B.Com 2nd Year Public Finance Short Notes In Hindi
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प्रश्न 1 – क्या सार्वजनिक वित्त एक कला है? Is Public Finance an Art ? उत्तर – कला का अर्थ कला से अभिप्राय किसी भी कार्य को करने के सर्वोत्तम ढंग से है। कासो (Caso) के अनुसार, “विज्ञान जानने के सम्बन्ध में बताता है, कला करने के सम्बन्ध में बताती है। विज्ञान व्याख्या तथा खोज करता है, कला निर्देशन करती है, व्यावहारिकता की ओर ले जाती है या नियमों को प्रस्तावित करती है।” कीन्स (Keynes) के अनुसार,”कला एक दिए हुए उद्देश्य की प्राप्ति के लिए नियमों की एक प्रणाली है।” दूसरे शब्दों में विज्ञान के सिद्धान्तों का क्रियान्वयन ही कला है। सार्वजनिक वित्त (राजस्व)कला है – सार्वजनिक वित्त अथवा राजस्व विज्ञान होने के साथ-साथ कला भी है। आय प्राप्त करने की दृष्टि से वित्तमन्त्री कर लगाता है, यह वास्तविक विज्ञान के अध्ययन का विषय है। कर लगाते समय वित्तमन्त्री को यह ध्यान में रखना पड़ता है कि करारोपण से जनता को कम कष्ट हो और राज्य को अधिक-से-अधिक आय प्राप्त हो, यह आदर्श विज्ञान के अध्ययन का विषय है। जब राज्य प्राप्त आय को अधिकतम सामाजिक लाभ प्राप्त करने की दृष्टि से व्यय करना चाहता है तो यह कला के अध्ययन का विषय हो जाता है। बजट निर्माण स्वयं एक कला है। श्रीमती उर्सला हिक्स के अनुसार, “राजस्व एक कला है। एका सम्बन्ध वास्तविक समस्याओं से है।” (“Public finance is an art, it is concerned with actual problems.”) संक्षेप में राजस्व कला और विज्ञान दोनों है। राजस्व में आय जटाने तथा व्यय के सिद्धान्तों का अध्ययन विज्ञान का पक्ष धारण करता है। जब इन सिद्धान्तों तथा नीतियों को वित्तीय समस्याओं को हल करने में प्रयुक्त किया जाता है, तब वह कला का रूप धारण कर लेता है। प्रश्न – सन्तुलित बजट को समझाइए। Explain Balanced Budget. उत्तर – सन्तुलित बजट एक आदर्श व्यवस्था होती इस धारणा को प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने प्रस्तुत किया। इस व्यवस्था में बजट अवधि में सरकारी आय, प्राप्तियाँ और अनुमानित व्यय बराबर होते हैं। प्रश्न – राजस्व के क्षेत्र की संक्षिप्त विवेचना कीजिए। Discuss in brief the Scope of Public Finance. उत्तर – राजस्व का क्षेत्र (Scope of Public Finance) अध्ययन के दृष्टिकोण से राजस्व के क्षेत्र को निम्नलिखित पाँच शीर्षकों में विभक्त किया जा सकता है (1) सार्वजनिक व्यय (Public Expenditure)-सार्वजनिक व्यय राजस्व का महत्त्वपूर्ण अंग है। इसमें निम्नलिखित पहलुओं का अध्ययन किया जाता है (i) सार्वजनिक व्यय किन-किन मदों पर करना चाहिए, (ii) सार्वजनिक व्यय को करते समय किन-किन सिद्धान्तों का पालन करना चाहिए, (iii) सार्वजनिक व्यय का समाज के विभिन्न वर्गों पर क्या प्रभाव पड़ेगा, (iv) सार्वजनिक व्यय की विभिन्न समस्याएँ क्या हैं और उनका समाधान किस प्रकार किया जा सकता है। (2) सार्वजनिक आगम (Public Income)—सार्वजनिक आगम से आशय सरकार द्वारा प्राप्त उस धन से है जिसको वापस करने का उत्तरदायित्व नहीं होता। इसमें निम्नलिखित पहलुओं का अध्ययन किया जाता है (i) सार्वजनिक आय के विभिन्न स्रोत अथवा साधन कौन-कौन से हैं, (ii) करों का वर्गीकरण क्या है, (iii) करारोपण में न्याय की दृष्टि से किन-किन तथ्यों को ध्यान में रखना चाहिए, (iv) करदान क्षमता की स्थिति क्या है और इसे कौन-से घटक प्रभावित करते हैं। (3) सार्वजनिक ऋण (Public Debt)-वर्तमान समय में सार्वजनिक ऋण भी लोकवित्त का एक महत्त्वपूर्ण अंग बन गया है। इसमें निम्नलिखित पहलुओं का अध्ययन किया जाता है (i) सरकार को किन परिस्थितियों में अथवा किन कार्यों के लिए ऋण लेना चाहिए, (ii) ऋण कितने प्रकार के हो सकते हैं, (iii) ऋण एवं कर की तुलनात्मक स्थिति क्या है, (iv) ऋण प्राप्ति की रीतियाँ क्या हैं, ( ऋणों का भुगतान किस प्रकार किया जा सकता है। (4) वित्तीय प्रशासन (Financial Administration) – राजस्व को सार्वजनिक व्यय आय और ऋणों की व्यवस्था के लिए एक प्रशासन तन्त्र की आवश्यकता होती है जिसके द्वारा सरकार अपनी वित्तीय क्रियाओं पर नियन्त्रण करती है। इसमें बजट का निर्माण, क्रियान्वयन, व्यय व्यवस्था का संचालन, कर का एकत्रण, अंकेक्षण इत्यादि को सम्मिलित किया जाता है। (5) राजकोषीय नीति (Fiscal Policy)-राजकोषीय नीति की धारणा का प्रयोग राजस्व, मद्रा, बैंकिंग एवं व्यापार-चक्र के क्षेत्रों में संयुक्त रूप से होता रहा है, परन्तु इसका महत्त्वपूर्ण सम्बन्ध राजस्व से ही है। इसके अन्तर्गत रोजगार, आर्थिक स्थायित्व राखी उत्पादन वृद्धि इत्यादि सिद्धान्तों का विश्लेषण किया जाता है। प्रश्न – वितरण की असमानताओं को कम करने में लोक व्यय काम्या हो सकता है? What is the role of Public expenditure for removi disparities of Distribution ? उत्तर – यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि लोक व्यय की क्रियाओं के दाम के वितरण की असमानताओं को पर्याप्त सीमा तक दूर किया जा सकता है। लोक व्यय भी को के अनुरूप, तीन प्रकार का हो सकता है-आनुपातिक (Proportional), प्रतिगामी (Regressive) तथा प्रगतिशील (Progressive)। आनुपातिक लोक व्यय से लोगों को उनकी आय के अनुपात में ही लाभ मिलता है। प्रतिगामी व्यय से निर्धनों को कम तथा समृद्ध वर्ग को अत्यधिक लाभ प्राप्त होता है। प्रगतिशील लोक व्यय से कम आय वाले वर्गों को अधिक तथा अधिक आय वाले वर्गों को कम आर्थिक लाभ प्राप्त होते हैं। अत: आय की विषमताओं को कम करने की दृष्टि से प्रगतिशील लोक व्यय को ही सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। अधिकतम सामाजिक कल्याण की दृष्टि से भी यह सर्वश्रेष्ठ है। प्रो० जे० के० मेहता ने भी इसी मत की पुष्टि की है। उनके अनुसार, “लोक व्यय द्वारा धन के वितरण की विषमता को केवल तभी दूर किया जा सकता है, जबकि धनी वर्ग से करारोपण द्वारा राशि एकत्रित करके उसे निर्धन वर्ग के हितार्थ व्यय किया जाए।” प्रश्न – राज्य की आर्थिक नीति में राजस्व की क्या भूमिका है? What is the role of public finance in the State’s Economic Policy ? उत्तर – राजस्व की भूमिका (Role of Public Finance) अहस्तक्षेप की नीति के समर्थक होने के कारण प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने राजस्व का कोई विशेष महत्त्व नहीं दिया। वे राज्य के कार्यों को कम करने के पक्ष में थे, परन्तु बीसवी सदा के पूर्वार्द्ध में ही प्रतिष्ठित विचारधारा का प्रभाव क्षीण होने पर यह अनभव किया जाने लगा कि बिना सक्रिय राज्य के आवश्यक आर्थिक विकास नहीं किया जा सकता है। कल्याणकारी राज्य की स्थापना, नियोजन का प्रारम्भ, सामाजिक सुरक्षा इत्यादि उद्देश्यों को स्वीकार किए जान क फलस्वरूप राज्य के कार्य-क्षेत्र में वृद्धि होने लगी और इसके साथ-साथ राजस्व का महत्त्व भा बढ़ता चला गया। सन् 1930 की आर्थिक मन्दी तथा सन् 1936 में प्रकाशित प्रो० कीन्स का पुस्तक ‘जनरल थ्योरी’ ने राजस्व के महत्व में और अधिक वृद्धि की। वर्तमान समय में, विकासशील देश की दृष्टि से भारत जस्तके महत्त्व का अध्य निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता हैं। (1) रोजगार में वृद्धि (Increase in En करारोपण की उचित विधि द्वारा तथा सार्वजनिक ployment)-राजस्व के अन्तर्गत सरकार करारोपण की उचित विधि द्धारा तथा सार्वजनिक व्ययों की एक ऐसी योजना चलाती है जिससे अधिक व्यक्तियों को रोजगार की प्राप्ति हो। प्रो० कीन्स के अनसार, “देशों में पर्ण , रोजगार की स्थिति होनी चाहिए।” पूर्ण रोजगार की प्राप्ति के लिए जो उपाय सरकार द्वारा किए जाते हैं उनके लिए धन की आवश्यकता होती है। धन प्राप्त करने हेतु करारोपण, ऋण अथवा घाटे की वित्त व्यवस्था का सहारा लिया जाता है, जो राजस्व के अंग हैं। (2) देश के संसाधनों का अनुकूलतम प्रयोग (Best Use of Resources of the Country)-वर्तमान समय में यह स्वीकार किया जाता है कि आर्थिक संसाधनों का उत्पादन के विभिन्न क्षेत्रों में सर्वोत्तम प्रयोग, सरकार की उचित और प्रभावशाली मौद्रिक एवं राजस्व नीतियों से ही सम्भव है। सरकार अपनी बजट नीति के द्वारा उपभोग, उत्पादन तथा वितरण को वांछित दिशा में प्रवाहित कर सकती है।. (3) पूँजी निर्माण में सहायक (Helpful in Capital Formation)-विकासशील देशों में आर्थिक विकास के क्षेत्र में एक महत्त्वपूर्ण समस्या पूँजी निर्माण की धीमी गति का होना है। इन देशों में आय और बचत का स्तर नीचा होने के परिणामस्वरूप पूँजी निर्माण धीमी गति से ही हो पाता है। इस समस्या के समाधान के विभिन्न उपायों में से राजस्व उपायों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। (4) आर्थिक नियोजन में सहायक (Helpful in Economic Planning)आधुनिक युग आर्थिक नियोजन का युग है। प्रत्येक देश अपने तीव्र एवं सन्तुलित आर्थिक विकास हेतु नियोजन को अपना रहा है। आर्थिक नियोजन की सफलता काफी सीमा तक राजस्व की उचित व्यवस्था पर निर्भर करती है। करारोपण या लोक व्यय की छोटी से छोटी त्रुटि भी आर्थिक नियोजन के उद्देश्यों की प्राप्ति में एक महत्त्वपूर्ण बाधा सिद्ध हो सकती है। (5) मूल्य स्तर में स्थिरता (Stability in Price Level)-सन् 1929-30 की विश्वव्यापी मन्दी के अनुभव के बाद इस तथ्य को व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता है कि अर्थव्यवस्था में स्थायित्व हेतु राजकीय हस्तक्षेप, अर्थात् राजस्व नीति की विशिष्ट भूमिका होती है। करारोपण, लोक ऋण और लोक व्यय की नीतियों के मध्य उचित समायोजन करके मूल्य स्तर में स्थिरता अथवा आर्थिक स्थायित्व के उद्देश्य की प्राप्ति की जा सकती है। प्रश्न – मुद्रा प्रसार पर करों का क्या प्रभाव होता है? What are the effect of taxation on inflation? उत्तर – करारोपण तथा मुद्रा स्फीति (Taxation and Inflation)-मुद्रा स्फीति काल में कराधान का उद्देश्य लोगों के हाथों में क्रय-शक्ति को कम करना होता है। अत: नये कर लगाने तथा प्रचलित करों की दरों में वृद्धि करने से उपभोग पर रोक लगती है जिससे समर्थ माँग (Effective Demand) स्तर गिरता है और उससे कीमतों में स्थिरता लाने में मदद मिलती है। इसके अतिरिक्त कर क्रय-शक्ति को लोगों से सरकार की ओर स्थानान्तरित करते हैं जिसका यदि समुचित रूप से उत्पादन कार्यों के लिए उपयोग किया जाए तो आर्थिक क्रियाओं व रोजगार का स्तर ऊँचा उठता है और वस्तुओं तथा सेवाओं की पूर्ति में वांछित वृद्धि होने से बढ़ती हुई कीमतें रुकने लगती हैं। कुछ कर छूटे (Tax-exemptions) बचत तथा निवेश को पोत्साहित करके उत्पादन बढ़ाने में सहायक सिद्ध हो सकती हैं। प्रश्न – सार्वजनिक वित्त के कर आय के स्रोत बताइए। Discuss the Tax-Revenue Sources of Public Finand उत्तर – सार्वजनिक वित्त के कर आय के स्रोत निम्नलिखित हैं- (i) आय कर (कृषि आय को छोड़कर)। (ii) आयात व निर्यात-कर (सीमा-कर)। (iii) तम्बाकू तथा अन्य वस्तुओं पर उत्पादन-कर (शराब, अफीम तथा अन्य मादक औषधियों को छोड़कर)। (iv) प्रमण्डल-कर। (v) कृषि भूमि को छोड़कर व्यक्तियों तथा कम्पनियों की पूँजी व सम्पत्ति पर कर। (vi) कृषि भूमि को छोड़कर अन्य सम्पत्तियों पर सम्पदा और उत्तराधिकार कर। (vii) रेल, समुद्र और वायुमार्गों द्वारा लाए गए और ले जाए गए माल और यात्रियों पर चुंगी कर। (viii) बेचान साध्य प्रलेखों, बीमा-पत्र, अंश हस्तान्तरण, ऋण-पत्र आदि पर मुद्रांक-कर। (ix) समाचार-पत्रों के क्रय-विक्रय तथा उनमें छपे विज्ञापनों पर कर। (x) अन्तर्राज्यीय क्रय-विक्रय पर कर। (xi) शेयर बाजार एवं वायदा बाजार में किए गए सौदों पर मुद्रांक-कर को छोड़कर अन्य कर। प्रश्न – श्रीमती उर्सला हिक्स के अनुसार राजस्व में किन विधियों की जाँच की जाती है? Write the standards for testing the revenue as given by Smt. Ursala Hicks. उत्तर – श्रीमति उर्सला हिक्स के अनुसार, राजस्व में उन विधियों की जाँच और मूल्यांकन किया जाता है जिनके द्वारा सरकार जनता को अत्यधिक सन्तष्टि प्रदान करती है और उसके हितार्थ आवश्यक धन एकत्रित करती है। प्रश्न 9 – अधिकतम सामाजिक लाभ के सिद्धान्त के लाग होने में आने वाली व्यावहारिक कठिनाइयाँ बताइए। Explain the practical difficulties of the theory of Maximum Social Advantage. उत्तर – अधिकतम सामाजिक लाभ के सिद्धान्त के लागू होने में आने वाली व्यावसायिक कठिनाइयाँ निम्नलिखित हैं (1) सीमान्त त्याग और सीमान्त उपयोगिता को सही-सही मापना सम्भव कों से उत्पन्न सीमान्त त्याग तथा लोक व्यय से उत्पन्न सीमान्त उपयोगिता का सही-सही मापना सम्भव नहीं है। कारण स्पष्ट हैं – (i) त्याग तथा उपयोगिता दोनों ही सापेक्ष तथा मनोवैज्ञानिक तथ्य हैं, जिनकी माप के के लिए हमारे पास कोई उपकरण नहीं है, (ii) जब व्यवहार में व्यक्ति के लिए त्याग व सन्तुष्टि में साम्य स्थापित करना सम्भव नहीं है तो फिर यह राज्य के लिए कैसे सम्भव होगा। (2) कर प्रभाव सदैव हानिप्रद नहीं – यह कहना भी उचित नहीं है कि करारोपण का प्रभाव सदैव ही हानिकारक होता है। मादक पदार्थों पर लगा कर प्रायः आर्थिक कल्याण में वृद्धि करता है क्योंकि इस प्रकार के करारोपण से प्रायः उन पदार्थों का उपभोग सीमित हो जाता है। इसके अतिरिक्त कभी-कभी करारोपण के प्रभाव से अनावश्यक बचते विनियोग में परिवर्तित हो जाती हैं। (3) धन के वितरण पर प्रभाव का अनुमान लगाने में कठिनाई – राजस्व की वित्तीय क्रियाओं के फलस्वरूप धन के वितरण पर जो वांछनीय अथवा अवांछनीय प्रभाव पड़ता है, उसका भी अनुमान लगाना सम्भव नहीं होता। (4) राज्य के कार्यों पर अनेक तत्त्वों का प्रभाव – यदि हम यह स्वीकार कर लें कि राज्य अपने सीमान्त लाभ तथा सीमान्त त्याग का अनुमान लगा सकता है, तब भी यह कहना सम्भव नहीं है कि राज्य सीमान्त लाभ को सीमान्त त्याग से अवश्य ही सन्तुलित कर लेगा क्योंकि राज्य के क्रियाकलापों पर अनेक राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं, राजनीतिक विचारों तथा अगणित अनार्थिक तत्त्वों का प्रभाव पड़ा करता है। प्रश्न – आनुपातिक कर क्या है? What is Proportional tax ? उत्तर – आनुपातिक कर (Proportional Tax) आनुपातिक कर से आशय उन करों से है जो प्रत्येक प्रकार की आय पर समान दर से लगाए जाते हैं तथा कर की दरें सभी करदाताओं के लिए समान होती हैं। आनुपातिक कर में धनी और निर्धन वर्ग के बीच दर के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाता तथा दोनों वर्गों के लिए कर की दरें समान होती हैं। कम आय वाले करदाताओं तथा ऊँची आय वाले करदाताओं दोनों को ही समान दर से कर का भुगतान करना होता है। इसके अन्तर्गत आय के घटने-बढ़ने की स्थिति में भी कर की दरें समान रहती हैं जैसे किसी व्यक्ति की आय चाहे ₹ 10.000 हो या ₹ 20,000 अथवा ₹ 50,000, परन्तु कर की दर केवल 12% ही रहेगी। आनपातिक कर इस विचार पर आधारित होता है कि समाज में आय का वर्तमान वितरण उचित है और करारोपण द्वारा उसमें किसी भी प्रकार का कोई परिवर्तन नहीं किया जाना चाहिए। इस प्रकार आनपातिक कर वह होता है जो सभी करदाताओं से एक ही दर पर वसूल किया जाता है। प्रश्न – सार्वजनिक वस्तुओं एवं निजी वस्तुओं को परिभाषित कीजिए। Define Public goods and Private goods. उत्तर – सार्वजनिक वस्तु का अर्थ (Meaning of Public goods) सार्वजनिक वस्तुएँ वे सेवाएँ एवं वस्तुएँ हैं जिन्हें समाज (देश) के नागरिकों को समान रूप से उपलब्ध कराया जाता है। जैसे-शान्ति, न्याय एवं सुरक्षा, सार्वजनिक पार्क आदि। इन वस्तुओं अथवा . सेवाओं से सभी नागरिक समान रूप से लाभान्वित होते हैं। समाज के किसी सदस्य द्वारा इन वस्तुओं से लाभान्वित होने पर भी समाज के शेष सदस्यों के लिए इनकी उपलब्धि में कोई कमी नहीं होती। सैमुअल्सन (Samuelson) के अनुसार, “सार्वजनिक वस्तु एक ऐसी वस्तु है जिसका सभी लोग, सामूहिक रूप से मिलकर आनन्द प्राप्त करते हैं, जबकि किसी एक व्यक्ति के उपभोग में वृद्धि किसी अन्य व्यक्ति के उपभोग में कमी लाए बिना ही होती है।” निजी वस्तु का अर्थ (Meaning of Private goods)-एक निजी वस्तु वह है जिस पर अपवर्जन का सिद्धान्त (Theory of Exclusion) लागू होता है। इन वस्तुओं से सम्बन्धित आवश्यकताओं को कीमत प्रणाली के माध्यम से सन्तुष्ट किया जा सकता है। निजी वस्तु/सेवा की एक निश्चित कीमत होती है; वस्तु के उपभोग के लिए यह कीमत अदा करनी आवश्यक होती है। प्रोफेसर रिचर्ड एबेल मसग्रेव के अनुसार, “निजी वस्तुएँ वे वस्तुएँ होती हैं जो उपभोग में प्रतिद्वंद्वी होती हैं। यदि किसी विशेष वस्तु को A व्यक्ति ने उपभोग कर लिया है तो B व्यक्ति उसके उपभोग (लाभ) से वंचित हो जाता है।” प्रश्न – सार्वजनिक ऋणों के शोधन से क्या आशय है? What is meant by Redemption of Public Debt ? उत्तर – सार्वजनिक ऋणों का शोधन अथवा भुगतान (Redemption of Public Debts) सरकार जनता से जब भी ऋण लेती है तो ऋण से प्राप्त धन को सार्वजनिक कार्यों पर व्यय करती है। अत: इस प्रकार से प्राप्त सार्वजनिक ऋण को जनता पर व्यय करने के पश्चात् सरकार ऋण के शोधन के लिए योजनाएँ बनाती है ताकि निर्धारित तिथि पर ऋण का भगतान किया जा सके। यदि सरकार ऐसे ऋण का वास्तविक भुगतान कर देती है तो उसकी ख्याति केवल राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं अपितु अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी बढ़ जाती है परन्त यदि सरकार ऋण का भुगतान करने में देर लगाती है अथवा भुगतान करने से इनकार कर देती है तो इससे सरकार की साख गिर जाती है। अत: सार रूप में कहा जा सकता है कि “जिस प्रकार वैद्य रोगी को औषधि देने से पूर्व उसकी दशा देखता है, उसी प्रकार सरकार द्वारा ऋण का भुगतान करते समय अपनी वित्तीय व्यवस्था को देख आय व्यवस्था को देखना आवश्यक है।” सार्वजनिक ऋण का भुगतान करना सरकार का नैतिक दायित्व करना सरकार का नैतिक दायित्व है। समय पर ऋण का भगतान करने पर जन का सरकार में विश्वास बना रहता है। अनुभव से पता चलता है कि सरकार लोक-ऋणों स दायित्व-मुक्त होने के लिए ऋण के शोधन की धन का विभिन्न विधियों को अपनी सुविधानुसार अपनाती है। प्रश्न 14 – मूल्य वृद्धि कर के चार अवगुण बताइए। Write four demerits of VAT. उत्तर – VAT के दोष (Demerits of VAT) यद्यपि VAT के पक्ष में अधिक सशक्त तर्क दिए जाते हैं, तथा इसके कुछ दोष भी हैं जो निम्नलिखित हैं (1) बिक्री कर की तुलना में यह कर अधिक जटिल है। (2) इसके अन्तर्गत करदाताओं की संख्या तुलनात्मक रूप से बहुत अधिक होती है। (3) इस व्यवस्था में सही हिसाब-किताब रखने की अधिक आवश्यकता है। (4) यह निर्धारित करना कठिन है कि कर छूट का न्यूनतम स्तर क्या हो। प्रश्न – संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए-एकल कर व्यवस्था तथा बहुल कर व्यवस्था। Write a short note on : Single Tax System and Multiple Tax System. उत्तर – (1) एकल कर व्यवस्था या प्रणाली (Single Tax System)-यदि सरकार अपनी समस्त आय को केवल एक कर लगाकर प्राप्त करती है, अर्थात् वह विभिन्न करों के स्थान पर केवल एक ही कर लगाती है तो इसे, एकल कर प्रणाली कहा जाता है। एकल कर प्रणाली के गुण (Merits of Single Tax System)- (i) यह प्रणाली सरल होती है और केवल एक कर होने के कारण इसके भार को सरलता से मालूम किया जा सकता है। (ii) इस प्रणाली में निश्चितता का गुण पाया जाता है क्योंकि करदाता को यह मालूम रहता है कि उसे कर के रूप में कितनी राशि देनी है। एकल कर प्रणाली के दोष (Demerits of Single Tax System)-(1) राज्य के बढ़ते हुए व्यय केवल एक कर से प्राप्त नहीं हो सकते। (ii) यह प्रणाली लोचहीन है। (2) बहुल कर व्यवस्था या प्रणाली (Multiple Tax System)-यदि सरकार अपनी आय को प्राप्त करने के लिए अनेक प्रकार के कर लगाती है तो उसे बहल कर प्रणाला कहते हैं। बहुल कर प्रणाली के गुण (Merits of Multiple Tax System)-(i).इस प्रणाली में पर्याप्त मात्रा में धन इकट्ठा हो सकता है। (ii) इस प्रणाली से करवंचन को रोका जा सकता है। (iii) इस प्रणाली में करारोपण के अन्य उद्देश्यों के उद्दश्यो की प्राप्ति भी की जा सकती है; जैसेमादक पदार्थों की बिक्री पर रोक, आय के वितरण की विषमताओं को कम करना आदि। (iv) विभिन्न करों से कर भार के वितरण को ठीक किया जा सकता है। बहुल कर प्रणाली के दोष (Demerits of Multiple Tax System)-(i) अनेक करों के लगाने से व्यक्तियों की बचत करने की इच्छा तथा योग्यता पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है जिसका उत्पादन पर भी बुरा प्रभाव पड़ेगा। (ii) व्यक्तियों के रहन-सहन के स्तर पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। (iii) अधिक कर जनता के लिए भी असुविधाजनक होते हैं। (iv) बहुल कर प्रणाली में मितव्ययिता का गुण नहीं पाया जाता। संक्षेप में, कर प्रणाली में न तो एक कर होना चाहिए और न ही करों की बहुलता। डाल्टन के शब्दों में, “यद्यपि बहुल कर प्रणाली एकल कर प्रणाली से सामान्यतया अच्छी होती है तो भी अत्यधिक बहुलता वांछनीय नहीं है।’
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