्था चाहे उसका आकार लघु हो या वृहद्, चाहे वह औद्योगिक, व्यापारिक, राजनीतिक अथवा धार्मिक हो उसके लिए प्रबन्ध की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। सामान्य रूप से व्यावसायिक क्रियाओं को हम निम्नलिखित प्रकार वर्गीकृत कर सकते हैं-1. तकनीकी क्रियाएँ, 2. व्यापारिक क्रियाएँ, 3. वित्तीय क्रियाएँ, 4. लेखांकन क्रियाएँ, 5. प्रबन्धकीय क्रियाएँ, 6. सुरक्षात्मक क्रियाएँ। परन्तु यह कहना गलत न होगा कि सभी क्रियाओं में सबसे महत्त्वपूर्ण क्रिया प्रबन्ध से सम्बन्धित है।

प्रबन्ध की अवधारणा

(Concept of Management)

बन्ध के विषय में विभिन्न विद्वानों द्वारा प्रतिपादित परिभाषाओं और निर्वचनों में वद्वान इसे ‘नेतृत्व कायक्तिक एवं परिशा और निर्वचनों में अत्यधिक भिन्नता पायी जाती है। कुछ विद्वान इसे वैयक्तिक एवं ‘परिशासकीय-निपुणता’ कहते हैं। इसके विपरीत कुछ विद्वान इसे ‘नेतृत्व की तकनीकी’ मानते हैं। कुछ विद्वान इसे ‘समन्वय एवं सहकारिता के साधन’ के रूप में परिभाषित करते हैं। वास्तव में प्रबन्ध एक विशिष्ट-क्रिया है।

थियो हैमन (Theo Haimann) ने प्रबन्ध शब्द का प्रयोग तीन विभिन्न अर्थों में किया है-1. संज्ञा के रूप में, 2. प्रक्रिया के रूप में, 3. अनुशासन के रूप में।

प्रथम, संज्ञा के रूप में प्रबन्ध एक उपक्रम के प्रबन्धकीय सेविवर्ग के लिए प्रयुक्त होता है। इसमें वे सभी व्यक्ति सम्मिलित किए जाते हैं जिन पर अन्य व्यक्ति के परिवेक्षण का उत्तरदायित्व होता है। दूसरे, ‘प्रबन्ध’ शब्द को प्रबन्ध की प्रक्रिया के रूप में प्रयुक्त किया जाता है जिसका अभिप्राय नियोजन, संगठन, सेवा, मार्गदर्शन, निर्देशन एवं नियन्त्रण का

प्रक्रियाओं से है। तीसरे, कभी-कभी प्रबन्ध शब्द का प्रयोग न तो क्रिया के लिए और न इसे सम्पादित करने वाले सेविवर्ग के लिए ही होता है, वरन् इसे सम्पूर्ण ज्ञान एवं व्यवहार भण्डार के रूप में प्रयोग किया जाता है। प्रबन्धकीय कार्यों को निष्पादन करने वाले व्यक्ति प्रायः ‘प्रबन्धक’, ‘कार्यवाहक’ या ‘प्रशासक’ कहलाते हैं। 

I. प्रबन्ध संज्ञा के रूप में (Management as a Noun)

संज्ञा के रूप में प्रबन्ध शब्द का प्रयोग व्यावसायिक संस्था के उन कर्मचारियों से लिया जाता है जो प्रबन्ध का कार्य करते हैं। प्रबन्ध का अर्थ भौतिक साधनों की व्यवस्था मात्र से नहीं लगाया जा सकता, वरन् उन व्यक्तियों से है जिनके द्वारा उपक्रम के निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए किया जाता है। इस सम्बन्ध में ओलीवर शेल्डन के शब्द महत्त्वपूर्ण हैं। उनके अनुसार, “प्रबन्ध मूलत: मनुष्यों का प्रबन्ध है। यदि वह अपने कर्मचारियों की मनोवैज्ञानिक दशा को नहीं समझता है तो वह कदापि सफल नहीं हो सकता है।” वास्तव में, प्रबन्ध ‘मानव का विकास है, वस्तुओं का निर्देशन नहीं। एक अमेरिकन कॉर्पोरेशन के अध्यक्ष के अनुसार, “हम मोटरें, हवाई जहाज, रेडियो नहीं बनाते हैं, हम बनाते हैं मनुष्य और मनुष्य बनाते हैं उत्पाद।” लॉरेन्स ने इसको परिभाषित करते हुए कहा-“एक पूर्वस्थापित रूपरेखा के अनुसार मानवीय निष्पादन का निर्देशन करते हुए पूर्वनिर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति ही प्रबन्ध है। प्रबन्धक भविष्य के लिए प्रतीक्षा नहीं करते, वे भविष्य का निर्माण करते हैं।’ प्रबन्ध कुछ नहीं है वरन् (i) मानव तथा (ii) वातावरण, जिससे वह मानव कार्य करता है, का विकास करना है।

एप्ले ने भी प्रबन्ध को एक ‘सामाजिक प्रक्रिया’ बताया और इस बात पर विशेष बल दिया कि प्रबन्ध के अन्तर्गत केवल कार्य का संचालन ही नहीं आता इसके अन्तर्गत तो मनुष्यों, जिनमें पुरुष और महिलाएँ सभी सम्मिलित हैं का विकास किया जाता है। परन्तु इस परिभाषा से यह अभिप्राय नहीं है कि प्रबन्ध का क्षेत्र कर्मचारी प्रशासन तक ही सीमित हो तथा नियोजन समन्वय, नियन्त्रण आदि इसके लक्षण नहीं हैं। एप्ले के अनुसार, “प्रबन्ध का कार्य मुख्यत: नियोजन तथा नियन्त्रण करना होता है, इस प्रकार प्रबन्ध कार्यकारिणी के तीन मुख्य कार्य हैं1. यह निर्णय करना कि लोगों से क्या कार्य लिया जाए, 2. समय-समय पर इस बात की जाँच करना कि लोग पूर्वलक्षित योजनानुसार कितनी श्रेष्ठता से कार्य कर रहे हैं तथा 3. ऐसी विधियों का विकास करना जिससे कि वे अधिक दक्षता व प्रभावशीलता के साथ कर्तव्यों का निष्पादन कर सकें।”

II. प्रबन्ध प्रक्रिया के रूप में (Management as a Process)

डॉक्टर जेम्स लुण्डी के अनुसार, “प्रबन्ध प्रक्रिया के रूप में विशिष्ट उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए दूसरों के प्रयत्नों को नियोजित, समन्वित, अभिप्रेरित तथा नियन्त्रित करने का कार्य है। इसमें परम्परागत उत्पत्ति प्रसाधनों (भूमि, श्रम और पूँजी) का संगठन के विशेष उद्देश्यों को

ध्यान में रखते हुए अनुकूलतम ढंग से संयोजन किया जाता है। अतः प्रबन्ध द्वारा सम्पादित सम्पूर्ण क्रियाओं को तीन चरणों में रखा जा सकता है-1. नीति का निर्माण करना और उसे योजना में परिवर्तित करना, 2. योजना को क्रियान्वित करना तथा 3. योजनाओं पर कड़ा नियन्त्रण रखना।

इस प्रकार उपर्युक्त परिभाषाएँ प्रबन्ध के क्षेत्र को विस्तृत करती हैं तथा प्रबन्ध की ये तीन प्रमुख क्रियाएँ नियोजन, क्रियान्वयन एवं नियन्त्रण इसकी परिधि में आ जाती हैं।

1. नियोजन (Planning)-नियोजन किसी व्यवसाय, खण्ड अथवा विभाग के लक्ष्यों का अथवा मार्ग का निर्धारण करना है, जिससे कि अधिकतम लाभ या कुशलता प्राप्त हो सके। नीतियों की स्थापना तथा कार्य करने के नए एवं उत्तम ढंगों की खोज करना जो नियोजन के क्षेत्र में आता है।

2. क्रियान्वयन (Execution)-क्रियान्वयन का अभिप्राय ‘करने’ सम्बन्धी व्यवस्थाओं से है। योजना निर्मित होने के उपरान्त कर्मचारियों की नियुक्ति की जाती है। उन्हें उचित प्रशिक्षण देकर उनमें काम बाँटा जाता है। अधिक काम करने के लिए उन्हें अनुशासन में रखा जाता है तथा कार्य के प्रति अभिप्रेरित किया जाता है। समस्त कार्य पूर्वनिर्धारित योजना के अनुसार सम्पादित किया जाता है। इसमें मुख्य रूप से निम्नलिखित को सम्मिलित किया जाता है-(i) कर्मचारियों की नियुक्ति, (ii) कर्मचारियों का उचित प्रशिक्षण, (iii) कर्मचारियों में अनुशासन, (iv) कर्मचारियों का अभिप्रेरण, (v) कार्य का संचालन एवं (vi) कर्मचारियों द्वारा किए गए कार्य का समन्वय।

3.नियन्त्रण (Control)- इसका आशय निर्धारित योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए जो व्यक्ति उत्तरदायी है उनके निष्पादन का मूल्यांकन करने से है। इसमें निम्नलिखित तथ्यों का समावेश होता है

(1) योजनाओं के अनुसार ही कार्य किया जा रहा है, इसका नियन्त्रण करना, (1) निष्पादन का मूल्यांकन करना। प्रबन्ध की प्रक्रिया के रूप में दी गई परिभाषाएँ

“प्रबन्ध को उस प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसके माध्यम से किसी निर्दिष्ट उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किए गए प्रयासों का कार्यान्वयन, संचालन तथा पर्यवेक्षण किया जाता है। किसी उद्यम में जो व्यक्ति सामूहिक रूप से इन प्रयासों को करते हैं, उन्हें सम्मिलित रूप में प्रबन्ध की संज्ञा दी जाती है।”

सामाजिक विज्ञान का सर्वज्ञान विषय कोष “प्रबन्ध का आशय निम्नलिखित से है

1. पूर्वानानुमान तथा नियोजन करना, 2. संगठन करना, 3. निर्देशन करना, 4. समन्वयन करना तथा 5. नियन्त्रण करना ‘पूर्वानुसार व नियोजन’ का तात्पर्य है भावी परिस्थितियों का परीक्षण करके आगामी कार्यों की योजना बनाना। ‘संगठन’ का अर्थ है संस्था के निर्माण के लिए आवश्यक दोहरे कलेवर-भौतिक सामग्री तथा मानवीय प्रसाधन की व्यवस्था करना। ‘निर्देशन

का अर्थ है कर्मचारियों में सक्रियता बनाए रखना। ‘समन्वयन’ का तात्पर्य संस्था की समस्त क्रियाओं एवं प्रयासों में एकसूत्रता तथा सहकारिता बनाए रखने से है। ‘नियन्त्रण’ का अर्थ यह देखना है कि समस्त क्रियाएँ निर्धारित नियमों तथा स्पष्ट निर्देशों के अनुसार होती हैं अथवा नहीं।”

“प्रबन्ध से आशय उस तकनीक से है जिसके द्वारा एक विशेष मानवीय समुदाय के उद्देश्यों का निर्धारण स्पष्टीकरण तथा कार्यान्वयन किया जाता है।”

“प्रबन्ध के अन्तर्गत उन समस्त कर्त्तव्यों व क्रियाओं का समावेश किया जाता है जिसका सम्बन्ध किसी उपक्रम के प्रवर्तन, उसके वित्त प्रबन्धन, प्रमुख नीतियों के निर्धारण, समस्त आवश्यक पदार्थों की व्यवस्था संगठन के सामान्य रूप के निर्धारण तथा प्रमुख अधिकारियों के चुनाव से होता है।”

“प्रबन्ध किसी उपक्रम के कार्यों को प्रभावशाली ढंग से नियन्त्रित व नियोजित करने के दायित्व की एक सामाजिक प्रक्रिया है उस दायित्व के अन्तर्गत निम्नलिखित बातें सम्मिलित हैं1. योजनानुसार कार्य करने के लिए उचित कार्यविधि अपनाना तथा उसी को चलाए रखना, 2. विभिन्न क्रियाओं को करने के लिए उपक्रम में नियुक्त व्यक्तियों का मार्गदर्शन, एकीकरण तथा निरीक्षण करना।”

“किसी सामान्य उद्देश्य की पूर्ति के लिए किसी व्यक्ति समूह के प्रयत्नों का मार्गदर्शन, नेतृत्व व नियन्त्रण ही प्रबन्ध कहलाता है।”

“प्रबन्ध कार्यकारी नेतृत्व का कार्य है। मुख्यत: यह एक मानसिक क्रिया है। यह कार्य के संयोजन, संगठन तथा सामूहिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अन्य व्यक्तियों के कार्यों में नियन्त्रण से सम्बन्धित है।”

III. प्रबन्ध अनुशासन के रूप में (Management as a Discipline) ____ 

कुछ व्यक्तियों ने प्रबन्ध’ शब्द का प्रयोग प्रबन्ध की प्रक्रियाओं के सूचक रूप में नहीं वरन् ज्ञान (हाल ही में विज्ञान) की शाखा के रूप में किया है। इस मत के प्रवर्तकों की यह मान्यता है कि प्रबन्ध एक ज्ञान है, जिसके माध्यम से प्रबन्ध करने का ज्ञान व कला को सीखा जा सकता है। परन्तु ‘अन्य लोगों से काम लेना’ अब आधुनिक प्रबन्ध दर्शन का अंग नहीं माना जा सकता क्योंकि इसमें तानाशाही की बू आती है। आज की विचारधारा अन्य व्यक्तियों के द्वारा तथा उनके साथ मिलकर काम करना है।

इस विचारधारा के निम्नलिखित चार उल्लेखनीय तथ्य हैं –

1. व्यक्तियों के औपचरिक संगठन का निर्माण करना, 2. उस व्यक्ति समूह में ऐसे वातावरण का निर्माण करना जिसमें कि प्रत्येक व्यक्ति अपने व्यक्तित्व के अनुसार काम कर सके, 3. कार्य को पूर्ण करने के मार्ग में आने वाली कठिनाइयों व बाधाओं को दूर करना तथा 4. लक्ष्यों को सार्थक रूप से प्राप्त करने में उसे संगठित वर्ग की दक्षता व कार्यकुशलता को अधिकतम बनाना। हेरॉल्ड कण्ट्ज ने कहा-“औपचारिक वर्गों में संगठित व्यक्तियों के द्वारा इनके साथ मिलकर कार्य करने की कला का नाम ही प्रबन्ध है।”

प्रश्न 5-“प्रबन्ध से अधिक महत्त्वपूर्ण मानवीय क्रिया का कोई भी क्षेत्र नहीं है।इस कथन के प्रकाश में प्रबन्ध की भूमिका का विवेचन कीजिए।

“There is no other sphere of human activity as important as management.” In the light of this statement discuss the role of management. 

अथवा आधुनिक युग में प्रबन्ध के बढ़ते हुए महत्त्व के कारणों की विवेचना कीजिए।

Discuss the reasons for increasing importance of management in modern age.

प्रबन्ध के महत्त्व का विचार 

(Concept of Importance of Management) 

प्रबन्ध के महत्त्व का वर्णन करते हुए कण्ट्ज एवं ओ’डोनेल ने कहा, “प्रबन्ध से अधिक महत्त्वपूर्ण मानवीय क्रिया का कोई और क्षेत्र नहीं है। प्रबन्ध वास्तव में उद्योग रूपी शरीर का मस्तिष्क तथा जीवनदायनी शक्ति है। जिस प्रकार बिना मस्तिष्क और प्राण के मानव शरीर अस्थियों एवं मांस का एक लोथड़ा है, उसी प्रकार बिना प्रबन्ध एवं संगठन से एक औद्योगिक संस्था भूमि, पूँजी एवं श्रम का एक निष्क्रिय समूह मात्र है।” संगठन में सदैव से ही प्रबन्ध की माँग होती रही है। एक प्रकार्यात्मक धारणा के रूप में प्रबन्ध पर विचार करते हुए यह कह सकते हैं कि प्रबन्ध शैक्षिक, धार्मिक, दान-पुण्यार्थ और अन्य अध्यवसाय संस्थाओं के लिए भी उतना ही महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक है जितना कि व्यावसायिक संगठनों के लिए होता है। सामाजिक संगठनों में भी और सबसे बड़े व्यापक संगठन (सरकार चाहे किसी भी प्रकार की हो) में भी प्रबन्ध की आवश्यकता अन्य संगठनों से और भी अधिक होती है। प्रेसिडेन्ट रूजवेल्ट के अनुसार, “अच्छे प्रबन्ध के बिना सरकार बालू पर बने मकान के समान है।

प्रबन्ध के बढ़ते हुए महत्त्व के कारण 

(Reasons for increasing Importance of Management)

प्राचीन समय में जबकि मनुष्य की आवश्यकताएँ सीमित थीं, वह स्वावलम्बी था, मुद्रा का चलन, कार्य-विभाजन आदि के विषय में व्यक्ति अनभिज्ञ था, उस समय प्रबन्ध का कोई प्रश्न नहीं था जैसे-जैसे आर्थिक क्रियाओं में वृद्धि होती गई व्यक्ति कार्यकलापों को देखने लग गया, परन्तु आधुनिक युग में जहाँ एक ओर गलाकाट प्रतिस्पर्धा है वहीं दूसरी ओर व्यक्ति निरन्तर आर्थिक सम्पन्नता जुटाने में प्रयत्नशील है। आज के उद्योगों को निर्माण कार्य में केवल विशाल पूँजी, भूमि, श्रम, साहस की ही आवश्यकता नहीं पड़ती वरन् प्रबन्ध के लिए सबसे अधिक संगठन की आवश्यकता पड़ती है। श्री राम एस० तनेजा के अनुसार, “परम्परागत दृष्टिकोण के अनुसार उत्पादन के केवल तीन घटक थे-भूमि, श्रम और पूँजी। बाद के अर्थशास्त्रियों ने यह अनुभव किया कि साहस तथा संगठन उत्पादन के अपरिहार्य साधन हैं और आधुनिक अर्थशास्त्री यह स्वीकार करने लगे हैं कि प्रबन्ध उत्पादन का छठा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण

घटक है जिसके द्वारा न्यूनतम व्यय पर अधिकतम उत्पादन और अधिकतम कार्यक्षमता के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए समस्त प्रसाधनों को संगठित करके उनका उपयोग किया जाता है। इस प्रकार प्रबन्ध के महत्त्व के बढ़ते हुए निम्नलिखित कारण हैं

1. भारत के आर्थिक नियोजन को सफल बनाने के लिए प्रबन्धकों की आवश्यकता (Need of Management for making Indian Planning Successful) — देशवासियों के जीवन स्तर को उन्नत करने तथा राष्ट्रीय आय में वृद्धि करने के दृष्टिकोण से पंचवर्षीय योजनाओं का निर्माण किया गया तथा धनोत्पत्ति में वृद्धि करने के लिए निजी व सरकारी दोनों ही क्षेत्रों में विकास व विस्तार किया जा रहा है। उद्योगों की सफलता काफी सीमा तक प्रबन्ध की क्षमता पर निर्भर करती है। कुशल और प्रशिक्षित एवं प्रबन्धक उद्योगों को सुचारु रूप से चलाने में सफल होते हैं। इसके विपरीत अकुशल प्रबन्धक सीमित साधनों का श्रेष्ठतम उपयोग नहीं कर सकते और उनकी अक्षमता के परिणामस्वरूप संघर्षों की सदैव आशंका बनी रहती है। अत: प्रबन्ध औद्योगिक व आर्थिक विकास के लिए एक अनिवार्य अंग है।

2. सामाजिक परिवर्तनों के साथ स्थायित्व की आवश्यकता (Need for Stability along with Social changes)-वर्तमान तकनीकी एवं विज्ञान के युग में सामाजिक विशृंखलता इतनी अधिक बढ़ गई है कि मानव सदैव ही भविष्य के विषय में संशयमान रहता है। ऐसी परिस्थितियों में प्रबन्धकों का दायित्व और भी बढ़ जाता है। समाज में परस्पर विरोधी तत्त्वों में प्रभावपूर्ण समन्वय स्थापित करके प्रबन्धक परिवर्तनों के होते हुए भी समाज में स्थायित्व रख सकते हैं एवं औद्योगिक व आर्थिक विकास की गति को उनसे अछूता रखते हैं।

3. उत्पादन के प्रसाधनों के प्रभावपूर्ण सदुपयोग की आवश्यकता (Need for Proper Utilization of Sources of Production)-सदैव से ही सीमित उपलब्ध प्रसाधनों से अधिकतम उत्पत्ति एवं उपयोगिता प्राप्त करने का लक्ष्य रहा है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए समय-समय पर विभिन्न उपाय ज्ञात किए गए हैं और विकसित किए गए हैं। व्यक्तियों का यह विचार है कि कुशल प्रबन्धक के द्वारा ही उत्पादन के प्रसाधनों का सदुपयोग किया जा सकता है। प्रबन्धक ही श्रेष्ठतर उत्पाद उचित मूल्य पर उत्पादकों को उपलब्ध कराता है और अंशधारियों तथा समाज की आय बढ़ाने में समर्थ होता है।

4. शोध एवं अनुसंधान की आवश्यकता (Need for Research and Investigation)-प्रबन्धकों के कार्य को दिन-प्रतिदिन महत्त्व दिया जा रहा है। अमेरिका में ‘स्टेनबोर्ड रिसर्च इंस्टीट्यूट’ ने अनेक संस्थाओं की उन्नति के कारणों की खोज के द्वारा पता लगाया कि जो कम्पनियाँ नए उत्पादनों का विकास और नए व्यापारों की खोज कर रही थीं, उन्हीं का विकास तेज गति से हुआ है अर्थात् जिनके प्रबन्धक योग्य थे और वे नए आविष्कारों और नई खोजों को महत्त्व देते थे उनकी प्रगति अन्य संस्थाओं से अधिक हुई है।

5. नवीन आविष्कारों और परम्परागत विधियों में समन्वय की आवश्यकता (Need for Cordination between Traditional and Modern Methods)-ज्ञान और विज्ञान के क्षेत्र में दिन-प्रतिदिन नई खोजें और आविष्कार हो रहे हैं, और यह एक समस्या बनी हुई है कि नवीन पद्धतियों को अपनाया जाए अथवा परम्परागत पद्धतियों पर ही अमल

किया जाए। यह आवश्यक नहीं है कि सदैव परम्परागत विधियाँ अमान्य ही हों। कुशल प्रबन्धक नवीनतम आविष्कारों को उचित मात्रा में ग्रहण करते हुए उद्योग और व्यवसाय की परम्पराओं को ध्यान में रखते हुए इस प्रकार कार्य करता है कि दोनों विधियों में समन्वय स्थापित हो सके। व

6. व्यवसाय के आकार एवं जटिलताओं में वृद्धि के कारण आवश्यकता (Need प्र due to increase of Size and Complexities of Business)-बड़े पैमाने पर नि उत्पादन करने के लिए बड़ी मात्रा में भूमि, श्रम, पूँजी एवं एक सुदृढ़ संगठन की आवश्यकता होती है। नवीन व्यवसाय के निर्माण तथा विद्यमान संस्थाओं के विकास व विस्तार के कार्य में भी नि अनेक वैधानिक औपचारिकताओं व जटिलताओं का सामना करना पड़ता है। लेखापाल, स्टेटिस्टीशियन, इंजीनियर्स, विधि तथा वित्त विशेषज्ञ आदि का उपयोग आधुनिक व्यवसायों के लिए एक अनिवार्य अंग बन गया है। इन विविध सेवाओं के मध्य समन्वय स्थापित करने के लिए प्रबन्धकों की आवश्यकता होती है।

7. सर्वोच्च प्रशासन तथा श्रमिकों में समन्वय स्थापित करने की आवश्यकता (Need .of establishing Co-ordination between Top Management and Workers)-‘श्रम और पूँजी में संघर्ष’ का किस्सा बहुत पुराना है। श्रम और पूँजी दोनों से परे होते हुए भी प्रबन्ध इन दोनों में पारस्परिक सहयोग को बढ़ाने का प्रयत्न करता है। अत: प्रबन्धक की आवश्यकता इन दोनों में समन्वय स्थापित करने के दृष्टिकोण से है।

8. आधुनिक प्रतिस्पर्धा पर नियन्त्रण की आवश्यकता (Need for Control over Modern Competition) स्वतन्त्र उपक्रम के अन्तर्गत प्रतिस्पर्धा का होना स्वाभाविक अंग है। परन्तु श्रेष्ठतम वस्तुओं का उत्पादन करने के लिए समस्त उपलब्ध प्रसाधनों के गहन उपयोग की आवश्यकता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। गलाकाट प्रतिस्पर्धा के कारण ही अब केवल श्रमिकों के माल व मशीनों के क्रय की आवश्यकता ही नहीं है वरन् ऐसे प्रबन्धकों की विशेष आवश्यकता है जो वैधानिक विधियों से संगठनात्मक समस्याओं का हल करने में समर्थ हो।

9. वहद कम्पनियों के प्रबन्ध की अनिवार्यता (Need for Administration of Large Companies)—आधुनिक युग में औद्योगिक उत्पादन प्राय: बड़े-बड़े कारखानों के माध्यम से किया जाता है जहाँ पर अंशधारियों की अपार पूँजी विनियोग होती है। समाज ऐसे उद्योगों से अच्छी किस्म की सामग्री की उपेक्षा करता है। श्रमिक न्याय की उपेक्षा करते हैं, सरकार उनके माध्यम से कम्पनियों में प्रबन्ध अनिवार्य करती है।

प्रश्न 6 – मिज़बर्ग के अनुसार प्रबन्धकीय भूमिकाओं से क्या आशय है

What is meant by Managerial Roles according to Mintzberg ?

 उत्तर – हेनरी मिंज़बर्ग द्वारा प्रतिपादित प्रबन्धकीय भूमिकाएँ

(Managerial Roles Propounded by Henry Mintzberg) 

मैक गिल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हेनरी मिंज़बर्ग ने प्रबन्धकीय भूमिकाएँ नाम से । प्रबन्ध सिद्धान्त में एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। उन्होंने अध्ययन कर यह देखा कि प्रबन्धक क वास्तव में क्या करते हैं तथा इन तथ्यों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि प्रबन्धकीय भूमि भूमिकाएँ क्या-क्या हैं।

प्रोफेसर मिंज़बर्ग ने भिन्न-भिन्न संगठनों के पाँच मुख्य कार्यकारी अधिकारियों (Chief executives) को अध्ययन के लिए चुना और उनके द्वारा वास्तव में दिन-प्रतिदिन किए जाने वाले कार्यों का बारीकी से अवलोकन किया और देखा कि क्या प्रबन्धक फेयोल एवं अन्य प्रतिष्ठित प्रबन्धशास्त्रियों द्वारा प्रतिपादित प्रबन्धकीय कार्यों-नियोजन, संगठन, समन्वय एवं नियन्त्रण को ही करते हैं।

प्रोफेसर मिंज़बर्ग ने दूसरे शोध अध्ययनों तथा अपने स्वयं के शोध अध्ययन द्वारा यह निष्कर्ष निकाला कि प्रबन्धक वास्तव में निम्नलिखित दस कार्य करते हैं-

(अ) अन्तर-व्यक्तिगत भूमिकाएँ

1. सर्वोच्च अधिकारी (figure-head) की भूमिका जिसमें वह संगठन के प्रतिनिधि के रूप में समारोहों तथा सामाजिक कार्यों में भाग लेता है।

2. नेतृत्व भूमिका।

3. सम्पर्क अधिकारी की भूमिका विशेषकर बाहरी व्यक्तियों से। 

(ब) सूचना सम्बन्धी भूमिकाएँ

1. प्राप्तकर्ता की भूमिका जिसमें वह उपक्रम के परिचालन हेतु सूचनाएँ प्राप्त करता है।

2. फैलावकर्ता की भूमिका जिसमें वह एकत्र की गई सूचनाओं को अधीनस्थों को प्रेषित करता है।

3. प्रवक्ता की भूमिका जिसमें वह संगठन से बाहर के पक्षों को सूचना प्रदान करता है। 

(स) निर्णयन सम्बन्धी भूमिकाएँ

1. साहसिक (entrepreneurial) भूमिका। 

2. उपद्रवों को सम्भालने की भूमिका। 

3. संसाधन-आवंटक की भूमिका। 

4. सौदेबाज या वार्ताकार की भूमिका (विभिन्न व्यक्तियों अथवा व्यक्ति समूहों के साथ)।

प्रोफेसर मिंज़बर्ग का प्रबन्धकीय भूमिकाओं का उपर्युक्त दृष्टिकोण आलोचनाओं से परे नहीं है। इसकी निम्न आधारों पर आलोचना की जाती है-

(1) अध्ययन के लिए पाँच मुख्य कार्यकारी अधिकारियों का निदर्शन सही निष्कर्षों पर पहुंचने के लिए उपयुक्त नहीं माना जा सकता।

(2) प्रबन्धकों के सभी कार्य प्रबन्धकीय नहीं हो सकते; जैसे कम्पनियों के अध्यक्ष भी अपना कुछ समय अंशधारियों तथा जन-सम्बन्धों पर, पूँजी उगाहने पर तथा विपणन आदि में लगाते हैं।

(3) मिंज़बर्ग ने कुछ कार्यों का नया नामकरण कर उसे पुराने कार्यों में सम्मिलित नहीं कया है जो गलत है; जैसे संसाधनों का आवंटन नियोजन का ही भाग है, अन्तर-व्यक्तिगत व भूमिकाएँ नेतृत्व का भाग हैं।

(4) मिंज़बर्ग द्वारा प्रतिपादित प्रबन्धकीय भूमिकाएँ अभी भी सारे प्रबन्धकीय कार्यो सम्मिलित नहीं करतीं, अत: वे अधूरी ही मानी जाएंगी।

प्रश्न 7 – “प्रबन्ध वह शक्ति है जो पूर्व निर्धारित लक्ष्यों की पूर्ति के लिए एक संगठन का नेतृत्व करती है, प्रदर्शन करती है और निर्देशन करती है।इस कथन को समझाइए।

“Management is the force which leads, guides and directe organization in its accomplishment of predetermined object.” Discuss this statement.” 

अथवा प्रबन्ध के कार्यों की व्याख्या कीजिए।

Explain the functions of management.

उत्तर – “प्रबन्ध केवल निर्णय लेने एवं मानवीय क्रियाओं पर नियन्त्रण करने के विधि है जिससे पूर्व निश्चित लक्ष्यों की प्राप्ति की जा सके।” यह कथन स्टैनले वेन्स द्वारा दी गई प्रबन्ध की परिभाषा है। मुख्य रूप से स्टैनले वेन्स का उपर्युक्त कथन प्रबन्ध की निम्नलिखित विशेषताओं की ओर संकेत करता है

1. (Management is Decision-making Process) – व्यावहारिक जगत में प्रबन्ध को कदम-कदम पर अनेक निर्णय लेने होते हैं। निर्णय लेते जाना और उनको कार्यान्वित करते रहना ही प्रबन्ध है। क्या माल खरीदा जाए, कह से खरीदा जाए, किन कीमतों पर खरीदा जाए या बेचा जाए, लाभ का मार्जिन कितना रखा जाए विक्रय मूल्य क्या हो, क्रय कौन करे, विक्रय कौन करे, माल के संग्रहण एवं भण्डारण का कार्य कौन व कैसे करे, उत्पादन एवं वितरण के लिए कौन-सी पद्धतियों को अपनाया जाए, वित्त के व्यवस्था कैसे की जाए, योजनाएँ कौन बनाए आदि सैकड़ों निर्णय प्रबन्धकों को लेने होते हैं।

स्टैनले वेन्स ने अपनी परिभाषा में प्रबन्ध को एक ऐसी प्रक्रिया एवं विधि बतलाया है जे निर्णय लेती है।

2. मानवीय क्रियाओं पर नियन्त्रण रखने की विधि (Management isa System to Control the Human Activities)-स्टैनले वेन्स के अनसार, “प्रबन्ध केवल निर्णय लेने की प्रक्रिया ही नहीं वरन् मानवीय क्रियाओं पर नियन्त्रण रखने की विधि भी है।” क्योंकि लिए गए निर्णय निरर्थक होते हैं, यदि उनको कार्यरूप नहीं दिया जाए। अतः उन्हें कार्यरूप देने के लिए हमें मानवीय साधनों का उपयोग करना पड़ता है। उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि प्रबन्ध केवल निर्णय लेने की प्रक्रिया ही नहीं वरन् मानवीय क्रियाओं पर नियन्त्रण रखने की विधि भी है।

3. पूर्व निश्चित स्पष्ट लक्ष्य (Predetermined Clear Objectives)-अन् अनेक परिभाषाओं की भाँति ही स्टैनले वेन्स भी अपनी परिभाषाओं में प्रबन्ध को एक ऐसा प्रक्रिया मानते हैं जो कि किसी पूर्व निश्चित उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए प्रयास करती है प्रबन्ध के द्वारा ही पूर्व निश्चित उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सकता है। पूर्व निश्चित स्पष्ट लक्ष प्रबन्ध की दूरदर्शिता पर निर्भर करते हैं।

प्रबन्ध के तत्त्व अथवा कार्य 

(Functions or Elements of Management) 

प्रबन्ध के प्रमुख तत्त्व अथवा कार्य निम्नलिखित हैं-

1. संगठन करना (Organization) संस्था के पूर्व निर्धारित सामान्य उद्देश्यों की प्राप्ति एवं नियोजन के सफल क्रियान्वयन के लिए एक ऐसे संगठन की आवश्यकता होती है जिससे संस्था के कर्मचारी अपने-अपने कार्यों को आपस में मेलजोल की भावना के आधार पर कर सकें। प्रो० उर्विक के अनुसार, “किसी उद्देश्य (या योजना) के सन्दर्भ में यह निर्धारित करना कि क्या-क्या क्रियाएँ करना आवश्यक होगा और फिर उन्हें विभिन्न व्यक्तियों को सौंपने की दृष्टि से उचित समूहों में क्रमबद्ध करने को ही संगठन कहा जाता है।”

2. नियोजन (Planning)-नियोजन से हमारा अभिप्राय निश्चित उद्देश्यों की पूर्ति के द लिए कार्य-विधि का पूर्व निश्चय करना है अर्थात् इस सम्बन्ध में पहले से ही निर्णय करना है का कि क्या करना है, कैसे करना है, कब करना है तथा किस व्यक्ति को करना है। नियोजन भी विभिन्न प्रकार के होते हैं; जैसे-दीर्घकालीन नियोजन, आपातकालीन नियोजन, प्रत्यक्ष ng नियोजन, वर्तमान नियोजन आदि। है। 

लिण्डाल उर्विक के अनुसार एक आदर्श नियोजन में निम्नलिखित विशेषताएँ होनी हाँ आवश्यक हैंए (i) निश्चित एवं स्पष्ट उद्देश्यों पर आधारित, (ii) सरलता, (iii) क्रियाओं का उपयुक्त य विश्लेषण, (iv) लोचपूर्ण, (v) सभी उपलब्ध साधनों का अधिकतम उपयोग।

3. नवप्रवर्तन (Innovation)-प्रबन्ध एक प्रगतिशील प्रक्रिया है, जिसमें आए दिन – नए-नए परिवर्तन होते रहते हैं। ऐसी स्थिति में प्रबन्धक को भी प्रगतिशील होना चाहिए। किसी जा उपक्रम में सफलता प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि उपक्रम बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार नई-नई पद्धतियों एवं तकनीकों का प्रयोग करें।

4. निर्णय लेना (Decision-making)-प्रबन्ध के कार्यों में निर्णय लेना भी एक न्ध प्रमुख कार्य है। प्रत्येक उपक्रम, चाहे उसका आकार बड़ा हो या छोटा, सभी में प्रबन्ध को निर्णय बधि लेने होते हैं। 

5.सन्देशवाहन (Communication)-संदेशवाहन प्रबन्ध को क्रियात्मक करने का स एक साधन है। संदेशवाहन का आशय कर्मचारियों, ग्राहकों, स्वामियों तथा सामान्य जनता, सभी सम्बन्धित पक्षों को औद्योगिक उपक्रम के सम्बन्ध में जानकारी देना है। दूसरे, कर्मचारियों को सभी आदेश समय पर तथा उचित सत्ता द्वारा सम्प्रेषण करना भी इसी के अन्तर्गत आता है।

6. एकीकरण (Integration)-कर्मचारियों को व्यवसाय की नीतियों तथा योजनाओं रसा से परिचित कराना, कर्मचारियों की शिकायतों एवं सुझावों पर विचार करना, स्वेच्छा से कार्य है। करने की भावना जाग्रत करना, कार्य के लिए सहयोगपूर्ण, मैत्रीपूर्ण तथा अच्छे वातावरण का निर्माण करना तथा कर्मचारियों को स्वयं के विकास के लिए प्रोत्साहन देना आदि कार्य एकीकरण के अन्तर्गत आते हैं।

7. अभिप्रेरणा (Motivation)-यह प्रबन्ध का मानवीय सम्बन्धों का प्रमुख कार्य अभिप्रेरणा के अन्तर्गत उन तत्त्वों को शामिल किया जाता है जो कर्मचारियों में स्वेच्छा से कार करने की भावना पैदा करें जैसे उचित पारिश्रमिक, पदोन्नति एवं विकास के अवसर, रोजगा की सुरक्षा आदि प्रेरणाएँ सम्मिलित होती हैं।

8. समन्वय (Co-ordination)-समन्वय वह महत्त्वपूर्ण क्रिया है जो एक औद्योगिक प्रतिष्ठान के विभिन्न सदस्यों के प्रयत्नों को इस प्रकार नियमित करती है कि उनके हित तथा लक्ष्य संस्था के हितों एवं लक्ष्यों में एक रूप हो जाते हैं। मैकफारलैण्ड के शब्दों में “समन्वय वह विधि है जिससे एक प्रबन्धक अपने अधीनस्थ सहायकों के बीच सामूहिक प्रयत्न को इस प्रकार व्यवस्थित करता है कि सामान्य उद्देश्य की पूर्ति के लिए सभी के प्रयत्नों: एकरूपता बनी रहे।”

9. योग्य व्यक्ति नियुक्त करना (Staffing of Intelligent Person)-प्रत्येक व्यावसायिक संस्था की प्रगति उसमें कार्य करने वाले कर्मचारियों की योग्यता, अनुभव एड उनके कौशल पर निर्भर करती है। योग्य, कुशल एवं अनुभवी कर्मचारी संस्था के उपलक साधनों का अधिकतम एवं मितव्ययी उपयोग करके संस्था के पूर्वनिर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति के सुविधाजनक बनाते हैं।

10. निर्देशन (Direction)-“प्रबन्ध मूलत: व्यक्तियों के द्वारा तथा व्यक्तियों के साथ काम करने की कला है।” निर्देशन से अभिप्राय यह है कि विभिन्न नियुक्त अधिकारियों के यह बताना है कि उन्हें क्या करना है और कैसे करना है तथा यह देखना है कि वे व्यक्ति अपन कार्य उनके आदेशानुसार कर रहे हैं अथवा नहीं। निर्देशन प्रबन्ध का वह कार्य है जो संगठि प्रयासों को आरम्भ करता है, प्रबन्धकीय निर्णयों को कार्य रूप में परिणत करता है औ. व्यवसाय को अपने उद्देश्य प्राप्ति की दिशा में आगे बढ़ाता है।

11. नियन्त्रण (Control)-प्रो० हैमन के शब्दों में, “नियन्त्रण छानबीन द्वारा या ज्ञात करने की प्रक्रिया है कि कार्य योजना के अनुसार हो रहा है या नहीं, उद्देश्यों एवं लक्ष्यों के प्राप्ति की दिशा में उपयुक्त प्रगति हो रही है या नहीं और यदि कोई विचलन दिखाई दे । उसको सुधारने के लिए आवश्यक कार्यवाही करना। नियन्त्रण में निम्नलिखित चार क्रिया सम्मिलित की जाती हैं –

(i) नियोजित तथा वास्तविक प्रगति का अन्तर ज्ञात करना। 

(ii) स्थापित मापदण्डों के अनुरूप वास्तविक प्रगति के विवरण तैयार करना। 

(iii) उत्तरदायित्व का मापदण्ड स्थापित करना, जिसके अनुसार कार्य की प्रगति मूल्यांकन किया जा सके।

(iv) यदि कार्य योजना के अनुसार नहीं हो रहा है तो सुधारात्मक कार्य करना।

प्रश्न 8 – वैज्ञानिक प्रबन्ध की विचारधारा में टेलर तथा फेयोल के योगदानों का संक्षिप्त विवरण दीजिए।

Give in brief the contribution of Taylor and Fayol in the field of management science. 

उत्तर – वैज्ञानिक प्रबन्ध की विचारधारा के मुख्य प्रवर्तकों का योगदान 

(Contribution of the Pioneers of Scientific Management)

प्रबन्ध के विकास का श्रेय विभिन्न विचारकों, व्यवसाय के स्वामियों, कम्पनी के प्रबन्धकों तथा अन्य विद्वानों को है, जिन्होंने अपने आनुभाविक ज्ञान से नवीन प्रबन्धकीय विचारों तथा सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। प्रमुख प्रबन्ध विज्ञान के विचारकों के प्रबन्ध सम्बन्धी योगदान का संक्षिप्त विवरण यहाँ दिया जा रहा है

1. फ्रेडरिक डब्ल्यू० टेलर

(Frederick W. Taylor 1856-1915) 

परिचय सन् 1911 ई० में वैज्ञानिक प्रबन्ध के सिद्धान्तों के प्रकाशन के उपरान्त टेलर का नाम विख्यात हुआ। प्रबन्ध के विधिवत् अध्ययन एवं प्रयोग का श्रेय टेलर को दिया जाता है, इसीलिए इन्हें ‘वैज्ञानिक प्रबन्ध प्रणेता’ के नाम से भी पुकारा जाता है। टेलर का जन्म सन् 1856 ई० में जर्मनी के फिलाडेल्फिया नामक नगर में हुआ तथा इनकी प्रारम्भिक शिक्षा फ्रांस एवं जर्मनी में हुई।

एफडब्ल्यू० टेलर ने अपना जीवन सन् 1878 ई० में अमेरिकन मिडवेल स्टील कम्पनी में एक सामान्य श्रमिक के रूप में शुरू किया। टेलर ने बहुत शीघ्रता से प्रगति की तथा छह वर्ष के उपरान्त सन् 1884 ई० में उसी कम्पनी के मुख्य अभियन्ता (Cheif Engineer) बन गए। उस समय उनकी उम्र 28 वर्ष की थी। उन्होंने भागिक दर पद्धति (A Piece Rate System) पर निबन्ध लिखा जिसमें श्रमिक की कार्यक्षमता तथा वेतन-वृद्धि पर प्रकाश डाला गया। इसके पश्चात् वे बेथलहैम स्टील कम्पनी में चले गए, जहाँ 1898 ई० से 1901 ई० तक कार्य किया। टेलर का विश्वास था कि इंजीनियरिंग ज्ञान का प्रयोग कारखानों की कार्यप्रणालियों में सफलतापूर्वक किया जा सकता है। अत: बेथलहेम स्टील कम्पनी को छोड़ने के पश्चात् टेलर ने अपना शेष जीवन प्रबन्ध विज्ञान के सम्बन्ध में नवीन विचारधारा के अनुसन्धान तथा खोज करने एवं प्रबन्ध परामर्शदाता के रूप में व्यतीत किया। सन् 1903 ई० में उन्होंने दुकान का प्रबन्ध’ (Shop Management) के रूप में अपने विचार प्रकाशित किए। सन् 1911 में एफडब्ल्यू टेलर के विश्वविख्यात ग्रन्थ वैज्ञानिक प्रबन्ध के सिद्धान्त’ (Principles of Scientific Management) का प्रकाशन हुआ।

उद्देश्य – टेलर के वैज्ञानिक प्रबन्ध के सिद्धान्त’ पुस्तक को लिखने के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित थे-

(1) औद्योगिक संस्थाओं के दैनिक कार्यों में अकुशलता के कारण समस्त देश की जी हानि हो रही है, उसे सरल उदाहरणों द्वारा प्रकट करना तथा देश को हानि से बचाना।

(2) इस अकुशलता का निदान व्यवस्थित प्रशासन में है, न कि किसी असामान्य व्यक्ति की खोज में इस तथ्य का विश्वास दिलाना।

(3) यह दर्शाना कि प्रबन्ध कार्य के मूल सिद्धान्त मानव से सम्बन्ध रखने वाली सभी क्रियाओं में साधारण व्यक्ति के कार्यों से लेकर बड़ी-बड़ी कम्पनियों के कार्यों में एकसमान लागू किए जा सकते है।

(4) यदि प्रबन्ध के सिद्धान्तों को ठीक ढंग से कार्यान्वित किया जाएगा तो उसके आश्चर्यजनक परिणाम होगे। . (5) प्रबन्ध के कुछ निश्चित नियम व सिद्धान्त होते हैं। इन नियमों के सिद्धान्तों के कारण ही प्रबन्ध को वास्तविक विज्ञान माना जाता है।

प्रबन्ध में टेलर का योगदान – टेलर का प्रमुख योगदान उच्च प्रबन्ध क्षेत्र में न होकर कार्यशाला-प्रबन्ध-स्तर (Shop Level Management) का था। इस सम्बन्ध में उसने निम्न सुझाव प्रस्तुत किए

(1) कार्य प्रारम्भ होने से पहले उसकी योजना बनाना, (2) कार्य के लिए सर्वोपयुक्त व्यक्ति का चनाव करना, (3) परे कार्य को एक बार में न करके छोटे-छोटे कार्यांशों में करना, (4) प्रत्येक कार्यांशों को पूरा करने के लिए मानक समय (Standard Time) निश्चित करना 5) यन्त्र एवं सज्जा का मानकीकरण करना तथा उनके प्रयोग का ठीक ढंग निश्चित करना, (6) अनावश्यक हरकतों को दूर करना, (7) समस्त कार्य को विविध कार्य-पक्षों के अनुसार विभक्त करना, (8) प्रबन्ध कार्य में वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाना। .

वैज्ञानिक प्रबन्ध के सूत्र – टेलर ने वैज्ञानिक प्रबन्ध के निम्नलिखित सूत्र दिए हैं-

(i) विज्ञान, न कि अनुमान (Science, not rule of thumb)

 (ii) समन्वय, न कि संघर्ष (Harmony, not discord)

(iii) सहयोग, न कि व्यक्तिवाद (Co-operation, not individualism)

(iv) सीमित उत्पादन के स्थान पर अधिकतम उत्पादन (Maximum output, in place of restricted output)

(V) प्रत्येक व्यक्ति का उसकी शानदार कुशलता एवं सम्पन्नता तक विकास (Development of each man to his greatest efficiency and prosperity

इस प्रकार स्पष्ट है कि टेलर अपने जीवनकाल में प्रबन्ध विज्ञान के क्षेत्र में अपन उद्देश्यों को पूर्ण करने में सफल हुए। टेलर के वैज्ञानिक प्रबन्ध के सिद्धान्त आज विश्वविख्यात है।

2. हेनरी फेयोल

(Henry Fayo| 1841-1925) 

परिचय-हेनरी फेयोल प्रबन्ध के क्षेत्र में प्रक्रिया अथवा कार्यात्मक दृष्टिकोण (Process or Functional Approach) के प्रतिपादक रहे हैं। उनका जन्म सन् 1841 में फ्रांस में कांसटेंटीपोल (Constantipol) में हुआ था। सन् 1860 ई० में खदान इंजीनियरिंग की शिक्षा समाप्त करने के पश्चात् उनकी नियुक्ति फ्रांस की एक प्रसिद्ध कोयला कम्पनी में हो गयी। लगभग 6 वर्ष के पश्चात् वे कोयला खानों के प्रबन्धक नियुक्त हो गए। सन् 1888 ई० में वे इसी संस्था में जनरल मैनेजर नियुक्त किए गए। उन्होंने लगभग 30 वर्ष तक इस पद पर कार्य किया और अपनी लगन तथा परिश्रम से संस्था को विकास की चरम सीमा तक पहुंचा दिया। सन् 1918 ई० में वे सेवानिवृत्त हो गए। प्रबन्ध की विचारधारा में हेनरी फेयोल के योगदान का अध्ययन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है

1. लेखन कृतियाँ (Literary Work)-हेनरी फेयोल ने प्रबन्धकीय पहलुओं पर कई पुस्तकों की रचना की। उनकी अधिकांश पुस्तकें फ्रेंच भाषा में थीं। उनकी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कृति ‘General and Industrial Administration’ है, जो मूल रूप से सन् 1919 ई० में फ्रेंच भाषा में और सन् 1929 ई० में अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित हुई।

2. औद्योगिक क्रियाओं का विभाजन (Division of Industrial Activity)हेनरी फेयोल ने औद्योगिक क्रियाओं को 6 वर्गों में विभाजित किया

(i) तकनीकी क्रियाएँ (Technical Operations)-इसमें उत्पादन, निर्माण और व्यवस्था क्रियाओं को शामिल किया जाता है।

(ii) वाणिज्यिक क्रियाएँ (Commercial Operations)-इसमें क्रय, विक्रय और विनिमय क्रियाओं को शामिल किया जाता है।

(iii) वित्तीय क्रियाएँ (Financial Operations)-इसमें पूँजी की खोज और सर्वोत्तम प्रयोग से सम्बन्धित क्रियाएँ आती हैं।

(vi) सुरक्षा क्रियाएँ (Security Operations)-इसमें सम्पत्ति और व्यक्तियों की सुरक्षा से सम्बन्धित क्रियाएँ आती हैं। ।

(v) लेखाकर्म क्रियाएँ (Accounting Operations)-इसमें स्कन्ध (Stock) की गणना, चिट्ठा लागत तथा सांख्यिकीय आँकड़ों को रखा जाता है।

(vi) प्रबन्धकीय क्रियाएँ (Managerial Operations)-इसमें नियोजन, संगठन, निर्देश, समन्वय और नियन्त्रण सम्बन्धी क्रियाओं को शामिल किया जाता है।

फेयोल ने स्पष्ट किया कि उपर्युक्त 6 क्रियाओं को सभी व्यवसायों में उचित रूप से परा करना होता है, लेकिन उच्च स्तर के प्रबन्धकों के लिए प्रबन्धकीय क्रिया सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है।

3. प्रबन्ध के तत्त्व (Essentials of Management) हेनरी फेयोल ने प्रबन्ध प्रशासन की क्रियाओं को अग्रलिखित पाँच भागों में विभाजित किया है

(i) नियोजन (Planning)-भविष्य का अध्ययन करके क्रियाओं की योजना तैया

(ii) संगठन (Organizing)-व्यवसाय में मानवीय और भौतिक संगठन का निर्माण करना,

(iii) समन्वय (Co-ordinating)-सभी क्रियाओं को एकीकृत करना एवं सामंजस्य स्थापित करना,

(iv) आदेश (Ordering)-स्टॉफ से कार्य लेने के साधन का प्रयोग करना,

(v) नियन्त्रण (Controlling)- यह देखना कि तैयार कार्य निर्धारित नियमों और निर्देशों के अनुसार हो रहा है अथवा नहीं।

4. प्रबन्ध के सिद्धान्त (Principles of Management) हेनरी फेयोल का महत्त्वपूर्ण योगदान प्रबन्ध के सिद्धान्तों का प्रतिपादन था। उन्होंने प्रबन्ध के 14 सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया।


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